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प्रियंका ओम की कहानी ‘वह फूहड़ स्त्री’

आज प्रियंका ओम की कहानी ‘वह फूहड़ स्त्री’ पढ़िए. नए साल की शुरुआत समकालीन रचनाशीलता से करते हैं- मॉडरेटर

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उस स्त्री के पहनावे का रंग संयोजन था मुझे विस्मय से भर देता ! पीले रंग की ब्लाउज़ पर एड़ी से चार अंगुल ऊँची ब्लू छींट की साड़ी, और साड़ी के नीचे से ढीठाई से झाँकता लाल रंग का पेटीकोट और कभी इस सबके विपरीत !

समस्त केश राशि का समान वर्ग विन्यास करती हुई माथे के बीचो बीच गहरे संतरे रंग की एक दमकती रेखा और ठीक दोनो भौं के सीध में माथे के बीच बड़ी सी गोल लाल बिंदी !

कितना तो अद्भुत सौंदर्यनुभूति है, ललाट पर गोधूली का विहंगम दृश्य, अक्सर ही मेरी आँखे उस ओर देखने लगती जिस ओर वह दृष्टिगत होती !

“क्या ही फूहड़ स्त्री है” सोसाययटी की तमाम औरतों को वह नाहद जाहिल मालूम पड़ती ! कपड़े पहनने का ज़रा भी सलीक़ा नही, जब देखो इंद्रधनुषी बनी फिरती है !

मुझे तो जादूगरनी लगती, भारी टोना टोटका जानती है ! सबको वश में कर ख़ुद अपनी ही धुन में रहती है ! इस बात से सर्वथा अनभिज्ञ कि उसके बारे में सोसायटी की अन्य औरतें “पता नही कौन है कहाँ से आई है?” जैसे मामूली सवालों के अनेक जवाबी अनुमान में घंटों बिता देती है !

सोसायटी के बाहरी पार्कनुमा हिस्से के घुटनों तक घेरे पर निष्क्रिय बिजली के तार पर क़तार में बैठी पंछियों की तरह रोज़ाना बैठकी लगाने वाली ग़पेड़ स्त्रियों के लिये वह कौतूहल का विषय थी !

‘इस तरह का शृंगार तो अब गाँवो में दुष्प्राप्य है’ या ‘‘इससे पहले शहर में नही आई”.. तरह तरह की मुखाकृति बनाकर अटकल लगाने वाली स्त्रियों में जानने की यह स्वाभाविक जिज्ञासा से मैं भी वंचित नही थी.

लगता है नई नई शादी हुई इसलिये ही शायद शृंगार के लिये ऐसा अनोखा खिंचाव है क्या ? ! समूह की बुज़ुर्ग सभापति तत्काल उसकी चर्चा को स्थगित कर दूसरों की बहू-बेटियों की निंदा में लिप्त हो गई !

कुछ दिनों में ही सोसायटी की सभी स्त्रियाँ उसकी बेपरवाह स्वभाव की अभ्यस्त हो गई और उसे शाम की बैठक का निर्विघ्न हिस्सा बना लिया !

कभी किसी ने किसी पुरुष के साथ नही देखा; शायद परित्यक्ता है !
साथ में कोई बच्चा भी तो नही ! शायद बाँझ है इसलिये छोड़ दी गई है !
लेकिन अभी तो कच्ची उम्र है…ईश्वर ही जाने क्या बात है ?, ये तो किसी से बात भी नही करती !
अरे बात तो दूर की बात है हमारी ओर ताकती तक नही, जाने ख़ुद को क्या समझती है ..हुह !

उस दिन वह चप्पल की चट चट और पायल की रून झुन की मिली जुली सरगम के साथ पंगती स्त्रियों को अनदेखा करती ठीक सामने से मुख्य द्वार की तरफ़ चली जा रही थी जो राजमार्ग पर खुलती है !

राजमार्ग की दूसरी तरफ़ राशन और सब्ज़ी की छोटी छोटी दुकानों ने एकजुट होकर बाज़ार की शक्ल ले ली थी !
इतनी जल्दी बाज़ार का भी पता मालूम हो गया ? यह सुगमसाध्य तंज़ सुचिता वाली स्त्रियों को बहुत प्रिय है !
अर्थात उसे तो हमसे आकर पूछना चाहिये था कि फ़लाँ प्रयोजन का समान कहाँ उपलब्ध होगा लेकिन यह तो पहले से प्रचंड जान पड़ती है !

क्या पता यह शहर उसे जानता हो या वह इस शहर को जानती हो; या फिर नमक ही ख़त्म हो गया हो पता नही क्यूँ मेरे मन ने उसकी तरफ़दारी की !

उसके गुज़रते ही गुलाब की मसृण ख़ुशबू अगरबत्ती सा महक गई, सहसा मेरी नज़रें वय प्राप्त पुरुष की तरह उसकी पीठ से छिपकली की तरह जा चिपकी !

मैं कोई अलग स्त्री नही थी, किसी ख़ास ग्रह से नही आई थी  बल्कि उन सब जैसी ही थी; मेरी संरचना भी उन्ही हाथों से हुई थी जिन हाथों से निर्मित उसके बारे में सब जान लेना चाहती थी !

पीठ को पूरी तरह से ढँकती हुई आँचल सर के पृष्ठ भाग से ऐसे झूल रही थी मानो केश में तेल की जगह गोंद लगा रखा हो और उस गज़गामिनी के आँचल के नीचे नितंब पर काले नाग की पूँछ सी हिलती हुई चोटी का अंतिम बित्ते भर का हिस्सा मेरे विस्मय के लिये पर्याप्त था !

इतने लम्बे कुन्तल, मेरे भीतर अचरज का द्वार मेरे मुख के समान ही खुला रह गया ! नीलगिरी के पेड़ की परछाइयों सी लम्बेतर केश राशि, वर्तमान दिनों की स्त्रियों में इतना अद्भुत चिक़ुर प्रेम दुर्लभ है !

इस स्त्री के उल्लेखनीय श्रृंगार दर्शन के प्रति मैं अपने भीतर एक विशिष्ट खिंचाव महसूस कर रही थी जो तमाम आदिम संवेगों की तरह मुझे अहर्निश रहा कि जैसे इसके साथ ही मेरा जन्म हुआ हो, या मेरे भीतर ही किसी शिशु की तरह पल रहा हो ! अजाने ही मैं उसके साथ नाभिनाल सा जुड़ाव महसूस कर रही थी किंतु क्यूँ ही ? यह एक सवाल प्रायः मेरे ज़हन में कौंध जाता जैसे मेह में तड़ित या निर्जन में जीवन !

रात अलग सी बेचैनी में कटी, कभी इस पहलू तो कभी उस पहलू, करवटों के कई बदलाव के तत्पश्चात मैं सुबह देर तक सोती रही, जब खिड़की के रास्ते धूप कमरें में घुस तलवे को गुदगुदाने लगी तब एक अंतिम करवट के उपरांत मुझे यक़ीन हो गया कि अब मैं नींद में नही हूँ !

नर्म तकिये से जुदा होकर मैंने बालकनी का दरवाज़ा खोला तो मिट्टी की सोंधी सोंधी खुशबू से घर महक गया ! मौसम की बची हुई कुछेक बारिशो में से एक आज पुरज़ोर बरस कर जा चुकी थी ! जमे हुए ईंट पर सीमेंट की मोटी परत वाले रास्ते धुल कर चमक रहे थे, पत्तियों से संग्रहित पानी से निर्मित आख़िरी बूँद टपकने को तैयार थी ! बारिश के बाद सूर्य की किरणें सात घोड़े जुते रथ पर सवार अन्य दिनों की तुलना में अधिक प्रचंड और प्रखर हो मेरी बाल्कनी में उतर रही थी !

कार्तिक माह के शुरू होते ही कुलीन घरों की स्त्रियाँ सूर्योदय के पूर्व स्नानआदि से निवृत हो तुलसी जी में जल अर्पण कर अगरबत्ती खोसते हुए कोई मंत्र बुदबुदाती है और इस जैसी निकम्मी सुस्त स्त्रियाँ तुलसी और अगर से सुगंधित पवित्र समीर से लापरवाह हाथ में चाय का कप लिये पता नही क्या सोचती रहती है !

बग़ल के छज्जे पर नीलकंठ, छींटदार आवरण वाली गौरैया और एक धवल कबूतर से लाल गर्दन और टेढ़ी मुँह वाला नारद सुग्गा मेरी चुग़ली कर रहा था !

ये देर रात तक जागती है, दिये का तेल ख़त्म हो जाने तक, बाती के जल जाने तक जागती है या तो पढ़ती है या लिखती है ! संतप्त धुएँ के नशे से इसकी आँखे बोझल रहती है अतः देर तक सोती रहती है ! नीलकंठ ने मेरी वकालत में कहा !

ये सब तुम्हें कैसे पता ? सुग्गे ने अपने पंख झाड़ते हुए तुनक कर पूछा !

इसकी उनींदी आँखों आँखों में सब लिखा है कहकर नीलकंठ किसी और अनुग्रह के लिये उड़ गया और सुग्गा पुनः बाक़ी दोनो श्रोता से नीलकंठ और मेरी बुराई में लीन हो गया !
तुम्हें कमियों पर गोष्ठी से फ़ुर्सत मिले तो कभी ख़ूबियों पर भी ताली बजाना गिरेसुनी सी मैंने पलट कर जवाब दिया और भीतर घुस ठाक से दरवाज़ा बंद कर लिया !

( नोट :- गिरेसुन – टर्की का एक प्रान्त जहाँ मनुष्य पक्षियों की भाषा बोलते हैं )

माघ माह की पहली दहाई के अंतिम दिनों की एक गुनगुनी दोपहर मैं अपनी पसंद की किताब लेकर सोसायटी के पिछले हिस्से, जहाँ धातु की दो बेंच लगाकर पार्क होने का भ्रम पैदा किया गया था पहुँच गई ! यह हिस्सा वह एकांत जगह है जहाँ आमतौर पर कोई आता जाता नही, नारद सुग्गा भी अपनी गोष्ठी के लिये इस पार्क को उपयुक्त नही मानता किंतु पढ़ने के लिये मुझे एकांत की तलब होती है जो घर से हमेशा ही नदारद मिलती है इसलिये प्रायः ही मैं इस नीरवता में कोई प्रिय पुस्तक लेकर चली आती हूँ !

मुझे अचंभित करते हुए लाल मगज वाली कुश की चटाई पर आज वह वहाँ किसी वांछित इक्षा सी पहले से प्रस्तुत थी, उसके पास ही रखी एक स्टील की कटोरी छीले हुए मटर के दानों से भरी थी और पारदर्शी प्लास्टिक की बैग छिलकों से !

छिमी तो अभी बहुत महँगी है बाज़ार में, मंझोले श्रेणी के परिवार के लिये सुगम नही है और पहली दृष्टि में तो यह गुप्ता उच्च वर्ग की क़तई ही नही लगती परंतु क्या मालूम हो ! अक्सर ही जो दृष्टिपात हो वही सत्य नही ! सत्य हमेशा ही कृत्रिम भेष में रहता है, उसकी खोज में मनुष्य उसी तरह भटकता है जैसे मृग कस्तूरी की !

मेरी इस मानसिक द्वन्द से नितांत अंजान वह मुदित भाव से सलाइयाँ चला रही थी, ऊन गहरे हरे रंग का था, स्वेटर शायद किसी पुरुष का था ! मुझे देखते ही उसके ऐसे हाथ रूक गये, जैसे उसके अनुस्ठान में जैसे कोई विघ्न पड़ा हो, जैसे किसी उड़ती हुई चिड़िया का मल उसके सर पर गिरा हो !
वह उठने को उद्धत हुई तो तत्काल ही मैंने मृदुल लफ़्ज़ों में रुकने का आग्रह किया !

मैंने क्यूँ रुकने का आग्रह किया ? क्या मैं उसके साथ किसी वाक् संबंध की अभिलाषी थी औपचारिकता पूर्वक प्रार्थना !

उसने मेरी ओर मुस्कुरा कर देखा और पुनः चटाई पर पाल्थी लगा लिया !
उसके मुस्कुराने को स्वतः ही मैंने मित्रता का संकेत मान लिया और आह्लादित हो नाम पूछा !

पार्वती ! कहकर वह चुप हो गई लेकिन मेरे ज़हन में कई कहानियाँ कौंध गई ! उन कहानियों के शब्द मेरे समक्ष तास के घर की तरह भड़भड़ा कर गिर पड़े !

देव की पार्वती, उनके अद्वैत प्रेम के द्वैत होने की कहानी देवदास, वास्तव में देवदास प्रेम कहानी ना होकर देव के अहं और पार्वती के ग़ुरूर की कहानी है जो इस वक़्त मेरे हाथ थी !

स्वेटर बुनती पार्वती का मुख प्रेम से प्रदीप्त दिये की जलती हुई लौ सा दमक रहा था ! निश्चित ही यह देव की पारो नही, पारो का मुख तो ग़ुरूर से प्रकाशित था ! यह प्रेम में पगी गौरा है जिसने सौ वर्षों तक तपस्या कर एक सौ आठ जन्मों तक शिव को पाया है और अब वे अवियोज्य हैं !

महवार लगे पैरों में चौड़ी पायल और उँगलियों में जड़े बिछुए, हाथों में कच्ची लाह की चूड़ियाँ और ब्लू रंग से रंगे नाख़ून ! निकृष्ट स्वप्न से जागी निष्कलंक सुबह सी, जलावन योग्य दरख़्त में जन्मी नई कोंपल; किसी झक कैन्वस पर खींची हुई पहली रेखा सी पार्वती मुझे लुब्ध कर रही थी !

चाँदी के पार वाली पीले रंग की सादी रेशमी साड़ी पर गहरे हरे रंग का ब्लाउज ! मैं आप ही मुस्कुरा दी ! शरतचंद्र ने भी ऐसी पार्वती की कल्पना नही की थी, उसके अदम्य सौंदर्य के लिये ऐसा रंग संयोजन नही चुना था !

मैंने बुक मार्क लगे पेज को खोला किंतु नज़रें उद्वेलित हो बार बार उसपर जा टिकती ! छंद में लिपटी कविता सी वह मुझे मुग्ध कर रही थी !

जाड़े में शाम जल्द चली आती है, शाम अपनी स्याह पैहरन चढ़ाने लगी थी,  उसने अपना असबाब समेटा और उठ खड़ी हुई ! जाने से पहले उसने मुझपर अपनी मुस्कुराती हुई नज़र फेंकी और प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही चल दी !

पार्वती, मैंने बेतकल्लुफ़ी से पुकारा !
जी, सूर्यमुखी ने गर्दन मेरी ओर घुमाई और निर्निमेष मुझे देखा !

तुम कल भी आओगी ? मेरे इस प्रश्न से स्तब्ध रह गई थी वो ! जवाब में उसकी आँखों में कई तलब उभर आये थे जिन्हें मेरे पढ़ने से पहले ही उसने पलक झपक कर प्रश्नपत्र ग़ायब कर दिये ! फिर बमुश्किल कहा, नही, आज वो आयेंगे कहकर जल्दी से मुड़ गई !

जैसे किसी किताब पढ़े बिना ही बंद कर दी जाती है, आगुंतक को बिना दरवाज़ा खोले ही “घर में कोई नही है” कह दिया जाता है वैसे ही वह मुझसे कोई बवास्ता नही रखना चाहती थी, जो ताल्लुक़ रखना होता तो कम अज कम नाम ही पूछ लेती ! अनिक्षा से मृषा ही !

शायद मुझे निकृष्ट समझती है, अदमक़द आइने में ख़ुद पर दृष्टि डाली मैंने, मुझमे उस जैसा अनूठापन नही, रंगों के बिलक्षण युग्मन का गुण नही अन्यथा मुझे तुच्छ जानती है ! कदाचित् एकांतप्रिय हो, मैंने अपने क्षोभ को मिटाने हेतु विहित बहाना तलाश लिया !

पाँतिबद्ध स्त्रियों की नज़र को दूषित करने में विफल काला धुआँ छोड़ती मोटर साइकल का प्रधान रोशनी स्रोत अंधेरे को चीरती हुई तेज़ी से गुज़र गई !

आज तो रूप ही बदला हुआ है, एक साथ कई स्वर थे ! उसके रूप की तरह आज तंज भी बदला हुआ था !

मेरी तो पहचान में भी नही आई न वो और ना तंज ! चुस्त जींस टॉप पर चोक्लेटी रंग की बूट और मेल खाता जैकेट उसपर लम्बे खुले बाल ! चालक लड़के से मक्खी की तरह चिपक पर बैठी वह एक आम लड़की थी, जिसमें मेरी दिलचस्पी रत्ती भर नही थी ! ‘उसके बाल ख़राब हो जायेंगे’ यह एक मामूली चिंता हुई थी मुझे !

अरे आपको उसके बाल की चिंता हो रही है ? मुझे सोसाययटी की बहु बेटियों की चिंता हो रही है ! हमारी मुखिया ने चिढ़ कर कहा था !
कल तक तो आदर्श बनी घूम रही थी आज बेशर्म लड़की की तरह बाइक पर लड़के के साथ उड़ रही है !

किसकी बात कह रहीं है आप ? मैंने बेख़याली से पूछा !

अरे वही, जो रंग बिरंगी कपड़े पहना करती थी, जिसके रूप लावण्य पर आप बड़ा मुग्ध हुआ करती थी !

मेरे भीतर अचरज की नदी बह निकली, उस नदी से औचक की कई छोटी छोटी धारायें निर्गत  होने लगी !

दूसरी सुबह पूरी सोसाययटी में बात आग की तरह फैल गई थी “वह किसी के अन्य पुरुष के साथ भाग गई” !

मैं स्तब्ध थी, पार्वती शिव के साथ गई थी या देव के साथ !

 
      

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3 comments

  1. Very Nice story. Priynka ji

  2. मुकुल कुमारी अमलास

    प्रियंका जी कहानी से ज्यादा आपके कहानी कहने की शैली पसंद आई , आंनद आ गया पढ़ कर।

  3. बहुत शुक्रिया

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