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‘चौरासी’: एक बिरादरी-बाहर कारोबारी लेखक की निगाह में

 

निर्विदाद रूप से सुरेन्द्र मोहन पाठक हिंदी के सबसे लोकप्रिय लेखक हैं. सत्य व्यास समकालीन हिंदी के सबसे लोकप्रिय लेखकों में एक हैं. उनके नवीनतम उपन्यास ‘चौरासी’ पर सुरेन्द्र मोहन पाठक ने यह टिप्पणी लिखी है. एक संपादक के लिए मेरे लिए यह दुर्लभ संयोग है. पाठक जी ने इससे पहले किस किताब पर लिखा था मुझे याद नहीं है. इतने बड़े लेखक ने किसी युवा लेखक पर इतने विस्स्तार से कब लिखा था मुझे याद नहीं. बहरहाल, सुरेन्द्र मोहन पाठक का ‘चौरासी-पाठ’ प्रस्तुत है- प्रभात रंजन

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‘बनारस टाकीज़’ के बारे में किसी दोस्त ने बताया कि वो एक नए लेखक का बहुत ही प्रसिद्ध उपन्यास था जिस के बहुत थोड़े अरसे में दो शायद तीन दर्जन एडीशन हो चुके थे. मैंने उपन्यास पढ़ा तो पहला सवाल मेरे मन में यही उठा कि क्या वाकई मैंने उपन्यास पढ़ा था?

मनहर चौहान ने अस्सी के दशक में एक बार अमृता प्रीतम के लेखन के बारे में लिखा था कि उनकी कोई रचना पढ़ते वक़्त नहीं पता लगता था कि कहानी पढ़ रहे थे, उपन्यास पढ़ रहे थे, निबंध पढ़ रहे थे, संस्मरण पढ़ रहे थे, रिपोर्ताज पढ़ रहे थे,  कुछ पता लगता था तो बस ये कि भाषा पढ़ रहे थे. ‘बनारस टाकीज’ पढ़ कर मुझे भी ऐसा ही लगा कि मैं भाषा पढ़ रहा हूँ. अगर सच में वो उपन्यास था तो इस उम्र में उपन्यास की परिभाषा मुझे फिर से समझनी होगी. मैं तो यही समझता आ रहा था कि उपन्यास वही होता था  जिस में ‘एलिमेंट ऑफ़ फिक्शन’ प्रमुख हो और वसीह हो; चटपटी बातों का मजमुहा भी उपन्यास ही कहलाता था, मुझे नहीं मालूम था. नहीं मालूम था कि एक खास तरह के माहौल के चित्रण से भी उपन्यास लिखा होने पर दावेदारी बन जाती थी.

लेकिन ये जुदा मसला है, मैं दरअसल जिक्र उक्त लेखक की कलम से निकली नवीनतम ‘लव स्टोरी ए ला चेतन भगत’ ‘चौरासी’ का करना चाहता हूँ जिसे कि मैंने सफलता के सर्वोच्च शिखर की तरफ अग्रसर या पर पहुंच चुके लेखक की नवीनतम रचना के तौर पर पूरी तवज्जो के साथ पढ़ा. जो पढ़ा, उसकी बाबत मेरी राय लेखक को शायद नागवार गुजरे लेकिन ये भी एक स्थापित तथ्य है कि प्रशस्तिगाण से लेखक बौरा जाता है मगरूर हो जाता है, जब कि खामियों का जिक्र उसे खबरदार करता है. इसीलिए कहा गया है – निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय . . .

बहरहाल बतौर पाठक ‘चौरासी’ में जो खामियां मेरी निगाह से गुजरीं, वो ये हैं:

  • पहले कौर में ही मक्खी पड़ी जब मिश्रा कमीशन रिपोर्ट के हिंदी अनुवाद के अंत में ‘अनेक लोग हताहत और ज़ख्मी हुए पढ़ा’. हैरानी हुई कि विद्वान लेखक को ‘हताहत’ में ‘जख्मी’ शामिल न लगा. हताहत शब्द का संधि विच्छेद होता है- हत+आहत अर्थात मृत और घायल.
  • उपन्यास में पंजाबी किरदार होने की वजह से पंजाबी फिकरे बहुत हैं लेकिन तक़रीबन गलत हैं. मैं खुद पंजाबी हूँ इसलिए मेरे से बेहतर ये बात कौन जानता हो सकता है!
  • भाषा की ऐसी अशुद्धियाँ बहुत हैं जिन का ठीकरा कमजोर प्रूफरीडिंग के सर नहीं फोड़ा जा सकता. पन्क्चुयेशन्स का, स्पेलिंग्स का, प्रेजेंट-पास्ट टेंस का कहीं कोई लिहाज नहीं. उर्दू के कई अलफाज का गलत, गैरवाजिब इस्तेमाल है. नुक्ते का गलत, गैरजरूरी इस्तेमाल है. मैं इस बात से इसलिए वाकिफ हूँ क्योंकि मैं लाहौर में पैदा हुआ था और मेरी शुरुआती तालीम उर्दू में थी. उर्दू के कुछ ऐसे अलफ़ाज़ लेखक ने इस्तेमाल किये हैं जिन का मतलब जानने के लिए खुद मुझे डिक्शनरी देखनी पड़ी, जिन्हें उर्दू नहीं आती, उनका क्या हाल होगा!

मसलन ‘मोजज़े’. मैं नियमित रूप से उर्दू पढता हूँ लेकिन ये एक लफ्ज़ मेरी निगाह से कभी न गुजरा.

मसलन ‘जियां’. मसलन ‘मबहुत’. मसलन ‘अहवाल’ ‘हाल’ का बहुवचन है लेकिन लेखक ने इसे एकवचन की जगह – ‘हाल’ की जगह इस्तेमाल किया है. ऐसी और भी मिसाल हैं. नाचीज़ के खयाल से अगर लक्ष्य कोर्स में पढाई जाने लायक रचना लिखना न हो तो भाषा सहज, सुगम और सरल ही होनी चाहिए. हिंदी का लेखक होते हुए लेखक का उर्दू पर क्यों इतना जोर था, लेखक ही बेहतर जानता है.

दूसरे, फिक्शन के लेखक का खुद को भाषाशास्त्री सिद्ध करना जरूरी नहीं होता, मेरे खयाल से तो उच्चशिक्षाप्राप्त सिद्ध करना भी जरूरी नहीं होता. हिंदी में ऐसे कितने ही लेखक हुए हैं जो कि उच्चशिक्षाप्राप्त नहीं थे लेकिन कमाल की हिंदी लिखते थे. इस सिलसिले में जयशंकर प्रसाद की मिसाल देने का लोभ मैं नहीं संवरण कर सकता जो कि आठ जमातें पास थे लेकिन जिन की हिंदी को समझने के लिए आलिम फाजिल हजरात को भी सर धुनना पड़ता था.

यहाँ मैं नेपोलियन को याद करना चाहता हूँ जिस ने कहा है – Many a time the natural ability works better than the academic qualification.

  • 160 वर्कों में से 50 पढ़ लेने के बाद ही मुझे खबर लगी की मैं तकरीबन-एकतरफा प्यार की ‘लव स्टोरी’ पढ़ रहा था. फिर वो भी अधर में लटक गई और चौरासी के दंगों की रिपोर्ताज दर्ज होने लगी. फिर आखिरी कुछ पृष्ठों में बोकारो, जो शुरू में उपन्यास का अहम किरदार बताया गया था, सूत्रधार बन गया – सूत्रधार, जो ऐसे वाकयात का भी जामिन था जो बोकारो में वाकया नहीं हुए थे – मसलन मोगा में मनु की मनोदशा से बाखूबी वाकिफ था.
  • पृष्ठ 136 पर गर्दन पर पेचकस से पीछे से – रिपीट, पीछे से – वार का जिक्र है लेकिन पेचकस की नोक श्वास नाली में लगी जो की आगे गले में होती है!
  • पृष्ठ 138 पर कर्फ्यू में देखते ही गोली मार देने के आदेश का जिक्र है लेकिन ऐसा सख्त फरमान कर्फ्यू में नहीं, मार्शल लॉ में होता है जो कि अमन शांति के लिए अंग्रेज के राज में लागू किया जाता था. कर्फ्यू में सिर्फ घर से निकलने पर पाबन्दी होती है, फिर भी कोई कर्फ्यू तोड़ता बाहर पाया जाये तो उसकी गिरफ्तारी का प्रावधान है, न कि उसे गोली मार दी जाती है.

इसी पृष्ठ पर ‘दहशत’ की जगह ‘वह्शत’ है. दोनों पर्याय तो मेरे खयाल से नहीं होते!

  • पृष्ठ 159 पर शब्द ‘भगदड़’ चंद सतरों में ही पहले स्त्रीलिंग, फिर पुल्लिंग बन जाता है. ऐसा दर्जनों दूसरे शब्दों के साथ दूसरी जगहों पर भी है.
  • चैप्टर्स के headings शायद उपन्यास की स्टार अट्रैक्शन हैं लेकिन बेमानी हैं, गैरजरूरी हैं, असंगत हैं, irritate करते हैं.
  • ‘ही’ शब्द से लेखक का खास लगाव जान पड़ता है, बहुत जगह आया लेकिन एकाध जगह को छोड़ कर गैरजरूरी आया.
  • ख़राब प्रूफरीडिंग का एक ही नमूना काफी होगा :

‘खयाल’ चार तरह से छपा है – कभी आधे ‘ख’ के साथ, कभी पूरे ‘ख’ के साथ, कभी ‘नुक्ते’ के साथ, कभी ‘नुक्ते’ के बिना.

  • और सौ बातों की एक बात:

दंगों के वर्णन की बुनियाद ही गलत है. उपन्यास (!) में दर्शाया गया है कि इकतीस अक्टूबर की सुबह मैडम के मर्डर की खबर आते ही शहर में दंगे भड़क गये जब कि पहले दिन ऐसा कुछ नहीं हुआ था, पहला दिन हर जगह मुकम्मल अमन शांति के साथ गुजरा था. दंगे अगले दिन कांग्रेसी नेताओं के पब्लिक तो भड़काने से भड़के थे. ज्ञातव्य है कि गाँधी का हत्यारा मराठा था लेकिन गाँधी की हत्या के बाद मराठों का क़त्ल-ए-आम नहीं शुरू हो गया था. फिर ‘चौरासी’ में मैडम के क़त्ल की खबर आते ही क्यों सिखों ने आनन फानन सोच समझ लिया कि उन पर भरी विपत्ति टूटने वाली थी!

मैं जब छोटा था तो हमारे घर के पास एक टूरिंग टॉकी आती थी जो खुले में तम्बू तान कर सिनेमा चलाती थी और एक टिकट में दो फिल्म दिखाती थी. वैसा ही तजुर्बा मुझे ‘चौरासी’ के साथ हुआ.

एक टाइटल के तहत दो लघु उपन्यास (NOVELLA).

एक फिक्शन, एक रिपोर्ताज.

एक लव स्टोरी, एक हेट स्टोरी.

एक तीतर एक . . .

अंत में निवेदन है कि बुलंदी के शिखर तक पहुंचना बाज खुशकिस्मत लोगों के लिए फिर भी आसान होता है लेकिन उस पर बने रहना बहुत मुश्किल होता है, बहुत ही मुश्किल होता है, क्योंकि  – इस में लगती है मिहनत जियादा.

एस एम पाठक 

* * * 

PS:

Shortly I’d be reading ‘DILLI DURBAR’ because I’ve invested upon it.

 
      

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11 comments

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    कमाल किया है पाठक सर ने। इनका ये रूप एकदम नया है। उनसे कहिए कि बीच बीच में इस तरह का कमाल करते रहें।

  3. एम इकराम फरीदी

    मैं पाठक साहब की समीक्षा से बिल्कुल सहमत हूॅ । सिर धुन धुनों पढ़ रहा हूॅ, अभी तक पढ़ा नही गया है । मेरी समझ में नही आया कि कुछ अप्रचलित उर्दू शब्दों का इस्तेमाल क्यों किया गया है? आखिर खुद को इतना क़ाबिल ठहराने की क्या ज़रूरत आन पड़ गयी ? कहानी में कसाव नाम की चीज़ नही है, मैं नही समझता कि एक थकी हुई लव स्टोरी दूसरे मनोरंजन साधनों पर भारी पड़ जाएगी ।

  4. काफी बेहतरीन

  5. पाठक साहब की समीक्षा से पूर्णता से सहमत, कहानी शुरू की पर कुछ सिर पैर समझ न आ रहा था आखिर बीस पन्नो के करीब पढ़कर छोड़ दी, कई दिनों से हैरान था इतनी तारीफ बटोरती किताब मेरे पल्ले क्यों न पड़ रही, अनुभव यही थे बस बयां नहीं कर पा रहा था।

  6. सर आपको हिन्द युग्म से ही प्रकाशित ‘अर्थला’ पढ़नी चाहिये, इस उपन्यास का उतना प्रचार नहीं है पर नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी मिलाकर भी इस स्तर का उपन्यास हिंदी में नही दे पाये हैं। नई पीढ़ी के लेखकों में विवेक कुमार का कथाशिल्प उच्च स्तर का है। यदि अवसर मिले तो अवश्य पढ़ें।

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