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‘नए शेखर की जीवनी’ आत्मा और अंतर्द्वंद्व की कहानी है

अविनाश मिश्र से आप असहमत हो सकते हैं उसको नजरअंदाज़ नहीं कर सकते. वाणी प्रकाशन से प्रकाशित उसकी पहली गद्य-पुस्तक ‘नए शेखर की जीवनी’ पढ़ते हुए कई बार लगता है कि इसके लेखक की खूब आलोचना करूं, कई बार लगता है खूब प्यार करूं. हिंदी में एक अलग कैफियत की किताब पर एक टिप्पणी युवा लेखक विनोद की. विनोद से शायद पहली बार किसी किताब पर लिखा है, वह भी स्वतःस्फूर्त ढंग से-मॉडरेटर

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किसी भी अच्छी रचना की एक ख़ासियत या यूँ कहें कि सबसे बड़ी खूबी यह भी होती है कि वो रेफरेंस की उंगलियां पकड़ाकर कई और बेहतरीन रचनाओं को पढ़ने के लिए प्रेरित करती है। वो रचनाएं जिसने उस रचना अथवा कृति को प्रेरित किया होता है।
एक ऑस्ट्रियन दार्शनिक का कथन भी है कि “मौलिक जैसा कुछ है नहीं, जो है वही है हर जगह” अर्थात मौलिकता जैसा कुछ नहीं है पर कहन हर जगह अपना तरीका सलीका बदलता रहता है और वहां से शुरू होता है मौलिकता का झाँसा ।
प्रेम को कितनी ही भाषाओं में न जाने कितनी बार लिखा जा चुका है किंतु इस आधार पर किसी भी प्रेम को कमतर नहीं आंका जा सकता है। मौलिकता रूप ही बदलती है।

मशहूर कथाकार निर्मल वर्मा ने अपनी डायरी में लिखा “साहित्य हमें पानी नहीं देता, वह सिर्फ हमें अपनी प्यास का बोध कराता है। तुम स्वप्न में पानी पीते हो , तो जागने पर सहसा एहसास होता है कि तुम सचमुच कितने प्यासे थे। “

कहन का रूप बदलना ही प्यास की तीव्रता को जस्टिफाई करता है शायद। यह एक निजी विचार है ।
आती है बात फिर कहानी की तो वह भी एक हिस्सा है किसी भी रचना के उत्कृष्ट या दोयम होने का। साहित्य और किस्सागोई में फर्क न होता ग़र तो शराब सबाब के जर्क और बेचैन कर देने वाले कथ्य के मध्य अंतर भी न होता।

किताब का नायक ‘शेखर’ हर वो लड़का है जो जीवन से जीवन के मूल्यों को चुकाते हुए जूझ रहा है। उतार चढ़ाव पर हिचकोले खाता, समझौते न करने की क्रूर ईमानदारी या एक तरह की खब्त भी साथ में साधे हुए…भटक रहा है ।
शेखर को गलियों से लगाव है, सड़कों को नहीं भूलता है शेखर । शेखर ऊहापोह में जीवन जीता है। इस सब के बीच सबसे खूबसूरत बात यह है कि शेखर सदैव अध्यनरत है और दृश्यों को देखने , उनके बीच के द्वैत की पहचान परख में चूकता नहीं।

ज्ञानेन्द्रपति की कविता ‘बनानी बनर्जी’ की एक पंक्ति है
“अपने अस्तित्व के सघन अरण्य में एक भटकी हुई
मुस्कान खोजने”

शेखर, अपनी कहानी में विवेकशून्यता की हदों को छूता हुआ वापस खुद में सिमट जाता है। शेखर का रुदन ही उसका होना है जिसे वो स्वीकारता रहता है।
शेखर एक द्रष्टा की कहानी है।

…….
मैं तुम्हारे शरीर का खोया हुआ हिस्सा हूँ
जो अपनी भूमिका भूल-से गया है

मैं कभी न पहचाना गया चोर हूँ भीड़ में व्याकुल
छिपकली की काटी हुई पूँछ हूँ
दीवार पर भटकती हुई
तुम्हें न स्वीकार करने दी गयी वास्तविकता हूँ

मैं तुम्हारे सतत श्रम का छीना गया परिणाम हूँ
नींद में भी नहीं मिलता
और पता नहीं कब कहाँ होकर गुजर जाता है

आयशा मैं तुम्हारी मौत हूँ रुकी हुई
तुम्हें खोजती हुई तुम्हारी खोज हूँ
एक ठंडी करुणा में सब पर हँसती हुई
……….

दिन में तलाश की अपनी दिक्कतें हैं
अवकाश नहीं मिलता
………

जिस वक्त ‘हिंदी’ को दकियानूसी बताकर हिंदी को ही नया डेंट पेंट करने की कवायदें कुछ महानतम स्व-विज्ञापित साहित्यकारों के मार्फत जोरों से चल रही हों उस समय में भाषाई रूप से इतनी सुंदर किताब (हिंदी में पर हिंदी में ही , नई पुरानी के गणित से जुदा) का आना सुखद है। 199 रुपये की इस किताब को एक रौ में पढ़ा जा सकता है ।

अंततः शेखर खुद को उज्जैन में 2027 में क्षितिज पर पाता है। ‘शेखर’ नया बस समय काल से है बाकी वो उतना ही पुराना है जितनी पुरानी कविताएं , जिनकी ओर वो आकृष्ट होता है, जिनसे वो सब कुछ सीखता आया है। शेखर थोड़ा थोड़ा कर बना है और विराट बन जाना चाहता है।

“नए शेखर की जीवनी” आत्मा और अंतर्द्वंद्व की कहानी है जो फुटनोट्स स्टाइल में बिंधी गयी है। बीते सालों में आई हिंदी की किताबों में से ‘मस्ट रीड’ किताब है।

कैलाश वाजपेयी को उद्धरित करते हुए शेखर :–

कुछ मत चाहो
दर्द बढ़ेगा
ऊबो और उदास रहो
आगे पीछे एक अनिश्चय
एक अनीहा , एक वहम
टूट बिखरने वाले मन के लिए
व्यर्थ है कोई क्रम

चक्राकार अंगार उगलते
पथरीले आकाश तले
कुछ मत कहो
दर्द बढ़ेगा
ऊबो और उदास रहो

यह अनुर्वरा पितृ भूमि है
धूप झलकती है पानी
खोज रही खोखली सीपियों में
चाँदी हर नादानी
ये जन्मांध दिशाएं दें आवाज़
तुम्हें इस से पहले
रहने दो विदेह ये सपने
बुझी व्यथा को आग न दो

तम के मरुस्थल में तुम
मणि से अपनी यों अलगाए
जैसे आग लगे आँगन में
और बच्चा सोया रह जाए

अब जब अनस्तित्व की दूरी
नाप चुकी असफलताएँ
यहीं विसर्जन कर दो यह क्षण
गहरे डूबो साँस न लो
कुछ मत चाहो
दर्द बढ़ेगा
ऊबो और उदास रहो

 
      

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5 comments

  1. Rajesh Sanghai

    Hindi sahitya mein Sri Aurobindo ki pahchan kyon nahi hain ? Future Poetry , Letters on Poetry Literature and Yoga . Dilip Kumar Roy’s Among The Great ?
    mein toh bangla se hindi mein aya hoon. Shekhar Ek Jivani , Kalkatta Kumarsabha pustakalay se leke padha tha . Adhunik yitne bade extensive vichar ke Vatsayan Agneyaji , Nirmal Verma kya Sri Aurobindo ke influence mein nahin ayein ?

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