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अर्चना जी के व्यक्तित्व में गरिमा और स्वाभिमान का आलोक था

विदुषी लेखिका अर्चना वर्मा का हाल में ही निधन हो गया. उनको याद करते हुए युवा लेखक-पत्रकार आशुतोष भारद्वाज ने यह लिखा है, उनके व्यक्तित्व की गरिमा को गहरे रेखांकित करते हुए- मॉडरेटर

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कृष्णा सोबती और अर्चना वर्मा उन बहुत कम लेखकों में थीं जिनके साथ मेरा लंबा संवाद होता था,  जिनके पास जब चाहे जा सकता था, देर तक बतियाता था, जो मुझे कभी भी फोन कर दिया करतीं थीं, बुला लिया करतीं थीं। कथादेश का जो विशेषांक मैंने संपादित किया था, उसके लिए अर्चना वर्मा ने ही हरिनारायण को कहा था।

कृष्णा सोबती अपने रचनाकार को लेखक-लेखिका, स्त्री-पुरुष के द्वैध से दूर मानती थीं, अर्चना वर्मा की चेतना में स्त्री होने का एहसास था लेकिन वह पुरुष के नकार या विरोध में नहीं था। दोनों के सान्निध्य में गरिमा और स्वाभिमान का आलोक था।

कभी मैंने एक्सप्रेस के लिए राजेंद्र यादव का साक्षात्कार किया था। “हंस के चरित्र निर्धारण में अर्चना का बहुत बड़ा योगदान था। अब वह चली गयी है। मैं अकेला पड़ गया हूँ,” वे बोले थे। तब तक वे कथादेश जा चुकी थीं।

 मैंने कई बरस पहले अर्चना वर्मा को एक खत लिखा था। शायद उसे अब यहाँ साझा किया जा सकता है।

 

“मैं कुछ कन्फ़ैस करना चाहता हूँ।

जहाँ मैं आपको अपना कच्चा-पका भेजता रहता हूँ, आपके लेखकीय संसार से अब तक जानबूझ कर अपरिचित रहा हूँ। एकदम अप्रत्याशित है यह मेरे लिए। जिसके भी संपर्क में आता हूँ, किसी से मिलने से पहले भी उसे पढ़ने का प्रयास करता हूँ।
आपको लेकिन — जिन्हें इतने बरसों से जानता हूँ, जिन्हें हमेशा अपने साथ उपस्थित पाता हूँ — कभी पढ़ने का साहस नहीं कर पाया। हमेशा संकुचित रहा आया।
किसी को पढ़ते वक्त, कहीं न कहीं हम उसका मूल्यांकन, शायद बतौर इंसान भी — जो निहायत ही अनुचित और क्रूर,लेकिन शायद एक अपरिहार्य प्रक्रिया है — उसके लेखन के आधार पर करते रहते हैं। अपने बहुत प्रिय रचनाकारों के साथ भी मैं ऐसा ही अन्याय करता आया हूँ।
ये क्रूरता आपके साथ नहीं दोहराना चाहता था। इसलिए आपकी वे किताबें जो आपने मुझे दीं पढ़ने से बचता रहा।
आपसे झूठ बोल दिया कि पढ़ लीं हैं।
किसी को नहीं पता आपको नहीं पढ़ा मैंने। हाल ही …. के साथ आपकी कहानियों पर बात आई तो भी सफाई से बात बचा ले गया। लेकिन कम-अस-कम आपको तो पता हो कि जो अपना लिखा सबसे पहले आपको भेजने की हिम्मत करता है, वो खुद आपकी किताबों के पास जाने से कितना सहमता-संकोच करता है। “

उनका तुरंत जवाब आया।

“प्रिय आशु,

अजीब सी बात एक यह भी है कि मैंने इसके पहले कभी किसी को अपनी कोई किताब पढ़ने के लिये कहा हो। कुछ भी कभी भी नहीं, किसी से भी नहीं। संकोच ही हो शायद या शायद खास कभी इच्छा भी नहीं हुई।

तुम्हारा स्नेह मेरे लिए कहीं ज़्यादा कीमती है, अपने लिखे के बारे में तुम्हारी राय से ज़्यादा कीमती। इसलिये तुमने नहीं पढ़ा तो कोई बात नहीं और न ही पढ़ो तो अच्छा।“

 
      

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