Home / Uncategorized / अनुकृति उपाध्याय की कविता ‘अंधे’

अनुकृति उपाध्याय की कविता ‘अंधे’

कविता अपनी लक्षणा-व्यंजना के कारण महत्वपूर्ण बन जाती है, प्रासंगिक बन जाती है। हिन्दी अँग्रेजी दोनों भाषाओं में समान रूप से लेखन करने वाली अनुकृति उपाध्याय की यह कविता अच्छा उदाहरण है। किताबों के बहाने समकालीन राजनीति पर बहुत कुछ कह जाती है। अनुकृति की एक कहानी अभी ‘हंस’ में आई है ‘इन्सेक्टा’। एक अंतरराष्ट्रीय वित्त संस्था में काम करने वाली अनुकृति की  एक उपन्यासिका अँग्रेजी में हार्पर कॉलिन्स से आ रही है। फिलहाल यह कविता पढ़िये- मॉडरेटर

==================

अंधे

कल शाम
मेरे घर आए चार अंधे
पहला किताबों की आलमारी से जा टकराया
और चिल्लाया –
ये क्या? ये क्या?
इतनी किताबें?
तुम ज़रूर इनसे किलाबंदी कर रहे हो
हम पर वार करना चाहते हो

दूसरा बौखलाया –
वार? वार?
हम पर वार?
षड़्यंत्र
तुम हमारे ख़िलाफ़ षड़्यंत्र रच रहे हो

तीसरा कुरलाया –
षड़्यंत्र! षड़्यंत्र!
हमारी हत्या का षड़्यंत्र
तुम बर्बर ख़ूनी हत्यारे
तुम हमारे विरोधी हो

चौथा डकराया –
विरोधी हो! विरोधी हो!
तुम राष्ट्र-विरोधी हो
बच कर नहीं जा सकते
गौ माता की जय!

मैं हतप्रभ रह गया
सभी जानते हैं कि मेरी किताबों में
बस वही सब है जो हो रहा है
या हो चुका है
या जो होना चाहिए था मगर नहीं हुआ
या जिसके होने की आशंका भी नहीं थी
लेकिन हो गया

मैंने कहा –
ये बम या बन्दूक़ या ख़ूनी नारे नहीं
ये काग़ज़ और रोशनाई की बेटियाँ हैं
देखो, देखो ये किताबें हैं…

अभी मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी
कि एक पाँचवां घुस आया –
सब सुनो, सब सुनो
वह गुर्राया
यह हमारे अंधेपन का मज़ाक बना रहा है
हमें, जिन्हें अपने अंधेपन पर गर्व है
हमें कह रहा है – देखो
कल कहेगा – समझो
परसों – सोचो!
इसे मार दो और यहीं गाड़ दो
इसकी साँसों में संक्रमण है
और इसके शब्द विष-वमन हैं

मैं घबराया –
भाई ये क्या कह रहे हो?
मेरी साँसें देश की हवा हैं
और मेरे शब्द तुमसे साझे हैं…

लेकिन पाँचवा मेरे स्वर के ऊपर गरजाया –
तुम इसकी बातों पर मत जाओ
इसके सूती कपड़ों और सादा सूरत पर मत जाओ
अगर इसे आज नहीं दफ़नाया
तो यह अकेला तुम्हें,
तुम्हारी संतानों,
और उनके वंशजों को आक्रांत कर डालेगा!

चारों अंधे मेरे चौगिर्द घिर आए
उनके बीसियों सर पचासों बाज़ू उग आए
अनझिप अंधी आँखों में
आग धुंधुआने लगी
मैं हकलाया –
सूती कपड़े, सादा सूरत…?
लेकिन, लेकिन
तुम तो देख नहीं पाते
अपने अंधेपन के गौरव में चूर हो
फिर, फिर कैसे…

पाँचवे के चेहरे पर
तलवार-धार सी मुस्कान
चिर गई
इसकी बातों पर मत जाओ
इसकी बातों पर मत जाओ
उसने दोहराया
यह हमारा द्रोही है
यानी राष्ट्र का द्रोही है
हम पर देखने का आरोप लगा रहा है
हम, जो कुछ नहीं देखते हैं
कभी नहीं देखते हैं
और उसने
अपनी आँखें उतारीं
और जेब में धर लीं…

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

आशुतोष प्रसिद्ध की कविताएँ

युवा कवि आशुतोष प्रसिद्ध की कविताएँ विभिन्न प्रतीकों के जरिए बहुत सी बातें कहती चली …

4 comments

  1. Thanks for sharing your thoughts. I really appreciate your
    efforts and I am waiting for your next post thanks once again.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *