युवा लेखक पंकज कौरव अपनी हर रचना से कुछ चौंका देते हैं। अब यही कविता देखिए- मॉडरेटर
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वे एक्टर बनने नहीं आए थे
पर अभिनेता वाली सारी ठसक
उनमें कूट कूट कर भरी थी
वे स्टाइल में खड़े होते
अदा के साथ अपनी हर बात रखते
और बची हुई बाक़ी अदा
ओढ़-बिछाकर अंधेरी में सो जाते
वे साहित्य और फिल्मों में
क्रांति का नया नारा लाना चाहते थे
वे सपने नहीं
सिर्फ कहानियां बुनते
सपनों में उनके परियां नहीं थीं
किसी के भी पर काट देते थे वे
बड़े से बड़ा निर्देशक
उनसे
अपनी फ़िल्म को
युवाओं में
लोकप्रिय बनाने का तरीक़ा पूछता
और वे
मेट्रिक से लेकर
हॉस्टल लाइफ के अनुभवों को
जीवन का सार बताने से नहीं चूकते
जैसे कि
लड़कों और लड़कियों को
अलग-अलग वर्ग में न बंटे
को -एड में पढ़ने वाले
और पार्ट-टाइम नौकरी करते हुए
प्राइवेट से ग्रेजुएशन करने वाले
महज़… खैर छोड़िए!
और सबसे खास बात यह थी
कि जब वे सुबह सोकर उठते
उन्हें कई छल्लेदार कहानियां मिलती
जैसे
अंडरवियर के आसपास मिलते हैं
कुछ टूटे हुए बाल….
बड़ी बेधक कविता है, मुंबई के फिल्मी स्ट्रगलर्स के त्रास और कुंठा को रेखांकित करती है।
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