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‘काला’ प्रतिपक्ष का वितान रचती एक सुंदर फिल्म है

‘काला’ फिल्म पर एक अच्छी टिप्पणी लिखी है युवा लेखक मनोज मल्हार ने- मॉडरेटर

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    निर्देशक पा. रणजीत एक निर्देशक के रूप में बहुत सारे अन्य निर्देशकों से शैली के मामले में बहुत अलग नहीं दिखते. ‘कबाली’ और अब ‘काला’ में दृश्य संयोजन, चरित्र, एक्शन, इमोशन बहुत सारे अन्य निर्देशकों की तरह है. ये भी सच है कि उन्हें उन दर्शकों को फिल्म दिखानी है जो रजनीकांत के महानायकत्व के दीवाने है. पर एक चीज जो पा. रणजीत को अन्य फिल्मकारों से अलग करती है, वो है – विषय वस्तु का चयन. ’कबाली’ और ‘काला’ में उन्होंने दलित – बहुजनों के सांस्कृतिक कामनाओं को विशालकाय फलक पर रखा है. ‘काला’ ‘कबाली’ से बहुत आगे की फिल्म है. कबाली अपने अध्ययन और सम्मानपूर्ण पहनावे को महत्वपूर्ण बनाता है वहीँ, काला एक बहुत बड़ी संरचनागत वृत्त खींचता है. ‘काला’ वर्चस्वशाली सामाजिक और राजनैतिक विचारधारा के खिलाफ काले रंग की विचारधारा का प्रतिकार है, और खुद के सशक्त होने की घोषणा भी. बहुत पहले हिंदी में जे.पी. दत्ता की फिल्म आई थी – ‘गुलामी’. फिल्म में समानजनक नाम, पढने का हक़, पानी पीने का हक़, दलितों का घोड़े पर चढने का हक़ और भूमि पर अधिकार को मुद्दा बनाया गया था, और धर्मेन्द्र को अकेले संघर्ष करते दिखाया गया था. उस समय की मनःस्थिति शायद यही रही हो. किन्तु ‘काला’ में नायक अकेला नहीं है. उसके साथ हज़ारों हाथ हैं. यह संघर्ष और संस्कृति की बदली हुई स्थिति है. फिल्म में एक संवाद के द्वारा कालेपन को मेहनत करने वालों का रंग कहा गया है. वर्चस्वशाली चमक दमक और शालीनता बड़े राजनीतिज्ञ हरे भाऊ (नाना पाटकर) की संस्कृति है, तो कालापन, मेहनत, और सहजता धारावी में राज करने वाले काला करीकरण की. जहां ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता के प्रतीक हरे भाऊ हाथ में तलवार लेना और स्त्री सहित सबसे पैर छुवाना पसंद करते हैं , वहीँ काला हाथ में किताब रखता है, और हाथ मिलाना पसंद करता है. हरे भाऊ के आसपास स्त्रियाँ और बच्चे डरे सहमे रहते हैं, वहीँ काला के पास स्त्री और बच्चे सहजता और उल्लास के साथ रहते है. पूरी फिल्म इस तरह के द्वैत्व में है. उस एक रात की घटनाओं का अंकन शानदार है, जिसमें हरे भाऊ राम कथा सुन रहे हैं और उनके गुंडों की टोली धारावी में रक्त और मज्जा की बरसात कर रही है. निर्देशक की इस महीन विस्तारपरक सूझबूझ के लिए प्रशंसा करनी होगी.

  पा. रणजीत की एक और चीज के लिए प्रशंसा करनी होगी. वह है – साहस. सामाजिक विषयों पर फिल्म बनाना उतना चुनौतीपूर्ण नहीं होता, जितना समकालीन राजनीतिक विषयों पर.  समकालीन राजनीतिक – सामाजिक संस्कृति में सत्य को सत्य कहना भी अपने लिए खतरा मोल लेना है. कुछ दृश्यों में निर्देशक ने ये किया है. मसलन, शहर में हरे भाऊ को बड़ा कट आउट लगा है. किनारे पर देशभक्त होने और राष्ट्र को स्वच्छ बनाने का दावा करती पंक्तियाँ लिखी हैं. एक युवक कटआउट पर पत्थर फेंक कर हरे भाऊ का दांत तोड़ देता है. धारावी में अपनी ज़मीन को हरे भाऊ की बिल्डर कंपनी से बचाने के लड़ रहे लोगों को नेता जी देशद्रोही, देश के विकास में बाधक कहते हैं. कह सकते हैं कि जहां ज़नाब राजमौली ने ’बाहुबली’ में पितृसत्ता और ब्राह्मणवाद को रंगने में अपनी पूरी प्रतिभा लगा दी, वहीँ पा. रणजीत ने उसके धुर विरोधी विचारधारा काला को सुंदर बनाने में अपनी काफी प्रतिभा लगा दी है. धारावी के चित्र और सन्दर्भ कई हिंदी फिल्मों के विषय वस्तु बने हैं, किन्तु यहाँ लेखकों ने धारावी के लोगों में तमिल पहचान को प्रमुखता दी है. धारावी में तमिल समुदाय की स्मृतियों को उभरने के लिए एनीमेशन का सहारा लिया गया है.

   फिल्म में काला के बेटे का नामकरण लेनिन करना, उसे बार बार क्रन्तिकारी कहना, और उसका बच्चों जैसे उत्साही के रूप में चित्रण दिलचस्प है. मानो रूसी क्रांति के नायक लेनिन भारतीय परिवेश में सीखने की कोशिश करते एक युवा हों. एक लड़की का नाम कायेरा भी है, जिसका अर्थ है – काले रंग की.

   फ़िल्म का क्लाइमेक्स वाला दृश्य रंगों के कुशल संयोजन और बैकग्राउंड म्यूजिक की वजह से यादगार बन पड़ा है. पहले भूमि पूजन स्थल के बीचोबीच हरे भाऊ का झक्क सफ़ेद रंग, फिर काले रंग के छींटें, फिर गहरा भरपूर काला रंग, फिर लाल रंग के कुहासों में लिपटा सबकुछ… और फिर नीला रंग. सब कुछ नीले रंग की रंगत में रंग जाता हुआ. इस सीक्वेंस में कठोर संगीत, उन्मत्त नृत्य, और सैकड़ों की संख्या में मौजूद कलाकारों के मध्य रजनी दा का काला रूप बहुत मनमोहक है. चुनना मुश्किल है कि किसे शाबासी दी जाए? कोरियोग्राफर को, संपादक को, सिनेमेटोग्राफर को, या फिर निर्देशक को. शानदार दृश्य.

    यह स्पष्ट है कि ‘काला’ एक मुख्यधारा की मनोरंजक फिल्म है. रजनी की करिश्माई छवि में हिंसा, ताकत, मसीहाई अंदाज़ शामिल ही है. एक बार रजनी की इस छवि को चुन लेने के बाद लेखक – निर्देशक के लिए कुछ  ज्यादा बचता ही नहीं है. हिंसा, एक्शन और इमोशन को पेश करने में निर्देशक सफल रहा. रजनी इस उम्र में इतनी ऊर्जा, उत्साह बनाए रखे हुए हैं, ये आश्चर्यजनक लगता है. पंकज त्रिपाठी को पुलिस अधिकारी के रूप में बहुत ही कम स्क्रीन टाइम मिला है, पर उसमें भी उनकी अदा दर्शकों को लुभाती है. समुथी काला की पत्नी के रूप में दर्शकों को भावुक बनाती है. नाना पाटकर एक अहंकारी और शातिर नेता के रूप में जमे हैं. हुमा कुरैशी साधारण है. कुल मिलाकर ‘काला’ प्रतिपक्ष का वितान रचती समकालीन दौर की एक सुंदर फिल्म है.

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मनोज मल्हार
  कमला नेहरू कॉलेज
   8826882745

 
      

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