संजीब कुमार बैश्य दिल्ली विश्वविद्यालय के जाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज(सांध्य) में अंग्रेजी के प्राध्यापक है. असम के रहने वाले संजीब पूर्वोत्तर कला संस्कृति के गहरे ज्ञाता हैं. हाल में इन्होने कुछ छोटी छोटी कविताएँ लिखी हैं, जिनकी सराहना अनेक हलकों में हुई है. फिलहाल बानगी के तौर पर उनकी तीन कविताओं का अनुवाद. अनुवाद मैंने किया है- प्रभात रंजन
शब्द
शब्द उनके ह्रदय से चिपक गए हैं
उनके खाली पेट सड़क पर विद्रोह करते हैं
उनके फटे कपड़े बनाते हैं दृश्य
उनकी आवाजों में संगीत है नीरस धरती का
वे अव्यवस्था की धुन पर नाचते हैं
परिभाषा
मैं नहीं चाहता कि तुम मुझे परिभाषित करो
तुम जो मुझे एक संख्या की तरह लेते हो,
अपनी मर्जी से जोड़ते हो, घटा देते हो,
तुम्हें ईर्ष्या है मेरी मुस्कान से,
तुम्हें तोहफे में मुस्कराहट मिलेगी.
तुम जो मुझे खलनायक बताते हो
और हँसते हो मेरे ऊपर
जल्दी ही सब हँसेंगे तुम्हारे ऊपर
तुम जो मुझे हिन्दू, इस्लाम, सिख धर्म या मुझे इसाई के रूप में देखते हो,
तुम जो मेरे नैन नक्श को घूरते हो,
तुम जो मुझे परिभाषित करते हो भारतीय, विदेशी, या एक पूर्वोत्तर नागरिक के रूप में
(ओह! तुम तो वहां के लगते ही नहीं हो)
इल्तिजा है मुझे परिभाषित करना छोड़ दो!
मुझे जीने की आजादी दो,
मुझे सोचने की आजादी दो,
मुझे सांस लेने की आजादी दो…
बोलती चुप्पी
चुप्पी एक मजबूत शब्द है
इसमें गूंजती हैं अनसुनी आवाजें किसी चुप्पा विद्रोही की
वह अपने समय का इन्तजार करता है;
और चुप्पी बोलती है.
बहुत अच्छी कविता है, संजीब,
प्रभात जी को धन्यवाद ,हिंदी में अनुवाद करने के लिए
बेहद अच्छे कवि हैं संजीब। इनकी एक साथ दस-बीस कविताएँ पढ़वाइए। अनुवाद भी बेहद अच्छे हैं।