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देश प्रेम और राष्ट्रवाद में मूलभूत अन्तर है: उदयन वाजपेयी

वाणी प्रकाशन की पत्रिका ‘वाक्’ का संपादन सुधीश पचौरी करते हैं. पत्रिका के नए अंक में राष्ट्रवाद और देशभक्ति पर बहस का आयोजन किया आया है. इसमें सबसे सुचिंतित लेख मुझे कवि-लेखक-सम्पादक उदयन वाजपेयी का लगा. राष्ट्रवाद और देशभक्ति को बहुत अच्छी तरह हमारे सामने रखता है. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर

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देश प्रेम और राष्ट्रवाद में मूलभूत अन्तर है। एक तात्विक है दूसरा प्रतिक्रियात्मक। हर आधुनिक राष्ट्र में ये दोनों ही भावनाएँ हुआ करती हैं पर आत्मसजग राष्ट्र में देशप्रेम की अदृश्य भावना हमेशा ही प्रभुता सम्पन्न और अपेक्षाकृत स्थायी होती है। वहाँ राष्ट्रवाद की भावना होती अवश्य है पर वह राष्ट्र के अपेक्षाकृत निचली सतहों में पड़ी रहती है। भारत जैसी पेगन सभ्यता में वह किन्ही विशेष परिस्थितियों में ही उभरकर सामने आती है। महात्मा गाँधी और रवीन्द्रनाथ टैगोर देशभक्त थे और दोनों ने समय-समय पर राष्ट्रवाद को प्रश्नांकित किया है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपना प्रसिद्ध उपन्यास ‘चार अध्याय’ राष्ट्रवाद को मानो प्रश्नांकित करने के लिए ही लिखा था। यहाँ यह याद रखना शायद आवश्यक हो कि ‘राष्ट्रवाद’ न सिर्फ़ पारिभाषिक बल्कि आधुनिक प्रत्यय है और इसके पीछे पिछली दो-तीन शताब्दियों का लहुलुहान इतिहास है। ‘चार अध्याय’ में इसी राष्ट्रवाद पर तीखी बहसें हैं। इन बहसों के दो ठोस ऐतिहासिक सन्दर्भ थे। पहला तो ज़ाहिर है उस समय जर्मनी और इटली में फैला राष्ट्रवाद ही था जिसकी आड़ में हिटलर और मुसोलिनी अपने-अपने देशों में तरह-तरह की हिंसा और नरसंहार कर रहे थे। (इस राष्ट्रवाद के प्रतिपक्षियों ने हिटलर के शासन में यहूदियों के नरसंहार को अनेक तरह से रेखांकित किया है हज़ारों उपन्यासों, फ़िल्मों, कविताओं, रिपोर्टों आदि में पर स्वयं उन्होंने भी हिटलर के हाथों हुए जिप्सियों के नरसंहार को प्रकाश में लाना आवश्यक नहीं समझा। उन प्रतिपक्षियों के लिए भी जिप्सियों का जर्मन राष्ट्र में कोई स्थान नहीं था।) टैगोर के उपन्यास में राष्ट्रवाद के प्रश्नांकन का दूसरा सन्दर्भ सन् 1920 के आस-पास बंगाल और भारत के अन्य अंचलों में उभरता उग्र राष्ट्रवादी स्वतन्त्रता आन्दोलन था। इसमें शामिल आन्दोलनकारियों के लिए भारत राष्ट्र ही अन्य सभी मानव मूल्यों को वैधिकृत करने वाला एक तरह का ‘अतिमूल्य’ था। इस राष्ट्रवाद की छाया में किया गया कोई भी हिंसक कृत्य या अत्याचार इसलिए वैध या उचित था क्योंकि वह राष्ट्र के लिए किया गया था। रवीन्द्रनाथ टैगोर राष्ट्रवाद के इस अतिमूल्य होने को अपने इस उपन्यास में और अपने कुछ निबन्धों में भी प्रश्नांकित करते हैं। वे अपने इन लेखनों में यह इंगित करने का प्रयास कर रहे थे कि अगर राष्ट्रवाद को अन्य सभी मानव मूल्यों का नियामक मान लिया जाता है तो वह सभी मानवीय सम्बन्धों और भावनाओं को अनिवार्यतः कुतरने लगता है।
महात्मा गाँधी और भगत सिंह के बीच या स्वतन्त्रता आन्दोलन में शामिल तथाकथित नर्म दल और गर्म दल के बीच के विवाद को कुछ ध्यान से परिक्षित करने का प्रयास करें, हम पायेंगे कि वहाँ दरअसल विवाद इन दोनों दलों की कार्य-पद्धतियों को लेकर उतना नहीं जितना वह इन दलों की मूल्य व्यवस्थाओं में राष्ट्र की स्थिति को लेकर था। गर्म दल का तर्क राष्ट्र को सभी ‘मूल्यों के मूल्य’ के रूप में स्थापित करने का था। जबकि महात्मा गाँधी के लिए व्यापक मनुष्यता के प्रति नीतिपरक व्यवहार (जिसे उन्होंने ‘हिन्द स्वराज’ में ‘धर्मों का धर्म’ कहा है) का निर्वाह ही राष्ट्रवाद समेत अन्य सभी मूल्यों का नियामक था। उनकी दृष्टि में इस ‘धर्मों के धर्म’ की अनुपस्थिति में हर सम्भावित ‘अन्य’ (अदर) के प्रति हिंसा जायज़ ठहर जा सकती है। वह एक बार शुरू होने के बाद किसी भी स्तर पर रुकती नहीं है। गाँधी जर्मनी, इटली और जापान जैसे देशों में प्रत्यक्ष और यूरोप के कई अन्य देशों में परोक्ष रूप से व्यवहृत राष्ट्रवाद की छाया में पनपती व्यापक हिंसा और लगातार बढ़ते तरह-तरह के अत्याचारों के प्रति सचेत थे। आज जब कई हल्कों में महात्मा गाँधी को भगत सिंह की तुलना में या सुभाषचन्द्र बोस के बरअक्स कमतर बताने की कोशिशें होती हैं तब, दुर्भाग्य से, इन आन्दोलनकारियों के मूल्यबोध पर विचार करना आवश्यक नहीं माना जाता। यही कुछ पश्चिम बंगाल के माक्र्सवादियों ने रवीन्द्रनाथ टैगोर और खुदीराम बोस की चर्चा करते हुए किया है। वे यह कहते थकते नहीं थे कि खुदीराम बोस की फाँसी पर रवि बाबू ने कुछ न लिखकर कोई बड़ा अपराध कर दिया था। इस आरोप की जड़ में भी अन्ततः राष्ट्रवाद को ही, भले ही प्रच्छन्न रूप से, अतिमूल्य मानना है। रवि बाबू के ये आरोपी यह देख नहीं पाते कि टैगोर के सामने किसी विशेष क्रान्तिकारी की नियति के साथ ही इस देश की नियति का प्रश्न उपस्थित था और इसीलिए उन्होंने जिस गहरायी से राष्ट्रवाद के भ्रम को समझा था वैसा आधुनिक इतिहास में कम ही हुआ है।
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बीसवीं शती में प्रयुक्त ‘राष्ट्र’ शब्द अँग्रेज़ी के ‘नेशन’ का अनुवाद है। (इस शब्द की उत्पत्ति वेद आदि प्राचीन वैदुष्य के ग्रन्थों में देखने वालों को यह समझने की आवश्यकता है कि उन ग्रन्थों में राष्ट्र शब्द का प्रयोग राष्ट्रवाद में आये राष्ट्र के अर्थ से नितान्त भिन्न है। यह एक तरह का आरोपित निरुक्त है जो राष्ट्रवाद में आये राष्ट्र शब्द को प्राचीन वैदुष्य से वैधिकृत करने के लिए वेदज्ञानशून्य अध्येयताओं और राजनेताओं के लिए किया जाता है।) नेशन का अर्थ सिर्फ़ भौगोलिक सीमा नहीं होता। उसका अधिक आधारभूत अर्थ एक भौगोलिक सीमा में रहने वाला जन समुदाय हुआ करता है। जैसा कि स्पष्ट ही है यह जन समुदाय एकवचनात्मक इकाई नहीं हुआ करता। एक देश में रहने वाला जन समुदाय अनेक सम्प्रदायों या समूहों में जीवनयापन करता है। इन तमाम जन समूहों के बीच सम्बन्ध सूत्र और संवाद अवश्य होते हैं पर इनकी अपनी-अपनी विशेषताएँ भी हुआ करती है। उनके इन सम्बन्ध सूत्रों और विशेषताओं के पुष्पित-पल्लवित होने से ही देश की संस्कृति समृद्ध होती रहती है। एक देशप्रेमी के लिए देश की विविध संस्कृतियों की यह समृद्धि ही देश की समृद्धि होती है। राष्ट्रवाद इस सांस्कृतिक वैविध्य पर एकाग्र होने की जगह देश के सांस्कृतिक वैविध्य को कुछ सर्वग्राही प्रत्ययों या अवधारणाओं में संकुचित कर उन्हें समूचे देश पर आरोपित कर देता है और इस तरह वह सांस्कृतिक वैविध्य और उसका आधार देश के भीतर की विविध संस्कृतियों के आपसी संवाद को अवरुद्ध कर देता है। यह इसलिए होता है क्योंकि राष्ट्रवाद अपने देश को अपनी संस्कृतियों के सन्दर्भ में परिभाषित करने के स्थान पर किन्हीं अन्य देशों से उसके अलगाव या उनके प्रति शत्रुता के सन्दर्भ में परिभाषित करने का प्रयत्न करता है। इसके लिए वह देश की आत्यन्तिक पहचान के स्थान पर उसकी विरोधात्मक पहचान को स्थापित करने का प्रयत्न करता है। बल्कि यह कहना ज़्यादा सही होगा कि वह देश की विरोधात्मक पहचान को ही उसकी मुख्य पहचान के रूप में, उसकी मौलिक अस्मिता के रूप में स्थापित करने का प्रयत्न करता है। जबकि एक देशप्रेमी के लिए यह पहचान देश की आत्यन्तिक पहचान के पीछे चला करती है। इसका आशय यह है कि एक राष्ट्रवादी अपने देश की आत्यन्तिक मूल्य व्यवस्था के सन्दर्भ में दूसरे देशों को परिभाषित करने की जगह दूसरे देशों की मूल्य व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में अपने को परिभाषित करना शुरू कर देता है। यह विचित्र स्थिति है: यहाँ एक देश अपनी पहचान को त्यागकर ही अपनी भ्रामक पहचान हासिल करने के प्रयास में उन तमाम संवादों को निष्प्राण करता चलता है जिनसे देश की अस्मिता आकार लिया करती थी।
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सन् 2000 के मई महीने में मैं कुछ हफ़्तों के लिए स्वीट्जरलैण्ड के जेनेवा से सौ किलोमीटर दूर के एक गाँव लेविनी में ‘राॅइटर इन रेसिडेन्स’ था। हम छह लेखक पाँच देशों यानि ब्रिटेन, अमरीका, माल्दोविया, चेक गणराज्य और भारत से आकर वहाँ साथ रह रहे थे। दिनभर हम अपने-अपने कमरों बैठकर अपना काम करते, शाम को साथ बैठकर बातें किया करते और खाते-पीते। हमारे साथ एक माल्दोवियायी नाटककार काॅन्स्टेण्टाईन केनू भी रह रहा था। वह शाम को हम सबसे अँग्रेज़ी में पर चेक कवि पीटर काबिश से अक्सर रूसी भाषा में बात किया करता था। इस समय तक माल्दोविया और चेक गणराज्य सोवियत रूस के कब्ज़े से आज़ाद हो चुके थे। मुझे यह आश्चर्य होता था कि इस ऐतिहासिक घटना के बाद भी इन दोनों लेखकों को रूसी भाषा में ही बातचीत करना पड़ता था। वही उनके बीच की सामान्य भाषा हो गयी थी। यह कैसी विडम्बना थी कि जिस भाषा के आरोपण के कारण केनू और काबिश की अपनी भाषाएँ लगभग नष्ट होने की कग़ार पर पहुँच गयी थी और इसीलिए उन दोनों ही लेखकों की घृणा का पात्र थीं, उन्हें उसी में बात करना पड़ रहा था। यह रूसी राष्ट्रवाद, जो वहाँ के कम्युनिष्ट शासन की छाया में ही शक्ति-सम्पन्न हुआ था, का दुष्परिणाम था पर जो क्षति इस आरोपण से हुई थी वह इससे भी कहीं अधिक है। मेरे पूछने पर काॅन्स्टेण्टाईन केनू ने मुझे बताया था कि सोवियन रूस के टूटने और माल्दोविया के स्वतन्त्र हो जाने के बाद माल्दोवियायी भाषा दोबारा माल्दोविया में सामान्य रूप से बोली जाने लगी है। पर अब उसमें नये उभरे राष्ट्रवाद का ज़हर भर गया है: अब माल्दोवियायी भाषा सहज बोलचाल या सृजन की भाषा नहीं थी, वह रूसी संस्कृति के विरुद्ध माल्दोवियायी संस्कृति की पहचान का वाहक हो गयी थी। इसका आशय यह है कि जो भाषा सोवियत रूस के माल्दोविया पर कब्जे़ के पहले माल्दोवियायी संस्कृति का सहज वहन करती थी, वह अब सोवियत संस्कृति (जो तब तक रूसी संस्कृति की तरह पहचानी जाने लगी थी) के विरोध के ज़हर से भर गयी थी। ऐसा ही लेतविया, युक्रेन, जार्जिया, तज़ाकिस्तान आदि देशों में हुआ था।
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पन्द्रहवीं शताब्दी से लेकर लगभग दो सौ वर्षों तक यूरोपीय जहाज अमरीकी महाद्वीप पर जाते रहे। उन दो सौ वर्षों में उन्होंने वहाँ अपने-अपने राष्ट्रों की स्थापना के लिए उस महाद्वीप के स्थानीय निवासियों को बहुत बड़ी संख्या में मार डाला। एक आकलन के अनुसार उन दौ सौ वर्षों में यूरोपीय विजेताओं ने लगभग उतने ही अमरीकी निवासियों (इंडियनों) को मार डाला था जितनी उस समय यूरोप की कुल जनसंख्या थी। यह राष्ट्रवाद का राष्ट्र को ही नष्ट कर देने का एक और पर दूसरे छोर से लिया गया उदाहरण है।
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राष्ट्रवाद नामक प्रत्यय को युद्ध के सन्दर्भ में ही निर्मित किया जाता है। यानि यह प्रत्यय एक निर्मिति है और उसके कुछ ऐतिहासिक सन्दर्भ यह हैं: जब जर्मनी को हिटलर ने सारे यूरोप के विरुद्ध परिभाषित कर उसे उनसे युद्ध के लिए प्रेरित और तैयार किया था, राष्ट्रवाद का शब्द जर्मनी में अत्यन्त लोकप्रिय हुआ था। यही कुछ अमरीका ने अपने को वियतनाम या कोरिया या अफगानिस्तान के विरुद्ध और सोवियत रूस ने खुद को सारे तथाकथित पूँजीवादी दुनिया के विरुद्ध और इन दिनों उत्तर कोरिया अमरीका के विरुद्ध कर रहा है।
इस तरह हम देख सकते हैं कि राष्ट्रवाद एक विरोधात्मक प्रत्यय है। इसका उपयोग देश को उसकी आत्यन्तिक सम्पूर्णता में परिभाषित या परिकल्पित करने के स्थान पर उसे दुश्मन देश के सन्दर्भ में परिकल्पित करने के लिए किया जाता है। इस तरह से देश को परिकल्पित करने का अगला चरण युद्ध की सीधी-सीधी तैयारी और फिर युद्ध हुआ करता है। इस शब्द के नागरिक (जानपदीय) मानस पर आरोपण से देश का सहज जीवन तनावग्रस्त हो जाता है और नागरिक (जानपदीय) इस तनाव का कारण दुश्मन-देश की उपस्थिति को मानना शुरू कर देते हैं। इस रास्ते देश का सहज जीवन-व्यापार धीरे-धीरे दुविधाग्रस्त होने लगता है। नागरिकों (जानपदीयों) में शत्रु देश या देशों के प्रति बढ़ा हुआ तनाव सिर्फ़ वहीं तक नहीं रहता, वह आगे फैलकर नागरिकों में अपने रोज़मर्रा जीवन में हर दूसरे नागरिक के प्रति भी होने लगता है और देश की हर आंचलिक संस्कृति अपने किसी भी तरह के संकट का कारण अपने ही देश की अन्य संस्कृति या नागरिकों (जानपदीयों) में देखने लगती है। इस तरह देश की संस्कृतियाँ और स्मृतियाँ एकांगी होकर अपनी सूक्ष्मताएँ खोने लगती हैं। भाषा और कलाएँ, नीति और मर्यादाएँ अपनी बारीकियाँ खोकर मानो अपने स्वत्व को ही खो देने की स्थिति में आ जाती हैं। शताब्दियों में असंख्य कल्पनाओं और स्मृतियों के सहारे बनी ये सूक्ष्मताएँ धीरे-धीरे देश के रोज़मर्रा जीवन से विदा लेने लगती हैं और इस तरह देश अपनी सांस्कृतिक समृद्धि को खोने की शुरुआत कर देता है। जिसका अर्थ यह है कि वह अपने हज़ारों साल के जीवनानुभवों को बहुत थोड़े समय में ही निष्प्राण करने लगता है।
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राष्ट्रवाद का उभार शून्य में नहीं होता। कुछ ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं जिनके कारण राष्ट्रवाद की भावना को पनपने का अवसर मिल जाता है। कम-से-कम भारत में इसके उभरने के पीछे हमारा आधुनिकता का अन्धा-स्वीकार और अपनी पारम्परिक दृष्टियों का उतना ही अन्धा तिरस्कार है। स्वतन्त्रता के बाद से हमारी शिक्षा संस्थाओं से यह सहज प्रत्याशा थी कि वे अँग्रेज़ी शासकों द्वारा अँधेरे में धकेल दी गयी हमारी पारम्परिक जीवन दृष्टियों को पुनर्जीवित करने का प्रयास करेंगी। वे हमारी शिक्षा संस्थाओं से तिरस्कृत इस सभ्यता की ज्ञान परम्पराओं में शोध कर उन्हें दोबारा संस्थानीकृत करने का प्रयास करेंगी। दुर्भाग्य से न तो ऐसा शिक्षा संस्थाओं में हो सका और न हमारे अन्य बौद्धिक विमर्शों में। हम बौद्धिक धीरे-धीरे अपनी सभ्यता के दैनन्दिन जीवन से बहुत हद तक कटे हुए विमर्श में शामिल होते चले गये। हम यह मान चल निकले कि हमारी पारम्परिक विमर्श पद्धतियाँ इस योग्य ही नहीं थी कि उन्हें आधुनिक पश्चिमी विमर्शों के साथ बराबरी का दर्ज़ा दिया जा सके। हम यह भूल गये कि जब हम आधुनिक शिक्षा संस्थाओं से अपने पारम्परिक विमर्शों की स्मृति को अनायास ही मिटाने के अँग्रेज़ों के कार्य को आगे बढ़ाने में लगे थे। यही पारम्परिक विमर्श अपनी गहनता और अपना सत्य खोकर, अपने निकृष्टतम रूप में हमारे जीवन में पिछले दरवाजे से आकर हमारे विमर्शों पर अपनी छाया डालने लगा है और यहीं से राष्ट्रवादी विमर्श के सबल होने की शुरुआत हुई हो सकती है। दूसरे शब्दों में हमारे देश में राष्ट्रवाद के विमर्श के शक्तिशाली होने का कारण हमें हमारी शिक्षा व्यवस्था और स्वातन्त्र्योत्तर बौद्धिक विमर्श में खोजना होगा। हमारे बौद्धिकों ने पारम्परिक विमर्शों के जिन व्यापक इलाकों की अवहेलना की थी, वे राष्ट्रवाद के विमर्श में अपने स्थूलतम और सतही रूप में प्रकट हो गये हैं। अगर हमारे बौद्धिक विमर्श आज भी अपने को प्रश्नांकित करने के स्थान पर सिर्फ़ किन्हीं नीतियों या लोगों का दानवीकरण (डेमोनाइजे़शन) करते रहेंगे- जैसा कि आज अधिकतर तथाकथित वामपन्थी बौद्धिक कर रहे हैं- राष्ट्रवाद का विमर्श और उसकी भावना निरन्तर अधिक शक्ति सम्पन्न होते चले जायेंगे।
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देशप्रेम या देश भक्ति तात्विक होती है, प्रतिक्रियात्मक नहीं। उसके लिए किसी भी दूसरे देश से घृणा की अनिवार्यता नहीं हुआ करती। देशप्रेमी एक समय में एक से अधिक देशों के प्रति अनिवार्य रखते हुए भी अपनी देशभक्ति को बनाये रख सकता है, अपने देश के प्रति अपना धर्म निभा सकता है। जैसा कि महात्मा गाँधी ने अपने देश के प्रति सारी उम्र निभाया था। उनका योगदान भारत को औपनिवेशिक शासन की दासता से मुक्त कराना भर नहीं था (जिसे कमतर दिखाने की तमाम कोशिशें पहले वामपन्थी और अब दक्षिणपन्थी कर रहे हैं), उन्होंने इस सभ्यता को उसकी सुक्ष्मता में उसकी गहनता में समझकर उसकी चेतना को भारत की जानपदियों और नागरिकों में जगाने और उसके लिए आत्मालोचनात्मक दृष्टि रखने का आह्वान किया था। पर हम उस राह पर स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद दूर तक चल नहीं सके। पर इससे वह राह बन्द नहीं हुई है। उस पर चलकर ही राष्ट्रवाद को निरे नारों के स्थान पर किन्ही ठोस विचारों और समझ से प्रश्नांकित किया जा सकता है।

 
      

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