रज़ा पुस्तकमाला श्रृंखला के अंतर्गत राजकमल प्रकाशन से कई नायाब पुस्तकों का प्रकशन हुआ है, दुर्लभ भी. इनमें एक पुस्तक ‘गांधी की मेजबानी’ भी है. मूल रूप से यह पुस्तक अंग्रेजी में मुरिएल लेस्टर ने लिखी है. गांधी की यूरोप यात्राओं के दौरान उनको महात्मा गांधी की मेजबानी का मौका मिला था. पुस्तक का अनुवाद जाने माने गांधीवादी विचारक-लेखक नंदकिशोर आचार्य ने किया है. पुस्तक का एक अंश जिसमें यह बताया गया है कि किस तरह पश्चिम की मीडिया गांधी को लेकर पगलाई रहती थी- मॉडरेटर
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मि. गांधी की अख़बारी कीमत दुनिया भर में सर्वाधिक है, केवल प्रिंस ऑफ वेल्स निश्चय ही अपवाद हैं। फ्लीट स्ट्रीट का कहना था और अब किंग्सले हॉल को स्वर्णिम फसल काटने का अवसर दिया जाना था।
कई सजे धजे महाशय प्रस्ताव लेकर मेरे पास आये कि मैं गांधीजी के हमारे यहां ठहराव से सम्बंधित खबरों के सर्वाधिकार उन्हें देकर मुनाफ़े में हिस्सा पा सकती हूं। कुछ अन्य लोगों ने इतना ही कहा कि मुझे ये अधिकार उनके संस्थान को दे देना चाहिए – उन्हें मेरी मुफ्त भेंट की तरह।
आनेवालों का रेला बहने लगा- सिनेमा के लोग, ग्रमोफ़ोन कम्पनियाँ और फोटोग्राफर। तारों, टेलीविजनों और कभी कभी व्यक्तिगत मुलाकात के लिए मेरा पीछा किया जाने लगा -देहातों के अंदरूनी इलाक़ो में भी। एक व्यक्ति ने मेरा सिर्फ़ इसलिए पीछा किया कि मैं उसे गाँधीजी का एक परिचयात्मक विवरण लिख दूँ जिसे वह मसलीज में उनके आगमन पर उन्हें भेंट कर सके। वह वहाँ के लिए अपनी यात्रा आरक्षित कर चुका था और यदि मैं ऐसा कर दूँ तो मुझे सौ पौण्ड मिल सकते थे।
“लेकिन मैं अपने अतिथि को बेच कैसे सकती हूं?” मैंने पूछा।
कई सप्ताहों तक अपने अथक प्रयासों और लंबे वार्तालापों की एक श्रृंखला के बाद ही वह मेरी कठोरता को मान पाया। “ठीक है, कुमारी लेस्टर,” आख़िर में उसने कहा, “यदि आप मि. गांधी को हमारे व्यवासायिक प्रस्ताव के लिए सहमत करने की अपनी ओर से पूरी कोशिश करें- चाहे कोई वादा न करें या सफल हों या नहीं- तो भी मेरी कम्पनी आपके हॉल को सौ पौण्ड दे देगी।“
ऐसे आश्चर्यजनक प्रस्ताव कार्यान्वित तो नहीं हुए लेकिन ये मुलाक़ातें बहुत दिलचस्प रहीं और मैंने सोचा कि ये गाँधीजी के विचारों को ब्रिटिश जनता तक पहुंचाने के लिए उपयोगी हो सकती हैं- उनकी कल्पना को कुछ विस्तार देने , भारतीय परिस्थिति में उनकी अंतर्दृष्टि विकसित करने, उन तीन सौ साथ मिलियन लोगों के भविष्य का निर्णय करने के महान काम को अंजाम देने के लिए उन्हें तैयार करने के लिए, जिनके लिए वे उत्तरदायी थे, जबकि उनकी आकांक्षाओं के बारे में वे कुछ भी नहीं जानते थे। लेकिन कुछ सप्ताह बाद मैंने ये प्रयास छोड़ दिये।
मूवीटोन के लोगों द्वारा लाये गए सामान से हमें बहुत कुतूहल हुआ। तीन बार अलग अलग मौकों पर किंग्सले हॉल की फिल्में बनायी गईं और इसमें उनकी सहायता करना हमारे सदस्यों अथवा उस मौके पर उपस्थित किसी के लिए भी एक रोमांचक अनुभव था। आख़िर, यह एक चमत्कार जैसा था कि किसी के शयनागार के दरवाजे पर आप बिना किसी लाउडस्पीकर या ईयरफोन के खड़े हैं, कोई माइक भी नहीं दिख रहा और अचानक आप शांत और अंतरंग स्वरों में सुनते हैं: – “अभी अभी अपने जो कहा, कुमारी लेस्टर, बहुत सुंदर और स्पष्ट था। बुरा न मानें और उसे दोबारा कहें।“