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सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात, और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात

कल एक पुस्तक मिली ‘कविता सदी‘. राजपाल एंड संज प्रकाशन से प्रकाशित इस संकलन के सम्पादक हैं सुरेश सलिल. 624 पृष्ठों के इस संकलन को नाम दिया गया है आधुनिक कविता का प्रतिनिधि संचयन. भारतेंदु हरिश्चंद्र, श्रीधर पाठक से शुरू होकर यह संचयन सविता सिंह की कविताओं पर जाकर समाप्त हो जाता है. चयन पर पसंद-नापसंद की बात की जा सकती है लेकिन जो बात मुझे इस संचयन में अच्छी लगी वह यह कि इसमें अनेक भूले-बिसरे गीतकारों के गीतों को भी जगह दी गई है, जैसे बलवीर सिंह ‘रंग’, रमानाथ अवस्थी, भारतभूषण, गोपाल सिंह नेपाली से लेकर, हल्दी घाटी वाले श्याम नारायण पाण्डेय तक. एक विस्तृत संचयन है और हिंदी कविता की विविधता का रसास्वादन करने के लिए ठीक है. इसी संचयन से दो गीत- मॉडरेटर

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रमानाथ अवस्थी का एक प्रसिद्ध गीत 

1.

सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात।

मेरे बहुत चाहने पर भी नींद न मुझ तक आई
ज़हर भरी जादूगरनी सी मुझको लगी जुन्हाई
मेरा मस्तक सहला कर बोली मुझसे पुरवाई

दूर कहीं दो आंखें भर भर आईं सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात।

गगन बीच रुक तनिक चंद्रमा लगा मुझे समझाने
मनचाहा मन पा जाना है खेल नहीं दीवाने
और उसी क्षण टूटा नभ से एक नखत अनजाने

देख जिसे मेरी तबियत घबराई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात।

रात लगी कहने सो जाओ देखो कोई सपना
जग ने देखा है बहुतों का रोना और तड़पना
यहां तुम्हारा क्या‚ काई भी नहीं किसी का अपना

समझ अकेला मौत मुझे ललचाई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात।

मुझे सुलाने की कोशिश में जागे अनगिन तारे
लेकिन बाजी जीत गया मैं वे सबके सब हारे
जाते जाते चांद कह गया मुझको बड़े सकारे

एक कली मुरझाने को मुस्काई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात।

भारत भूषण का एक गीत

2.

आधी उमर करके धुआँ यह तो कहो किसके हुए
परिवार के या प्यार के या गीत के या देश के
यह तो कहो किसके हुए

कन्धे बदलती थक गईं सड़कें तुम्हें ढोती हुईं
ऋतुएँ सभी तुमको लिए घर-घर फिरीं रोती हुईं
फिर भी न टँक पाया कहीं टूटा हुआ कोई बटन
अस्तित्व सब चिथड़ा हुआ गिरने लगे पग-पग जुए —

संध्या तुम्हें घर छोड़ कर दीवा जला मन्दिर गई
फिर एक टूटी रोशनी कुछ साँकलों से घिर गई
स्याही तुम्हें लिखती रही पढ़ती रहीं उखड़ी छतें
आवाज़ से परिचित हुए गली के कुछ पहरूए —

हर दिन गया डरता किसी तड़की हुई दीवार से
हर वर्ष के माथे लिखा गिरना किसी मीनार से
निश्चय सभी अँकुरान में पीले पड़े मुरझा गए
मन में बने साँपों भरे जालों पुरे अन्धे कुएँ
यह तो कहो किसके हुए —

 
      

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