सुरेंद्र वर्मा का उपन्यास ‘मुझे चाँद चाहिए’ वह उपन्यास है जिसकी समीक्षा लिखते हुए उत्तर आधुनिक आलोचक सुधीश पचौरी ने लिखा था ‘यही है राईट चॉइस बेबी’. आज इस उपन्यास पर पूनम दुबे की टिप्पणी प्रस्तुत है. पूनम पेशे से मार्केट रिसर्चर हैं. बहुराष्ट्रीय रिसर्च फर्म नील्सन में सेवा के पश्चात फ़िलवक्त इस्तांबुल (टर्की) में रह रही हैं. अब तक चार महाद्वीपों के बीस से भी ज्यादा देशों में ट्रैवेल कर चुकी हैं. ‘मुझे चाँद चाहिए’ पर एकदम अलग एंगल से उनकी लिखी टिप्पणी पढ़िए- मॉडरेटर
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मार्केट रिसर्च की पहली नौकरी के शुरू होने के कुछ महीने बाद मेरी मुलाकात एक सक्रिय नाटक कलाकार से हुई. उन्हीं के साथ मैंने अपनी जिंदगी का पहला नाटक पृथ्वी थिएटर में देखा. विस्मित थी मैं! एक्टर्स को पहली बार इतने करीब से अभिनय करते देखा था, और वह भी इतनी इंटेंसिटी के साथ! “कैसे वह लगातार दो से तीन घंटे स्टेज पर अपनी एनेर्जी और अभिनय का ग्राफ बनाये रखते है” यह सवाल मुझे कई दिनों तक कुरेदता रहा. इन सवालों ने मन में उठी जिज्ञासा को हवा दी. तब से शुरू हुआ प्ले देखने का सिलसिला. उसके बाद जब भी मौक़ा मिलता मैं पृथ्वी, श्रीराम सेंटर या हैबिटैट में प्ले देखने चली जाती थी.
उस समय बिलकुल भी अंदाजा नहीं था कि, जिंदगी में एक ऐसा मौका भी आएगा, जब मुझे मैनहाटन के ब्रॉडवे थिएटर में फैंटम ऑफ़ द ओपेरा, टेमिंग ऑफ़ द श्रीयू, मटिल्डा और अल्लादीन जैसे प्रसिद्ध म्यूजिकल देखने का सौभाग्य प्राप्त होगा.
“मुझे चाँद चाहिए” को मैंने केवल एक उपन्यास की तरह नहीं बल्कि सौंदर्यबोधीय सवालों की कुंजी की तरह भी पढ़ा है. शुक्रिया हो गूगल बाबा का जिनकी मदद से मैं किताब में उल्लिखित अनगिनत नाटकों और उनके किरदारों पर रिसर्च कर उन्हें बेहतर समझ पाई. उपन्यास को पढ़कर यह भी स्पष्ट हुआ कि कलाकारों को एक किरदार में घुसने के लिए इंटरनल और एक्सटर्नल दोनों ही तरफ़ से प्रेरणा की जरूर होती है.
“मुझे चाँद चाहिए” शाहजहाँपुर के आर्थिक रूप से तंग, रूढ़िवादी, ब्राह्मण परिवार में जन्मी वर्षा वशिष्ठ की जीवन गाथा है. अपनी कलात्मक अभिलाषा को पूरा करने और जीवन के नए मायनों को तलाशने की आस में वर्षा संघर्ष की लंबी यात्रा पर निकल पड़ती है.
निजी जीवन में चल रहे द्वंद्व और मन स्थिति से प्रेरणा बटोरते हुए, वर्षा वशिष्ठ (शान्या, नीना, माशा, बिएट्रिस जैसे अनेक) किरदारों को बखूबी निभाती है.
अपनी रचनात्मक गहनता और प्रतिभा के बलबूते वर्षा वशिष्ट सिनेमा और रंगमंच दोनों ही दुनिया में ख्याति हासिल करती है.
वक्त के साथ मिली सफलता, भौतिक सुख और स्टारडम वर्षा के चरित्र पर कभी भी हावी नहीं होते. वह जीवन में अपना संतुलन बनाये रखती है और अपने सौंदर्यबोधीय आकांक्षा के प्रति समर्पित रहती है.
मेरे ख्याल से वर्षा सही मायने में मिसाल है फ़ेमिनिसम और नारी शक्ति की! अपने परिवार, समाज और मुश्किल परिवेश से जूझते हुए अंत तक वह वही रास्ता चुनती है जो उसे सही लगता है.
उपन्यास के लेखक सुरेंद्र वर्माजी ने किरदारों की मनोदशा और परिस्थितियों को बेहतरीन तरीके से रंगमंच के प्रसिद्ध ( अपने-अपने नर्क, तीन बहनें, सीगल और चार मौसम जैसे अनेक नाटकों) से जोड़ा है. महान रूसी प्लेराइटर चेखव तथा अन्य रंगमंच नाटकों के विस्तृत उल्लेख के जरिये उन्होंने उपन्यास को एक नए एंगल से एक्स्प्लोर किया है.
सुरेंद्र वर्माजी स्वयं बहुतेरे प्रसिद्ध नाटक लिख चुके है, जिनमें से कइयों के लिए उन्हें सम्मानित पुरस्कार से नवाज़ा भी गया है. रंगमंच के प्रति उनका लगाव और किताब को लिखने के लिए गहनता से किया गया रिसर्च उपन्यास के हर पहलू में झलकता है.
पूरी उपन्यास प्रतिष्ठित नाटकों की उल्लेख, उनके लेखकों, किरदारों, हॉलीवुड के कलाकारों, निर्देशकों के रेफरेन्स और टेक्निकल शब्दावली से लबालब है. जिन्हें समझने की लिए मैं गूगल बाबा की आभारी हूँ. यह केवल एक उपन्यास नहीं बल्कि रंगमंच और कला के क्षेत्र से संबंधित ग्लोसरी की तरह पढ़ी जा सकती है.
आप भी इस उपन्यास को पढ़िए वर्षा वशिष्ट की सफ़र का हिस्सा बने और कला की दुनिया में कुछ समय के लिए खो जाइये.
“कोई इच्छा अधूरी रह जाये, तो जिंदगी में आस्था बनी रहती है”. मेरी प्रिय पंक्तियाँ इस उपन्यास से!