सेवा में
भारतीय विश्वविद्यालयों के शिक्षक-शिक्षिका
अभिवादन
यह खुला पत्र मैं आप सब को इसलिए लिख रहा हूँ कि दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ द्वारा आयोजित भूख हड़ताल( तसवीर नीचे।) की ख़बर को जानकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एक हमारे वरिष्ठ शिक्षक ने यह इच्छा जाहिर की है कि काश ! शिक्षा के प्रति सचेत ऐसा शिक्षक संगठन हर विश्वविद्यालय में होता। उन की इसी इच्छा ने मुझे आप सब लोगों से कुछ गुज़ारिश करने को प्रेरित किया।
क्या आप को लगता है कि भारत में आज उच्च शिक्षा सर्वाधिक संकटग्रस्त है ? सरकारी सहायता प्राप्त विश्वविद्यालयों को लगातार पीछे धकेला जा रहा है। ऐसी-ऐसी नीतियाँ बनाई जा रही हैं कि शिक्षक केवल नौकर में तब्दील हो जाए। हेफा ( हायर एजुकेशन फंडिग एजेंसी) एक तरह से सरकारी विश्वविद्यालयों को नष्ट करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाने वाली है। ऐसा इसलिए कि आप जानते ही हैं कि हेफा के तहत यह प्रावधान किया गया है कि जो भी पैसा विश्वविद्यालयों को मिलेगा वह बतौर कर्ज मिलेगा। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक है कि विश्वविद्यालय और शिक्षकों का सारा ध्यान पैसे की उगाही पर होगा। ऐसी हालत में विश्वविद्यालयों की फीस में जबरदस्त इजाफा होगा। ठीक इसी तरह हमारे काम को घंटे में मापा जाता रहा है और 2018 ई. के प्रस्तावित विनियम (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की वेबसाइट पर उपलब्ध) के अनुसार रोज कम-से-कम सात घंटे विश्वविद्यालय या काॅलेज में रहना अनिवार्य होगा। उपस्थिति की पकड़ बनाए रखने के दिए सभी जगह बायोमैट्रिक लगाया जा रहा है। पहले यह समय पाँच घंटे का था और अभी भी है। पर इस में भी यह जोड़ दिया गया था कि शिक्षक का कार्यभार इस प्रकार हो कि सप्ताह में चालीस घंटे से कम न हो। अब यहाँ इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि ये चालीस घंटे विश्वविद्यालय या काॅलेज परिसर में ही बिताने हैं या बाहर भी यानी घर पर भी पढ़ाई-लिखाई में बिताए जा सकते हैं। सुनने में तो यह भी आ रहा कि सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों के शिक्षक-शिक्षिकाओं का स्थानान्तरण भी हो सकता है। सरकार एक ‘सेंट्रल यूनिवर्सिटी काॅमन बिल’ लाने की तैयारी में है। यह मामला पिछली सरकार के समय से चल रहा है।
ऐसी ही अनेक समस्याएँ हैं जिन से हम सभी रोज जूझते रहते हैं। कहीं समय पर वेतन न मिलने की समस्या है, कहीं उचित वेतनमान न मिलने की। कहीं स्थायी नियुक्ति के न होने की समस्या है तो कहीं विद्यार्थियों की कमी की। कहीं विद्यार्थियों की संख्या में अति है तो कहीं गुणवत्ता के न होने की लाचारी।
समाज का बहुत बड़ा हिस्सा यह मानने लगा है कि ” प्रोफेसर कुछ करता नहीं केवल मोटी तनख्वाह पाता है।”
पर क्या इन परिस्थितियों को लाने में हमारी कोई भूमिका नहीं है ? क्या हम सब अपना काम ईमानदारी से करते हैं ? क्या हम सब यह लगातार सोचते हैं कि हमारा काम क्या है ? जब हम सैद्धांतिक रूप से यह कहते हैं कि शिक्षक का पेशा अन्य पेशों से अलग है। तब क्या हम ईमानदारी से इस ‘विशिष्टता’ को बना और बचा कर रखते हैं ? क्या आसानी, लोलुपता और गैरजिम्मेदारी से हम बचे हुए हैं ? क्या मौका मिलने पर हम योग्यता का सम्मान करते हुए नामांकन से ले कर नियुक्तियों तक में ईमानदारी बरतते हैं ? आप लोग यह न समझिएगा कि मैं ये सारे सवाल आरोप की शक्ल में पूछ रहा हूँ। ये सवाल मुझे बहुत ज्यादा परेशान करते हैं। इसलिए मैं आप से कह रहा हूँ। आप तो जानते ही हैं कि किसी की तरफ अगर कोई तर्जनी अँगुली दिखा सवाल पूछता है तो बाकी तीन अँगुलियाँ उसी की ओर इशारा करते रहती हैं। जैसा मैंने कहा और विश्वास कीजिए मेरा, ऊपर के सवाल मुझे बहुत बेचैन किए रहते हैं। आप लोग कुछ कहेंगे तो मुझे कुछ सीखने को मिलेगा।
ऐसा क्या है जो हमें बोलने से रोकता है ? नौकरी चले जाने का डर ? बदनाम होने का डर ? परेशान किए जाने का डर ? या फिर सुविधाओं की चाशनी में हम ने इतना खुद को डुबो लिया है कि स्वतंत्र विचारों के पंख केवल फड़फड़ाते रह जाते हैं ? हम क्यों सत्ता और विश्वविद्यालय प्रशासन की खुशामद करते हैं ? हम जानते रहते हैं कि यह नीति, नियम या निर्णय न तो शिक्षा के हित में है, न हमारे और न ही हमारे पेशे की गरिमा के हित में ? फिर भी हम चुप क्यों रहते हैं ? आज हम में से ज्यादातर लोग चुप रहते हैं। यह चुप्पी क्यों है ? क्या इतिहास हमें इस चुप्पी के लिए कभी माफ करेगा ? ऐसा क्यों है कि हमारे वास्तविक मुद्दों पर संघर्षरत एक विश्वविद्यालय या एक शिक्षक संगठन को दूसरे विश्वविद्यालय या शिक्षक संगठन से समर्थन नहीं मिलता ? हम इतने बँटे हुए क्यों हैं ? क्यों अगर वास्तविक मुद्दों पर कोई विश्वविद्यालय या शिक्षक संघ विरोध प्रदर्शन आयोजित करता है तो हम अपने विश्वविद्यालय में काम करते हुए या रहते हुए उस का समर्थन नहीं कर पाते ?
आप सब से विनम्र अनुरोध है कि यहाँ आप लोग खुलकर बोलें। आप को मेरी बातों से असहमति हो या सहमति पर बोलें जरूर। आप के बोलने से मुझे बहुत हिम्मत मिलेगी और शायद आप को भी अच्छा लगे।
उम्मीद है मेरे इस पत्र को आप अन्यथा नहीं लेंगे।
आप सब का
कनिष्ठ सहयोगी
योगेश प्रताप शेखर
असहमति हो या सहमति पर बोलें जरूर!
योगेश प्रताप शेखर बिहार के केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया में प्राध्यापक हैं. शिक्षा को लेकर बहुत अच्छे फेसबुक पोस्ट लिखते हैं. कई बार मैं उनसे असहमत होता हूँ लेकिन पढता नियमित हूँ. बहुत स्पष्ट सोच के साथ, गहरी बौद्धिकता के साथ हर विषय पर लिखते हैं. यह पत्र उन्होंने केन्द्रीय विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले समस्त अध्यापक-अध्यापिकाओं के नाम लिखा है- मॉडरेटर
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