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मिथिला से रवीन्द्रनाथ टैगोर के आत्मीय रिश्ते थे

आज रवीन्द्रनाथ टैगोर की जयंती थी. उनके जीवन-लेखन से जुड़े अनेक पहलुओं की चर्चा होती है, उनपर शोध होते रहे हैं. एक अछूते पहलू को लेकर जाने माने गीतकार डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र ने यह लेख लिखा है. बिहार के मिथिला प्रान्त से उनके कैसे रिश्ते थे? एक रोचक और शोधपूर्ण लेख- जानकी पुल.

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विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर सामान्यतः महात्मा गांधी के प्रति अत्यंत समादर भाव रखते थे, मगर जब १९३४ में मिथिलांचल में ऐतिहासिक भूकम्प आया और गांधी ने अपने पत्र ‘हरिजन’ में इसके लिए मिथिला के छुआछूत यानी सामाजिक आचार- व्यवहार को दोषी करार दिया, तब रवीन्द्रनाथ ने गांधी के इस अनर्गल प्रलाप का कड़ा प्रतिवाद किया था। उन्होने मैथिल समाज  की वर्ण-व्यवस्था, कर्मकांड,नैष्ठिक आचरण, देवोपासना और गृहस्थाश्रम में आध्यात्मिक व्यवहार के समावेश की तर्कपूर्ण व्याख्या की थी और आर्थिक दृष्टि से विपन्न मिथिलांचल की भौतिक दशा सुधारने के कई उपाय बताये थे, जिन पर आज तक कार्रवाई होना बाकी है। मिथिला और बंगाल भौगोलिक दृष्टि से एक सिवान के साझेदार तो हैं ही, खान-पान, वेश-भूषा, रहन-सहन, भाषा-लिपि और साहित्य-संस्कृति में भी सहोदर भाई जैसा सरोकार रखते हैं। यहाँ तक कि मिथिलांचल के प्रमुख जनपद दरभंगा की उत्पत्ति भी संस्कृत शब्द ‘द्वारबंग’ यानी ‘बंगाल का प्रवेशद्वार’ मानी जाती है। बंगाल के मनीषी भी धर्म-विषयक प्रश्नों पर मिथिला के आचार-व्यवहार को ही प्रमाण मानते रहे हैं– धर्मस्य तत्वं विज्ञेयात्‌ मिथिला व्यवहारतः। इसलिए मिथिला के सामाजिक आचरण की निंदा कवीन्द्र रवीन्द्र को असह्य लगी।

मगध साम्राज्य में राजधर्म का उच्च आसन पाकर पगलाये बौद्धों के बौद्धिक अत्याचार को रोकने के लिए मिथिला के विद्वानों ने जिस तर्क-प्रधान न्याय दर्शन की पौध लगायी, उसका विस्तार बंगाल के नवद्वीप में ही हुआ। मिथिला और बंगाल के मनीषियों ने उस समय आगे बढ़कर बौद्धों के कुतर्कों को न काटा होता,तो आज सनातन धर्म का कोई नामलेवा न रहता। बंगाल के  प्रतिभाशाली छात्र न जाने कब से संस्कृत विद्या का अध्ययन करने मिथिला आते थे। छात्रों के विद्या-अर्जन को शास्त्रार्थ के माध्यम से मापने के लिए दरभंगा नगर के पास सौराठ स्थान पर वैशाख मास में विशाल सभा लगती थी, जिसमें मिथिला और बंगाल के हजारों गुरु-शिष्य एकत्र होते थे। उनके बीच कई दिनों तक विभिन्न विषयों पर शास्त्रार्थ होता था और महत्वपूर्ण निर्णय किये जाते थे। भारतीय वाड.मय में मनीषियों की ऐसी ही सभा में धर्म और दर्शन सम्बन्धी निर्णय किये जाते थे, जिनके संकलन को ‘संहिता’ नाम दिया गया। सौराठ की यह विद्वत्सभा एक विशाल बरगद पेड़ के नीचे लगती थी। मान्यता है कि जिस दिन सौराठ सभा में विद्वानों की संख्या एक लाख से ज्यादा हो जाती थी, उस दिन वह बूढ़ा पेड़ मुरझा जाता था। इस सौराठ का सम्बंध गुजरात के सौराष्ट्र से भी है। मिथिलांचल के नगर दरभंगा, भागलपुर, मुजफ़्फ़रपुर, मुंगेर, सहरसा, पूर्णिया से बंगाली समाज का इतना तादात्म्य था कि इन्हे वे अपना ही नगर मानते थे। बंगालियों का प्रिय स्थान देवघर यद्यपि मिथिला की सीमा-रेखा से बाहर है, मगर सांस्कृतिक दृष्टि से वह विशुद्ध मिथिला है।

डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र

मिथिला-नरेश के राज-पंडित विद्यापति ठाकुर ने बंगाल के महाकवि जयदेव की अमर रचना ‘गीतगोविन्द’ के पदों के शब्द-लालित्य और छन्द-योजना का अनुसरण करते हुए पहली बार लोकभाषा (देसिल बयना) में पदों की रचना की,जिसकी भाषा पुरानी मैथिली थी। आधुनिक काल में विकसित पूर्वी भारत की लोकभाषा बंगला, उड़िया,असमिया और नेपाली का प्रस्थान-बिन्दु यही प्राचीन मैथिली है, जिसे ब्रजबोली के नाम से भी जाना जाता है। आज की इन सभी सुविकसित भाषाओं के आदिकवि के रूप में महाकवि विद्यापति ही प्रतिष्ठित रहे हैं, जिन्हे परवर्ती काल में लोग ‘अभिनव जयदेव’ नाम से भी पुकारने लगे थे। सम्पूर्ण पूर्वोत्तर भारत में वैष्णव भक्तों ने सर्वसाधारण के बीच भगवान श्रीकृष्ण की सरस लीलाओं को विद्यापति के सुमधुर पदों के माध्यम से ही पहली बार प्रचारित किया। रवीन्द्रनाथ भी बचपन में जिन पदों को सुनकर या गाकर अभिभूत हुए थे, वे विद्यापति के पद ही थे।वैसे तो रवीन्द्रनाथ के कोई विधिवत्‌ गुरु नहीं थे,लेकिन यदि पराशक्ति के रूप में वे किसी गुरु को मानते थे,तो वे विद्यापति ही थे। उन्होने  परमहंस योगानंद के साथ साक्षात्कार में यह स्वीकार किया कि बाल्यावस्था से मैं जिस कवि से अत्यन्त प्रभावित रहा,वे विद्यापति थे। उनके प्रारम्भिक गीत ‘विद्यापति पदावली’ के तर्ज पर ‘भानुसिंहेर पदावली’ नाम से प्रकाशित हुए थे। इसकी भाषा और विद्यापति की भाषा में इतना साम्य है कि देवघर के आसपास के तमाम लोग रवीन्द्र नाथ के अनेक पदों को भी विद्यापति का पद मानकर ही गाते थे। इस प्रकार बंगाल के जयदेव से जिस गीत-परम्परा को मिथिला के विद्यापति ने ग्रहण किया और उसे राजपथ से उतारकर लोकपथ दिया, उसे विस्तृत विश्वपथ देने के लिए विद्यापति ने बंगाल के ही अपने योग्यतम उत्तराधिकारी रवीन्द्रनाथ ठाकुर को सौंप दिया।

विद्यापति के राधा-कृष्ण विषयक  पदों को सुनकर जैसे चैतन्य महाप्रभु भाव-विह्वल हो जाते थे,कुछ उसी तरह रवीन्द्रनाथ भी परवर्ती काल में भाव-विह्वल  हो जाया करते थे। शान्तिनिकेतन में गुरुदेव कभी-कभी हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान हजारी प्रसाद द्विवेदी को पास बैठाकर उनसे विद्यापति के पद गाने का आग्रह करते थे। और जब वे ‘सखि हे हमर दुखक नहि ओर’ गाते थे,तो उनके साथ तन्मय होकर गुरुदेव भी गाने लगते थे।

इसके इतर भी रवीन्द्रनाथ के मिथिला से आत्मीय सम्बंध थे। सभी जानते हैं कि उनका परिवार ब्राह्म समाज का अनुगामी हो गया था,जिसके कारण बंगाल का सनातनी समाज इस जमींदार घराने को हेय दृष्टि से देखता था।उन दिनों ब्राह्म समाजी लोग नाटकों में हास-परिहास के प्रिय विषय होते थे। ब्राह्म परिवार और सनातन परिवार के बीच विवाह निषिद्ध हो गया था।दरभंगा-मुजफ़्फ़रपुर-भागलपुर-देवघर उन दिनो बंगाली बुद्धिजीवियों का गढ़ था। १७ जुलाई,१९०१ को मुजफ़्फ़रपुर की ‘बंगला साहित्य गोष्ठी’ द्वारा रवीन्द्रनाथ के सम्मान में एक साहित्यिक समारोह हुआ था,जिसमें हस्तलिखित अभिनंदनपत्र भेंट कर उन्हें सम्मानित किया गया था। यह उनके जीवन का पहला सर्वजनिक सम्मान था। इसी मुजफ़्फ़रपुर के छोटी कल्याणी मुहल्ले के निवासी बैरिस्टर शरत कुमार चक्रवर्ती के साथ, सन्‌ १९०१ में रवीन्द्रनाथ ने अपनी प्राण से भी प्यारी ज्येष्ठा पुत्री माधुरीलता का विवाह किया था। वह इंट्रेंस पास थी। तब तक मिथिलांचल का कोई पिता अपनी बेटी को इंट्रेंस तक शिक्षा नहीं दिला पाया था।रवीन्द्रनाथ ने मिथिला को इंट्रेंस पास बहू देकर उसे स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में अग्रसर होने के लिए प्रेरित किया था। पुत्री माधुरीलता से मिलने रवीन्द्रनाथ कई बार मुजफ़्फ़रपुर आये थे। स्वाभाविक है कि उनके आने पर इस नगर में साहित्यिक क्रिया-कलाप तेज हो जाया करता था।यहाँ वे अपने मित्रों और सम्बंधियों के साथ आसपास के इलाकों में बग्घी से घूमने भी जाया करते थे। मुजफ़्फ़रपुर के सरैया,अखाड़ाघाट,आदि स्थानों पर वे अक्सर जाया करते थे, इसकी स्मृति तो स्थानीय लोगों को है,मगर यहाँ आकर वे वैशाली नहीं गये हों या दरभंगा-मधुबनी जाकर मैथिल संस्कृति का रसपान न किया हो,ऐसा हो नहीं सकता।

ब्राह्म समाजी होते हुए ठाकुर परिवार का मैथिल कर्मकाण्ड में नैसर्गिक आस्था थी।रवीन्द्रनाथ के पिता देवेन्द्रनाथ और माता शारदा देवी नैष्ठिक ब्राह्मण थे। पूजा के फूल-पत्र तोड़ने के लिए उन्होने जो सेवक नियुक्त किया था,वह मैथिल ब्राह्मण ही था। इसी प्रकार,रवि बाबू का बॉडीगार्ड भी धोती-कुर्ताधारी छहफुट्टा मैथिल ब्राह्मण ही था।शांति निकेतन में कभी-कभी मनो-विनोद के लिए रविबाबू उसे जमीन पर बैठाकर भर पेट रसगुल्ला खिलाया करते थे।वह जितना चौका-छक्का मारता था,रविबाबू उतने ही गदगद होते।उन्होने उसका नाम ‘रोसोगुल्ला पंडित’ रख दिया था। उनके निधन के बाद उसे विश्वभारती विश्वविद्यालय में चतुर्थ श्रेणी कार्मिक के रूप में नियुक्त कर लिया गया था।

जब ‘जन-गण-मन’ विवाद उठा, तो इसी दरभंगा के सी.एम. कॉलेज के अंग्रेजी विभाग के प्रवक्ता प्रो. पाल ने सप्रमाण यह सिद्ध किया था कि १९११ में जार्ज पंचम के आगमन से पहले ही यह गीत ब्राह्म समाज मंदिर के स्थापना दिवस पर गाया गया था।बाद में २८ दिसम्बर,१९११ को सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की पत्रिका ‘द बंगाली’ में यह प्रकाशित हुआ था। दरभंगा के पीताम्बर बनर्जी आदि से रवि बाबू का निकट सम्पर्क था। यह अलग बात है कि स्वराज्य आन्दोलन मे रवि बाबू की प्रशांत भूमिका को नजरअंदाज करते हुए तन्त्र-प्रधान मिथिला के बुद्धिजीवियों ने विप्लवी नेताजी सुभाष चन्द्र के वाममार्ग को भारी समर्थन दिया। इसी प्रकार रवीन्द्रनाथ के प्रभाव से ब्राह्मसमाज को अपनाने वाले भी बहुत कम हुए। मुजफ़्फ़रपुर के एक शिव प्रताप शाही को ब्राह्म समाजी बनने पर समाज से बहिष्कृत कर दिया गया था।

भागलपुर में गंगा के किनारे बनैली राज द्वारा निर्मित टिलहा कोठी में भी रवीन्द्रनाथ ने प्रारम्भिक जीवन का कुछ अंश बिताया था। कहा जाता है कि ‘गीतांजलि’ के कई गीत उन्होने इसी टिलहा कोठी में रहकर लिखे थे।मुंगेर किले में रवीन्द्रनाथ कभी आकर रहे थे,इसका साक्ष्य इस किले में स्थित ‘रवीन्द्र सदन’ है। मुंगेर में ही १९०७ में उनके पुत्र शमीन्द्रनाथ का असामयिक निधन हो गया था,जिसका पार्थिव शरीर वहीं गंगा के तट पर अग्नि को समर्पित किया गया था।

रवीन्द्रनाथ भले ही मानवतावाद के प्रबल पक्षधर हों,मगर उनका भावप्रवण साहित्यकार अपनी जमीन से गहरा जुड़ा हुआ था। उनकी राष्ट्रियता भारतीय ऋषि-मुनियों की उदार राष्ट्रियता थी।इसीलिए उन्होने विश्वभारती का आदर्शवाक्य ‘यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्‌’ रखा था।अपनी धरती, अपने समाज, अपनी मातृभाषा और अपनी सांस्कृतिक विरासत को वे सर्वोपरि स्थान देते थे। यही जीवन-दर्शन उन्होने अपने समय के बड़े शायर अल्लामा इकबाल को भी समझाया था। उन्हें उर्दू-फारसी के बजाय पंजाबी में लिखने का आग्रह किया था, मगर इकबाल को लगा कि उर्दू में लिखकर वे अपनी शायरी को ईरान तक पहुँचा सकते हैं, जबकि पंजाबी में लिखकर वे घर की देहरी भी नहीं लाँघ सकेंगे।जब रवीन्द्रनाथ की बंगला में मूलतः लिखी ‘गीतांजलि’ पर नोबेल पुरस्कार मिला,तो इकबाल के प्रशंसकों ने इकबाल को भी नोबेल देने का दावा किया,मगर नोबेल समिति के अधिकारियों ने उनमें विचारों की निरन्तरता का अभाव देखा और अपनी सांस्कृतिक विरासत के प्रति वह लगाव नहीं देखा,जो किसी कवि को महाकवि बनाता है। यह तब स्पष्ट हो गया, जब अमृतसर में बैसाखी के दिन हुए जलियाँवाला बाग कांड के प्रतिरोध में बंगाल के रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने ब्रिटिश शासन की दी हुई ‘सर’ उपाधि लौटा दी, मगर सियालकोट,पंजाब के जन्मे मुहम्मद इकबाल ने अपनी ‘सर’ उपाधि को सीने से चिपकाये रखा। इसलिए रवीन्द्रनाथ जब सोनार बांग्ला गीत गाते हैं,तो उनके शब्द-स्वर में केवल बंगाल ही नहीं,सम्पूर्ण भारत की शस्य-श्यामला धरती गाती है।

 
      

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5 comments

  1. मनोज कुशवाहा

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