विष्णु खरे की एक असंकलित कविता कवि-संपादक पीयूष दईया ने उपलब्ध करवाई है। विष्णु खरे की स्मृति को प्रणाम के साथ- मॉडरेटर
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वसन्त
वे दौड़ कर दीवार तक पहुँच जाते हैं
दरारों में झाँक
वापस मेरी ओर गर्दन मोड़ कर मेरी पीठ से पूछते हैं
क्या तुम गंधस्नाता वासन्ती बयार नहीं पहिचानते?
क्या तुम वृक्षों का वासन्ती गान गुन नहीं पाते?
क्या तुम वासन्ती दूब में बिखरा इन्द्रधनुष नहीं देखते?
मैं वसन्त चीन्हता था, मैं वसन्त सुनता था, मैं वसन्त देखता था
किन्तु अब दीवार की हिड़कन का आश्रित नहीं होना चाहता
जिसकी एक ईंट तुमने और एक ईंट मैंने रखी है
सन्धियों से वसन्त देखना आसान है
मैं समूची दीवार गिराने के बाद मलबे पर बेलचा रख
खारी आँखों वसन्त देखूँगा
(संज्ञा पत्रिका के मार्च १९६८ के अंक में प्रकाशित)
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