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भिंचे जबड़ों को खुलकर हँसने देने का मौका देने वाली फिल्म

सिनेमा पर मुझे अक्सर ऐसे लोगों का लिखा पसंद आता है जो उस विषय के पेशेवर लेखक नहीं होते हैं. फिल्म ‘बधाई’ हो’ पर यह टिप्पणी डॉ. आशा शर्मा ने लिखी है. दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में पढ़ाती हैं, रंगमंच की विशेषज्ञ हैं और एक पठनीय टिप्पणी उन्होंने इस फिल्म पर लिखी है- मॉडरेटर

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यह सुखद बात है कि थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद बॉलीवुड में लीक से हटकर, नए विषयों के साथ अच्छी हिन्दी फ़िल्में आ रही हैं जिन्हें परिवार एक साथ बैठकर देख पाता है. पिछले हफ्ते रिलीज हुई ‘बधाई हो’ फिल्मों की इस सूची में नया नाम है. मात्र एक दृश्य के चलते सेंसर बोर्ड ने इसे ‘अभिभावकों के मार्गदर्शन’ में देखने का प्रमाणपत्र दिया है.

आज से लगभग आधी शताब्दी पहले तक अधेड़ उम्र में संतान हो जाना स्वाभाविक बात थी. दिल्ली-देहात में स्वयं मेरे पिताजी अपने दो सबसे बड़े भाई-बहनों की शादी के बाद पैदा हुए थे. बच्चों को भगवान की देन समझने-कहने वाली और परिवार-नियोजन, गर्भ-निरोधकों से बेखबर भारत की जनता में दर्जन-भर संतान पैदा करने के बाद माँ-बेटी या सास-बहू को एक साथ गर्भ धारण किये देखा जाना आम बात थी. बढ़ती आबादी के खतरों, भरण-पोषण, बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता, आर्थिक दबावों के चलते ‘आधुनिक’ कहे जाने वाले हमारे समाज में अब अधेड़ उम्र में संतानोपत्ति करना (यदि कोई शारीरिक बाध्यता न हो तो) ‘अपच’ वाली बात हो गयी है. इंसानों के बनाए समाज ने इंसानी जीवन को देखने के चश्मे इस तरह के गढ़ दिए कि उनसे ज़रा बाहर निकलते ही अपने-पराये सबकी नज़रें टेढ़ी और पैनी हो जाती हैं. लेकिन एक माँ, जिसने अपनी ‘अनवांटेड संतान’ को इस संसार में लाने का फैसला कर लिया है, अपने फैसले पर अडिग है. वह हार नहीं मानती, खुद की संतान, सास, पड़ोस, रिश्तेदारी – सबकी तरेरी नज़रों को चुपचाप सहन करती है. और ख़ास बात ये कि पति-पत्नी अपने खुशनुमा पलों के इस चौका देने वाले परिणाम के प्रति ‘जस्टीफिकेशन’ देते नज़र नहीं आते. अधेड़ उम्र में सेक्स जैसे ‘बोल्ड’ विषय को लेकर मध्यम वर्ग की मानसिकता और समाज के ताने-बाने को बारीकी और संजीदगी से ‘बधाई हो’ में प्रस्तुत किया गया है.

फिल्म के केंद्र में दिल्ली की लोधी कालोनी के सरकारी क्वार्टर्स में रहने वाली अपने दायरों में खुशहाल मध्यवर्गीय कौशिक-फैमिली है. पच्चीस वर्षीय नकुल की भूमिका में आयुष्मान खुराना इस परिवार का बड़ा लड़का है जो एक एम.एन.सी. में काम करता है और उच्च वर्ग से ताल्लुक रखने वाली गर्ल फ्रेंड रिने (सान्या मल्होत्रा) से प्यार की पींगे बढाने और शादी के सपने देखने में व्यस्त है. बूढ़ी दादी हैं जो सास के रूप में तुनकमिजाज और हर बात का दोष पुत्रवधू के सिर मढने में पारंगत हैं. सहृदय पिता (गजानन राव) रेलवे में टी.टी.ई. हैं जिन्हें रोमांटिक कविता रचने का शौक है. माँ प्रियंवदा (नीना गुप्ता) एक कुशल गृहिणी के रूप में दिन-रात परिवार की चिंता में खटती और बात-बेबात कसे गए सास के मारक तानों से अन्दर-ही-अन्दर कुढती रहती हैं. छोटा भाई गुलर बारहवीं में है.

इस रूप में यह ‘कम्प्लीट फैमिली’ अपने दिन गुजार रही होती है. एक रात पत्रिका में छपी स्वरचित कविता के पाठ और बाहर कविता के ही वाकिफ मौसम के तालमेल में अधेड़ पति-पत्नी बह जाते हैं. 19 हफ्ते बाद पता चलता है कि पत्नी को गर्भ ठहर गया है. गर्भपात गिराने का बहुत कम समय रहते हुए भी पत्नी अपनी संतान की गर्भ-हत्या करने से साफ़ मना कर देती है. पति, पत्नी के मनोभावों और निर्णय को पूरी इज्जत देते हुए परिवार, पड़ोस और रिश्तेदारी में पत्नी के साथ खड़ा दीखता है. एक माँ-बाप अपनी आने वाली संतान के कारण अपने वर्तमान ‘जवान-किशोर लड़कों’ की नज़रों का किस प्रकार सामना करते हैं – इसे बेहतरीन तरीके से फिल्माया गया है. जिस घर में बड़े बेटे की शादी के सपने देखे जा रहे हों वहां एक और ‘नए मेहमान’ के आने की खबर से संबंधों में खिंचाव आ जाता है. पड़ोसी से लेकर रिश्तेदार तक सभी ‘ताने के अंदाज में बधाई’ देते हैं. बहसो-बहस में नकुल की गर्ल फ्रेंड से ब्रेक-अप की नौबत आ जाती है.

फिल्म ऐसे अनेक छोटे-बड़े दृश्यों से भरपूर है जो बरबस आपको लोट-पोट होने के लिए मजबूर करते हैं वहीं कई दृश्यों में बहुतेरे दर्शक आंखों के कोने पोंछते देखे गए. अमित रविंदरनाथ शर्मा ने बेहतरीन निर्देशिकीय कला का परिचय दिया है. कहानी का कोई भी दृश्य अनावश्यक और बोझिल नहीं लगता. पटकथा पर बहुत बारीकी से काम किया गया है. फिल्म का पूर्वाद्ध तनाव से भरपूर है. उत्तरार्द्ध को क्लाईमेक्स पर ले जाकर धीरे-धीरे सधे हुए ढंग से सम्भाला गया है. ‘अपने तो आखिर अपने हैं’ के अन्दाज में फिल्म सुखद अंत तक पहुँचती है. बच्चों को बड़ा और आत्म-निर्भर बनाने के बाद पति-पत्नी की आपसी ‘बोन्डिंग’ कम नहीं होती बल्कि ‘और’ गहराती है. इस बात को मधुर मुस्कराहट से फिल्म समझा जाती है.

एक दूसरे सिरे पर यह फिल्म उच्च व मध्य वर्ग की सोच की नजदीकियों और दूरियों के द्वंद्व की ओर भी इशारा करती है. दिल्ली के पॉश इलाके में रहने और हाई-फाई सोच वाली चंचल, शोख, बिंदास रेने और उसकी माँ अपनी भूमिका में खूब जमी हैं. रेने की माँ (शीबा चड्ढा) में अमीरों की चाल-ढाल, पहनावा, भाषा, चेहरे के ‘अति सभ्य’ भाव – तनी और चढी नाक, गर्दन अकड़ी और थोड़ी ऊपर उठी ठोड़ी – अमीरी को सर्वांगता में दर्शाती है.

फिल्म के सारे किरदार अपनी भूमिकाओ में बेजोड़ हैं. थोड़े कंजूस पारंपरिक सरकारी बाबू, चेहरे पर हमेशा मंद मुस्कान धारण किये, कविहृदय, पुत्र-पिता-पति की भूमिका में गजराज राव खूब जमे हैं. नीना गुप्ता ने एक ‘स्त्री’ के विभिन्न पहलुओं को कुशलता से पेश किया है. निश्छल स्नेहमयी माँ – जो ‘आनेवाली’ और ‘आ चुकी’ संतानों में कतई भेदभाव नहीं करती. शांत दिमाग परिवार को मजबूती से बांधता है – बिन बोले कह गयी हैं. नकुल की भूमिका में आयुष्मान खुराना ने जवान लड़के के माँ-बाप द्वारा अनजाने में आहूत टेंशन को खूब झेला है. चारित्रिक-ग्राफ की दृष्टि से वे सशक्त किरदार बनकर उभरे हैं. और सबसे लाजवाब रही हैं दादी की भूमिका में – सुरेखा सीकरी. वे 1970-80 के दशकों में हिन्दी रंगमंच की बेहतरीन-अनुभवी अभिनेत्री के रूप में प्रतिष्ठित रहीं. उनके अभिनय में यह अनुभव दीखता है. जिस भी दृश्य में आई – छा गयीं! नकचढी और सख्त ‘सास’ से लेकर समझदार-अनुभवी ‘माँ’ तक की यात्रा में वे खूब फबी हैं. समाज के ‘संस्कारी’ होने की बखिया को निर्ममता से उधेड़ते हुए वे पति-पत्नी के प्यार और ‘सेक्स’ को खूबसूरती से बयान कर जाती हैं.

फिल्म का संगीत कहानी की मांग के अनुरूप सटीक – कभी चुस्त तो कभी संजीदा – मन को छू लेने वाला है. कैमरे ने कुछेक दृश्यों में दिल्ली, मेरठ और गुरुग्राम की लोकेशंस को खूबसूरती से कैद किया है. और हाँ! मारुति वैगन-आर के पुराने मॉडल की कार, जिस पर डेंजरस स्टाइल में KAUSHIK’S लिखा है – फिल्म में कई घटनाओं की गवाह बनते हुए दौड़-भाग करती दिखती है. साथ ही, घर की वह मुंडेर भी –  आने वाले मेहमान की खबर सुनकर निकाली गयी कुढन, ‘गिल्ट फील’ करते हुए तिरस्कृत मम्मी-पापा के प्रति पुनः प्यार की उमड़न, मम्मी के साथ गर्ल-फ्रेंड से ब्रेक-अप की शेयरिंग – तमाम अलग-अलग अंदाजों को इस मुंडेर ने बाखूब धारण किया है.

किसी भी सशक्त फिल्म की पहचान यह है कि वह बिना उपदेश झाड़े और बिना गला फाड़े दर्शकों को ‘कुछ’ दे जाय – ‘बधाई हो’ यह काम करती है. मूल विषय के साथ ही मध्यवर्गीय भजन-कीर्तन-तंबोला, दोस्तों के मज़ाक और चुलबुल शरारतें, भाई-भाई की बॉन्डिंग, समलैंगिक के मनोभावों न समझने वाले ‘अपने’, एटीएम पिन नंबर शेयर न करना – जैसे तमाम मुद्दों को बड़ी सुन्दरता से छूकर निकल जाती है.

‘बधाई हो’ पर साहित्यिक चोरी का आरोप भी लगा है जो मन खराब करता है. इस मसले को जल्द ही सुलझा लेना चाहिए. बहरहाल! लब्बोलुआब ये है कि भागमभाग-भरी जिन्दगी में कुछ सुकून पाने और तनाव से ‘भिंचे जबड़ों को खुलकर हँसने देने’ के लिए फिल्म को देखा जा सकता है.

 
      

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