कल कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे सुबह भाजपा की असाधारण जीत की तरह लग रहे थे लेकिन दोपहर होते होते वह बहुमत से दूर हो चुकी थी. कर्नाटक चुनाव के इन्हीं नतीजों का आज बहुत अच्छा विश्लेषण ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में मनीषा प्रियम ने किया है. आपके पढने के लिए साभार- मॉडरेटर
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जिसका कयास था, कर्नाटक में ठीक वही हुआ। किसी पार्टी को जनता ने स्पष्ट बहुमत नहीं दिया। भाजपा जरूर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है, पर वह भी सत्ता से इतनी दूर है कि उसे किसी दूसरे दल का सहारा लेना होगा। वह दल स्वाभाविक तौर पर जनता दल-सेकुलर (जद-एस) ही होगा। ठीक यही स्थिति कांग्रेस के लिए भी है। हालांकि विधानसभा में सीटों की तस्वीर साफ होते ही कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने जद-एस को अपना समर्थन देने की घोषणा कर दी है। एच डी देवगौड़ा की पार्टी इन दोनों दलों से कम सीटें जीतने के बाद भी सबसे महत्वपूर्ण हैसियत में है।
कर्नाटक का चुनावी नतीजा यह बता रहा है कि अब भाजपा दक्षिण के राज्यों में भी मजबूत दावेदारी वाली पार्टी बन गई है, जबकि मतदान की पूर्व संध्या तक सब यही मान रहे थे कि निवर्तमान मुख्यमंत्री सिद्धरमैया एक गरीबोन्मुख सरकार चला रहे हैं। उनकी सरकार ने अन्न भाग्य और क्षीर भाग्य योजनाएं शुरू की थीं, जो गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर कर रहे लोगों व किसानों के लिए हैं। सस्ती दरों पर खाना परोसने वाली ‘इंदिरा कैंटीन’ भी इसी दौर में खोली गई। इसके अलावा, सिद्धरमैया कन्नड़ क्षेत्रीय भावना को भी हवा देते दिखे। मसलन, बेंगलुरु में जब केंद्र की मदद से मेट्रो रेल की शुरुआत हुई, तो उनकी सरकार ने स्टेशनों पर हिंदी में साइनबोर्ड लिखे होने पर खुलकर आपत्ति जताई। कावेरी जल बंटवारे से जुड़ी कोई टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट से आती, तो उसका विरोध करने में सिद्धरमैया आगे रहते। कर्नाटक बंद तक का आह्वान तक किया जाता। बेंगलुरु के शहरी इलाकों में ‘गलाता’ यानी दंगा-फसाद होने की आशंका शुरू हो जाती।
सिद्धरमैया की तारीफ इसलिए भी की जा रही थी कि उनका एक सामाजिक आधार था। इसे ‘अहिंदा’ कहा जाता है, जिसमें अल्पसंख्यक, मुसलमान, दलित और अति पिछड़ी जाति के समुदाय थे। यह माना गया कि मुख्यमंत्री ने ऐसे-ऐसे सामाजिक तबकों को प्रोत्साहित किया है, जो अब तक विकास व राजनीतिक हिस्सेदारी से दूर रहे हैं। चुनाव करीब आने के साथ ही कांग्रेस सरकार ने आंबेडकर के नाम पर बड़े-बड़े जलसे किए और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की तरह, जिसमें कभी आंबेडकर ने पढ़ाई की थी, बेंगलुरु स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स खोलने का एलान कर डाला। नतीजतन, चुनाव में गैर-भाजपाई राजनीति की पूरी जिम्मेदारी सिद्धरमैया के कंधों पर डाल दी गई। लेकिन चुनाव के नतीजे चौंकाने वाले रहे हैं।
यह सही है कि मत प्रतिशत के लिहाज से कांग्रेस और भाजपा में विशेष अंतर नहीं है। कांग्रेस ने भाजपा से ज्यादा मत हासिल किए हैं। मगर सीटों के मामले में बाजी भाजपा के हाथों में है। कर्नाटक के छह हिस्सों (तटीय कर्नाटक, हैदराबाद कर्नाटक, मुंबई कर्नाटक, मध्य कर्नाटक, बेंगलुरु शहरी क्षेत्र और पुराना मैसूर) में से पांच में भाजपा आगे दिखी, जबकि पुराने मैसूर के इलाकों में जद-एस ने कांग्रेस की तुलना में ज्यादा सीटें जीतीं।
आखिर तमाम समीकरणों को साधती दिख रही कांग्रेस सीटों के गणित में कैसे पिछड़ गई? इसकी बड़ी वजह पार्टी का अपनी सियासी जमीन खुद खोदना है। अब पुराने मैसूर इलाके का ही उदाहरण लें। यहां सबसे ज्यादा 61 सीटें हैं। यह इलाका वोक्कालिगा समुदाय के दबदबे वाला है और खेती-किसानी के लिए जाना जाता है। कांग्रेस के दिग्गज वोक्कालिगा नेता यहीं से आते हैं, जिनमें प्रमुख हैं, डीके शिवकुमार और एसएम कृष्णा। सिद्धरमैया ने अपने कार्यकाल के दौरान इन दोनों वोक्कालिगा नेताओं को दरकिनार किया। जाहिर तौर पर, इससे यहां कांग्रेस की दावेदारी कमजोर हुई। यह उम्मीद की गई थी कि सिद्धरमैया की जाति कुरुबा प्रभावशाली भूमिका में सामने आएगी और उसका वोट कांग्रेस को मिलेगा। मगर यह भी नहीं हुआ।
अपने सामाजिक समीकरण के लिए सिद्धरमैया ने एक और दांव खेला। उन्होंने दूसरे प्रमुख समाज लिंगायत को लेकर हिंदू समाज में दरार डालने की कोशिश की। उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा दे दिया। लेकिन यह दांव भी लिंगायत को कांग्रेस के साथ नहीं जोड़ पाई। चुनावी नतीजे बता रहे हैं कि लिंगायत अब भी भाजपा के साथ है। कुल मिलाकर हुआ यह कि कांग्रेस वोक्कालिगा में अपनी पैठ तो गंवा ही बैठी, कुरुबा और लिंगायत को भी अपने पाले में नहीं कर सकी। यानी जो धन था, वह तो गया ही, नया धन कुछ हाथ नहीं आया।
कांग्रेस की हार के कुछ स्थानीय कारण भी दिख रहे हैं। कहीं विधायक के खिलाफ लोगों में नाराजगी रही, तो कहीं अफसरशाही के रवैये से लोग परेशान थे। जनहितकारी कामों से तारतम्य न बिठा पाना भी हार की एक वजह है। अपनी तरफ से भाजपा ने बस यही किया है कि अलग-अलग क्षेत्रों में सिद्धरमैया के विरोध के अलग-अलग कारणों को अपने पक्ष में भुनाया। किसी को यह नहीं लग रहा था कि पूरे राज्य में भाजपा के पक्ष में लहर चल रही है। मगर नतीजों से साफ है कि कांग्रेस से लोगों की नाराजगी का फायदा भाजपा ने उठाया है। यही वजह है कि दागी छवि होने के बाद भी भाजपा ने येदियुरप्पा और रेड्डी बंधुओं का साथ नहीं छोड़ा। पार्टी ने उन सबमें टिकट बांटे, जिसमें जीत की गुंजाइश उसे दिखी। अगर उम्मीदवार जीत सकता है, तो वह दागी हो या भ्रष्ट, भाजपा ने उसे टिकट देने से परहेज नहीं किया।
भाजपा अगर कर्नाटक में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, तो इसका बड़ा श्रेय पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को जाता है। पिछले एक-डेढ़ महीने में उन्होंने पूरे कर्नाटक को नाप दिया। उन्होंने 50 हजार किलोमीटर की अधिक यात्राएं कीं और 30 से अधिक रैलियां। केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावडे़कर, के एन मुरलीधर राव और राम माधव भी राज्य में लगातार बने रहे। प्रधानमंत्री ने भी 21 रैलियां कीं। वोटिंग के दिन नेपाल से मंदिरों में पूजा करती उनकी छवि मतदाताओं के पास पहुंचती रही। बताया जाता है कि नमो एप द्वारा वह स्वयं जमीनी कार्यकर्ताओं से जुड़े रहे। यानी ‘लास्ट माइल’ व ‘लास्ट मिनट’ में भी भाजपा मतदाताओं के संपर्क में रही। अपने चुनाव घोषणापत्र में पार्टी ने उन तमाम मुद्दों का जिक्र किया, जिससे कांग्रेस के खिलाफ ‘काउंटर पोलराइजेशन’ (कांग्रेस विरोध मतों का ध्रुवीकरण) संभव हो सके। साफ है, एक सधी रणनीति ने भाजपा की यह जीत सुनिश्चित की है।
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