हाल में ही जानकी पुल के संपादक और युवतम कवि अमृत रंजन का कविता संकलन ‘जहाँ नहीं गया’ नयी किताब प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. आप किताब की भूमिका पढ़ सकते हैं जो मैंने लिखी है. पुस्तक मेले में यह किताब नयी किताब के स्टाल पर उपलब्ध है. आप चाहें तो ले सकते हैं- प्रभात रंजन
===============
आजकल हिंदी में सबसे अधिक कविताएँ लिखी जा रही हैं। लेकिन यह भी सोचने की बात है कि सबसे कम नवोन्मेष कविता की विधा में दिखाई देता है। हर नया कवि किसी पुराने कवि की तरह लिखता दिखाई देता है। इसीलिए अगर कोई कवि लीक से हटकर कुछ रचता दिखाई देता है उसकी तरफ सहज ही ध्यान चला जाता है। किशोर कवि अमृत रंजन मेरे लिए एक ऐसे ही समकालीन कवि जिसकी काव्य-यात्रा निरंतर अपने मुहावरा गढ़ने और उसको पुख्ता रूप देने की अनवरत कोशिश के रूप में सामने आती है। एक बनते हुए कवि को बनते हुए देखना, अपनी जिद को शब्दों में आकार देते हुए देखना एक अच्छा रचनात्मक अनुभव रहा है।
अमृत रंजन की पहली कविता मैंने पढ़ी थी जब शायद वह 12 साल का था और छठी कक्षा का विद्यार्थी था। ‘अंधेरी रातों में/सोकर भी जगा रखता यह/सपना…कभी-कभी सोचता हूँ/कि किस दुनिया में ले जाता यह/सपना’। इस कविता में कुछ भी बालकोचित नहीं लगा था। ऐसा नहीं मानो किसी बच्चे ने हिंदी की कक्षा में कविता प्रतियोगिता के लिए लिखा हो या महज अपने सहपाठियों या जानने वालों को प्रभावित करने के लिए लिखा हो। हो सकता है कि कविता को उसने शुरुआत में हॉबी के रूप में अपनाया हो लेकिन समय के साथ उसने कविता को पेशे की तरह गंभीरता से लिया है। यही बात उसकी कविताओं में मुझे सबसे प्रभावित कर गई कि जिस तरह से आज मार-तमाम कविताएँ लिखी जा रही हैं, बिना किसी बड़ी काव्यात्मक उपलब्धि की महत्वाकांक्षा के, बिना किसी रचनात्मक सजगता के, वह उनसे अलग लिखता है। वह भीड़ में तो है लेकिन भीड़ के लिए बना ही नहीं है। कवि सुमित्रानंदन की कविता ‘प्रथम रश्मि’ की बरबस याद आ गई- ‘ प्रथम रश्मि का आना रंगिणि!
तूने कैसे पहचाना?
कहाँ, कहाँ हे बाल-विहंगिनि!
पाया तूने वह गाना?
शायद यह कविता प्रकृति की सुन्दरता को शब्दों में जीवंत कर देने वाले कवि सुमित्रानंदन पन्त की आरंभिक कविताओं में एक है, जिसमें एक आदिम जिज्ञासा की अभिव्यक्ति है।
उसकी कविता में एक गहरी जिज्ञासा का सहज भाव ही था जो पहली नजर में ही प्रभावित करने वाला था। बादरायण के अथातो ब्रह्म जिज्ञासा को परम सत्य की प्राप्ति की दिशा में सबसे बड़ा सूत्र माना गया है। कुछ साल बाद अमृत ने जिज्ञासा पर एक लेख लिखा था जिसमें उसने इसाक असीमोव को उधृत किया था- एट फ़र्स्ट देयर वॉज़ क्यूरिओसिटी यानी सबसे पहले जिज्ञासा थी। सपने से शुरू हुई उसकी इस पहली कविता को पढने के बाद पिछले चार-पांच साल के दौरान उसकी कई दर्जन कविता पढ़ी, उसको बालक से किशोर होते हुए देखा और एक कवि के रूप में भी उसको बालकोचित जिज्ञासा से वयस्क अभिव्यक्ति करते हुए देखा है। उसकी जिज्ञासा को बेचैनी बनते हुए देखा है। मसलन, इस साल उसकी जो कविताएँ मैंने पढ़ी उनमें मुझे ‘बेचैन’ कविता याद आ रही है- कितना और बाक़ी है?
कितनी और देर तक इन
कीड़ों को मेरे जिस्म पर
खुला छोड़ दोगे?
चुभता है।
बदन को नोचने का मन करने लगा है,
लेकिन हाथ बँधे हुए हैं।
पूरे जंगल की आग को केवल मुट्ठी भर पानी से कैसे बुझाऊँ।
गिड़गिड़ा रहा हूँ,
रोक दो।
उसके कविता संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए उसके इन दो काव्यात्मक सूत्रों की तरफ ध्यान जाता है जो उसके अब तक की काव्यात्मक यात्रा को समझने में मदद करती है। अमृत रंजन की कविता-यात्रा के सन्दर्भ में जो बात रेखांकित की जानी चाहिए कि एक ‘लोकप्रिय’ समय में बड़ा हो रहा कवि लोकप्रियता के सांचों से लगातार दूरी बनाये हुए है। समकालीन लेखन पीढ़ी का सबसे बड़ा रचनात्मक द्वंद्व यह दिखाई देता है कि लोकप्रिय मानकों को किस तरह अपनाया जाए। अमृत की कविताएँ इस द्वंद्व से मुक्त हैं। उसके द्वंद्व भी दूसरे हैं और सरोकार भी।
बीसवीं शताब्दी के दौरान हिंदी कविता के प्रतिमान और सरोकार कमोबेश एक जैसे ही बने रहे। उनमें अभावों की पीड़ा थी, विषमता का प्रतिकार था, राजनीतिक रूप से प्रतिबद्धता थी और बाद के दिनों में बाजारवाद का विरोध। हिंदी कविता के मानक में निजता को, निजी अनुभूतियों को उतनी प्रमुखता नहीं मिली जबकि कविता को माना ही निजतम अभिव्यक्ति जाता रहा है। हिंदी कविता के ऊपर सार्वजनिक का दबाव बहुत अधिक रहा है। लेकिन नई शताब्दी में हिंदी कविता धीरे धीरे इन मानकों से बाहर निकल रही है, सार्वजनिक के शोर के बीच उसमें निजता का स्पेस बढ़ा है। दूसरी तरफ, सरोकार भी बदले हैं।
मसलन आज वैश्विक स्तर पर हम पर्यावरण के संकट के दौर से गुजर रहे हैं, प्रकृति के साथ हमारी दूरी बढती जा रही है, विस्थापन बढ़ता जा रहा है। जाहिर है, आज के युवाओं के सरोकारों में इनसे जुड़े मुद्दे होने चाहिए। हम जब बच्चे थे तो दिवाली का इन्तजार महज इसलिए करते थे क्योंकि उस रात हमें पटाखे छोड़ने का मौका मिलता था। आज दिवाली आने से पहले बच्चे यह कहते पाए जाते हैं कि पटाखे न चलायें, पर्यावरण बचाएं। अमृत की कविताओं में जिस बात ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया वह यह है कि उसकी कविताओं में पर्यावरण और प्रकृति की चिंता है। उदहारण के लिए, क्या आज से पहले पानी पर ऐसी कविता लिखी जा सकती थी- ‘कितना चुभता है
नल से निकलते
पानी की चीख सुनी है?
मानो हमारे जीवन के लिए
पानी मर रहा है।‘
अमृत की कविता में प्रकृति और परिवेश के असंख्य बिम्ब हैं, असंख्य कथन हैं और उनके पीछे एक तरह का भय झांकता दिखाई देता है उनके पीछे से। अमृत की कविताओं में यही नयापन है जो मुझे आकर्षित करता है और एक बेहतर कवि की सम्भावना जगाता है। परम्परागत रूप से जिसे सौन्दर्य कहा जाता रहा है, जिन उपादानों को प्रकृति के आलंबन के रूप में देखा जाता रहा है अमृत की कविताओं में उनको लेकर एक तरह का संशय है, एक तरह का भय है, सिहरन है, प्रश्नाकुलता है। यह काव्य-मुहावरा नितांत मौलिक है जो अमृत की कविताओं में दिखाई देता है। जो है उससे परे जाकर देखने वाली उसकी नजर हिंदी कविता की कुछ बेहतर निगाहों में हैं। एक बेहतर सम्भावना। उनकी एक कविता है ‘चीड़’-
जंगलों की सैर करने गया था
आवाज़ों को पीने की कोशिश की थी
लेकिन
पेड़ों ने बोलने से इन्कार कर दिया।
चीड़ की चिकनी छाल को छुआ
लेकिन उसने मेरे हाथों में काँटे चुभा दिए।
वाह, सलाम ऐसे कवि को!