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महात्मा गांधी को किस तरह देखा जाए

कल दिल्ली विश्वविद्यालय के ज़ाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज(सांध्य) में विश्व भारती विश्वविद्यालय शांतिनिकेतन के कुलपति प्रोफ़ेसर  बिद्युत चक्रवर्ती ने मिर्ज़ा महमूद बेग स्मृति व्याख्यान दिया। उन्होंने महात्मा गांधी पर बोलते हुए उन परिस्थितियों की बात की जिसमें गांधी को गांधी बनाया और साथ ही उनके विरोधाभासों के की भी चर्चा की जिनसे समय के साथ वे मुक्त हुए। पूरा लिखित व्याख्यान पढ़िए- मॉडरेटर

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मोहनदास करमचंद गांधी कौन थे? इस सवाल का कोई सीधा जवाब नहीं है।एक सामान्य इंसान जो असाधारण गुणों से सम्पन्न थे, वे मूल रूप से स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने उस औपनिवेशिक देश के ख़िलाफ़ अहिंसक संघर्ष चलाया जो शायद बीसवीं शताब्दी की सबसे बड़ी औपनिवेशिक सत्ता थी।  यह उनके व्यक्तित्व का एक हिस्सा है। अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद का सामना करते हुए गांधी साथ ही साथ सामाजिक मुद्दों को भी उठाते रहते थे, जिसके बारे में उनका मत था कि तत्कालीन विदेशी सत्ता के ख़िलाफ़ राजनीतिक मंच तैयार करने के लिए ज़रूरी था। उनका यह मानना था कि सामाजिक आधार को मज़बूत और विश्वसनीय बनाए बिना राजनीतिक लड़ाई सफलतापूर्वक नहीं लड़ी जा सकती थी। यही बात गांधी के सामाजिक एवं राजनीतिक विचारों को बहुत ख़ास बनाती है। गांधी के सामाजिक एवं राजनीतिक विचार इस तरह द्वंद्वात्मक रूप से जुड़े हुए हैं कि उनको अलग अलग कर पाना असम्भव नहीं तो मुश्किल ज़रूर है। इसलिए जब कोई उनके सामाजिक राजनीतिक विचारों की व्याख्या करता है तो उसको उन दोनों के बीच के द्वंद्वात्मक अंतर्सम्बंधों को रेखांकित करना चाहिए।  महात्मा गांधी के नेतृत्व में चलाए गए साम्राज्यविरोधी अहिंसक आंदोलन के संदर्भ में यहाँ गांधी के सामाजिक एवं राजनीतिक विचारों के बीच के सम्बन्धों को समझने की एक कोशिश की गई है।

जनता के बीच उनका जिस तरह से समर्थन था उसके कारण उनके लिए बहुत हद तक यह आसान था कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उठाए गए मुद्दों को लेकर सार्थक स्तर पर समर्थन जुटा सकें। गांधीजी मूल रूप से काम करने में यक़ीन रखते थे और सामाजिकआर्थिक तथा राजनीतिक मतभेदों के बावजूद उन्होंने अलग अलग तरह के लोगों को आज़ादी की लड़ाई से जोड़कर एक नयी ऊर्जा का संचार किया। जैसा कि जवाहरलाल नेहरु ने इस बात को बहुत अच्छी तरह लिखा है ,

गांधीजी से लोग आकर्षित हो जाते थे। वे उनके जीवन दर्शन से सहमत नहीं होते थे, यहाँ तक कि उनके अनेक आदर्शों से भी इत्तेफ़ाक नहीं रखते थे। अक्सर वे उनको समझते भी नहीं थे; लेकिन वे जिस तरह की कार्रवाई की बात करते थे उसको सब समझ जाते थे और उसके बारे में बातें भी करते थे।’ …गांधीजी भारत को हम लोगों से बेहतर तरीक़े से समझते थे, और एक आदमी जिसके लिए लोगों में इतनी अधिक श्रद्धा थी, इतना अधिक विश्वास था उसनमें कुछ ऐसा तो ज़रूर था जो लोगों की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के ऊपर खरा उतरता था।

जो बात उनको लोगों के इतने क़रीब ले आई वह उनकी इंसानियत थी। सदियों पुरानी सामाजिक उत्पीड़न के साथ साम्राज्यवादी उत्पीड़न के ख़िलाफ़ जिस तरह से बिना थके उन्होंने लड़ाई लड़ी वह आज़ादी की लड़ाई के दौरान उनको अपने समकालीन नेताओं से अलग एक ही ऊँचाई पर ले गया। सामाजिक रूप से जागरूक, राजनीतिक रूप से चौकस तथा हिंदू धर्म के प्रति समर्पित गांधी संत नहीं थे, लेकिन उनका उद्धरण है, ‘भारत और मानवता का एक विनम्र सेवक। लेखक रोम्या रोलाँ ने गांधी की लोकप्रियता को उनकी विनम्रता तथा जिन मुद्दों को वे उठाते थे उनको लेकर जीवनपर्यन्त उनकी स्पष्ट ईमानदारी की बात की। इसके अलावा, कितनी भी प्रशंसा की जाए उनका सर नहीं फिरता थाउनका दिमाग़ शांत और स्पष्ट रहता था, उनके दिल में किसी तरह का घमंड नहीं था।उनके सामाजिक और राजनीतिक विचार विदेशी शासन के द्वंद्वात्मक संदर्भ में निर्मित हुए थे। गांधी ने केवल ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ ही आंदोलन नहीं चलाया बल्कि सामाजिक अत्याचार, मान्यताओं और मूल्यों के ख़िलाफ़ भी चलाया, जिनको भारत की प्राचीन परम्पराओं के नाम पर सही ठहराया जाता था। गांधी के नेतृत्व में चलाए गए राष्ट्रवादी आंदोलन के बारे में नेहरु ने कहा था कि उनका लक्ष्य दोहरा था। विदेशी शासन को चुनौती देकर उसके विरोध करने के अलावा नेहरु के शब्दों में गांधी नेसामाजिक बुराइयोंके खिलाफ भी गम्भीर अभियान चलाया। उन्होंने आगे कहा कि भारत की आज़ादी के अलावा, गांधी के अहिंसक संघर्ष का मुख्य सिद्धांत था राष्ट्रीय एकता, जिसमें शामिल थे अल्पसंख्यक समस्या का समाधान तथा वंचित वर्ग के दर्जे को ऊँचा उठाना तथा अस्पृश्यता के अभिशाप को दूर करना। इसलिए गांधी के विचार ना तो पूरी तरह राजनीतिक हैं पूरी तरह सामाजिक, बल्कि दोनों का जटिल मिश्रण है, जो उन विशिष्ट सिद्धांतों के अनुरूप हैं जिनको गांधी मानते थे।   

गांधी के सामाजिक तथा राजनीतिक विचार बहुआयामी हैं। इसका आधार अगर भारतीय सभ्यता के संसाधनों से आया तो लेकिन इसका विकास दक्षिण अफ़्रीका और भारत में उनके अनुभवों पर आधारित था। उनकी राजनीतिक विचारधारा इस अर्थ में अतीत से काफ़ी अलग थी कि यह तो सुधारवादियों की तरह संविधान में निष्ठा रखती थी ही क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों की तरह से अतिवादी थे। वे जिस भारतीय राष्ट्रवाद की बात करते थे उसमें उन्होंने उन तत्वों को जगह दी थी जो पहले हाशिए पर रहते थे। यह अब स्थापित बात है कि जब तक गांधी राजनीति के परिदृश्य पर नहीं आए थे तब तक भारतीय राजनीति पर पश्चिमी ढंग से पढ़े लिखे मध्य वर्ग का क़ब्ज़ा था और भारतीय राष्ट्रवाद की मुख्य आवाज़ भी वही थे। इसलिए यह बात कही जाती रही है कि गांधी ने जो काम सबसे पहले करने की कोशिश की वह यह कि उन्होंने भारतीय राजनीति को बौद्धिक वर्ग और ब्राह्मण वर्ग के दायरे से निकाला(इसमें उन्होंने कोशिश यह की) और भारतीय समाज के निम्न वर्ग, ग़ैर ब्राह्मण वर्ग, व्यावसायिक और किसान समाज को राजनीतिक अभियानों के लिए तैयार किया।  गांधी ने काँग्रेस को नया संस्थानिक आधार देते हुए सही अर्थों में जैन राजनीति की शुरुआत की। हालाँकि उन्होंने असहयोग आंदोलन के शुरुआती दौर में जन भागीदारिता को भीड़ तंत्र कहते हुए ख़ारिज कर दिया था लेकिन उन्होंने हिंदुओं के ग़ैर ब्राह्मण तबके, समाज के निम्न तबके तथा राजनीतिक रूप से हाशिए पर पड़े वर्ग, निम्न समझी जाने वाली जातियाँ तथा अछूत, किसानों एवं ग्रामीण तबके को संगठित करते हुए उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन को पुनर्परिभाषित किया। गांधी भारत को जानते थे। जवाहरलाल नेहरू का कहना था कि वे जनता का हिस्सा बनकर उनकी तरह महसूस कर सकते थे, और जनता जानबूझकर उनके प्रति अपनी निष्ठा और समर्पण ज़ाहिर करती थी। बड़े पैमाने पर अपने आधार को मज़बूत करते हुए गांधी ने एक नयी तरह की राजनीतिक शब्दावली दी, बल्कि उन्होंने राजनीतिक मुद्दों को लेकर चलाए जाने वाले प्रचलित आधार को भी चुनौती दी। इसके कारण राजनीति की एक नई शब्दावली उभर कर आई जिसमें लगता है कि हाशिए की संस्कृति ने साम्राज्यवद के ख़िलाफ़ गांधी के अहिंसात्मक आंदोलन में केंद्रीय भूमिका ग्रहण कर ली।

महात्मा गांधी कीउदारवादीदुविधा 

गांधी ने सफलतापूर्व ऐसे मुद्दों के पक्ष में दुखी लोगों को सफ़लतापूर्वक संगठित किया जिसने दक्षिण अफ़्रीका और भारत में तत्कालीन राजनीतिक सत्ता के सामाजिकआर्थिक आधार को कमज़ोर करने का काम किया। गांधी और जनजागरुकता की उनकी अहिंसक रणनीति कहीं से संयोग नहीं थी बल्कि उसकी जड़ें सामाजिकआर्थिक तथा राजनीतिक माहौल में थी। जबकि यह अजीब संयोग है कि गांधी ने दक्षिण अफ़्रीका में केवल भारतीयों के लिए संघर्ष किया और उन्होंने अश्वेतों के उत्पीड़न के मुद्दे को नहीं उठाया।  यह नस्लीय भेदभाव का मामला नहीं था बल्कि राजनीतिक यथार्थवाद था जिसने महात्मा गांधी को इस दिशा में निर्देशित किया कि वे दक्षिण अफ़्रीका में अपने देशवासियों के साथ भेदभाव को दूर करने तक ही अपने एजेंडा को सीमित रखा। यूरोपीय और साम्राज्यवादी सरकार की अनथक दुर्भावना को देखते हुए उनको एक ऐसी रणनीति बनानी थी जी उनके उस मिशन को कामयाब बनाए जिसका लक्ष्य पूरी तरह से परिभाषित थावह लक्ष्य जो अश्वेत लोगों के अधिकारों की रक्षा करते हुए प्रार्थना, ज्ञापन तथा प्रतिरोध सम्बंधी उदारवादी तकनीकों की रक्षा की बात करता था। वह यह था कि एक निष्ठावान ब्रिटिश नागरिक होते हुए वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अंतर्गत क़ानूनी मानकों के अनुसार नस्लवाद और अन्याय का समाधान तलाश रहे थे। जब गांधी 1914 में भारतीय परिदृश्य पर आए तो धीरे धीरे उनके मानक बदलने लगे।

दक्षिण अफ़्रीका की नस्लवादी सरकार के ख़िलाफ़ गांधी का रूख ब्रिटिश उदारवाद में ईमानदार भरोसे के ऊपर आधारित था। उनको नस्लवाद और किसी तरह का भेदभाव उदारवादी मानकों के साथ असंगत लगता था। जो बात समझ में नहीं आती है वह यह है कि नस्लवादी भेदभाव से गांधी का रूपांतरण अपने आपको दक्षिण अफ़्रीका की स्थानीय आबादी के भेदभाव से अलग दिखलाना था। यह बात हैरान करती है कि गांधी को यह पता था कि अश्वेत और भूरी दोनों तरह की आबादी नस्लवादी भेदभाव का शिकार हो रही थी, लेकिन स्थानीय अश्वेतों के प्रति उनके अंदर भी उसी तरह का भेदभाव था जिस तरह का यूरोपीय लोगों के अंदर था। 1896 में, दक्षिण अफ़्रीका आने के दो साल बाद गांधी ने इसके लिए अभियान चलाया कि डरबन कि डाकघर में भारतीय लोगों के लिए अलग प्रवेश द्वार बनाया जाए जो उससे अलग हो जो वे स्थानीय अश्वेतों के साथ साझा करते थे।सरकार को दिए अपने ज्ञापन में गांधी ने गांधी ने इस अलगाव का बचाव किया क्योंकि उनको यह उनको सम्मानजनक नहीं लगता था क्योंकि काउंटर के क्लर्क अनेक सम्मानित भारतीयों को अपमानित करते थे और उनको बुरा भला कहते थे। ज्ञापन को मान लिया गया और भारतीयों के लिए अलग प्रवेश द्वारा उपलब्ध करवा दिया गया। गांधी ने लक्ष्य हासिल किया, लेकिन उन्होंने अश्वेतों को अलगथलग करके हासिल किया और इसकी वजह से उन्होंने नस्लवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में उनकी प्रतिबद्धता के ऊपर सवाल उठाना शुरू कर दिया।   इसके बाद उन्होंने वहाँ के अश्वेत नागरिकों की क़ीमत पर भारतीयों के जिन मुद्दों को उठाया अश्वेतों को वे हमेशा काफ़िर कहते थे जो दक्षिण अफ़्रीका में अश्वेतों के लिए अपमानजनक शब्द था। स्थानीय दक्षिण अफ़्रीकी लोगों के बारे में बोलते हुए वे उनको हमेशा काफ़िर कहकर बुलाते थे जबकि वे अच्छी तरह जानते थे कि यह एक नकारात्मक विशेषण था। उदाहरण के लिए, एक अवसर पर उन्होंने ज़ोर देकर भारतीयों के नस्लीय श्रेष्ठता के बारे में कहा और यह कहा कि इसको यूरोपीय लोग काफ़िरों के साथ उनको जोड़कर उनको कमतर बनाते हैं। उन्होंने यह कहा किहमारा संघर्ष लगातार यूरोपीयों द्वारा किए जा रहे अपमान के ख़िलाफ़ है जो हमें अपमानित करने के लिए हमें काफ़िरों के वर्ग में रखते हैं जिनका पेशा है शिकार करना, और जिनका एकमात्र लक्ष्य होता है निश्चित संख्या में पशुओं को जुटाना ताकि एक पत्नी ख़रीदी जा सके, और जो आलस्य और नंगेपन में रहते हुए जीवन बिताते हैं।आगे उन्होंने अपनी चिढ़ को व्यक्त करते हुए कहा किब्रिटिश शासन हमें इतना गिरा हुआ और मूर्ख समझती है कि उनको ऐसा लगता है कि जिस तरह वे काफ़िरों को खिलौने और छोटे मोटे समान देकर बहला देते हैं उसी तरह हमें भी छोटी मोती चीज़ों से बहलाया जा सकता है।गांधी ने डरबन में नगर परिषद को दिए अपने ज्ञापन में यह लिखा था कि चूँकिकाफ़िर ज़ाहिर तौर पर असभ्य होते हैं इसलिए नगर परिषद को उस स्थान से काफ़िरों को हटा लेना चाहिए क्योंकि भारतीयों के साथ काफ़िरों को इस तरह मिलाकर रखना भारतीय आबादी के लिए बेहद अनुचित है।इसी तरह उन्होंने डरबन की अदालत के उस फ़ैसले कोबहुत संतोषजनककहा था जिसमें काफ़िरों को उसी ट्राम के डिब्बे में यात्रा करने से रोक दिया गया था जिसमें भारतीय यात्रा करते थे। जो बात हैरान करती है वह यह कि ऐसा लगता है गांधी गांधी में नस्लवादी पूर्वग्रह 1909 में ही मौजूद था जब उन्होंने दक्षिण अफ़्रीका में अन्यायपूर्ण शासन के ख़िलाफ़एकसमानके उदारवादी सिद्धांत के अनुरूप मज़बूत प्रतिरोध को खड़ा कर पाने में सफलता हासिल की थी। उनको इस बात से ग़ुस्सा आया जब उन्होंने यह देखा कि कुछ भारतीय क़ैदीखुशी खुशी उसी कमरे में सो रहे थे जिस कमरे में काफ़िर सो रहे थे। यह हमारे लिए शर्म की बात है क्योंकि हम इस बात को नज़रअन्दाज़ नहीं कर सकते हैं कि रोज़मर्रा के जीवन में उनके और हमारे बीच किसी तरह की समानता नहीं थी।इसमें कोई शक नहीं है कि गांधी ने अपने यूरोपीय समकालीनों की तरह संस्कृति के तर्क के आधार पर अलगाव की बात का समर्थन किया जो अश्वेत पड़ोसियों से भारतीयों को अलग करके देखे जाने की बात करता था क्योंकि उनका ऐसा मानना था किअगर भारतीय किसी चीज़ को लेकर फ़ख़्र महसूस करते हैं तो वह उनकी शुद्धता है’, अगर यह अलगाव नहीं होता तो उसके मिश्रित हो जाने का ख़तरा था। इस तरह के सामाजिक असंतुलन के विरुद्ध उनकी लड़ाई पूरी तरह से समर्पित थी और इसलिए उन्होंने अपने सहयोगियों तथा अनुयायियों से लड़ाई को जारी रखने के लिए कहाक्योंकि सभ्य भारतीयों के सुप्त प्रतिरोध और नैतिक आपत्तियों को इस तरह से देखा गया मानो वे घटिया तरह के स्थानीय नागरिकों के समान हों।इस बात को वे इतनी मज़बूती से महसूस करते थे कि उन्होंने उस नीतिगत निर्णय का विरोध किया जो भारतीयों एवं काफ़िरों को एक जैसा देखता था जबकि भारतीय सभ्यता उस सभ्यता से कहीं अधिक श्रेष्ठ थी काफ़िर जिसका हिस्सा थे। हालाँकि हो सकता है कि राजनीतिक अभियान में उन्होंने अश्वेतों को अपने समानता की लड़ाई में सहयोगी के रूप में चुना हो लेकिन 1906 में जब जुलू नागरिकों ने विद्रोह किया और जिसमें जब वे घायल हुए तो ब्रिटिश मेडिकल अधिकारियों ने उनका इलाज करने से मना कर दिया तो महात्मा गांधी पहले व्यक्ति थे जो उनको चिकित्सा सहायता देने के लिए आगे आए। इंडियन एम्बुलेंस कोर्पस की मदद से, जिसको बनाने में गांधी की अपने सहयोगियों के साथ महत्वपूर्ण भूमिका थी, उन्होंने घायलों की मदद करने में किसी तरह की हिचक नहीं दिखाई, जबकि यूरोपीय लोगों ने धमकियाँ भी दी थीं, क्योंकि यह मानवता की सेवा थी जिसको किसी तरह नहीं रोका जाना चाहिए था। हालाँकि उन्होंने जुलू समुदाय के लिए मेडिकल मिशन को यह कहते हुए उचित ठहराया कि उनको मदद की ज़रूरत थी, जिससे यह भाव रहा था जैसे बड़े छोटों की मदद कर रहे हों। 1922 में जब वे दक्षिण अफ़्रीका में अपने सत्याग्रह के बारे में विचार व्यक्त कर रहे थे तब उन्होंने जुलू समुदाय के बारे में अपने विचारों को यह कहते हुए बदल लिया किवे उस तरह से बर्बर नहीं थे जिस तरह से हम उनके बारे में कल्पना किया करते थे।और जबकि उनका पिछला आकलन साफ़ तौर पर पूर्वग्रह से भरा लगता था उसको बदलते हुए हुए उन्होंने यह कहा कियह हमारा घमंड है कि नीग्रो समुदाय के लोगों को जंगली के रूप में देखते हैं।उनका यह भी मानना था कि चूँकि सभ्यता धीरे धीरे नीग्रो समाज के अंदर पैठ बना रहा है, इसलिए हालात बदलने की सम्भावना थी और जुलू समुदाय जिस तरह से शिक्षा तथा ईसाई धर्म के पावन मूल्यों को महत्व देने लगा था, उनका यह मानना था कि वे भी सभ्य समुदाय जैसे ही हो जाएँगे।उदारवाद तथा संविधानवाद को लेकर गांधी के विचार ऐसा लगता है कि नैतिकता के उनके सिद्धांतों से जुड़े हुए थे जो ऊन सामाजिकराजनीतिक विचारों में बहुत मायने रखता था। चूँकि गांधी उदारवादी राजनीति के माहौल में बड़े हुए थे क्योंकि ब्रिटेन में उदारवादी राजनीति थी, इसलिए यह स्वाभाविक था कि गांधी को उदारवाद तथा संविधानवाद के विचारों का प्रत्यक्ष अनुभव था। हालाँकि गांधी के धार्मिक तथा नैतिकतावादी प्रभाव, जो उनके अधिकतर विचारों में दिखाई देता था, उदारवादी दर्शन के क़ानूनी पहलुओं के साथ संगत नहीं प्रतीत होते थे। यह उदारवाद की विशिष्ट व्याख्या थी जो सुपरिभाषित नैतिक मानदंडों के सहारे चलती थी। दक्षिण अफ़्रीका में अहिंसक नागरिक अवज्ञा के दौरान उनको पहली बार यह मौक़ा मिला कि वे अपनी रणनीति को बेहतर बना सकें, उसके बाद से गांधी हमेशा ही अपने तर्कों को नैतिक ढाँचे में रखकर देखते थे। वे ईश्वर के नाम पर नैतिकता को उचित ठहराते थे। इसका कारण यह था कि उनके सहकर्मियों और समर्थकों में गहरी धार्मिकता थी और इस वजह से उसका प्रभाव पड़ता था। इसलिए जब हम ईश्वर के नाम की शपथ लेते हैं तो हम तुच्छताओं से बच जाते हैं। अगर हम ईश्वर के नाम की शपथ लेकर उसको नहीं निभाते हैं  तो हम ईश्वर के समक्ष दोषी होते हैं।अगर कोई आदमी जानबूझकर और होशियारी के साथ शपथ लेता है और उसको नहीं निभाता है तो वह अपने पुरुषत्व को दाग़दार बनाता है।अपने तर्क को और मज़बूत बनाते हुए वे आगे लक्षणिक ढंग से कहते हैंजिस तरह ताम्बे के सिक्के को पारे के साथ रखने से केवल उसका मूल्य जाता रहता है बल्कि पता चलने पर उसके मलिक को सज़ा का भागी भी बनना पड़ता है, इसी तरह से अगर कोई आदमी हल्के ढंग से शपथ लेकर उसको तोड़ देता है तो उसका कोई ऐतबार नहीं रह जाता है और वह इस बात के लिए और इसके बाद सज़ा का भागी बन जाता है।इस तरह, उदारवाद तथा संविधानवाद को लेकर गांधी के विचार इस सिद्धांत की आलोचना से बढ़कर कुछ भी नहीं है, एक तो इसलिए कि यह पर्याप्त ढंग से नैतिक नहीं है तो दूसरी तरफ़ इसके बुनियादी आधारों को नैतिकता से जोड़ने को लेकर है। लेकिन इस तरह की मान्यता कृत्रिम लग सकती है अगर इसको हम इसको उस द्विभाजन के संदर्भ में में देखें जो उदारवाद की गांधी की समझ में थी या स्वयं इस मत के प्रतिपादकों की समझ थी। ऐतिहासिक रूप से यूरोप में उदारवादी राजनीतिक दर्शन के उद्भव और विकास ढहती हुई सामंती आर्थिक व्यवस्था तथा नवोदित पूँजीवाद द्वारा उसका स्थान लेने के साथ हुई। उस समय यह बात समझी गई कि सामन्तवाद के स्थान पर पूँजीवाद तब तक कारगर आर्थिक व्यवस्था नहीं हो सकती है जब तक कि उसके कार्यव्यापार की बौद्धिक व्याख्या की जाए। इस तरह, इसी पृष्ठभूमि में उदारवाद एक मज़बूत दर्शन के रूप में सामने आया जिसने पूँजीवादी व्यवस्था के बुनियादी पहलुओं की व्याख्या तथा उसके औचित्य को समझाया जा सके। इस तरह, यह बात स्पष्ट है कि उदारवाद पूँजीवादी वर्ग के दर्शन की तरह है ताकि वह उनके वर्ग हित की रक्षा कर सके ना की इसका लक्ष्य यह था कि आम जन के नैतिक उत्थान के लिए काम करे। नतीजतन, उदारवाद के बुनियादी सिद्धांत वर्गहित के लिए क़ानूनी, संविदात्मक, प्रतिस्पर्धी , मोलभाव की क्षमता प्रदान करने के लिए अधिक लगते हैं। यहाँ तक कि उदारवाद के सिद्धांत में उतनी ही जगह ख़ाली रखी गई है ताकि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था को स्थिर रखा जा सके और किसी बड़े या तात्कालिक झटकों से इसको मुक्त रखा जा सके। इस तरह का एकतरफ़ा और स्वयमसिद्ध स्वचालित उदारवाद गांधी को संतुष्ट नहीं कर पाया जो  पूर्णतया नैतिकतावादी थे जो किसी सिद्धांत के क़ानूनी एवं उसको संचालित करने वाले अन्य पहलुओं के ऊपर उसके नैतिक आधार को महत्व देते थे।इसलिए गांधी ने नैतिकता के आधारों को ध्यान में रखते हुए उदारवाद के सिद्धांत को कुछ हद तक अनुकूल बनाया। लेकिन इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि उदारवाद के साथ गांधी की झाड़ पोंछ यही नहीं ख़त्म हुई। बल्कि उन्होंने उदारवाद के अनेक प्रमुख पहलुओं के अति अमूर्तता की समस्या को भी समझने का प्रयास किया।  उदाहरण के लिए, उदारवादी सिद्धांत के अंतर्गत जिस तरह से न्याय के सिद्धांत की चर्चा है वह गांधी को बहुत अमूर्त लगी। उन्होंने यह पाया कि उदारवाद के सिद्धांत के अंतर्गत न्याय की सम्पूर्ण अवधारणा को इस तरह से दार्शनिक बनाया गया था कि उसको ज़मीनी स्तर पर कारगर नहीं बनाया जा सकता था समाज में न्यायपूर्ण व्यवस्था की उपस्थिति या अनुपस्थिति का आकलन या तो अदालत या देश में शासन के संदर्भों की मौजूदगी के संदर्भ में देखा जाता था। इसलिए गांधी ने न्याय के इस अमूर्त सिद्धांत की आलोचना की तथा मानवीय मूल्यों और भाईचारे के आधार पर न्याय की अवधारणा को देखे जाने की वकालत की। इस तरह गांधी ने नैतिक दृष्टिकोण के आधार पर उदारवाद तथा संविधानवाद के सिद्धांतों को समृद्ध करने की कोशिश की।

उपसंहार

उपरोक्त चर्चा से दो बुनियादी बातें उभर कर आई: एक, दक्षिण अफ़्रीका में नस्लवाद की गांधी द्वारा की गई आलोचना तथा भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आलोचना उनकी ज्ञानोदय दर्शन की समझ के ऊपर आधारित थी। वह ऐसे शासन के लिए बिलकुल सहमत नहीं थे जो उदारवाद के ऊपर आधारित होने के बावजूद अपने भेदभाव वाली प्रकृति के कारण ब्रिटिश उदारवाद के आधार पर टिका हुआ था।गांधी को ऐसा लगता था कि यह एक ऐसा विरोधाभास था जिसको सार्थक तरीक़े से दूर किए जाने की ज़रूरत थी ताकि दक्षिण अफ़्रीका और भारत में शासन में और गिरावट हो। अपनी आलोचना के अन्य स्तर पर गांधी ने इस शासन व्यवस्था के ऊपर हमले को यह कहते हुए और तेज़ बनाया कि यह अपने साम्राज्य के नागरिकों के ऊपर शासन करते हुए उदारवाद के बुनियादी सिद्धांतों का पालन नहीं कर रही थी। उनका ज़ोर इस बात पर था कि अपने साम्राज्य के तमाम नागरिकों के साथ समान रूप से बर्ताव किया जाए और इसी तरह की चिंता यूरोप के उनके उदारवादी साथियों ने भी जताई। नस्लवाद तथा साम्राज्यवाद के के प्रति गांधी के नज़रिए में जो ख़ास बात थी वह यह कि वे इस बात में मज़बूती से यक़ीन रखते थे कि उदारवाद सशक्त बनाने वाली विचारधारा थी क्योंकि यह सभी मनुष्यों में समानता के सिद्धांत के ऊपर आधारित थी। दूसरे बिंदु का संबंध उस विरोधाभास से है जो ख़ुद गांधी में भी था जब वे दक्षिण अफ़्रीका में वे अपने अश्वेत भाइयों के साथ बर्ताव कर रहे थे। ऐसा लगता था कि उनके अंदर भी उसी तरह का पूर्वग्रह था जिस तरह का पूर्वग्रह गोरे उदारवदियों में तब दिखाई देता था जब वे औपनिवेशिक भूरे लोगों के साथ बर्ताव कर रहे होते थे: उनको इस कारण अलग रखा जाता था क्योंकि वे भिन्न थे। इस तरह के सिद्धांत के आधार में एक तरह का बाबाभाव था, जो श्रेष्ठता के उसी भाव के ऊपर आधारित था जो ब्रिटिश सभ्यता के उपनिवेश को क़ायम करने वालों में था। और साम्राज्यवाद हमेशा साम्राज्य के प्रति सौम्य रूख रखता था क्योंकि उदार शासन के अपने लाभ थे जो वत्सलता, सहिष्णुता तथा सहनशीलता के सामाजिक गुणों के ऊपर आधारित था। इस तरह से साम्राज्यवाद क़ायम रहा और फलता फूलता रहा क्योंकि यह प्रजा के लिए एकमात्र सम्भावित विकल्प था, साम्रज्यवादियों ने साथ साथ दो तरह की पूरक गतिविधियों को बढ़ावा दिया, ‘दूसरों को सभ्य बनानातथा उनको निरंतरअन्यके रूप में देखन। इस तरह गांधी ने भिन्नता एवं बहिष्करण की व्यवस्था का केवल विरोध किया बल्कि साथ ही साथ उन्होंने उदारवादी सिद्धांत के सार्वभौम विचारों में अपनी निष्ठा भी बनाए रखी। जुलू या काफ़िरों के प्रति उनके रूख में इससे गम्भीर रूप से समझौता किया गया, दक्षिण अफ़्रीका के स्थानीय अश्वेतों को उन्होंने इसी संज्ञा से बुलाना उचित समझा। इस तरह ऐसा लगता है कि गांधी उदारवादियों की तरह ही दुविधा में फँसे हुए थे, उदारवादी एक तरफ़ लॉक के एकसमान की नीति में यक़ीन तो रखते थे लेकिन वे बिना अर्ह्ता के नागरिकों को राजनीतिक समानता नहीं देना चाहते थे  ना ही नस्ल या जातीयता से ऊपर उठकर उनको अपरिहार्य मानव अधिकार भी नहीं देना चाहते थे। क्रांतिकारी सामाजिकराजनीतिक विचारों के बावजूद वह विक्टोरियाई संस्कृति के पूर्वग्रहों से बच नहीं पाए, जो बाबावाद तथा सत्ता के अहंकार के कारण था, जिसके कारण हमेशा अपने से अपने से कमतर अन्य का निर्माण किया गया ताकि जाग्रत उदारवादी विचारधारा में किस तरह की गिरावट हो रही है इसको दिखाया जा सके। गांधी के साथ जो असमान बर्ताव किया गया तो गांधी को वह महज़ इस कारण स्वीकार्य नहीं था क्योंकि वह उदारवाद के सिद्धांतों के ख़िलाफ़ था लेकिन इसी की वजह से दक्षिण अफ़्रीका के अश्वेत नागरिकों के लिएअपशब्दका प्रयोग करते हुए नहीं रुके। इससे यह समझ में आता है कि गांधी एक तरफ़ क्रांतिकारी थे तो दूसरी तरफ़ यथास्थितिवादी भी थे। दक्षिण अफ़्रीका के अश्वेतों को काफ़िर कहना हो सकता है इस बात का पर्याप्त सबूत हो कि नस्लवाद के साथ उनकी संगति थी; लेकिन यह इस बात का पर्याप्त संकेत देता है किअफ़्रीका में अन्य का निर्माण करने में मनोवैज्ञानिक हिंसा जो उनके अंदर थी जो इस बात के ऊपर संदेह प्रकट करती है कि नैतिक और राजनीतिक सत्ता के बीच सामंजस्य बिठाने की स्पष्ट क्षमता थी।यह शायद उस युग की दुविधा थी जब उदारवादी सिद्धांत को, चुनिंदा रूप से, अगर सुविधा के लिए नहीं, सामाजिक राजनीतिक लक्ष्य को हासिल करने का ज़रिया माना जाता था और इसके बावजूद कि महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ़्रीका में नस्लीय भेदभाव के ख़िलाफ़ तथा भारत में साम्राज्यवादी उत्पीड़न के ख़िलाफ़  सबसे प्रभावी अहिंसक आंदोलन चलाया, लेकिन वे इस तरह के विचारों से शायद ही मुक्त थे।इसलिए यह तर्क सुरक्षित लगता है कि उदारवादी विचारों के सार्वभौम अभिलक्षणों को नया रूप देते हुए गांधी सांस्कृतिक पूर्वग्रहों से ऊपर नहीं उठ पाए। 

 
      

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