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 राकेश तिवारी की कहानी ‘मुचि गई लड़कियां’  

राकेश तिवारी को मैं एक अच्छे पत्रकार, लेखक के रूप में जानता, पढता रहा हूँ लेकिन उनकी यह कहानी कुछ अलग ही है. कुमाऊँ का परिवेश, किस्सागोई और मुचि गई लड़कियां. पढियेगा, आपको भी अच्छी लगेगी. यह कहानी ‘आजकल’ में प्रकाशित हुई थी- मॉडरेटर

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धनंजय कहता है यह तारा सती वह लड़की नहीं हो सकती। क़तई नहीं। वह तो बड़ी मस्तमलंग थी। चीज़ों के पीछे-पीछे भागना उसकी फ़ितरत में नहीं था। वह चाहती तब भी इतनी दूर नहीं निकल पाती। उसके बस का नहीं था। आपको बनाने और बिगाड़ने वाली सारी बातें आपके अंदर होती हैं और आपके आसपास होती हैं। वह सब दिखाई देता है। वहां तो ऐसा कुछ नहीं था। पानी की तरह बहता चला जाता जीवन था। उस पानी में ज़्यादा से ज्यादा कोई पनचक्की लगा लेगा। ज़्यादा से ज़्यादा। बांध कैसे बना सकता है ? वह नौ-दस साल पहले की उस तारा के बारे में सोचता है, तो अब भी हँसी आ जाती है। उसे अब भी वैसी ही कल-कल बहती कोसी होना चाहिए। सचमुच वह वैसी ही होगी। कहीं न कहीं दीवार धकेलती होगी।

  एक बात उसकी समझ में कभी नहीं आई। वह लड़की उसे याद क्यों आती है। किसी को एक मुलाक़ात के बाद— केवल एक मुलाक़ात के बाद— कोई एक दशक तक क्यों याद रखता है ? महज नाम की वजह से क्यों किसी लड़की में उसको ढूंढना शुरू कर देता है ? क्या तुक है ?

   मन में उठ रहे सवालों से वह इस वक़्त भी पीछा नहीं छुड़ा पा रहा। पता नहीं कहां होगी वह आज और कैसी होगी ? और उसकी सहेलियां ?  वह उम्र का हिसाब लगाता है तो जीरोकाट की उस तारा की उम्र भी तारा सती की उम्र के आसपास बैठती है। लेकिन जीराकोट की तारा जैसे लोग ज़िंदगी से ज़्यादा नहीं चाहते। बशर्ते कोई ज़िद न ठान लें। ज़िद्दी तो वह भी बहुत थी। लेकिन हर ज़िद्दी आदमी एवरेस्ट की तरफ़ तो कूच नहीं कर जाता। नहीं। असंभव। वह लड़की हरगिज़ तारा सती नहीं हो सकती। नो वे।

     सन् 2009। जीराकोट।

  वह इस मौसम का एक सामान्य दिन था। ठंडा और हाड़ कंपा देने वाला। जीराकोट गांव में सूरज ढल रहा था। इस मौसम में यहां लोग सूरज ढलते ही घरों को गर्म रखने और बच्चों व बूढ़ों के आग तापने का इंतज़ाम करने लगते हैं। पहाड़ की चोटी पर बसे इस गांव में हवाओं की गुंडागर्दी चलती थी और उन दिनों उन तीन लड़कियों की भी चल रही थी बल। लोग लकड़ियां इकट्ठा करने लगे थे या कर चुके थे। एक आमा (दादी अम्मा) सिर पर लकड़ियों का गट्ठर लिए संकरी पगड़ंडी पर तेज़ी से घर की तरफ़ जा रही थी। आमा के पीछे-पीछे, कोई डेढ़ सौ गज की दूरी पर एक बैल चला जा रहा था। खरामा-खरामा। बैल के पीछे वही तीन लड़कियां चल रही थीं। अपनी मस्ती में। चूंकि बैल धीमे और लड़कियां तेज़ चल रही थीं, इसलिए उनके बीच की दूरी लगातार कम होती जा रही थी। लड़कियों के पीछे बी.डी.ओ साहब ( रिटायर खंड विकास अधिकारी) और उनकी पत्नी चले आ रहे थे। वे शाम की सैर पर निकले थे। बातों में मशगूल। मानो, घर में बतकही के लिए वक़्त कम पड़ जाता हो। हालांकि वक़्त उनके पास इफ़रात था।

   हवाएं सूरज डूबने का इंतज़ार कर रही थीं, ताकि सांय-सांय मचा कर गांव वालों को परेशान कर सकें। दोनों बुजुर्गों ने ऊनी कपड़े डाट रहे थे। भले ही सूरज अभी पहाड़ की ओट में नहीं गया था। उसी वक़्त इन लड़कियों में से एक ने जो किया वह एकदम अप्रत्याशित था। तारा ऐसी हरकत कर बैठेगी इसका गुमान उसके साथ चल रही नीता और कांता को भी नहीं था। लड़कियां ऐसा करती हैं भला ?  उस घटना के बाद यह सवाल गांव में हर किसी की ज़ुबान पर था। लड़कियां ऐसा क्यों नहीं कर सकतीं, यह सवाल लड़कियां पूछ रही थीं। उनके इस तरह के सवाल से लोग बिदक गए थे। बदतमीज़ कहीं की। यह भी कोई बात है ? औरत जात और ऐसा उत्पात ?

     तेरह साल की नीता और कांता। चौदह की तारा। तीनों जीराकोट के उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में आठवीं कक्षा में पढ़ती थीं। किशोर उम्र की और युवा होती हुईं। नीता और कांता औसत नाक-नक्श की और रंग तकरीबन गोरा। तारा की सफ़ेदी में जीराकोट की आबोहवा ने दो बूंद लाल रंग भी घोल दिया था। नाक-नक्श भी बनिस्बत ज़्यादा तीखे थे। लेकिन समस्या दूसरी थी। पूरे गांव में तीनों इस उम्र में ही कुख्यात हो गई थीं। लोग ग़ुस्से में उन्हें ‘गुंडियां’ कहने लगे थे। ‘गुंडियां’ का अर्थ था शरारत और बदमाशी करने वाली। केवल इतना ही। बदतमीज़, नालायक, बिगड़ैल छोकरियां जैसे विशेषण तो आम बात थी। लेकिन ‘गुंडियों’ से कुछ ख़राब-सी ध्वनि निकलती है, यह लड़कियों को हमेशा महसूस होता था। इससे उनका ग़ुस्सा और नाराज़गी बढ़ गई थी। शरारतें और बदमाशियों के लिए ज़िद भी इसी कारण बढ़ी थी। हालांकि, देखा जाए तो तमाम शरारतों के बावजूद तीनों गांव की सरल लड़कियां ही थीं। थोड़ा नासमझ और थोड़ा-थोड़ा मासूम। गड़बड़ केवल यह कि वे जीराकोट की लड़कियों के लिए तय शरारतों की सीमा लांघ रही थीं। बस।

   ‘गुंडियां’ कहे जाने के बाद एक बात उन्होंने और गांठ बांध ली। ठीक है, लड़के गुंडे हो सकते हैं तो लड़कियां गुंडियां क्यों नहीं हो सकतीं ? लड़कों की बराबरी करने की ऐसी ही बेवजह की ज़िद में पिछले साल तीनों ने लड़कों की तरह बाल कटा लिए थे। बाल कटाने का क़िस्सा समझने के लिए  थोड़ा गांव का भूगोल समझना ज़रूरी है। असल में जीराकोट गांव काठगोदाम-अल्मोड़ा मोटर मार्ग से आधा किलोमीटर की चढ़ाई पर है। पैदल रास्ता है। गांव वालों के लिए यह मामूली दूरी है। नीचे, अल्मोड़ा जाने वाली सड़क के दोनों तरफ़ कुछेक दुकानें हैं। सड़क के ठीक नीचे कोसी नदी बहती है और बहुत दूर तक सड़क से बात करती हुई-सी चलती है। सड़क किनारे की इन्हीं दुकानों पर रोज़मर्रा की ज़रूरत का सामान मिल जाता है। वरना बाज़ार करने के लिए किसी जीप या बस में बैठ कर सात-आठ किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। गांव के कुछ कंजूस बुड्ढे पैदल ही निकल जाते हैं। गांव को जाने वाले पैदल रास्ते की जड़ पर, जहां मोटर मार्ग है, चंद दुकानों के बीच एक दुकान नाई की भी है। जीराकोट में अब तक बाल सिर्फ़ मर्द कटवाते थे। लड़कियों के बाल लीख और जुईं की भरमार होने या चोट-पटक लगने पर ही कटवाये जाते। वरना थोड़ा-बहुत लीख-जुईं तो घर की औरतें दोनों अंगूठों ने नाखून से ही पुड़का (फोड़) देती हैं।

   ये लड़कियां स्वेच्छा से और फैशन के कारण आई हैं, ऐसा नाई ने समझ लिया था। उसे खुशी हुई कि उसके तीन और स्थायी ग्राहक हो गए। लड़कियां घरवालों को बिना बताए बाल कटाने निकली थीं। कांता ने उस बाईस-तेईस साल के युवा नाई को निर्देश दिया कि लड़कों से अच्छे बाल कटने चाहिए, नहीं तो वे उसका शीशा फोड़ देंगी। बाकी दोनों ने समर्थन किया। नाई घबरा गया। जवाब में उसका कहना था, “बिल्कुल बैंणी (बहन), लड़कों को फेल कर दूंगा।”

   वह इन लड़कियों को तब से जानता था, जब ये बहुत छोटी थीं। वह इन्हें ‘आवारा’ कहने लगा था। क्योंकि लड़कियां दिन में कई चक्कर गांव से उतर कर नीचे चली आती थीं। खास तौर पर जब इनके पास पैसे आ जाएं। ग्राहक बनने के बाद नाई ने लड़कियों के बारे में अपनी धारणा बदलने का फैसला किया था। इन लड़कियों की एक आदत और थी। सड़क से उतर कर कोसी में पहुंच जातीं। गर्मियों के दिन हों तो नदी में घंटा-डेढ़ घंटा नहातीं। उसके बाद दो लड़कियां पहरा देतीं और तीसरी किसी पत्थर के पीछे छुप कर कपड़े बदल लेती। इस तरह दूसरी की बारी आती। नहा-धो कर वे सबसे  ऊंचे और चौड़े पत्थर पर पसर जातीं और रिंगाल की बंसी लेकर लड़कों की तरह मछलियां मारतीं। दो-चार मछलियां हाथ लग जाएं तो दम साध कर गांव की तरफ़ दौड़ पड़तीं। घर से बर्तन और तेल, मसाले, नमक वगैरह चुरा कर जीराकोट की चोटी में पहुंच जातीं, जहां जंगल था। वहीं तीन पत्थर अड़ा कर चूल्हा लगातीं, जलातीं, मछलियां पकातीं और खा पीकर जंगल में ही सो रहतीं। कभी-कभी घर से रोटियां भी चुरा लातीं। यहीं एक बार तीनों ने बीड़ी पीकर भी देखी। लेकिन बीड़ी इन्हें रास नहीं आई।

   बाल कटाने से लड़कियों को लेकर नई चर्चा छिड़ गई। ज़्यादातर का मानना था कि छोकरियां इतराने और उड़ने लगी हैं। गांव वाले ‘हरकतें’ तो थोड़ा बहुत बर्दाश्त कर लें, इतराना भी पचा लें, लेकिन उड़ने-उड़ाने से उन्हें सख्त एतराज था। इस गांव में औरतों को कभी किसी ने उड़ते नहीं देखा। किसी औरत ने कभी सोचा ही नहीं कि उड़ना कोई ज़रूरी क्रिया हो सकती है। औरत जैसे दोपाये को उड़ना क्यों चाहिए ? सुबह उठना, खाना पकाना, बर्तन मांजना, कपड़े धोना, ढोर-डंगरों के लिए घास-पात और सानी-पानी का इंतज़ाम करना, घर में जलावन की लड़की की व्यवस्था देखना, आटा पिसा कर सिर पर लाना, बच्चे पैदा करना, उनका हगा-मूता साफ़ करना, खांसना, कराहना, चुपके-से रोना और आधी नींद सोना। यह निरंतर चलने वाला चक्र था, जैसे कोल्हू का बैल। इसी में सारे दृश्यमान सुख थे, इसी में तमाम अदृश्य दुख। इस सबके बाद पंख फड़फड़ाने की कूवत बचती है क्या ? पर इन लड़कियों को जाने क्या सूझी कि फुर्र-फुर्र करने लगीं। भुगतेंगी। ऐसा गांव में जब खुद तीनों की माएं जब कह रही थीं तो बाकी जाने क्या-क्या बकते होंगे। अपनी लड़कियों को इन तीनों की कुसंगत से बचाना है। यह गांव वालों की आम धारणा थी।

  पिछले दो-तीन सालों से तीनों के ही घर वाले उन्हें मुचि गई चेलीं (हाथ से निकल गई लड़कियां) कहने लगे थे। गुंडियां नाम तो पिछले साल से पड़ा जब इन्होंने छेड़छाड़ करने वाले एक लड़के का नाक-मुंह फोड़ दिया। इस घटना से गांव के लड़के सनाका खा गए थे। इससे पहले चिड़ियों पर निशाना लगा रहे एक लड़के की गुलेल तारा ने तोड़ दी थी। उसने छूटते ही गाली दे दी। इस पर तीनों ने उसे पटक-पटक कर मारा था। वरना इनका सबसे प्रिय शगल था लड़कों पर पथराव करना। मकसद चोट पहुंचाना नहीं, डराना भर होता था। पर ‘ नाकफोड़ कांड’ को इनकी बढ़ती गुंडई का सबूत मान लिया गया था। तारा की बदक़िस्मती यह कि गांव में दो तारा थीं। इस तारा की पहचान के लिए झट-से कहा जाता— अरे वही, तरुलि (तारा) गुंडी। बदनामी के नुकसान हजार हों, पर एक फ़ायदा उन्हें हुआ। अब अकेले-दुकेले इनसे उलझने में अच्छे खासे सूरमाओं की हिम्मत जवाब दे जाती। एक ही बहाना होता। बदतमीज़ लड़कियां हैं। कौन मुंह लगे।

  तीनों की अनंत कथाएं थीं। हरि की तरह। लेकिन उस दिन बैल के पीछे चलते हुए जो इन्होंने किया वहां से इनकी छवि को एकदम बट्टा लग गया। वहीं से इनकी जिंदगी में एक नया मोड़ भी आया। दरअसल बैल को देख कर तारा ने पूछा था, “जैसे गाय लड़की (मादा) होती है, वैसे ही बैल लड़का (नर) होता है ना ?”

     पता तीनों को ही था, लेकिन फिर भी तारा ने यह निरर्थक सवाल किया था। ज़ाहिर है दोनों ने ‘हां’ ही कहना था। अब तक तीनों बैल के ठीक पीछे पहुंच चुकी थीं। पगडंडी बहुत पतली थी और बैल की चाल बेहद धीमी। उससे आगे निकलने में जोखिम था। सींग मार सकता था। पीछे-पीछे चलने में उलझन हो रही थी। दो-चार बार वे ‘हट-हुट’ कह चुकी थीं। लेकिन बैल अपनी मस्ती में चल रहा था। तारा को पता नहीं क्या सूझा कि उसने बैल की पिछली दोनों टांगों के बीच में लात जमा दी। बैल बिदक गया। अगर पगडंडी की जगह चौड़ा रास्ता होता तो संभव है वह पलट कर पीछे आया होता। मगर वह रॉकेट की तरह आगे की ओर दौड़ा। दौड़ते हुए उसने लकड़ी का गट्ठर लेकर चल रही आमा को सींगों पर उछाल दिया। आमा खाली टोकरे की तरह हवा में तैरती हुई चारों खाने चित। सीधा पगडंडी के नीचे खेत में गिरी। लकड़ियों का गट्ठर कई फुट दूर जाकर गिरा। अच्छा ही हुआ। वरना वही लकड़ियां उसके काम आ गई होतीं। बुढ़िया की कराह से लड़कियों के साथ-साथ बुजुर्ग दंपति भी दहल गए।

     आमा के खेत में गिरते ही लड़कियां भी पगडंडी से नीचे कूद गईं। उन्होंने भाग कर आमा को उठाया। वह कराह रही थी और उठने को तैयार नहीं थी। उलटा-पलटा कर देखा। खड़े सींग वाला बैल था। कहीं बुढ़िया की पीठ या कमर न चीर दी हो। लेकिन आमा के बदन पर कोई घाव नहीं था। फिर भी वह उठने को तैयार नहीं थी। इतनी देर में रिटायर बी.डी.ओ. और उनकी पत्नी भी एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर बेढब-से रास्ते से पगडंडी के नीचे उतर आए। बी.डी.ओ. दूर से ही लड़कियों को डांटते आ रहे थे। ग़ुस्से से उनके होंठों के दोनों कोरों पर झाग जमा हो गया था। तभी उनकी पत्नी ने आगे बढ़ कर लड़कियों को एक-एक थप्पड़ जड़ दिया। लड़कियां सन्न रह गईं। पर अभी उन्हें थप्पड़ और डांट की नहीं, चित पड़ी बुढ़िया की चिंता थीं। डर था कि कहीं गुम चोट से मर-मरा न जाए।

   थोड़ी ही देर में उनकी कोशिशों से आमा खड़ी हो गई। कुछ दूर लंगड़ा कर चली और और फिर कमर पकड़ कर सीधी हो गई। अब उसे लकड़ी के गट्ठर की चिंता हुई। उसने इधर-उधर देखा। लड़कियों ने कहा कि वे लकड़ी का गट्ठर घर पहुंचा देंगी। लेकिन वह नहीं मानी। उन्होंने गट्ठर उसके सिर पर रख दिया और लचकती हुई घर की ओर चल दी। इसके बाद गांव में काफ़ी हंगामा हुआ। हर किसी को लड़कियों की इस करतूत पर सख्त एतराज था। लड़कियां उल्टा बहस कर रही थीं कि इसमें लड़कियों वाली क्या बात है। अगर यह ग़लत है तो लड़कों के लिए भी ग़लत है।

     तारा की इजा (मां) ने तीनों को डांट लगाई, “लड़कियों को अपने हाथ, पैर और ज़बान पर काबू रखना चाहिए। ये क्या हुआ बेहूदा हँसना, बेहूदा हरकतें करना। लड़की मतलब गाय। बकरी।”

   कांता और नीता तो उसकी इजा का लिहाज कर रही थीं, लेकिन उसने तड़ाक्-से सवाल किया, “गाय-बकरी का मतलब ?”

       “शांत, संयमी।…बैल के ऐसी जगह लात मारना…लड़कियों को ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए कि आदमियों को अकेले में हँसने और मज़ाक करने का मौका मिले। पीठ में मार देते।”

   “क्यों मार देते पीठ में ? जहां मन करेगा, वहीं तो मारेंगे।”

   “चुप बदतमीज़। ऐसी जगह नहीं मारते।”

   “क्यों ?”

       इजा क्या जवाब दे। बोली, “वहां प्राण होते हैं।”

   “अभी तक तो तू दिल पर हाथ लगा कर कहती थी कि प्राण हृदय में होते हैं।”

   तीनों हँसने लगीं। उसकी इजा को कुछ नहीं सूझा। बोली, “हर नाज़ुक जगह पर प्राण होते हैं।”

   तीनों नसीहतों की अनसुनी करके भाग गईं।

      बहरहाल, लड़कियों के मन में बी.डी.ओ. दंपति को लेकर गांठ पड़ गई थी। अगर आमा को चोट लगी होती तो शायद उन्हें ग़लती का अहसास हुआ होता और यह गांठ मजबूत न हुई होती। शायद। पर बी.डी.ओ. की डांट और उनकी पत्नी के थप्पड़ उन्हें भूल नहीं रहे थे। यों बदला लेने के रास्ते बहुत थे। जैसे कि एक बार उन्होंने गांव के मैदान से थोड़ा नीचे, खायी की तरफ़ रहने वाले चतुर सिंह के लौंडे हरिया से बदला लिया। हरिया ने अकेले में नीता का हाथ मरोड़ दिया था। वह उम्र में बड़ा और हट्टा-कट्टा था। इसलिए लड़कियों ने योजना बना कर उसी रात उनके घर की टिन की छत पर पथराव कर दिया। एक-एक लड़की ने दस-दस पत्थर मारे। गांव में हंगामा मच गया। लेकिन लड़कियां पकड़ में नहीं आईं। पथराव का यह क़िस्सा भूतों के कारनामे से लेकर किसी दुश्मन की कारगुजारी तक कई कथाओं में बदल गया था। शक नाते-बिरादरी वालों तक भी पहुंच गया। दुश्मनी की नौबत आ गई। जितने मुंह उतनी बातें। यह राज लड़कियों ने किसी और पर ज़ाहिर नहीं होने दिया। हां, शक की गिरफ़्त में वे भी आई थीं।

   ऐसा ही इलाज बी.डी.ओ. का किया जा सकता था। लेकिन इसमें पहली दिक़्कत उनके घर की स्थिति के कारण थी। जीराकोट जिस पहाड़ी पर बसा था, वह आदमी की तोंद की तरह थी। वहां से डामर की सड़क दिखाई नहीं देती थी। लेकिन नदी साफ़ नज़र आती थी। तोंद का आगे निकला हुआ हिस्सा गांव का मैदान था। उस जगह स्कूल था और कुछ घर थे। बाकी घर पहाड़ी पर अलग-थलग और छिटके पड़े थे। कोई चोटी पर था तो कोई मैदान से नीचे के ढलाव में। जहां भी थोड़ा चौड़ी जगह थी, वहीं घर बना लिए गए थे। आसपास ऊंची-नीची जगहों पर लोगों के खेत थे। संयोग से गांव में पानी पर्याप्त था और इन खेतों में ज़्यादातर सब्जियां उगाई जाती थीं। बी.डी.ओ. का घर मैदान से थोड़ा ऊपर और गांव के सबसे आखिरी छोर पर था। उसके दूसरी तरफ़ जंगल लग जाता था। वहां वन विभाग ने कंटीले तारों की बाड़ लगा रखी थी। बी.डी.ओ. के घर जाने के लिए मैदान वाले रास्ते से थोड़ा-सा चढ़ना पड़ता था। अन्यथा छोटी पगडंडी पकड़नी होती थी, जो उनके घर के पिछवाड़े खत्म हो जाती। जहां से खड़ी उतराई में उनका घर था। पगडंडी गांव के मैदान से थोड़ा ऊपर चढ़ कर शुरू होती और यहां तक आती थी। पगडंडी के नीचे या बराबर में भी कुछ घर थे। ऊपर केवल कुछ सीढ़ीनुमा खेत थे। थोड़ा ऊपर चले जाने पर बी.डी.ओ. साहब के घर के बराबर से चले आ रहे कंटीले तार मिल जाते थे। अगर वे तीनों पथराव करके भागतीं तो अपने घर की ओर लौटना उसी पगडंडी से पड़ता। इसमें पकड़े जाने का ख़तरा था।

  एक तकरीब और थी। ऊपर पहाड़ पर चढ़ जाओ। खेतों और जंगल की तरफ़। वहां से पथराव करो। उसमें जोखिम था। एक तो उस इलाक़े में रात को घुसना ख़तरे से खाली नहीं था। वहां अक्सर बाघ दिखाई देता था। दूसरा, बी.डी.ओ. साहब के घर में तीन सेल का टॉर्च तो था ही, उनकी छत पर एक सर्च लाइट जैसा तेज़ रोशनी वाला बल्ब भी लगा था। वह बल्ब था या कुछ और, लड़कियों को ठीक से पता नहीं था। लेकिन लोग उसे सर्च लाइट कहते थे। बी.डी.ओ. साहब उसे तभी जलाते जब गांव में बाघ देखे जाने की ख़बर हो। इसके अलावा जब दीपावली पर उनके परिवार के लोग गांव आते। पथराव होने पर वे सर्च लाइट जला सकते थे। तीसरा ख़तरा यह था कि गांव में दो रसूखदार लोगों के अलावा बी.डी.ओ. साहब ही थे जिनके घर बंदूक थी। उन्हें कभी किसी ने बंदूक चलाते तो नहीं देखा, लेकिन सर्दियों में वे धूप में बैठ कर कभी-कभी लाल मिर्च की तरह कारतूस सुखाने डाल देते थे और बैठे-बैठे बंदूक साफ़ करते थे। पर जिसने कभी बंदूक नहीं चलाई, वह चला तो सकता था।

   एक रोज़ हुआ यों कि कांता की आमा (दादी) अपनी गुदड़ी लेकर धूप में बैठी थीं। कांता और उसके भाइयों की छुट्टी थी। वह  भी छोटे भाई के साथ दादी के पास ज़मीन पर बैठी धूप सेंक रही थी। छोटे भाई के ऊपरी मसूढ़े से दांत के ऊपर एक और दांत निकल आया था। दादी ने नीचे वाला पुराना दांत हिला-हिला कर कुछ दिन पहले तोड़ दिया था। लेकिन ऊपर वाला दांत खाली जगह से हट कर निकला था और बहुत भद्दा लग रहा था।

  दादी ने उसे अपने पास बुला कर उसके दांत को दबाते हुए कहा कि वह इसी तरह सुबह-शाम इसे धकेला करे। इससे दांत सही जगह पर पहुंच जाएगा। यह सुन कर कांता का सवाल था, “आमा, धकेलने से दांत नीचे कैसे पहुंच जाएगा ?”

     “धकेलने से बड़े-बड़े पत्थर भी हिल जाते हैं।”

       कांता को आश्चर्य हुआ। जिज्ञासा बढ़ गई, “अगर हम मकान को धकेलेंगे तो वह भी हिल जाएगा ?”

     “हां, क्यों नहीं।” दादी ने उनींदे स्वर में कहा। उन्हें धूप में नींद का नशा छाने लगा था।

     यह उसके लिए एकदम नई सूचना थी। दोपहर में उसने सारा क़िस्सा अपनी सहेलियों को बताया और सुझाव दिया कि अगर हम लोग सुबह-शाम बी.डी.ओ. का मकान धकेलें तो एक दिन वह लुढ़क कर नदी में चला जाएगा। यह बात बाकी दोनों को भी जंच गई। बी.डी.ओ. का घर पहाड़ के जिस कोने में था वहां से अगर उसे नीचे धकेलने की कल्पना की जाए तो ऐसा लगता था कि मकान सीधा नदी में जाकर गिरेगा। इस विचार से तीनों को बड़ी आत्म तुष्टि हुई। जैसे थोड़ी-सी मेहनत के बाद यह सब हो जाने वाला हो। उन्होंने आगे की कई और कल्पनाएं कर डालीं। मसलन, जब मकान लुढ़केगा तो नदी में सीधा खड़ा हो जाएगा या सिर के बल गिरेगा ? कहीं किसी पेड़ से या चट्टान से टकरा कर चकनाचूर तो नहीं हो जाएगा और नदी में उसका मलबा ही पहुंचे ? बी.डी.ओ. और उसकी घरवाली को भागने का मौका मिल पाएगा या वे भी मकान से साथ नदी में पहुंच जाएंगे ? उन्होंने बी.डी.ओ. की बंदूक, सर्च लाइट, टीवी वगैरह के बारे में भी सोचा। उन्होंने यह भी तय कर लिया था कि अगर बंदूक उनके हाथ लग गई तो वे उसे गड्ढे में दबा कर रख लेंगी और कभी-कभी जंगल में जाकर चलाएंगी। फिर तो बाघ का भी डर नहीं रहेगा। सोच-सोच कर वे काफ़ी खुश थीं। ऐसा लग रहा था जैसे आधा बदला चुका दिया हो।

     तीनों लड़कियों को सुबह स्कूल जाने की हड़बड़ी में समय नहीं मिलता था। लेकिन शाम को अब वे टहलते हुए बी.डी.ओ. के घर की ओर निकल जातीं। ठीक अंधेरा होते वक्त बी.डी.ओ. और उनकी पत्नी सैर से लौटते। हाथ-मुंह धोते, चाय पीते और तब बी.डी.ओ. साहब तबला व उनकी पत्नी हारमोनियम लेकर बैठ जाते। यह उनका नियम था। दोनों कोई न कोई राग छेड़ देते। कभी भजन या कोई पुराना फिल्मी गाना ही सही। दोनों रिटायर हो चुके थे। जब गांव की औरतें शाम को पूजा-आरती कर रही होतीं या खाने की तैयारी करने लगतीं और बच्चे व बूढ़े आग ताप रहे होते तब वे घंटे भर इसी तरह गाते-बजाते।

   ठीक इसी वक़्त, चूंकि वे दोनों व्यस्त रहते और शाम का झुटपुटा हो चुका होता, तीनों लड़कियां बी.डी.ओ. के घर के पिछले हिस्से में पहुंच कर उनकी दीवार को पांच-सात मिनट पूरा ज़ोर लगा कर ठेलतीं। उन्हें यक़ीन होने लगा था कि घर अवश्य हिल रहा है और एक दिन ढह कर नदी में चला जाएगा।

   कई महीनों तक यह क्रम चलता रहा। कभी-कभी नागा भी हो जाता। अगले दिन वे कुछ ज़्यादा देर तक दीवार धकेलतीं और पहले दिन की कसर पूरी कर देने से उन्हें तसल्ली होती। किसी को अभी तक उनके इस नए कारनामे की भनक नहीं लगी थी। लड़कियां खुश थीं और पूरे समर्पण के साथ अपना काम कर रही थीं। इस तरह सर्दियां बीत गईं। गर्मी आई और वह भी बीतने वाली थी। जून के अंत की बात है। पहाड़ों में इस दौरान बारिश शुरू हो जाती है। हालांकि इस बार अभी तक बारिश नहीं हुई थी। गर्मी की छुट्टी में शहर से बी.डी.ओ. साहब का पोता धनंजय, जिसे वे धानू कहते थे, गांव आया हुआ था। कुछ साल पहले तक धानू और उसकी बहिन अपने माता-पिता के साथ अक्सर दीपावली पर या गर्मी की छुट्टियों में गांव आते थे। फिर बच्चों की पढ़ाई और माता-पिता की व्यस्तता के कारण धीरे-धीरे उनका गांव आना कम हो गया। इस बार पोते ने ज़िद की थी और वह अकेला ही चला आया था।

     धानू अठारह-उन्नीस साल का था। पिछले सत्र में उसने दिल्ली के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश लिया था। धानू कभी-कभी शाम के वक़्त अकेला ही घूमने निकल जाता। वरना दादी-दादी के साथ किसी न किसी काम में और कभी पढ़ाई में व्यस्त रहता। पहले दिन जब वह गांव में निकला तो कुछ लोग उसे देख कर चौंके। लेकिन एकाध दिन में ही सब को ख़बर हो गई कि वह बी.डी.ओ. साहब का पोता है। उन तीन लड़कियों को भी पता चल गया था। वे अब शाम के वक़्त सतर्क होकर बी.डी.ओ. के घर के पिछवाड़े जातीं और अपना काम कर चुपचाप लौट आतीं। धानू का कमरा घर की उत्तर दिशा में था। उसी दिशा में एक खिड़की खुलती थी। वह शाम के वक्त उन लड़कियों को अपने घर की तरफ़ आते और कुछ देर में लौटते हुए देखा करता था। उसे लगता था, लड़कियां यूं ही टहलने आती होंगी।

   अभी धानू को आये चार दिन ही हुए थे कि एक रात पगडंडी के रास्ते में पड़ने वाले सोहन त्रिपाठी के घर में आग लग गई। त्रिपाठी परिवार उसी दिन किसी रिश्तेदार के घर शादी में गया हुआ था। घर बंद था। गांव वालों ने पानी डाल कर आग बुझा दी। लेकिन लोगों ने लड़कियों को आग लगने से कुछ देर पहले वहां से गुज़रते हुए देख लिया था। लड़कियां चूंकि शरारतों के लिए बदनाम थीं और कई दिन से पगडंडी के आखिरी छोर तक जाती हुई देखी गई थीं, इसलिए यह माना गया कि आग उन्हीं ने लगाई।

   मौसम ठीक था। हवाओं की गुंडई इन दिनों उतार पर थी। आग बुझाने के बाद लोग गांव के खुले मैदान में खड़े थे  और लड़कियों की शरारतों से तंग आ चुकने की चर्चा कर रहे थे। लड़कियां आग लगाने से साफ़ इनकार कर रही थीं। चूंकि वे रोने की जगह ऐंठ रही थीं, इसलिए कोई उन पर भरोसा नहीं कर रहा था। खुद उनके घर वाले उन्हें सबके सामने पीट-पाट चुके थे। तभी, बीडीओ साहब भी चले आए। उनके साथ उनका पोता भी था। आते ही बी.डी.ओ. ने कहा, “देखो, मानते हैं कि लड़कियां शरारती हैं। मैं खुद इनकी शरारतें देख चुका। लेकिन ये आग लगाने का काम नहीं कर सकतीं।”

     लोग चौंके। बी.डी.ओ. साहब यह क्या कह रहे हैं। लड़कियों को भी आश्चर्य हुआ। गांव के एक बुजुर्ग ने कहा, “आप नहीं जानते बी.डी.ओ. साहब, इन लड़कियों ने नाक में दम कर रखा है। इनके अलावा कोई हो ही नहीं सकता।”

    “देखिए आग या तो शॉर्ट सर्किट से लगी होगी या घर में कोई दीया वगैरह जला रह गया होगा।” उन्होंने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा।

     “आपको इतना भरोसा कैसे है कि आग लड़कियों ने नहीं लगाई ?” किसी और ने पूछा। बी.डी.ओ. ने बताया कि लड़कियां इस हद तक नहीं जा सकतीं। फिर उनके पोते ने अपनी आंखों से देखा है। ये तीनों त्रिपाठी जी के घर के पास से निकलीं जरूर, पर वहां पर रुकी नहीं। उन्होंने घर की तरफ़ देखा तक नहीं।

  लड़कियां हैरान रह गईं। बी.डी.ओ. साहब इतनी मजबूती से उनका पक्ष ले रहे हैं ? उनका पोता भी उनके पक्ष में गवाही दे रहा है ? बी.डी.ओ. की बातें सुन कर सब लोग आपस में खुसर-पुसर करने लगे। तीनों लड़कियों के परिवार के लोगों ने राहत की सांस ली। उनमें थोड़ा हिम्मत आ गई थी। कहने लगे कि लड़कियां शरारती ज़रूर हैं, लेकिन हर बात का दोष इन्हीं के सिर मढ़ना ठीक नहीं। शरारत करना अलग बात है और आग लगाना और बात।

  थोड़ी देर की बक-झक के बाद क़िस्सा ख़त्म हुआ। लड़कियां अपने-अपने घर चली गईं। लेकिन तीनों की समझ में नहीं आ रहा था कि इतने खड़ूस लोगों का हृदय परिवर्तन कैसे हो गया। फिर इतने बड़े गांव में केवल वही लोग उन्हें बचाने के लिए सामने आए जिनका घर वे ढहा देना चाहती हैं?

  इसके अगले दिन लड़कियों में भी एक अजीब-सा बदलाव देखा गया। जैसे रोतोंरात सयानी हो गई हों। बात-बात में धानू की तारीफ़ करतीं। उसका डील-डौल, उसके कपड़े, उसका इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ना। उसके परिवार की पृष्ठभूमि, शिक्षा। उफ्। क्या नहीं था उसमें। हर खूबी। कितना अच्छा। तीनों के मन में एक साथ कोई कोमल-सा अंकुर सरसरा कर फूट रहा था। एकदम पहला-पहला और ताज़ा अंकुर। उन्हें एक-दूसरे से कोई ईर्ष्या नहीं थी। पूरे गांव में किसी से कोई शिकायत नहीं रह गई थी। चारों तरफ़ सब कुछ अच्छा-अच्छा सा। मन में इंद्रधनुष-सा खिंच गया था। जीराकोट सतरंगी हो गया था।

  शाम को धानू अपनी खिड़की के पास बैठा पढ़ रहा था। ज्यों-ज्यों शाम घिरने लगी बार-बार उसके मन में एक ही विचार आता कि लड़कियां टहलने के लिए उस तरफ़ क्यों नहीं आई होंगी ?  कहीं कल की घटना के बाद उनका घर से निकलना बंद तो नहीं कर दिया गया ? पर लड़कियां असल में आज जान-बूझ कर देर कर रही थीं। स्कूल में छुट्टी थी। वे तीनों जंगल की तरफ़ निकल गईं और वहां बांज के पेड़ के नीचे बैठ कर उन्होंने धानू के बारे में दिल खोल कर बात की। उसके बाद उनका घर ढहाने की अपनी कोशिशों पर भी गंभीर मंथन किया था। वह उनकी मंथन करने और योजनाएं बनाने की प्रिय जगह थी। तीनों को लगता था कि अगर अब वे बी.डी.ओ. के घर की दीवार को धकेलना बंद भी कर दें तो मकान अब तक हिल चुका होगा। बारिश शुरू होते ही धँसक जाएगा और नदी में चला जाएगा। बी.डी.ओ. और उनकी पत्नी का मकान के साथ नदी में चले जाना तय है। और अगर बरसात शुरू होने तक यह धानू यहीं रह गया तो बेमौत मारा जाएगा। इतने अच्छे लोग और ऐसा अंत ?

   शाम घिर आई। जब धानू के दादा-दादी तबले और हारमोनियम पर गाने-बजाने लगे और लड़कियों के आने का वक्त निकल गया तो उसने खिड़की बंद कर दी। वह बिस्तर पर लेट कर पढ़ने लगा। तभी उसे घर के बाहर कोई आहट-सी सुनाई दी। मन में एक ही ख्याल आया कि बाघ न हो। उसने दूसरे कमरे में जाकर दीवार पर टंगी दादा जी की बंदूक उठाई, टार्च उठाया और बाहर निकल आया। हालांकि बंदूक को छूने की मनाही थी। फिर भी उसे लोड कर उसने कंधे पर टांग लिया और टार्च की रोशनी इधर-उधर फेंकने लगा।

  तीनों लड़कियां आज घर के अगले हिस्से में पहुंची हुई थीं। लड़कियों को भी उसके कदमों की आहट सुनाई पड़ गई। वे तीनों भाग कर घर के पिछवाड़े छिप गईं। धानू ने चारों तरफ़ टॉर्च की रोशनी डाली पर कुछ दिखाई नहीं दिया। वह लौटने लगा कि तभी उसे पीछे की तरफ़ कुछ गिरने की आवाज़ सुनाई दी। वह सतर्क हो गया। असल में बी.डी.ओ. के घर से पगडंडी की ऊंचाई करीब पंद्रह फुट थी। कांता और नीता तेज़ी से पगडंडी पर चढ़ गई थीं। सबसे पीछे तारा थी। जब वह चढ़ने लगी तो फिसल कर नीचे आ गई। उसके हाथ से पांच लीटर का एक खाली कैन छिटक कर नीचे गिरा था। जिसकी आवाज़ से धानू चौंक गया था।

   धानू ने टॉर्च वहीं ज़मीन पर रख दी और दोनों हाथों से बंदूक ताने आगे बढ़ने लगा। अगर घर के पिछवाड़े बाघ हुआ तो हमला कर सकता था। तभी उसने देखा हाथ में कुछ थामे दो साये पगडंडी की तरफ़ भाग रहे हैं। इधर-उधर देखा तो तीसरा साया वहीं ज़मीन पर गिरा था। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ा और उस साये के सिर पर बंदूक तान दी। जब ग़ौर से देखा तो हैरान रह गया। वह तारा थी। लड़की के पास में ही एक पांच लीटर का कैन ज़मीन पर गिरा पड़ा था। उसका दिमाग़ तेज़ी से सोहन त्रिपाठी के घर लगी आग की तरफ़ गया। उसे विश्वास हो गया कि बाकी दो साये इसकी सहेलियां रही होंगी। फिर तो उस घर में इन्हीं लड़कियों ने आग लगाई होगी। शायद आज ये उनके घर में भी तेल छिड़क कर आग लगाने आई थीं। ग़ुस्से और घृणा से उसके रोंगटे खड़े हो गए। मन किया घोड़ा दबा दे। तारा ज्योंही संभल कर उठी, धानू ने उसे बंदूक की नली से ठेल कर दीवार के सहारे खड़ा कर दिया। वह बुरी तरह डर गई। धानू चिल्लाया, “हमारा घर फूंकने आए थे ?”

    “हम तो पानी डालने आए थे।”—तारा ने अपना डर छुपाते हुए बड़े ही निर्विकार भाव से कहा।

  “चुप,”  धानू ने उसे डांटा, “आग लगी नहीं और तुम पानी डालने आ गए थे ?  झूठ बोलेगी तो गोली मार दूंगा।”

     तारा डरी हुई तो थी, लेकिन हिम्मत नहीं हारना चाहती थी। कहने लगी वह डरती नहीं। धानू चाहे तो गोली मार ले। धानू ने पूछा कि उन्होंने मिट्टी का तेल क्यों छिड़का ?  तारा ने बताया कि कैन में मिट्टी का तेल नहीं, पानी था। उसने कैन उठा कर उसके तले में बचा पानी अपने हलक में उतार लिया, “देख ले, क्या है ?”

     पहले तो टॉर्च की रोशनी से उसकी आंखें चुंधियाई हुई थीं। अब उसे अंधेरे में सब कुछ साफ़ दिखाई देने लगा था। तारा को कैन का पानी पीते देख कर  धानू को हैरानी हुई। ये लोग उनके घर में पानी डालने क्यों आई होंगी भला ? रहस्य और गहरा  गया था। उसने तारा की गरदन पर बंदूक की नली का दबाव डालते हुए धमकाया, “अब सच-सच बता दे, तुम लोग क्या करने आए थे,  वरना मुझे ग़ुस्सा आ जाएगा। ”

     अब तक तारा को भरोसा हो गया था कि धानू उसे गोली नहीं मारने जा रहा। उसने धौंस दी कि गुस्सा आ जाएगा तो वह क्या कर लेगा ?  धानू को लग गया कि वह डरने वाली नहीं है। उसने बंदूक दीवार के सहारे खड़ी कर दी, “चल ठीक है, अब बता कि तुम लोग क्या करने आए थे ?” तारा अब भी मुंह खोलने को तैयार नहीं थी। धानू ने बाएं हाथ से उसकी गरदन दबोच ली और अपना चेहरा उसके एकदम करीब लाते हुए बोला, “बता दे।”

    तारा घबरा गई , “पहले थोड़ा दूर से बात कर।”

      “दूर ही हूं।” उसने झेंप कर तारा का गला छोड़ दिया और एक कदम पीछे हट गया। कहने लगा, “देख, बिना पूरी बात जाने तो तुझे छोड़ने वाला नहीं हूं।”

     तारा ने उसकी दादी के थप्पड़ मारने से शुरू कर सारा क़िस्सा कह सुनाया। उसने यह भी बताया कि जब उसने और उसके दादा जी ने उन्हें बचाया तो उन लोगों को बहुत अफससोस हुआ। इसी के बाद उन्होंने घर को उल्टी तरफ़ धकेलने का फैसला किया। धानू ने पानी के कैन साथ लाने के बारे में पूछा तो तारा ने बताया, “मकान की जड़ को गीला करके धकेल रहे थे, ताकि जल्दी अपनी जगह पर आ जाए।”

  धानू का हँससे-हँसते बुरा हाल हो गया। तारा अंधेरे में आँखें फाड़े उसे देख रही थी। उसी वक़्त बी.डी.ओ. और उनकी पत्नी का गाना बंद हो गया। उधर ऊपर पगडंडी पर खड़ी तारा और कांता घबराई हुई थीं और लगातार घुघुत (फाख्ता) की आवाज़ में सीटी बजा रही थीं। अब उनकी सीटी साफ़ -साफ सुनाई देने लगी थी। धानू ने उसे धकेलते हुए कहा, “चल जा, तेरी सहेलियां बुला रही हैं। दादा-दादी का गाना भी बंद हो गया।”

    जब वह चढ़ने लगी तो धानू ने पास में रखी टॉर्च की रोशनी दिखाते हुए कहा, “संभल कर जाना पागल लड़की। फिर से गिरना मत।”

  जब वह पगडंडी पर पहुंच गई तो उसने ज़ोर से कहा, “डफ़र कहीं की…यूजलेस लड़कियां।”

  अचानक ही तारा के प्रति एक अजीब सा आकर्षण और लगाव उसके अंदर पैदा हो गया था।

   “चल बदतमीज़ !” कह कर तारा ऊपर से चिल्लाई। वह मुस्कराया। जब तक वह ओझल नहीं हो गई वह उसे टॉर्च दिखाता रहा।

   रात की घटना पर बात करने के लिए अगले दिन तीनों फिर से जंगल में उसी बांज के पेड़ के नीचे पहुंच गईं। धानू का ‘पागल लड़की’ कहना, टॉर्च दिखाना और संभल कर जाने की हिदायत देना बड़ा सुखद था। इतना अच्छा लड़का इतनी बुरी मानी जाने वाली लड़कियों से इस तरह पेश आए। मन में फुरफुरी-सी होती थी। तारा का मन कभी उसके सीने पर सिर रख कर सोने को करता तो कभी रोने को। नीता और कांता ने उसकी पलकों के झपकने से उसके सपने को ताड़ गई थीं। उन्होंने तारा को छेड़ा भी।

   लेकिन बार-बार मामला ‘डफ़र’ और ‘यूजलेस लड़कियां’ पर अटका जा रहा था। आखिर उसने यह सब क्यों कहा ?   ये शब्द तारा को रात भर मथते रहे। पहले तो उसे लगा कि यह भी कोई अपनेपन के साथ कही गई बात होगी। लेकिन रात में ही उसने डिक्शनरी में ‘डफ़र’  का अर्थ देखा था। स्पष्ट था कि धानू का आशय ‘मूर्ख’ से था। यह शब्द थोड़ा आपत्तिजनक तो था लेकिन इतना भी नहीं। उन्हें लगता था, यह उसकी झिड़की थी। सिर्फ़ झिड़की। वे ‘डफ़र’ को बर्दाश्त करने के लिए तैयार हो गई थीं। लेकिन ‘यूजलेस’ का मतलब समझ में नहीं आ रहा था। डिक्शनरी में इसका मतलब ‘व्यर्थ’ और ‘बेकार’ लिखा गया था। अंततः वे ‘यूजलेस’ का मतलब पूछने अपनी अंग्रेजी की टीचर के घर पहुंच गईं। टीचर ने पूरा वाक्य पूछते हुए उन्हें बताया कि शब्दों का अर्थ वाक्यों के मुताबिक निकाला और समझा जाना चाहिए। लड़कियों ने बताया कि किसी ने उन्हें ‘यूजलेस लड़कियां’  कहा। पहले तो टीचर को हँसी आ गई। फिर उसने बताया कि इसका मतलब तो ‘फ़ालतू, रद्दी, बेकार या निकम्मी लड़कियां’ है।

  तारा को लगा वह उड़ते-उड़ते हवा से टकरा कर गिर पड़ी। कांता और नीता भी बुझ गई थीं। वे तीनों टीचर के घर के पास एक टीले पर बैठ गईं। खामोश। आखिर उसने समझा क्या है ?  हम बेकार, रद्दी, निकम्मी और फ़ालतू हैं ? कांता ने कहा। तारा ने ‘यूजलेस’ शब्द को बुदबुदाते हुए दोहराया।

  उन्हें टीचर के हँसने पर भी ग़ुस्सा आ रहा था। क्या वह भी हमें यूजलेस समझती है ? वे काफ़ी उदास हो गई थीं। कुछ भी बोलने का मन नहीं कर रहा था। ऐसा लगता था, उस नए-नवेले अंकुर को, जिसके सिर पर अभी बीज की उल्टी टोपी लगी थी, पाला मार गया। टीले के पास अखरोट के पेड़ में पीले पेट वाली छोटी-सी चिड़िया चुन-चुन करती हुई लगातार चँहक रही थी। तारा को ग़ुस्सा आया और उसने एक पत्थर उठा कर चिड़िया की तरफ़ उछाल दिया। चिड़िया चिर्र करती हुई भाग गई।

  यह उनके जीवन का सबसे दुखदायी क्षण था। ‘यूजलेस’ शब्द उन्हें गांव वालों के आवारा, गंदी, बदमाश, शरारती, मूर्ख और जंगली जैसे संबोधनों से अधिक चुभ रहा था। इतना क्यों चुभ रहा है, वे खुद भी नहीं जानती थीं। यही दुखदायी क्षण अंततः उनके जीवन का निर्णायक क्षण बना। तीनों ने तय किया कि इस घमंडी लड़के को तो दिखाना है।

   दिखा कर रहना है।

   क्या दिखाना है ?  क्या करेंगी वे, उन्होंने पहली बार इस पर आपस में कोई सलाह-मशविरा नहीं किया। संभव है उन्हें खुद भी पता न हो कि वे क्या करेंगी। उन्होंने इस तरह तो कभी सोचा ही नहीं था। बस, धानू ने ‘यूजलेस’ कह कर बहुत निराश किया था। इसे वे भूल नहीं पा रही थीं।

   सूरज ढल रहा था। तीनों ने डूबते सूरज को देखा। शायद मन ही मन कोई संकल्प लिया कि जाने क्या हुआ, वे पगडंडी पर चढ़ कर धानू के घर की ओर बढ़ने लगीं। उतने की मंद चाल में जितना उस दिन बैल चल रहा था। जब वे लोग बी.डी.ओ. के घर के पास पहुंची, अंधेरा घिर आया था। बी.डी.ओ. के घर से उनकी पत्नी का स्वर सुनाई दे रहा था— मन तड़पत हरि दर्शन को आज…। तीनों ठिठक गईं और ग़ुस्से से उनके घर की ओर देखती रहीं। जो असल में, उनकी नज़र में धानू का घर था। उनके घर की ओर मुंह करके तारा ने अचानक ‘मन तड़पत’ की तर्ज पर ‘मन में है विश्वास’  गाना शुरू कर दिया। उसकी देखादेखी कांता और नीता भी पूरे जोश में गाने लगीं ‘पूरा है विश्वास…।’

  गाते-गाते तीनों रोने लगी थीं।

  *

   प्रोफेशनल्स की सोशल नेटवर्किंग साइट ‘लिंक्डइन’ में इन दिनों बहुत सारे लोग तारा सती की प्रोफाइल देख रहे थे। लेकिन धनंजय को इस तारा सती की वजह से नौ साल पहले की तारा याद आ गई। याद्दाश्त पर बहुत ज़ोर देने पर अचानक माथा ठनका। जिस दिन सोहन त्रिपाठी के घर आग लगी थी, दादा जी ने घर लौट कर उन तीनों लड़कियों के बारे में दादी को बताया था। उन्होंने कहा था कि उनमें से एक लड़की बहादुर सिंह की थी, एक…। उसके पिता का नाम कोई सती ही बताया कि कुछ और। याद नहीं आ रहा। अब तो दादाजी भी नहीं हैं। जब उसकी इन लड़कियों से मुठभेड़ हुई थी, उसके अगले साल ही वे बीमार पड़ गए थे। पिताजी उन्हें इलाज के लिए दिल्ली ले आए। दादी भी साथ आ गई थीं। यहां दादा जी कुछ महीनों में ही गुज़र गए। दादी बीमार रहने लगीं। तीन साल बाद वह भी नहीं रहीं। तब से धनंजय का गांव जाना फिर कभी नहीं हुआ। वह कैसे जाने के उस तारा और उसकी सहेलियों का क्या हुआ।

   तारा सती को लेकर बाकी लोगों की दिलचस्पी की दूसरी वजह थी। उसने अमेरिका के एक मशहूर विश्वविद्यालय से एम.एस. करने के बाद अभी हाल में बंगलुरू में एक नामी बहुराष्ट्रीय कंपनी ज्वाइन की थी। इंजीनियरिंग क्षेत्र में चर्चा उसके अविश्वसनीय पैकेज को लेकर है। थोड़ी देर पहले ही धनंजय के एक जूनियर ने तारा सती के बारे में एक चौंका देने वाली जानकारी दी। उसने बताया कि तारा आई.आई.टी. खड़गपुर में उसकी जूनियर थी। बाद में उसे कैंपस प्लेसमेंट मिला था। अच्छा पैकेज होने के बावजूद उसने महीने भर में नौकरी छोड़ कर एम.एस. करने का फैसला कर लिया था। उसने सिर्फ़ इस बात पर नौकरी छोड़ दी क्योंकि उसके इमीडिएट बॉस ने उसे और उसके दो सीनियर्स को एक प्रजेंटेशन में मामूली देरी के लिए ‘यूजलेस फेलोज’ कह दिया था।

   हो सकता है, यह तारा सती वही तारा हो और इसकी सहेलियों भी दुनियावी भाषा में आज कामयाब हों। यानी नदी की तरह बहते-बहते बांध बना दी गई हों। तितलियों की तरह उड़ते-उड़ते हवा में टांग दी गई हों। यह भी हो सकता है कि जीराकोट की दूसरी लड़कियों की तरह दसवीं-बारहवीं तक पढ़ा कर उनकी भी शादी कर दी हो। हवा से घायल हुए उनके पंख फिर कभी खुले ही न हों। पता नहीं। असल में हर कामयाब आदमी की कोई न कोई कहानी होती है। अक्सर कहानी कामयाबी के बाद बनती है। पर यह कामयाबी के बाद गढ़ी गई कहानी तो है ही नहीं, कामयाबी की कहानी भी नहीं है। यह तो सिर्फ़ उन्हीं मुचि गई (हाथ से निकल गई) लड़कियों को खोजने की कोशिश है, जिन्हें धनंजय ने जीराकोट में देखा था। जिन्होंने एक-दूसरे को बीड़ी पीते देखा था। जो कभी किसी के हाथ आने वाली नहीं लगती थीं।

…………………………………..

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9 comments

  1. ममता कालिया

    बहुत अरसे के बाद एक सशक्त,सकारात्मक कहानी पढ़ी।लेखक राकेश
    तिवारी को मेरी बधाई प्रेषित करें।

  2. राकेश तिवारी

    धन्यवाद ममता कालिया जी । आप जैसी वरिष्ठ कथाकार का कहानी पढ़ना और उसे पसंद करना मेरे लिए बहुत मायने रखता है । लिखना सार्थक हुआ।

  3. बेहतरीन

  4. मृणाल पाण्डे

    बहुत रसवंती कथा।

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