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दोन किख़ोते: विश्व साहित्य की एक धरोहर

स्पैनिश साहित्य की अमर कृति ‘दोन किख़ोते’ पर यह लेख सुभाष यादव ने लिखा है. वे हैदराबाद विश्वविद्यालय में स्पैनिश भाषा के शोधार्थी हैं, मूल स्पैनिश भाषा से हिंदी में अनुवाद करते हैं. एक विस्तृत और रोचक लेख- मॉडरेटर

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वैसे भी भला नाम में  में क्या रखा है जो जी में आए समझ लीजिये हालाँकि स्पेनिश भाषा के इस सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक कृति को स्पेनिश भाषी दुनिया, और अंग्रेजी को छोड़ बाकी सभी यूरोपीय भाषाओं में  दोन किख़ोते के नाम से जाना जाता है।  भारत में इस महान उपन्यास का परिचय कराने का श्रेय विलायती बाबूओं को जाता है, जिन्होंने स्पेनिश जनता से कहीं ज्यादा इसे पढ़ा और अध्ययन किया। अंग्रेजो ने जाने अनजाने में आधुनिक विधि व्यवस्था, शिक्षा, उपकरण आदि से लैश हो कर यहाँ राज तो किया ही मगर साथ ही साथ भारतीय समाज के दीवारों में अनंत खिड़कियाँ और दरवाजे भी ठोक डाले जिनसे न वे सिर्फ़ वो आपस की नजदीकी दुनियाँ का जायजा ले सके बल्कि धरती के दूसरे छोरों पर स्थित, पाताल और आकाश जैसे दूर स्थित दुनियाँ की दास्तान भी पढ़ सके. इस संदर्भ में दोन किख़ोते से हमारा परिचय किसी अजूबे से कम नहीं हैं। समझ लीजिये कोई हमें पत्थर मारते समय अपनी अँगूठी के अनेको नगीने भी फेंक गया, जिन्हें आज सहेजने की जरुरत है।

लेखक पात्रों के कंधो पर बैठ सवारी करता है, और पात्रों के उस दुनियाँ का आँखों देखे हाल को शब्दों में उकेर कर पाठक तक पहुँचाता हैं।  कभी कभी तो वो अपने दुःस्वप्न में आने वाले पात्रों के कन्धों पर भी बिलकुल काफ्का की तरह चढ़ बैठता है। मगर हमेशा नहीं। कभी कभी कल्पना के रॉकेट के पाइलट इन पात्रों पर से उस कथित लेखक का नियंत्रण खत्म हो जाता है और यहाँ तक की पात्र लेखक को अपने कन्धों से उतार फेंकते हैं। रोलैंड बार्थ की उद्घोषणा की लेखक मर चूका है, शायद देर कर चूका है। लेखक को तो कभी-कभी पात्रों की धक्का मुक्की में ही मर जाता है, और उस बेचारे को कागज के टुकड़ों पर या दीवारों में कैद पुस्तकालयों के अँधेरी गुफा सरीखे रैक में धूल फाँक कर, या तहख़ाने में दम घूँटकर या फुटपाथ पर कुचलकर मरने का मौका भी नहीं मिलकता।  कुछ ऐसा ही हुआ और दोन किख़ोते ने अपने लेखक मिगुएल दे सेरवांतेस को अपने जंग लगी तलवार से उसी वक्त मार दिया जब उस महान कथाकार सेरवांतेस ने उसके हाँथों में तलवार ढाल और घोड़े का सवार बना दिया। हम बेचारे सेरवांतेस को कम जानते हैं और दोन किख़ोते को उनसे ज्यादा।

 

आख़िर सेरवांतेस है कौन?   

दोन किख़ोते महान स्पेनिश उपन्यासकार मिगुएल(मिगेल) दे सेरवांतेस की अमर रचना है। मिगुएल दे सेरवांतेस का जन्म या सिर्फ सेरवांतेस जैसा की आमतौर पर उन्हें जाना जाता है, भारत की आजादी से ठीक 400 वर्ष पूर्व 1547 में स्पेन के राजधानी मैड्रिड से करीब 35 किलोमीटर दूर स्थित अल्काला दे एनारेस नामक एक छोटे से शहर में हुआ जो की गॉडजिला की तरह फैलते मैड्रिड शहर का अब मात्र एक हिस्सा भर है। सेरवांतेस की जीवनी भी इनके पात्रों की तरह ही फिल्मी(ख़ुशी, ग़म) और रोमांचकारी है। महज़ 18 साल के उम्र में देशनिकाले की सज़ा से इटली की तरफ भागते हैं, मगर सौभाग्यवश इनके जिंदगी के वो बेहतर पल हैं क्यूंकि रोम, नेपल्स या पूरा इटली में जो की उस समय कला, लेखन, चिंतन, आधुनिकता या कहें की पश्चिमी सभ्यता का समंदर है उन्हें गोते लगाने का मौका मिलता हैं। और युवक सेरवांतेस के अंदर एक बेचैन लेखक पैदा होता है. इटली के बहुत सारे भाग उस समय चूँकि स्पेनिश सम्राज्य के हिस्सा थे,  सेरवांतेस समन्दरों पे राज करने वाली स्पेनिश अरमादा में भर्ती होकर लेपांतो के युद्ध में भाग लेते हैं। ध्यान देने की बात है की उस समय ईसाई और ईस्लामीक दुनियाँ के बीच अनेकों युद्ध चल रहें हैं। तुर्की से सटे ग्रीस या यूनान का हिस्सा जिसे लेवांत के नाम से जाना जाता है, वहाँ 1571 के युद्ध में युवक सेरवांतेस तीन गोलिओं के शिकार होते हैं और उनका एक बाँह जोकि बुरी तरह से ज़ख़्मी हो जाता है, किसी काम के लायक नहीं रह जाता। हालाँकि काटने की नौबत नहीं आती। फिर भी उन्हें स्पेन में लेपांतो का लुल्हा कहा जाता है।

बहरहाल सेरवांतेस 1580 में स्पेन लौटने के बाद सेना से किनारा कर लेते हैं और सिविलियन नौकरी की तलाश करते में दक्षिणी स्पेन के शहर सेविल्या की ओर रुख करते हैं जो की उस समय स्पेनी सम्राज्य के उपनिवेशी ताकत का एक महत्वपूर्ण केंद्र है। लेकिन ये उपनिवेशवाद भी क्या ग़जब की व्यथा है, स्पेनिश साम्राज्य अपने ही जनता पर अनेकों कर लाद कर अपने सैनिक या उपनिवेशी काफिलों को दक्षिण अमरीकी देशों को रवाना कर रही है, और जो माल आ रहा है बाहर से वो भी राजा के खजाने में। खैर जो भी हो, नौकरीओं की भरमार है, देश के अंदर भी और बाहर भी। सेरवांतेस भी दक्षिण अमरीकी देशों में आई कुछ बहालियों की अर्जी देतें हैं मगर उनका अमेरिकन ड्रीम कामयाब नहीं होता और उन्हें देश के अंदर ही कर वसूलने वाले अधिकारी के रूप में नौकरी मिल जाती है।  लेकिन इंसानों की आह भी लगती है।  जाने अनजाने में कइयों को रुलाया होगा, तड़पाया होगा, उनका हक छीन कर राजा की तिजोरी भरी होगी। बस सेरवांतेस महाशय को भी खाते की गड़बड़ी की आरोप में जेल की हवा खानी पड़ी क्यूंकि जिस बैंक में कर जमा कर रहे थे वो दिवालिया हो गया।  खैर दिवालिया होना या लूट कर भाग जाना आज के आधुनिक भारत में वीरों और अमीरों की क्रीड़ा है।  पूरा सीना फुला के दिन दहाड़ें करते हैं। खैर जो भी हो। त्रासदी फिर भी पीछा नहीं छोड़ती और युद्ध से देश वापस लौटते वक़्त समुद्री डाँकू उन्हें और उनके भाई को बंधक बना कर बेरेबेर(उतरी अफ्रीका के मुस्लिम कबीले) सैनिको के हाँथों बेंच देते हैं। 1575 से 1580 के दौरान कैद युवक सेरवांतेस चार बार भागने का कोशिश करता है मगर जाओगे कहाँ गुरु बिच में समंदर है. अंततः उनका परिवार और उनके चर्च के लोग पैसा इकट्ठा करके उन्हें छुड़ा लाते हैं। छुड़ा क्या लाते हैं खरीदते हैं क्यूंकि उस वक़्त चल रही धर्म युद्ध के बीच ईसाई गुलाम समुंद्री डाकुओं के लिए एक  लाभकारी माल है। समंदर से उठा लाओ और मुस्लिम कबीलों को बेंच दो, फिर वो दुसरो को बेंचेंगे और जिस ईसाई के पास पैसा होगा वो खरीद कर ले जाएगा। तुर्की में ईसाई महिलाओं की जबरदस्त माँग थी, और तटवर्ती ईसाई गाँवों की दहशत उनके लोक कथाओं में भरी पड़ी है।

जिंदगी के थपेड़ों और समय की मार ने सेरवांतेस को सॉलिड बना दिया और समय से पहले ही पूर्ण परिपक्व लेखक अपनी पहली कृति ला गालातेया सन 1585 में प्रकाशित करता हैं। शहर, गांव, गरीब, अमीर और तमाम तरह की लम्बी लकीरों को काटती छाँटती यह उपन्यासिक कृति, उपन्यास और प्रचलित दन्त कथाओं के बिच की एक कड़ी है।  थोड़ी सी प्रसिद्धि के बाद सेरवांतेस अपनी कभी न रुकने वाली लेखकीय विधा को 1605 में दुनिया के सामने अपनी सबसे मशहूर कृति दोन किख़ोते का पहला भाग प्रकाशित करते हैं। सेरवांतेस अपनी पूरी कोशिशों के बावज़ूद औपनिवेशिक जहाज़ पर सवार होकर नई दुनिया(दक्षिण अमेरिका) तो नहीं जा पाए लेकिन उनकी कृति प्रकाशन के महज कुछ ही महीनों बाद सज धज कर सैकड़ों की संख्या में लकड़ी और कील से बनी सुरक्षित बक्सों में लद कर अटलांटिक महासागर के उस पर पहुँच गयी जहाँ अमरीकी मूलनिवासियों को बिगड़ने वाली पुस्तकें पढ़ने की मनाही थी। खैर वैसे भी उन्हें पढ़ने के फुर्सत कहाँ। वो तो बेचारे पत्थर तोड़ कर चांदी और सोने की खान तलाशने या सड़के, कीलें, बंदरगाह बनाने में लगा दिए गए थे। बचे खुचे जंगल की सफाई कर खेती करने या कॉफी की फलियाँ, टमाटर, आलू, मिर्ची, शकरकंद इत्यादि से जहाजों को वापसी में भर रहे थे वरना औपनिवेशिक अधिकारियों की भी खैर नहीं थी उनको कौन पूछता है। उन पर तो स्पेन में बहस चल रही थी, उन्हें इंसान माना जाए या नहीं, जिसमे चर्च के पादरी बरनार्डो दे कासास ने मूलनिवाशियों के बचाव में शायद दुनिया का पहला मानव अधिकार मैनिफेस्टो लिख डाला।

खैर कहानी जो भी हो।   

सेरवांतेस की यह अमर कृति स्पेन के मध्य हिस्से में स्थित कास्तिल्या प्रान्त में केंद्रित है।  यह स्पेन का सबसे पथरीला और रुखा सूखा इलाका है जहाँ गर्मी की असहाय गर्म और जाड़े की बर्फीली हवाएँ वहाँ की न केवल आबो हवा को अंदर तक बेधती है बल्कि इसके  निवासियों के जेहन को भी। यह स्पेन का वही हिस्सा भी है जहाँ के गावों से निकल कर फौलादी इरादे वाले स्पेनियार्ड अटलांटिक महासागर पार कर दक्षिण अमेरिका के बीहड़ जंगलों और अवेध पर्वत मालाओं में एल डोराडो ढूँढने और लूटने के लिए समंदर तक लाँघ जाते है।  अटलांटिक महासागर के अनंत और अँधेरी विस्तार का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है की स्पेन के पश्चिमी छोर पर स्थित एक टीले को fisterra या धरती का अंतिम छोर नाम दिया गया हो। इसके बावजूद भी अगर जहाजों पर सवार होकर अगर ये लोग उस पार की दुनिया को जीत लेने का माद्दा रखतें हैं तो कुछ तो बात है! हालाँकि जिंदगी से खेल कर अगर पेट पालने की नौबत आ पड़ती है इसका मतलब है की जिंदगी बड़ी मुश्किल है। उसी सोलहवीं शदाब्दी की इसी क्रूरतम सच्चाई से सेरवांतेस हमें रूबरू करातें हैं। उपनिवेशिक उथल पुथल ने  देश के बहार और भीतर ही नहीं बल्कि इंसानों के अंदर और बाहर भी अपना असर साफ साफ चपका देती है जिसे जीने और बयां करने के सिवाय कोई चारा नहीं। चाहे हँस के करें या फिर रो कर। और जैसा की हम देख चुके हैं खुद सेरवांतेस की जिंदगी इसकी साफ गवाह है। जब सेरवांतेस अपने कालजयी उपन्यास की शुरुआत करते हैं तो लगता है जैसे हर गाँव, शहर या कसबे की कहानी सुनाने जा रहे हैं जो की कमो बेस एक ही जैसी है।  और ऐसा लगता है जैसे जिंदगी की क्रूर सच्चाई ने सेरवांतेस को मजबूर कर दिया हो, की छोडो यार क्या फर्क पड़ता है कौन सी जगह है, जब वो शुरुआत करते है ला मांचा का वो शहर या गाँव, जिसको बेनाम ही रहने दूँ तो अच्छा है, वहाँ हाल तक एक अधेड़ लड़ाकू सामंत रहता था जिसके पास खूंटी पर टंगा एक पुराना ढाल-तलवार, दुबला सा शिकारी कुत्ता और एक मरियल सा घोड़ा था …” कहा जाता है अगर शुरुआत अच्छी हो तो फिर कहानी पाठकों के जेहन में बर्फ के माफ़िक जम जाती है।  इस महान उपन्यास का यह पहला ही वाक्य बहुत सारी कहानियाँ अपने महज कुछ ही शब्दों में संजो रखा है और लगता ऐसा है जैसे दो खंडो में छपे इस भारी भरकम उपन्यास का यह मूल सूत्र हो।  आइये जरा नज़र डालते है कुछ अनुवादों के ऊपर जिन्हें हम पढ़ या समझ सकते हैं। सेरवांतेस को समर्पित आधिकारिक वेबसाइट पर कुल २०० अनुवादों से ५० अनुवादों का प्रथम अध्याय उपलब्ध है.  अकेले अंग्रेज़ी में अभी तक कुल २२ अनुवाद हुए हैं, ध्यान रहे की 1612 में पहला अनुवाद भी इसी भाषा में एक आयरिश विद्वान् थॉमस शेलटन ने किया था और सारे अनुवादों में सर्वमान्य और प्रचलित भी एडिथ ग्रॉसमैन का 2003 में प्रकाशित अंग्रेजी अनुवाद है। प्रोफेसर ग्रॉसमैन तो अनुवाद में इस कदर डूब गईं की अपनी नौकरी को लात मार कर इस विधा की सेवा में अपने को समर्पित कर दिया। अनुवाद की दुनिया में सर्व प्रसिद्ध लेख Why translation matters इसी अनुभव की अभिव्यक्ति है।
 

 
 

 किख़ोते बनाम सेरवांतेस  

अगर आप गूगल में सेरवांतेस शब्द को अंग्रेजी में सर्च करते हैं तो आपको कुल 5 करोड़ 90 लाख रिजल्ट मिलते हैं मगर हिंदी में सिर्फ 184! है न मज़ेदार जानकारी? यह है हिन्दी साहित्यिक दुनिया का आलम! हिन्दी भारत की सबसे प्रसारित भाषा तो है ही इसके बोलनेवाले देश के बाहर भी हैं। यह छोटा सा नमूना बहुत ही भयावह और कड़वे सच्चाई की पोल खोलता है। जापान जैसा नन्हा सा देश दोन किखोते से इतना परिचित है की वहां कि एक पूरी सुपर मार्केट कंपनी किखोते के नाम से चलती है, न जाने कितने स्टोर्स, खिलौने, रेस्त्रां, बार किखोते के नाम से फलते फूलते हैं। जाहिर है पिता सेरवांतेस अपने ही पैदाइश दोन किखोते से हार चुके हैं। पुरे स्पेन में शायद ही कोई शहर या कस्बा हो जहां  दोन किखोते नाम का कोई बार, रेस्त्रां, स्टोर या साइन बोर्ड आपको न दिखे। यहाँ तक की एक कैबरेट और नग्न शो का क्लब ने भी किखोते को नहीं बक्शा। मगर सौभाग्यवश स्पेनिश सरकार ने 11 मई 1991 को अपने भाषा के प्रचार प्रसार के लिए जब आधिकारिक संस्थान की स्थापना की तो उन्हें भी सेरवांतेस ने नाम की जरुरत पड़ी क्यूँकि साहित्यिक दुनिया स्पेनिश को सेरवांतेस की भाषा के नाम से जानती है। यह अपने आप में एक बहुत ही बड़ा सम्मान है।  लेकिन शायद सबसे बड़ा सम्मान 15 दिसंबर 2015 को अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ ने दिया जब करीब 50 प्रकाश वर्ष दूर स्थित एक पुरे तारे समूह Mu Arae (μ Arae), या जिसे  HD 160691 के नाम से भी जाना जाता है उसे  सेरवांतेस और उनके कालजयी उपन्यास के अमर पात्रों के नाम समर्पित किया। शायद सेरवांतेस, दोन किखोते, दुलसीनिया, सांचो पाँसा, और घोडा रोसीनान्ते अपने इस नए बसेरे से इस दुनियाँ का तमाशा देख रहे होंगे और सोच रहे होंगे की अपने आप को आधुनिक कहने वाली यह दुनिया कुछ खास बदली नहीं हैं।

 
      

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26 comments

  1. दोन किख़ोते का हिन्दी में अनुवाद दशकों पहले साहित्य अकादमी ने ’डॉन क्विकज़ोट’ के नाम से प्रकाशित किया था और उसे मैंने 11 साल की उम्र में दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी से लेकर पढ़ा था। बेहद उम्दा अनुवाद है। क़रीब पाँच-छह सौ पेज की किताब है और भाषा शायद पाँच-छह जगह ही खटकती है। बाद में मैं हमेशा इस किताब को तलाशता रहा। शायद क़रीब पन्द्रह साल पहले साहित्य अकादमी ने ही यह किताब फिर से प्रकाशित की थी और मैंने उसकी तीस-चालीस प्रतियाँ ख़रीदकर युवा लेखकों को भेंट की थीं। एक प्रति अपने लिए भी सुरक्षित रख ली थी। आज ही वह किताब अपने निजी पुस्तकालय में ढूँढ़ूँगा और उसे फिर से पढ़ना शुरू कर दूंगा। अद्भुत्त कहानी है। मैं भी उसे पचास साल बाद दुबारा पढ़ूँगा। आप में से किसी को यह किताब मिल जाए तो ज़रूर पढ़िएगा। रूस में स्कूल के कोर्स में यह किताब भी लगी हुई है और लगभग हर व्यक्ति को अपने स्कूल के अन्तिम वर्षों में ’दोन किख़ोत” पढ़नी ही पड़ती है।

  2. जी हाँ बिल्कुल! एक अनुवाद छविनाथ पाण्डेय का है जो साहित्य अकादमी से प्रकाशित हुआ था १९६4 में। यह मेरे ख़्याल से सर्वाधिक प्रचलित अनुवाद है, हालाँकि यह सम्पूर्ण अनुवाद नहीं है। स्पैनिश भाषा की प्रोफ़ेसर विभा मौर्या ने मूल स्पैनिश से हिंदी में दो भागों में सम्पूर्ण अनुवाद किया है, और हाल ही में शायद उसका पुनः सम्पादन किया है। पाठक गण ऑनलाइन ख़रीद सकते हैं।

  3. सुभाष जी क्या आप बता सकते हैं कि विभा जी के अनुवाद कहाँ उपलब्ध हो सकते हैं ? वर्षों पहले दिल्ली के कोनफलुएंस इंटर्नैशनल प्रकाशन से छपे थे लेकिन अब ना तो वो प्रकाशन रहा ना इसका कुछ अता पता ।

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