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सबसे बड़ा जोखिम है मान लेना कि थोड़ी से हँसी की क़ीमत हैं

आज कुछ कविताएँ अनुकृति उपाध्याय की. अनुकृति एक अंतरराष्ट्रीय वित्त कम्पनी में काम करती हैं. मुंबई-सिंगापुर में रहती हैं. हिंदी में कहानियां और कविताएँ लिखती हैं. इनकी एक कहानी जानकी पुल पर आ चुकी है- जानकी और चमगादड़. जिसको कहने के अलग अंदाज के कारण काफी सराहा गया था. इनकी कविताओं का स्वर भी बहुत अलग, कहने का अपना अलग अंदाज है और प्रचलित धार से अलग बहने का साहस. कविता में लय और तुक को जरूरी मानने वाली अनुकृति किसी वैचारिक लोड से भरकर कविता नहीं लिखतीं लेकिन फिर भी उनकी वैचारिकता मुखर है. हिंदी के इस कविता समय में अभी कुछ कविताएँ ऐसी पढने को मिल जाती हैं कि कहना पड़ता है- बड़ी ताजगी है- मॉडरेटर

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कविता – एक वक्तव्य

कविता में है
कथा-कहानी,
नई पुरानी
मेले-ठेले,
भीड़ अकेले
मन भी हैं कविता में।
कविता में है
चूल्हा-चक्की,
धान और मक्की
खेत-गाम हों,
पुण्य-धाम हों
सब ही हैं कविता में।
कविता में हैं
जादू-टोने,
बादल-छौने
काग और पिक,
घड़ी की टिक-टिक
सब फबते कविता में।
कविता में हों
नारे-फिकरे,
नए तज़िकरे
भाषणबाज़ी,
चुप नाराज़ी
क्यों न हों कविता में?
कविता में
रहने दो किन्तु
कुछ लय बंधु
छंद-बंध कुछ,
रंग-गंध कुछ
बसने दो कविता में।
कविता में
बहने दो धारे,
मन के पारे
धूप-चाँदनी,
तनिक रागिनी
सजने दो कविता में।

 

आप पुराना लिखती हैं

कहा आपने –
यह कविता कुछ पुरानी है
यह क्या?
लय है और लालित्य भी इसमें?
डूबी हुई-सी लगती है
अपने ही रस में,
आप भी मानेंगी,
यह शैली घिसी, पुरानी है।
जब इसे पढ़ते हैं
तो नहीं पड़ते हैं
कनपटी पर हथौड़े से
न ही गड़ते हैं
शब्द इसके रोड़े से
ये रंग, ये माधुरी…
ये सब…ज़रा पुरानी है।

जी, ठीक ही कहते हैं आप
शब्दों के शालिग्राम
जाने कब से घिसे हैं
वेदना की, प्यार की
कसौटी पर कसे हैं
गद्य का घोड़ा नहीं
यह कविता है, मीन है,
ठीक पहचाना आपने
यह प्राचीन है।

लेकिन यह तो बताएँ
ऋतुओं को क्या कहेंगे आप,
नईं या पुरानी?
लहरें, धरती, भाषा,
मन की कहानी?
चिर से चलीं ये
नई हैं या पुरानी?

चलिए, बहुत हुआ,
बात यह रहने दें
कवि हूँ, बिसात क्या,
आप ही कहें।
यह तो संवाद है
विवाद क़तई नहीं।

तो क्या कहते हैं?
अनुमति देते हैं कि
यहीं इति करें ?
मैं अपनी तरह कहूँ,
और अपनी तरह कहें?

स्त्री होना ही मेरी सियासत है

आप कहते हैं
सियासत से बचो
कविता लिखो, गीत लिखो
माँ पर, बहन पर,
आँगन पर, सेहन पर
बादल झड़ी, धूप कड़ी
वग़ैरह वग़ैरह पर
निधियाँ कितनी है
घर-बार में, मौसम और त्यौहार में
समेटो, बटोरो
लेकिन ध्यान रखो
कि शब्द तुम्हारे
कोमल हों और भाव मुग्ध
उनकी दृष्टि सदा कुछ झुकी हो
और उनके होंठों पर
एक नितांत सुसंस्कृत मुस्कान रुकी हो।

देखो
हिन्दू, मुसलमान,
दलित, पहलवान
न्याय, अन्याय,
यानि दुनिया के व्यवसाय
इन सब पर कुछ मत कहो
तुमको चुप रहना सिखाया है, सो रहो
कुछ नई बात नहीं,
सदियों से सहा है,
अब भी सहो।

तो सुनिए,
मैं स्त्री हूँ,
मेरी देह पर
चिर से युद्धों के नक़्शे बने हैं
मेरे गर्भाशय में
जबरन विभाजन पले हैं
मेरे होंठ, बाज़ू,
छातियाँ, योनि
जांघें, कूल्हे
गालियाँ हैं, नारे हैं
स्वर्गिक सुख हैं
नरक के द्वारे हैं
लेकिन जो कुछ भी हों
मेरे नहीं हैं।

मेरे मन की धरती
चाहे उर्वर हो या परती
किसी और की सम्पत्ति है
मैं झगड़ों का झुरमुट हूँ
और फ़साद की जड़
मैं ज़र हूँ, ज़मीन हूँ, गाय हूँ
प्याली में भरी चाय हूँ
दवा हूँ, दारू हूँ,
घरेलू हूँ, बाज़ारू हूँ
पायदान हूँ, चारपाई हूँ
सुनिए, मैं अब भरपाई हूँ।

मैं स्त्री हूँ
मेरा देखना, चलना,
चुप्पी और बोलना
यहाँ तक कि मेरा होना भर भी
सदा से किसी और की हिरासत है।
मैं स्त्री हूँ
अब स्त्री होना ही मेरी सियासत है।

 

लोकतंत्र और हम

एक ने कहा – दाढ़ी-टोपी को घटाना है
दूसरे ने जनेऊ की प्रदर्शनी लगाई
तीसरे ने पुरानी ईंटों को पूजा
चौथे ने पांचवे को नीच कहा
पाँचवे ने अर्थ का अनर्थ किया
छठे ने कहा – किसान मर रहे हैं
सातवें ने कहा – हम दुनिया का सबसे बड़ा पुतला बना रहे हैं
आठवाँ हँसा
नवाँ रोया
दसवें ने बच्चे को गोद में ले भाषण किया
ग्यारहवें ने कहा – रानी असली थी
बारहवें ने कहा – रानी नक़ली थी
तेरहवें ने बीच बचाव किया – क्या अंतर पड़ता है कि रानी असली थी या नक़ली, भावनाएँ असली हैं

इस बीच
चुपचाप और डंके की चोट पर
रिश्वतें ली दी जाती रहीं
सौदे पर सौदे होते रहे
संसद ठप्प रही
अमीर न्यायलयों में झूठी हल्फ़ें उठाते रहे
ग़रीब न्यायालयों तक पहुँच नहीं पाए
प्रेमी को लाठियों से पीट-पीट कर मार डाला गया
प्रेमिका पर पिता और भाइयों ने बलात्कार कर डाला
एक मरे हुए किसान ने फिर आत्महत्या कर ली
हादिया नाम की लड़की को अपने पति से मिलने की अनुमति नहीं मिली
अफ्राज़ुल नाम के मनुष्य को शंभूलाल नाम के मनुष्य ने मार दिया
फिर हमने अख़बार रद्दी में फेंका
कॉफ़ी का आख़िरी घूँट लिया
और एक प्रेम-गीत सुनते सुनते काम में जुट गए

 

सन्तोषी आदमी की कथा

मेरे दादा
अक़्सर सुनाते थे कहानी
एक सन्तोषी आदमी की।

सन्तोषी आदमी राजा को सलाम करता था
और उसकी लीक पर चलता था।
एक बार राजा ने जलवा दिए उसके खेत
सन्तोषी आदमी ने हाथ जोड़ कहा –
अहा, क्या ख़ूब किया!
अगले बरस और भी उर्वर होगी धरती
और धान इफ़रात से होगा!

फिर राजा ने उठवा लीं उसकी गाएँ
सन्तोषी आदमी मुस्कुराया –
राजा ने अच्छा किया
बन्धन कटा
सानी-चारे का झंझट मिटा!

एक रोज़ राजा ने फुड़वा दी उसकी आँख
सन्तोषी आदमी खिलखिलाया –
धन्य हो, मुझे बचा लिया!
अब कुछ भी बुरा देख नहीं पाऊँगा!

फिर राजा ने उसके कानों में
डलवा दिया पिघला सीसा
सन्तोषी आदमी ने सिर नवाया –
ठीक ही है,
अब से बस राजा के मन की बात सुनूँगा।

अंत में राजा ने उसकी जीभ ही खिंचवा ली।

सन्तोषी आदमी अब भी राजा को सलाम करता है
और उसकी लीक पर चलता है
उसके लुटे-पिटे कटे-फटे चेहरे पर
अब भी सन्तोष पुता है

हमें ख़बर आई है

हमें ख़बर आई है
कि ना हँसने के दिन आप मुस्कराईं हैं
और इस तरह आपने
चार और लोगों की हिम्मत बढ़ाई है।
आपने सोचे हैं नारे
देखिए, लगाए भले न हों, सोचे अवश्य हैं,
उनसे हमें द्रोह की अनुगूँज आई है।
अभी अभी जब गिरा वह बूढ़ा,
हमने पाए आपकी आँखों में आँसू।
आप इसलिए रोईं
कि उस पर लाठी हमने चलाई है।
विश्वस्त सूत्रों से हमने यह भी जाना है
कि आपने मौसमों में हरा रंग चुना है
और साँझों में केसरिया।
चुनाँचे
जान लीजिए, आप आ गई हैं कठिनाई में
कहिए, क्या कहती हैं अपनी सफ़ाई में?

जनतंत्र दिवस पर

हम हैं तोता बंदर टट्टू
नाच रहे जो बिन डोरी के
ऐसे लट्टू।

हम हैं कंकर पत्थर अनगढ़
डाल जहाँ दो
वहीं गए गड़।

आग नहीं हैं, फूल नहीं हैं
हवा नहीं हैं, धूल नहीं हैं,
हम हैं काई।
मौसम ने जिस जगह जमाई,
वहीं रह गए,
जो भी बीता, सभी सह गए।

हम हैं मक्खी
झक्की, बक्की
कहा जो सबने, भनभुनाए
भवें चढ़ाए, काम में जुते
हम हैं लद्धड़ बैल सरीखे
कल ना सीखे, आज न सीखे
कभी ना सीखे…

सबसे बड़ा जोखिम 

सबसे बड़ा जोखिम है मान लेना
कि थोड़ी से हँसी की क़ीमत हैं
बहुत से आँसू
कि सुख पाने के लिए
बुरा नहीं है दुःख देना
और अपने होने के लिए ज़रूरी है
औरों का न होना
कि सच के न होने का प्रमाण है
बार बार झूठ का बोला जाना
ताक़तवर होने का नुस्ख़ा है
किसी को सताना
चतुरता का लक्षण है
हाँ में हाँ मिलाना
बचे रहने का एकमात्र रास्ता है
मुर्दा होने का ढोंग करना
शांति के लिए आवश्यक है लड़ना
जीने के लिए
स्वीकार कर लेना चाहिए
लगातार मरना
और
क्योंकि ऐसा ही होता रहा है
इसलिए
ग़लत नहीं है ऐसा ही होने देना
देना पाना

एक चुटकी निकटता के लिए
मैंने दी एक मुठ्ठी निजता,
एक बूँद राग के लिए
समुद्र भर अनुराग,
लौ भर उष्मा के लिए
मैंने होम दिया अजस्र नेह
और सुई की नोक भर सुख के लिए
उठा लिए पीर के ब्रह्मांड

 

अनुकृति की कहानी ‘जानकी और चमगादड़’ का लिंक- https://www.jankipul.com/2018/04/a-short-story-by-anukriti.html

 
      

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