वरिष्ठ पत्रकार-लेखक रंजन कुमार सिंह ने हाल में मॉरिशस में संपन्न हुए विश्व हिंदी सम्मलेन की निष्पक्ष रपट लिखी है. यह रपट muktakantha.org से साभार प्रस्तुत है- मॉडरेटर
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उद्घोषणा होती है – अब थोड़ी देर में आपको नाश्ता परोसा जाएगा।
अपना एअर इंडिया होता तो घोषाणा होती – अब थोड़ी देर में जलपान दिया जाएगा।
मैं एअर इंडिया की बजाय एअर मॉरिशस से सफर कर रहा हूं, जोकि मॉरिशस में आयोजित 11वें विश्व हिन्दी सम्मेलन के प्रायोजकों में एक है। भारत की हिन्दी में जहां आभिजात्य संस्कार दिखाई देता है, वहीं मॉरिशस की हिन्दी गवँई गमक से सराबोर है।
इसी विमान से पश्चिम बंगाल के राज्यपाल श्री केशरीनाथ त्रिपाठी, लोक भाषा एवं संस्कृति के क्षेत्र में कार्यरत हिन्दी कथाकार डा0 विद्याबिन्दु सिंह, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष डा0 स्मिता चतुर्वेदी और उनके पति श्री आनन्द चतुर्वेदी, विभिन्न मंत्रालयों की राजभाषा समितियों से जुड़े श्री वीरेन्द्र यादव, आधुनिक साहित्य के संपादक श्री आशीष कंधवे, हिन्दी बुक सेन्टर के श्री अनिल वर्मा, नार्वे में हिन्दी का परचम थामनेवाले श्री सुरेश चन्द्र शुक्ल आदि अनेक जाने-पहचाने व्यक्ति मॉरिशस की यात्रा कर रहे हैं। हम सब का मकसद एक ही है, विश्व हिन्दी सम्मेलन में भाग लेना।
चूंकि यह विमान दिल्ली से उड़ान भरकर सीधा मॉरिशस उतरेगा, इसलिए इसपर हम ही लोग अधिक हैं। एअर मॉरिशस ने सम्मेलन के प्रतिभागियों के लिए किराये में 20 फीसदी की छूट भी दी है। हालांकि इस छूट के बावजूद ट्रैवल एजेण्ट से टिकट कटाना सस्ता पड़ा है और इसलिए हममे से कईयो ने एअऱ मॉरिशस से टिकट न लेकर ट्रैवल एजेण्ट से ही टिकट ले रखा है। इससे पहले 8वें विश्व हिन्दी सम्मेलन में मैं सरकारी प्रतिनिधिमंडल में शामिल रहा था, पर इस बार मेरे आने-जाने की व्यवस्था तक्षशिला एडुकेशन सोसाइटी ने की है, जिसका मैं फिलहाल मानद अध्यक्ष हूं। मेरी पत्नी रचना अलग विमान से यात्रा कर रही हैं। चूंकि उनका कार्यक्रम देर से तय हुआ, इसलिए उन्हें दिल्ली से मॉरिशस की सीधी उड़ान में जगह नहीं मिल सकी। इसी तरह कई मित्रों को मुंबई होकर जाना पड़ा है तो कई को चेन्नै होकर। कुछ को तो दो-दो जगहों पर रुककर मॉरिशस पहुंचना पड़ रहा है, बरास्ता दुबई, नैरोबी या सेशल्स।
बहरहाल, एअर मॉरिशस ने एक पूरा विमान ही सरकारी प्रतिनिधियों के लिए रख छोड़ा है। इसमें किसी को टिकट कटाने की जरूरत नहीं पड़ी है। यह 17 अगस्त 2018 की रात एक बजे दिल्ली से चलकर सुबह-सबह सात बजे मॉरिशस पहुंच रहा है। सरकारी प्रतिनिधिमंडल में कितने लोग शामिल हैं, इसकी सूचना आधिकारिक तौर पर नहीं दी गई है। यहां तक कि सरकारी प्रतिनिधिमंडल में शामिल व्यक्तियों की सूची भी नहीं जारी की गई है। दिल्ली से रवाना होने के पहले मैंने विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज के हिन्दी सम्मेलन संबंधी ट्वीटर संवाद पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए मांग की थी कि अब तो सम्मेलन शुरु होने को है, तब तो यह सूची जारी कर दी जाए। परन्तु सोशल मीडिया और खास तौर पर ट्वीटर पर बेहद सक्रिय रहकर अपनी संवेदना और सहानुभूति का परिचय देनेवाली सुषमाजी ने भी इसपर कोई ध्यान नहीं दिया और विश्व हिन्दी सम्मेलन के वेबसाईट पर सरकारी प्रतिनिधिमंडल के पन्ने पर आज भी यही लिखा है – शीघ्र अपलोड किया जा रहा है!
अब कब? सम्मेलन तो 20 अगस्त 2018 को सम्पन्न भी हो चुका! इससे यही लगता है कि इस सरकारी प्रतिनिधिमंडल के बारे में बताने के लिए जितना रहा होगा, उससे कहीं अधिक छिपाने के लिए रहा। मॉरिशस में जब इस प्रतिनिधिमंडल के सदस्य मिले भी तो उनकी पहचान उनके गले में लगी पहचान-पट्टी से ही हो सकी, उनके चहरों या व्यक्तित्व से नहीं। जाहिर है कि हिन्दी के अनेक जाने-माने विद्वान-आलोचक सम्मेलन में कहीं नजर नहीं आए, उनकी जगह नए लोगों ने ले ली। सरकारी प्रतिनिधिमंडल के चयन का कोई तार्किक आधार नहीं दीख पड़ा। एक सवाल जो मुझ जैसे अनेक लोगों को परेशान करता रहा, वह यह कि हिन्दीसेवी की परिभाषा क्या हो? हिन्दी के प्रति उनकी निष्ठा उनके हिन्दीसेवी होने का प्रमाण माना जाए या सरकार के प्रति उनकी निष्ठा को आधार बनाया जाए? पूर्व काल में तो कम से कम गाँधीवादियों के साथ-साथ प्रगतिशील या मार्क्सवादी चिन्तक-आलोचक नजर आते थे, अब तो सिर्फ और सिर्फ एक ही विचारधारा के लोग शामिल थे – भले ही हिन्दी जगत में उनकी पहचान हो या ना हो।
चूंकि एक पूरा विमान ही सरकारी प्रतिनिधियों के लिए सुरक्षित था, इससे यह तो समझा ही जा सकता है कि उनकी संख्या तीन सौ के आसपास तो रही ही होगी। इतने सारे प्रतिनिधियों की वहां आवश्यकता क्या थी, पता नहीं। वहां बोलनेवाले तो गिनती के ही थे। बल्कि श्री वीरेन्द्र यादव, डा0 विद्याबिन्दु सिंह, श्रीमती करुणा पाण्डेय, आदि जिन लोगों का पर्चा सम्मेलन में प्रस्तुति के लिए शामिल किया गया था, वे भी उस प्रतिनिधिमंडल में शामिल नहीं रहे थे। दूसरी तरफ श्रीमती चित्रा मुद्गल जैसे कुछ नामी-गिरामी हिन्दी साहित्यकार सरकारी प्रतिनिधिमंडल की शोभा बना दिए गए, पर मंच पर उनके लिए कहीं कोई जगह नहीं थी। हां, श्री नरेन्द्र कोहली भाग्यवान थे कि किसी सत्र में उनकी झलक दीख पड़ी। दूसरी ओर एक ख्यातिप्राप्त हिन्दीसेवी तो ऐसे भी थे, जो अपने पूरे कुनबे के साथ सरकारी प्रतिनिधिमडल में शामिल थे। मजा यह कि इससे पहले के सम्मेलनों में भी वे उसी तरह पूरे कुनबे के साथ सरकार के खर्चे पर सफर करते रहे हैं। एक ही नहीं, अनेक सत्रों में उनका दबदबा कायम रहा, जबकि मॉरिशस के हिन्दीसेवी सर्वश्री रामदेव धुरंघर, राज हीरामन, रेशमी रामथोनी, धनराज शंभु, आदि अपनी बारी की प्रतीक्षा ही करते रहे।
वैसे सरकारी प्रतिनिधिमंडल की पोल-पट्टी तो सम्मेलन के पहले दिन ही खुल गई, जब भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्रद्धेय अटल बिहारी वायपेयी के निधनोपरान्त सभी मनोरंजन कार्यक्रम रद्द कर दिए गए और पूर्व निर्धारित भोपाल से मॉरिशस कार्यक्रम के स्थान पर अटलजी की स्मृति में शोकसभा का आयोजन किया गया। निश्चय ही यह एक अच्छी सोच थी, जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा होनी चाहिए, पर इसका क्रियांवयन जिस ढंग से हुआ, उसने कार्यक्रम की गरिमा को बढ़ाने की बजाय घटाया ही। अव्वल तो अटलजी के जिन नौ चित्रों का चयन बेक ड्रॉप के तौर पर किया गया, उसमें भाजपा के झंडे के साथ उनका चित्र तो था, पर तिरंगे के साथ कोई चित्र नहीं था। इस तरह विदेश मंत्रालय ने अटलजी जैसे उदात्त एवं हरदिल अजीज भारतीय प्रधानमंत्री को देश के बाहर एक सांस्कृतिक मंच पर फकत भाजपाई नेता बनाकर धर दिया। दूसरे, इस अवसर पर बोलनेवालों के तेवर और विषयवस्तु से उनका राजनैतिक संबंध बखूबी झलकता रहा और समझ में आता रहा कि सरकारी प्रतिनिधिमंडल में नरेन्द्र कोहली तथा चित्रा मुद्गल की आड़ में कौन लोग भरे पड़े हैं।