रजा पुस्तकमाला हिंदी में एक जरूरी हस्तक्षेप की तरह लगता है. कुछ बेस्ट किताबों को प्रकाशित करवाने की दिशा में एक आवश्यक पहल. आज मैं ध्यान दिलाना चाहता हूँ मिर्ज़ा ग़ालिब की बनारस केन्द्रित कविताओं की किताब ‘चिराग-ए-दैर’ की तरफ. मेरे जैसे पाठकों को भी यह तो पता था कि ग़ालिब बनारस गए थे लेकिन उन्होंने फ़ारसी में बनारस पर कविताएँ भी लिखीं थी. यह रज़ा पुस्तकमाला श्रृंखला के तहत राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस किताब से ही पता चला. अनुवाद किया है उर्दू के विद्वान लेखक सादिक साहब ने. उसी किताब से बानगी के लिए कुछ कविताएँ. किताब की भूमिका से पता चला कि बनारस पर किसी विदेशी भाषा में लिखी पहली-पहली कविताएँ हैं- मॉडरेटर
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जहानाबाद गर नबुबद अलम नीस्त
जहानाबाद बादा जाय कम नीस्त
हिंदी अनुवाद-
यदि देहली नहीं
तो न सही
कुछ गम नहीं
यहाँ सारा जहां
आबाद है
मेरे लिए
इसमें
जगह की
क्या कमी है?
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नबाशद कहत बहर-ए-आशयाने
सर-ए-शाख-ए-गुले दर गुलसिताने
हिंदी अनुवाद
वतन से दूर
इस गुलशन में भी
मेरे लिए फूलों की शाखों की
कहीं कोई कमी है?
जहाँ चाहूँ
बना लूँगा
मैं अपना आशियाना
मुझे भी
मिल ही जाएगा
कोई अच्छा ठिकाना.
bahut achhchi kavita hai sir aaj log sahitya se dur hote ja rahe hai usme aap asha ki ek kiran hai.
http://www.hinditechtalk.com/bachpan-ko-hasne-de/