
अब्दुल्ला खान इन दिनों अपने उपन्यास ‘patna blues’ के कारण चर्चा में हैं. वे पेशे से बैंकर हैं. मुंबई में टीवी के लिए स्क्रीनप्ले लिखते हैं, गाने लिखते हैं. आज उनकी कुछ नज़्में पढ़िए- मॉडरेटर
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कुछ यादें
माज़ी के दरीचे से
कुछ यादें
उतर आयीं हैं
मेरे ख्यालों के सेहन में
तबस्सुम से लबरेज़ यादें
ग़म से आलूदा यादें
यादें जो पुरसुकून हैं
यादें जो बेचैन हैं
मेरे वॉर्डरोब में रखे कपड़ो की महक में
लिपटी हैं यादें
बिस्तर के चादर और तकियों की सिलवटों में
सिमटी हैं यादें
यादें चिपकी हैं
एलबम के हर पन्ने पर
यादें टंगी हैं पर्दे बनकर
हर खिड़की और दरवाज़े पर
सीलिंग फैन की हवाओं में
सरगोशियाँ करती हैं यादें
पुरानी कॅसेट्स की उलझी हुई टेपों से
रुक रुक कर, कुछ कुछ बोलती हैं यादें
मनीप्लांट की ज़र्द होती पत्तियों में बाक़ी हैं
यादों के निशान
किताबों के सफों के बीच सूखे गुलाब की पंखुडियों से होती है
यादों की पहचान
मेरे घर में यादों के अलावा
और भी बहुत कुछ है
जैसे हर तरफ चहल कदमी करती तन्हाइयां
कोने में टूटे हुये कुर्सी पे बैठी खलिश
दीवार पे तिरछी लटकी हुई बेक़रारी
और बरामदे मे फर्श पे लेटी मायूसी
यहाँ पे एक नन्ही सी दर्द भी हुआ करती थी
लेकिन वह अब काफी बड़ी हो गयी है
और उसका नाम दवा हो गया है
हाँ…
मेरे दहलीज़ पर
दीवार से टेक लगा कर खड़ी है कोई
और सामने रहगुज़र को तकती रहती है
वह अपना नाम उम्मीद बताती है
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कामचलाऊ ख्वाब
यादों की कश्ती पर बैठ कर
ख्यालों के समंदर में निकल पड़ा था मैं
तलाशने
अपने बरसो पहले डूबे हुए ख्वाब को
शक-ओ-शुबहा के स्याह बादल
नाउम्मीदी के दहशतअंगेज़ तूफान
अंदेशे की ऊँची ऊँची लहरें
रोकती रही मुझे
मेरे हौसले की पतवार
अब छूटने ही वाली थी
मेरे हाथों से
तभी मुझे दिख गया उम्मीदों का लाइट हाउस
और मैं समझ गया
यही है साहिल
हसरतों के जज़ीरे का
इस जज़ीरे पर एक जंगल है तसव्वुर के दरख्तों का
इस अजनबी जज़ीरे पर
मेरा खोया हुआ ख्वाब मिले न मिले
मगर मुझे कोई न कोई ख्वाब मिल ही जायेगा
कोई भी छोटा मोटा कामचलाऊ ख्वाब
हाशिये पर लिखे शब्द
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साफ़ सुथरे सच बोलने वाले शब्द
अब हाशिये पर लिखे जाते हैं.
और पंक्तियों के बीच स्थान पाते हैं
वे शब्द
जो कलुषित हैं
विकृत हैं, सड़े हुए विचारों से लैस,
हिंसा की जयजयकार करते हुए.
प्रतिशोध से भरे-पूरे
इतिहास के जंगलों में बहाने ढूंढते हुए,
एक नयी प्रतिशोध कथा लिखने के लिए,
मानव रक्त की स्याही तलाशते.
मर्यादा पुरुषोत्तम के शब्द नहीं पाते हैं,
बीच का स्थान, पन्नो पर,
बल्कि हाशिये पर लिखे जाते हैं ,
और उनका अर्थ आज के परिप्रेक्ष्य में
लगाया जाता है
रावणी व्याकरण का प्रयोग करके.