युवा संपादक-लेखक सत्यानन्द निरुपम का यह लेख छठी मैया और दीनानाथ से शुरू होकर जाने कितने अर्थों को संदर्भित करने वाला बन जाता है. ललित निबंध की सुप्त परम्परा के दर्शन होते हैं इस लेख में. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर
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छठ-गीतों में ‘छठी मइया’ के अलावा जिसे सर्वाधिक सम्बोधित किया गया है, वे हैं ‘दीनानाथ’। दीनों के ये नाथ सूर्य हैं। बड़े भरोसे के नाथ, निर्बल के बल! ईया जब किसी विकट स्थिति में पड़तीं, कोई अप्रिय खबर सुनतीं, बेसम्भाल दुख या चुनौती की घड़ी उनके सामने आ पड़ती, कुछ पल चौकन्ने भाव से शून्य में देखतीं और गहरी सांस छोड़तीं। फिर उनके मुँह से पहला सम्बोधन बहुत धीमे स्वर में निकलता– हे दीनानाथ! ऐसा अपनी जानी-पहचानी दुनिया में ठहरे व्यक्तित्व वाले कई बुजुर्गों के साथ मैंने देखा है। वे लोग जाने किस भरोसे से पहले दीनानाथ को ही पुकारते! उनकी टेर कितनी बार सुनी गई, कितनी बार अनसुनी रही, किसी को क्या पता! लेकिन “एक भरोसो एक बल” वाला उनका भाव अखंडित रहा। मुझे वे लोग प्रकृति के अधिक अनुकूल लगे। प्रकृति के सहचर! प्रकृति से नाभिनाल बंधे उसकी जैविक संतान! अब कितने बरस बीत गए, किसी को दीनानाथ को गुहराते नहीं सुना। सिवा छठ-गीतों में चर्चा आने के! जाने क्या बात है! इस दौरान कई सारे देवता लोकाचार में नए उतार दिए गए हैं। कई देवियाँ देखते-देखते भक्ति की दुकान में सबसे चमकदार सामान बना दी गई हैं। अब लोग अपनी कुलदेवी को पूजने साल में एक बार भी अपने गाँव-घर जाते हों या नहीं जाते हों, वैष्णव देवी की दौड़ जरूर लगाते रहते हैं। जब से वैष्णव देवी फिल्मों में संकटहरण देवी की दिखलाई गईं, और नेता से लेकर सरकारी अफसरान तक वहाँ भागने लगे, तमाम पुरबिया लोग अब विंध्यांचल जाने में कम, वैष्णव देवी के दरबार में पहुँचने की उपलब्धि बटोरने को ज्यादा आतुर हैं। भक्ति अब वह फैशन है, जिसमें आराध्य भी अब ट्रेंड की तर्ज पर बदल रहे हैं। पहले भक्ति आत्मिक शांति और कमजोर क्षणों में जिजीविषा को बचाए रखने की चीज थी। अब श्रेष्ठता-बोध का एक मानक वह भी है। मसलन आप किस बाबा या माँ के भक्त हैं? बाबा या माँ के आप किस कदर नजदीक हैं? इतना ही नहीं, “साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय” वाली भावना आउटडेटेड बेचारगी जैसी बात है। नए जमाने के भक्त तो साईं को ही साईं के अलावा ‘सब कुछ’ बना देने पर उतारू हैं और इसके पीछे शायद भावना कुछ ऐसी है कि साईं की कृपा अधिकतम उन पर बरसे और वे सब सुख जल्द से जल्द पा लें। जैसे-जैसे कृपा होती दिखती है, वैसे-वैसे चढ़ावा बढ़ता है और विशेषणों की बौछार बरसाई जाती है। अगर कृपा बरसती न लगे तो आजकल बाबा या माँ बदलते भी देर नहीं लगती। भक्ति का आधार कपड़े और मेकअप के पहनने-उतारने जैसी बात नहीं होती, सब जानते हैं। फिर भी, तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं के समाज में ‘मंदिर-मंदिर, द्वारे-द्वारे’ भटकने और किसी ठौर मन न टिकने की आजिज़ी में अचानक किसी रोज किसी बाबा के फेर में पड़ जाना आजकल आम बात है। और बाबाओं के फेर ऐसा है कि वे बलात्कारी और धूर्त भी साबित हो जाएं तो तथाकथित भक्त उनके नाम का नारा लगाने में पीछे नहीं हटते। इसकी वजह शायद यह है कि बाबा सुनता तो है! सुनने वाला चाहिए सबको। कुछ करे न करे, सुन ले। दुख सुन ले। भरम सुन ले। मति और गति फेरे न फेरे, बात को तसल्ली से सुन ले। पहले दीनानाथ सुनते थे। भले हुंकारी भरने नहीं आते थे, लेकिन लोगों को लगता था, वे सब सुन रहे हैं और राह सुझा रहे हैं। आजकल हाहाकारी समाज को हुंकारी बाबा और माँ चाहिए। जो राह सुझाएँ न सुझाएँ, मन उलझाए रखें। वैसे लगे हाथ एक बात और कहूँ, नेता भी सबको ऐसे ही भले लग रहे हैं जो उलझाए रखें। हे दीनानाथ, सबको रौशनी देना!
(सत्यानन्द निरुपम के फेसबुक वाल से साभार)