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मुंशी युनुस की कहानी ‘इन्द्रधनुष का आठवां रंग’

बांगला भाषा के युवा लेखक मुंशी युनुस की कहानियों में मिथकों के साथ इन्टरटेक्सुअलिटी है. यह कहानी भी नचिकेता के मिथक के साथ संवाद करती है. कहानी का अनुवाद लेखक के साथ मैंने किया है- मॉडरेटर

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असहनीय दर्द.

बहुत सारी बातें कहने की कोशिश करने के बावजूद सिर्फ दो चार शब्द ही मुंह से निकल पा रहे थे. लेकिनउन शब्दों के पंख एक दूसरे के साथ मिल नहीं पा रहे थे. लग रहा था कि कोई एक टोर्नेडो उसके सीने से मुंह की तरफ भागते हुए अचानक दिशा बदल कर कहीं और खो जा रहा था. दाहिना पैर थोड़ा हटाने की कोशिश की लेकिन जरा सा भी हट नहीं पाया. वह फिर से स्थित हो गया. भीगे हुए आँखों के पन्ने खोलकर सामने की तरफ देखने की कोशिश करता है अवि. सब कुछ धुंधला धुंधला दिखाई दे रहा था. चारों ओर बहुत सारे लोग जमा थे, जिनमें किसी को भी वह अलग से पहचान नहीं पा रहा था. बीच-बीच में कुछ शब्द उसके कान तक पहुँच रहे थे. जैसे ‘अवि’, जैसे बच गया, जैसे और थोडा सा इधर उधर होता तो…अवि के दिमाग में कुछ अलग थलग भावना आ रहे थे. कभी अकेले. कभी बहुत सारे एक साथ. कोई भावना थोड़ा आगे बढ़ते हुए और किसी भावना को जोड़ते हुए नए सोच को जन्म दे रहे थे. उसके बाद सब कुछ खो जा रहा था. पूरा शून्य. फिर से नया सोच की शुरुआत.

शांतनु एक दिन अचानक अवि से बोला था, ‘तुम बहुत ज्यादा भावुक हो.’

अवि चुप था. शांतनु ने इसकी कोई व्याख्या नहीं मांगी. क्योंकि वह बहुत अच्छी तरह अवि को पहचानता था. उसका चुप रहना, एक विषय से दूसरे विषय पर अचानक चले जाना. किसी विषय पर बहुत उत्साह के साथ बातें करना और फिर रुक जाना. अवि कभी बहुत गंभीर हो जाता था और कभी मानो कोई बाधा उसको रोक नहीं सकती थी. तब वह मजनू जैसा हो जाता था. स्वाभाविक विषय को अस्वाभाविक और अस्वाभाविक विषय को स्वाभाविक के साथ मिलाने की क्षमता अवि के भीतर थी. इसीलिए परीक्षा के पहले सभी लोग जब पढ़ाई करने में व्यस्त थे तब अवि पहाड़ देखने चला गया था. लौटता परीक्षा के चार दिन पहले. पूछने से बोल उठा, ‘देख शांतनु, तुम लोगों की परीक्षा साल में एक बार आती है, लेकिन मेरी परीक्षा दिन प्रतिदिन, प्रति घंटा, प्रति पल. मैं बहुत थका हुआ हूँ.’ थोड़े गुस्से के साथ शांतनु बोल उठता है, ‘फिर छोड़ दे न. ये परीक्षा, पढ़ाई इससे क्या फायदा. सिर्फ आनंद के लिए पढ़ते रहो, नौकरी वौकरी की चिंता करने की क्या जरूरत.’ अवि का चेहरा थोड़ा काला पड़ जाता है. संकुचित हो जाता है. यह चेहरा देखते हुए शांतनु दूसरे विषय पर बात करने लगता है, ‘छोड़ यह सब, क्या देखा पहाड़ में. हाथी.’ थोड़ी देर गंभीर रहने के बाद अवि पूरी सांस छोड़ते हुए बोलता है, ‘मृत्यु नहीं है मेरे भाई, पूरी ही जिंदगी.’ चुप हो जाता है शांतनु.

‘हेलो.’

‘मैं.’

‘मैं कौन?’

‘मैं मतलब आ..’

‘समझ गई, बोल अवि. इतने दिन बाद याद आई.’

‘न मतलब मैं ऐसे ही.’

‘ठीक है मैं समझ गई. आज शाम तुम मेरे घर आ सकते हो.’

‘आज! मेरा एक ट्यूशन है, छह बजे से.’

‘अवि, मतलब तुम क्या हो? तुम आज शाम छह बजे मेरे घर आ रहे हो. बस मैं और कुछ नहीं जानती. रखती हूँ.’

‘हेलो रंजीता… हेलो…’

‘दादा पैसा तो दे जाइए.’

‘ओह’, कहते हुए अवि वापस आता है, एक दो रूपया का सिक्का एसटीडी बूथ वाले को थमा कर चलना शुरू कर देता है. कहाँ उसको जाना था कहाँ जाना पड़ेगा सब कुछ मानो उलट-पुलट हो गया. थोड़ा पैदल चलने के बाद वह बस स्टॉप पर जाकर रुक जाता है. जेब में बहुत तलाश करने के बाद एक बीड़ी मिलती है. अवि का मुंह स्वाधीन लग रहा था. बीडी जलाकर दो तीन काश मारने के बाद उसको फेंक देता है. उसके बाद अपना चप्पल उस जलते हुए बीडी के ऊपर रखकर धीरे धीरे दबा रहा था. पैर हटाने के बाद देख रहा था कि वह जलती हुई बीडी लगभग बुझ गई. बहुत ही ख़ुशी महसूस हो रही थी. जी कर रहा था कि वही बुझी हुई बीडी दुबारा उठाकर कश लगाया जाए.

‘अरे, अवि! क्या कर रहे हो?’

अवि घूमकर शकील को देखता है. ‘नहीं, मतलब एक फोन करने आया था.’

‘तुम्हारे होस्टल से सियालदह तक! सिर्फ फोन करने!’

‘बस ऐसे ही चलते हुए आ गया.’ अवि ने विचित्र सी हँसी हँसते हुए कहा.

‘तुम मेरे होस्टल चलोगे.’

‘आज सही नहीं लग रहा. आज छोड़ दो. कभी और चलूँगा.’

शकील अभिरूप की तरफ देखता रह जाता है. इधर उधर अपने पैर को फैलाते हुए अवि आगे बढ़ता है.

कल रात अवि बिलकुल नहीं सोया था. एक नींद की गोली लेने के बाद दो चार घंटे बिस्तर में बस पड़ा हुआ था. कुछ ही समय के लिए नींद आई थी. और उसी नीद के अन्दर अवि को दिखाई दिया कि वह ऐनसिएंट मेरिनर की तरह समुद्र भ्रमण में निकला हुआ है. मगर जहाज में वह अकेला था. अचानक अवि देखता है कि जहाज के शरीर से एक नीली डोल्फिन उठकर आ रही है. बहुत ही धीरे से वह डोल्फिन आगे बढ़ रही थी. अवि को एक अजीब सा दर्द महसूस हो रहा था. मगर वह डोल्फिन और करीब आने के बाद एक जलपरी में बदल गई. बीच रात की तीव्र चांदनी में वह जलपरी अपने हाथ और पूंछ के बल और करीब आ रही थी. मगर उसके सीने का हिस्सा जहाज में घिसट गया था, वहां से खून निकल रहा था. जैसे नीला और लाल दोनों रंग में वह रंग गई हो. बहुत जोर से चीखते हुए अवि जहाज से कूदने की कोशिश कर रहा था मगर उसका एक पैर जहाज के मस्तूत की रस्सी से जुड़ गया था. सौ कोशिश करने के बावजूद अवि उसको छुडा नहीं पा रहा था. इधर जलपरी उसके और निकट आ गई. उसकी दोनों आँखों से आंसू टपक रहे थे. वह कुछ बोलने की कोशिश कर रही थी पर बोल नहीं पा रही थी. इधर अवि भी जहाज से कूद नहीं पा रहा था.

‘अवि, क्या हुआ?’ तेज झटके से अवि की आँख खुल जाती है. देखता है सामने शांतनु खड़ा है. अवि उसको सीने से चिपका लेता है. लम्बे समय तक दोनों ऐसे ही बने रहते हैं. उसके बाद धीरे धीरे अपने दोनों हाथ हल्का करता है.

‘क्या हुआ था तुम्हें?’ शांतनु पूछता है.

‘जलपरी’,

‘जलपरी?’

अवि और कुछ जवाब न देते हुए बिस्तर से अपनी कमीज खींचकर घर से निकल जाता है. शांतनु कई दफा पूछता है लेकिन उसको जवाब नहीं मिलता है. उसके बाद धीरे धीरे चलते हुए सियालदह के एक एसटीडी बूथ से रंजीता को फोन किया.

आज दोपहर से ही बारिश हो रही थी. सावन महीने में कुछ दिनों से बारिश शुरू हुआ है, आज ही सबसे ज्यादा. क्लास में बैठे बैठे अवि समझ पा रहा था बारिश फिर से शुरू होने वाली है. बचपन से ही वह हमेशा स्कूल के क्लास में खिड़की के पास बैठना पसंद करता था. क्लास की पढाई से आगे बढ़ते हुए खिड़की से वह बहुत दूर तक पहुँच जाता था. आज भी बरसात का पहला ठंडा झोंका अवि को छूते हुए बह रहा था. सुमन, अनामिका, दयाल- इन लोगों के बीच में. अवि बार-बार लम्बी सांस ले रहा था और छोड़ रहा था. लग रहा था, बहुत ही जानी पहचानी कोई सुगंध उसको चारों ओर से से घेरे हुई थी. इन सबके बीच में सब कुछ होते हुए भी वह अपने आँख को बहुत ही अकेला महसूस कर रहा था. अचानक उसके दिमाग में कल रात देखा हुआ सपना दुबारा आ गया. अवि को लगता है चारों ओर अँधेरा छाया हुआ है. बहुत जोर से बारिश गिर रही है. वह देख पाता है उसके चारों ओर हजारों बारिश की बूँदें झर रही हैं. सारी बूँदें अवि के बदन पर जोर ओर से गिर रही थी. अचानक एक बिजली कडकी/ जलपरी अभी भी उससे दो हाथ दूर है. अवि पत्थर.

‘क्या अवि, क्लास में ही बैठे रहोगे?’ मीता के प्रश्न से सर ऊंचा करके अवि देखता है कि सिक्स्थ पीरियड ख़त्म हो चुका है. खिड़की से आये तेज बारिश के छींटे उसके पूरे कुरते को गीला कर दिया था. सबसे आखिर में अवि क्लास से बाहर निकलता है.

अवि संतोषपुर ट्यूशन पढ़ाने जाता है. आज वह बालीगंज में ही उतर गया. बारिश रुक गई है, फिर भी रास्ते का यहाँ वहां गड्ढे में पानी जमा हुआ है. बहुत ही सावधानी से अवि गीला रास्ता पकड़ कर चल रहा था. बाएं तरफ दो कट छोड़कर सामने चार नंबर हाईराइज बिल्डिंग के पहले माले पर रंजीता रहती है. रंजीता के साथ उसका पहला परिचय कुछ साल पहले कोलकाता के नेशनल लाइब्रेरी में हुआ था. थोड़े दिन बाद उसे पता चला रंजीता उससे चार साल बड़ी थी. तभी पढ़ाना शुरू की थी एक कॉलेज में. अवि पहले पहले उसे ‘आप’, ‘रंजीता दी’ कहकर पुकारता था. बाद में रंजीता ही उसे अपना नाम से पुकारने के लिए बोली. धीरे धीरे इन दोनों के बीच में नजदीकी बढती गई. इसी दौरान अवि कई दफा रंजीता के घर भी गया. लेकिन औरतों के बीच में अवि कभी सहज नहीं रहा. लड़कियों के बीच में कभी वह बड़बोला बन जाता तो कभी एकदम गुमसुम. पहले पहले रंजीता के साथ भी अवि बहुत सोच समझ कर बात करता था. पर रंजीता बिलकुल अलग थी. वह किसी के भी साथ सहज हो जाती थी. सच कहें तो, रंजीता के इस यह व्यवहार के कारण ही अवि उसका दोस्त बना गया. रंजीता बहुत दूर तक अवि को पढ़ सकती थी, इसीलिए उसका चुप रहना, गुस्सा होना अजीब हरकत करना- सब कुछ रंजीता प्यार के नजर से ही देखती थी. बहुत ही घनिष्ठ मित्र होने के बावजूद कहीं पर इन दोनों के बीच में कुछ फर्क भी था. सच कहें तो रंजीता की पढ़ाई, पढ़ाना, परिवार के सपने- कुछ भी अवि को छू नहीं पाता था. लेकिन रंजीता के अन्दर एक दोस्त के साथ साथ अभिभावक हो उठना, और उसी अधिकार बोध को चीर-फाड़ करने की क्षमता रहने के बावजूद उस डोर में अपने आपको फंसाए रखना- सबके भीतर अवि को एक तरह से मजा आता था. रंजीता बार-बार अवि को सही तरह से पढने के लिए कहती. पर अवि से नहीं होता. जब भी वह सोचता था अपने कैरियर के बारे में तभी कुछ ही दिनों में उसकी सारी कोशिश ख़त्म हो जाती थी. जैसे कि यह सब उसके लिए कोई मायने ही नहीं रखता हो. सच कहें तो रंजीता कभी अवि की तरह अपने आप से खो नहीं जा सकती. इसिलिए वह बार बार कोशिश करती थी कि अवि को अपने जैसा बनाए. मगर ऐसा नहीं होता.

‘अवि तुम निर्बोध है.’

‘तो’

‘अवि तुम समझ नहीं पा रहे. जिंदगी में तुम्हारा कुछ बनना कितना जरूरी है, ऐसे ही बैठे रहोगे तो कोई तुमको नौकरी नहीं देगा.’

‘रंजीता तुम तो जानती हो मैं कोशिश कर रहा हूँ पर…’

‘परन्तु क्या? बोल? तेरा सब कुछ खो जा रहा है? नहीं हो रहा है? यही सब न.’

‘यकीन करो रंजीता, तुम तो मुझे जानती हो, पहचानती हो. अगर मैं दुनिया के और पांच लोगों की तरह न बन पाऊँ, इसमें मेरा क्या कुसूर?’

‘क्यों नहीं हो पाएगा? क्यों नहीं कर पायेगा तू, खुद से पूछो. कभी खुद से पूछकर पूछा है तुमने? तेरी प्रतिभा, तेरा ज्ञान- सब कुछ ऐसे ही बर्बाद होने देगा?’

अवि चुप हो जाता है. रंजीता के इन सवालों के कोई जवाब नहीं देता. रंजीता फिर से कह उठती- ‘अवि, जरा सोच. कम से कम मैं तो हमेशा तेरे पास हूँ. ऐसे तुम अपने आपको बर्बाद नहीं कर सकता. अगर तुम खुद को बर्बाद करोगे तो मैं क्या करूंगी? मेरे सारे सपने सिर्फ और सिर्फ तुझ से ही घिरे हैं. उन सपनों का क्या होगा?’

‘मैं अभी जवाब ढूंढता हूँ. क्या तुम यह बोलना चाह रही हो कि सारा दोष सिर्फ मेरा ही है? यह सच है कि तुम हमेशा मेरा अच्छा सोचती हो. मेरे लिए सोचती हो. लेकिन मैं जब भी कुछ शुरू करता हूँ मुझे न जाने क्यों यह महसूस होता है कि इस पर मेरा कोई अधिकार ही नहीं है. लगता है चारों ओर से अँधेरा मेरा दम घोंट रहा है… चारों तरफ मुझे कहीं भी रौशनी की किरण दिखाई नहीं देती.’

रंजीता अपनी कुर्सी छोड़कर खडी हो जाती है. उसके दोनों आँखों से जैसे आग टपक रही थी. आँखों में आँखें डालते हुए वह अवि की तरफ आगे बढती है. धीरे धीरे अपने सारे कपडे खुद के बदन से मुक्त कर देती है. काले अंधियारे के अन्दर अपना सब कुछ अवि के साथ मिला देती है रंजीता. पूछती है, ‘देख, मेरी तरफ देख अवि कुछ ढूंढने से कुछ मिलता है या नहीं?’ परन्तु बाहर की बारिश की आवाज से भी ज्यादा जोर से अवि रंजीता के बदन के ऊपर गिर कर रो पड़ता है. ‘मुझसे नहीं हो पा रहा है रंजीता, नहीं हो रहा है, सब अँधेरा… अँधेरा.’

रात के साढ़े ग्यारह बजे अवि होस्टल वापस आ जाता है. ‘क्या हुआ? इतनी देर क्यों?’ शंतानुन के प्रश्न के कोई जवाब अवि नहीं देता है. चुपचाप अपने बिस्तर में बैठ जाता है. ‘तेरा खाना रखा हुआ है. खा लेना.’ शांतनु ने कहा.

‘भूख नहीं है’, कहकर अवि बिस्तर में सो जाता है.

‘कपड़ा चेंज नहीं करोगे? कहीं बाहर से खा कर आये हो?’

‘नहीं. अच्छा नहीं लग रहा.’

‘क्यों. क्या हुआ?’

कुछ समय चुप रहने के बाद अवि अचानक शांतनु से पूछता है, ‘तुमको क्या पता है जब यम नचिकेता को मृत्यु रहस्य बताया था उसके बाद क्या हुआ था? इसके बाद की कहानियां क्या उपनिषद में है?’

‘मुझे क्या पता? मैं क्या तुम्हारी तरह भावुक हूँ. मैं अब सो रहा हूँ. तुमको लगे तो खा लेना और सो जाना.’

अवि चुप हो जाता है. थोडी देर बाद वह बालकनी में जाता है देखता है कि बारिश रुकने के बाद आसमान में दो-चार तारे चमक रहे हैं. मगर आसमान के अधिकतर हिस्से खाली पड़े हैं. अवि को लगता है वे तारे जैसे आसमान में घाव के निशान हों. और जो हिस्सा खाली है उस पर भी घाव फ़ैल जाएगा. यह सोचते हुए अवि को फिर से दर्द महसूस होता है. उसके बाद वह नहीं सोचा पाता. अवि भागकर कमरे के अन्दर आ जाता है. कुर्सी पर बैठकर जोर जोर से सांस लेने लगता है. मगर चारों ओर देखने से उसको फिर से लगता है कि वह ऐनसिएंट मैरिनर बन गया और उसके सामने जलपरी के नाक से हजारों सांप उसकी तरफ बढ़ रहे हैं. वह कोई आवाज नहीं निकाल पा रहा था. अचानक अवि का एक हाथ टेबल के ऊपर गिरता है. पास में नींद की आठ गोलियों की एक पत्ती लग जाती है. एक के बाद एक सारी गोली अवि खा लेता है.

अब बहुत ही कष्ट करके अवि अपने आँख खोल पाता है. चारों ओर उसके जानने वाले खड़े हैं. रंजीता भी. बिस्तर के पास खड़ा शांतनु उसके मुंह अवि के कान के पास मुंह लाकर पूछता है, ‘अब कैसा महसूस कर रहे हो?’ अवि एक बार अपनी गर्दन हिलाता है पर पर ज्यादा देर तक आँखें खुला नहीं रख पाया. दोनों आँखें बंद कर लिया. सर के पास रखा हुआ फ्लावर पॉट से फूल की सुगंध उसके नाक तक आ रही थी. बाहर कहीं बैठे हुए एक कौवे की चीख उसके कान तक पहुँच रही थी. अवि एक करवट लेते हुए फिर से आँखें बंद करता है तो उसको आर्य युग का नचिकेता दिखाई दिया. अवि देख पा रहा था पूरे आसमान में नचिकेता. मिट्टी में नचिकेता. इंसान, पक्षी, पेड़, पौधे सभी चीज के अन्दर वही नचिकेता और इन सभी के बीच अवि का अपना कोई अलग अस्तित्व नहीं था. वह खुद भी अपने अन्दर डूबते हुए ढूंढ रहा था खुद के नचिकेता को.

 
      

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