प्रस्तुत है युवा लेखक वसीम अकरम के उपन्यास ‘चिरकुट दास चिंगारी’ का एक अंश। उपन्यास हिंद युग्म से प्रकाशित हुआ है- मॉडरेटर
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उपन्यास के तीसरे अध्याय ‘इक्स’ का एक अंश
मारकपुर से कोस भर की दूरी पर सप्ताह में दो दिन बजार लगता था– मंगलवार को और इतवार को। मंगलवार को बड़ा बजार लगता था जिसे लोग ‘मंगर बजार’ कहते थे। और इतवार को छोटा बजार लगता था जिसे लोग ‘इतवारी बजार’ कहते थे। मंगर बजार के दिन भीड़ ज्यादा होने की वजह से मटरू को वह तनिक भी नहीं सुहाता था। इसलिए वह अक्सर इतवारी बजार जाता था, जहाँ भीड़ कम होने के कारण इत्मीनान से अच्छी तरह सउदा पटाने के लिए उनको ज्यादा वक्त मिल जाता था।
इतवार का दिन था। शाम के चार बज रहे थे। मटरू ने अपनी माई को दुकान पर बैठने के लिए कहा और अपने बाबूजी की शादी में मिली ऊँचकी साइकिल के पीछे दो–चार ठो खाली झोरा–बोरा बाँधकर इतवारी बजार को चल दिया। थोड़ी देर तक मटरू की माई दुकान पर बैठी रही, तभी जलेबिया चाची नमक लेने आ धमकीं। नाम तो उनका जलेबिया था, लेकिन उनकी जुबान में जलेबी की मिठास तनिक भी ना थी।
‘‘ए ठुनकिया कऽ माई! तनिक पाव भर नीमक दे दो बहिनी। इ जमुनिया के बाबू भी न, बजार से सब लेके आते हैं, बाकिर नीमकवे भुला जाते हैं।’’ जलेबिया चाची ने आते ही अपने पति भिरगू परसाद की शिकायत शुरू कर दी।
ठुनकिया की माई ने ठुनकिया को आवाज लगायी– ‘‘ए ठुनकिया, तनिक देख तऽ कोठरी में नीमक है का, लेके आव हियाँ।’’ ठुनकिया ने हामी भरी और थोड़ी ही देर में वह नमक की बोरी उठा लायी। जलेबिया चाची नमक लेकर भिरगू की फिर–फिर शिकायत करती हुई दुकान से बाहर निकल गयीं।
जलेबिया चाची के जाने के बाद ठुनकिया की माई ने ठुनकिया को कहा कि– ‘‘एहर–ओहर ठुनको मत, मटरुआ के आने तक दोकान देखो, तब तक हम चूल्हा बार लेते हैं।’’ यह कहकर वह रसोई में चली गयीं।
ठुनकिया दुकान पर बैठ गयी। मटरू नहीं था तो चाय बननी बंद थी। लोगों को पता था कि इतवारी बजार के चलते मटरू के यहाँ चाय नहीं मिलेगी, इसलिए इतवार के दिन साँझ भए चाय–वाय पीने कोई आता भी नहीं था। चाहे चाय पीने की बात हो या फिर कोई सउदा–समान लेने की, जब मटरू रहता था तो लोग ज्यादा आते थे। एक तो यह कि मटरू तमाम गहकी सब से प्यार से बोलता था और दूसरे यह कि रियायत में कभी–कभार गहकी सब को उधार–पाँच भी दे देता था। वहीं ठुनकिया और उसकी माई से ये सब नहीं हो पाता था। गाँव भर में उनकी बेमुरव्वती मशहूर थी, इसलिए उन दोनों के रहते लोग कम ही रुकते। पूरे गाँव में सिर्फ तीन ही दुकानें थी। बाकी दो तो सिर्फ ‘राशन–पानी’ की दुकानें थीं, लेकिन मटरू की दुकान ‘‘राशन–पानी’’ के साथ–साथ ‘‘चाह–पानी’’ की भी थी।
साँझ धीरे–धीरे मटरू की दुकान के छज्जे से नीचे उतर रही थी। थोड़ी देर में ठुनकिया की माई दुकान में दीया–बाती कर गयी।
देर से खाली बैठी ठुनकिया की निगाह गल्ले के पास रखे पुड़िया बाँधने वाले कागज की रद्दी के गत्थे की ओर गयी। रद्दी में से सरस सलिल पत्रिका का एक कोना झाँक रहा था। ठुनकिया सरस सलिल लेकर उसके पन्नों को पलटने लगी कि तभी एक पन्ने पर ‘‘छम्मक छल्लो’’ फिगरायमान हो गयी। छम्मक छल्लो ने एक मसखरे को अच्छा मजा चखा दिया था। यह पढ़ते–पढ़ते ठुनकिया हँसने लगी। उसके नारी मन को अच्छा लगा कि एक नटखट लड़की ने एक मसखरे लड़के के लड़की पटाने की कोशिशों का भतुआपाग बना दिया था। दरअसल, छम्मक छल्लो का तिकड़म काम कर गया और उससे चुम्मा माँगने पर एक बदमाश लड़के को अपने पिछवाड़े में भैंस की सींग खानी पड़ गयी थी। बस! ठुनकिया खुश हुई।
उस अल्हड़ सी छम्मक छल्लो की चंचल–चितवन वाली छवि को ठुनकिया हर कोने से देखने–परखने में इतना खो गयी कि उसे पता ही नहीं चला कि कब सुखनन्नन यादव का छोटा लड़का अँड़वा उसके पास आकर खड़ा हो गया और वह भी फिगरायमान छम्मक छल्लो को निहारने लगा। चूल्हा–चौका का वक्त हो ही आया था। अँड़वा की अम्मा ने उसे माचिस लाने के लिए दो रुपये का नोट देकर भेजा था। ठुनकिया को खोए हुए देख उसके किशोर मन में ‘‘इक्स’’ अँखुआने लगा। पिछली रात को ही उसने भाकस पाँड़े की दलानी में उनकी ब्लैक एंड व्हॉइट टीवी पर गोविंदा की कोई फिल्म देखी थी। बस उसी का असर था। गोविंदा की तरह ही अँड़वा की आँख से ‘‘इक्स’’ निकलकर ठुनकिया के मुस्कुराते मुखड़े पर बरसने वाला था। बेखबर ठुनकिया मन ही मन छम्मक छल्लो में खुद को देख ही रही थी कि तभी अँड़वा ने ठुनकिया को बड़े प्यार से निहारते हुए बोला– ‘‘ए थम्मक थल्लो’’
‘‘का चाही रे?’’ ठुनकिया ने चौंककर रद्दी के कोने में पत्रिका फेंकते हुए पूछा। अँड़वा को इस तरह अचानक अपने पास देखकर वह चिहुँक सी गयी और फौरन ही खुद में सिमटने लगी। लेकिन अँड़वा को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा, वह अभी भी उसी अंदाज में था, और दोबारा उसी तरह प्यार से बोला– ‘‘ए थम्मक थल्लो!’’
‘‘थम्मक थल्लो तोहाल माई!’’ ठुनकिया ने फौरन गुस्से में आकर कहा। गुस्से में ही उसने खुद को सँभाला और फिर अपनी ठुनक पर उतर आ गयी– ‘‘का चाही रे? कुछो बोलेगा भी कि बनाएँ हम तुम्हरा भतुआपाग?’’
‘‘ई दू लुपिया का नोत लख लो, एक थो माचिछ दे दो।’’ अँड़वा ने ठुनकिया को दो रुपये का नोट पकड़ाते हुए बहुत प्यार से कहा।
‘‘अउल बाकी बचल लुपिया कऽ का चाही?’’ ठुनकिया ने दो रुपये का नोट गल्ले में रखा और अँड़वा की नकल उतारते हुए ठुनककर पूछा।
‘‘तुम्मा!’’ अँड़वा ने ठुनकिया का सवाल पूरा होते ही फौरन गोविंदा के अंदाज में अपनी तोतली माँग रख दी।
‘‘का?’’ ठुनकिया चौंक पड़ी, उसका मुँह खुला रह गया। उसको अँड़वा की इस माँग का तनिक भी अंदाजा नहीं था। अब तक तो वह अपनी ठुनक में ही थी, लेकिन अँड़वा के हीरोगिरी वाले अंदाज से वह कुछ सहम सी गयी। उसे शर्म के साथ गुस्सा भी आ रहा था।
‘‘तुम्मा!’’ अँड़वा ने फौरन ठुनकिया के ‘‘का?’’ का जवाब दिया।
‘‘ए माई! देख ई अँड़वा का माँग रहा है…’’ ठुनकिया जोर से चिल्लाई। शर्म को छोड़ उसने गुस्से का इजहार किया।
‘‘जउन माँग रहा है तउन दे दो… हम दोकान में बइठे हैं कि तू…’’ भीतर चुल्हानी से ठुनकिया की माई की कुछ खीझ भरी आवाज आयी।
‘‘तुम्मा माँग रहा है…’’ ठुनकिया के मुँह से अचानक ‘चुम्मा’ की जगह ‘तुम्मा’ निकल गया। अँड़वा की हुमक में अपनी ठुनक भूलकर वह बेचारी उसकी तुतलाती लय में आ गयी थी।
‘‘हमको का पता कि ई तुम्मा का बला है अउर मटरुआ ने कहाँ रक्खा है। हम रसोई छोड़ के ना आएँगे, तुम खोज के दे दो, नहीं तऽ कहो उसे कि दोसर दोकान से जाके लेले।’’ अबकि ठुनकिया की माई ने चुल्हानी में से ही खीझते हुए कहा।
अँड़वा की ‘तुम्मा की तोतली’ में माँ–बेटी दोनों उलझ गयी थीं। लेकिन ठुनकिया ज्यादा देर तक उलझी रहने वाली में से तो थी नहीं! फिर क्या था, वह धड़ाम से गल्ला वाले चौकी पर से कूदी और नीचे से झाड़ू उठाकर अँड़वा के पीछे दौड़ी। उसके कूदते ही अँड़वा अपनी हीरोगिरी से वापस आ गया था और भाँप गया था। अपनी तुतलाती लय में ही भुनभुनाते हुए ही वह दुकान की चौखट लाँघकर तेजी से भागा।– ‘‘तुम्मा तो अब मिलने छे लहा, छाला दू लुपिया भी गया भोंछली के।’’
ठुनकिया चिल्लाई– ‘‘आउ दोगला! ई झालू का झुम्मा दें हम तुमको।’’ वह अब तोतली ठुनक में आ गयी थी। आगे–आगे अँड़वा पीछे–पीछे ठुनकिया। लेकिन अँड़वा कहाँ पकड़ में आने वाला था। वह भाग गया और ठुनकिया थककर वापस हो गयी। कुछ देर तक ठुनकिया की कोई आहट न पाकर मटरू की माई ने उसे भीतर से ही आवाज दी लेकिन कोई जवाब न पाकर खुद दुकान में चली आयीं। तभी ठुनकिया हाथ में झाड़ू झुमाते हुए दुकान के दरवाजे से भीतर दाखिल हुई।
‘‘ई झाड़ू लेके कहाँ से आ रही है रे ठुनकिया?’’ मटरू की माई ने पूछा। ठुनकिया कुछ नहीं बोली। वह बताती भी क्या, अँड़वा के ‘‘तुम्मा’’ माँगने के अंदाज को सोचकर बस मुस्कुराके रह गयी। लेकिन माई ने दोबारा पूछा। इस पर ठुनकिया ने बस ‘यहीं बाहर ही थी’ कहकर झाड़ू को चौकी के नीचे फेंका और गल्ले के पास बैठ गयी।
अँड़वा भागते–पराते हाँफता हुआ सीधे घर पहुँचा। उसकी अम्मा इस इंतजार में बैठी थी कि वह माचिस लेकर आएगा तो चूल्हा बारेगी और जल्दी से रसोई बनाकर टँड़वा–अँड़वा के बाबूजी के पास खरिहान में भेजेगी। अँड़वा का एक डर खत्म हो गया था कि वह झाड़ू के चुम्मा से तो बच गया था लेकिन दूसरा डर यह था कि अपनी अम्मा के लतुम्मा से वह कैसे बचेगा, जब वह पूछेगी कि माचिस काहे नहीं लाए और उसके पास इसका कौनो जवाब नहीं होगा। लतुम्मा यानि ‘‘राजधानी की चाल से लतवँसने के साथ ही शताब्दी की चाल से गरियाने का अंदाज।’’ अभी अँड़वा दूसरे डर से बचने का रास्ता सोच ही रहा था कि उसे एक तीसरा डर भी वहीं नजर आ गया। बड़ा भयानक डर था वह– कि यदि यह बात उसके बाबूजी को पता चल गयी कि रसोई में देरी उसकी वजह से हुई है और इसलिए खाना देर से पहुँचा, तो उसके बाबूजी अपनी धोती कपार पे उठा के अपनी ही नाक पर आ बैठेंगे। पूरा गाँव जानता था कि जब सुखनन्नन यादव एक बार अपनी नाक पर आ बैठें तो ई समझ लीजिए कि अब लतुम्मा की घनबरखा होने वाली है। उसका डर सही था। अँड़वा बलभर लतवँसा गया। साँझ भए अपनी अम्मा से और रात गए बाबूजी से।
रात को बिना खाना खाए ही अँड़वा दलानी में सोने चला गया। दर्द के मारे उसे नींद तो नहीं आ रही थी लेकिन जिस्मानी दर्द से बेखबर उसके किशोर मन को एक बात सालने लगी और मन ही मन वह अपने को ही कोसने लगा– ‘‘भक्क छाला! इछछे तऽ अच्छा होता थुनकिया के झालू का झुम्मा ही खा लिए होते! छाला दूगो लुपियवा भी तल जाता!’’
उस दिन से अँड़वा पंद्रह–बीस दिनों तक मटरू की दुकान की ओर नहीं फटका कि कहीं ठुनकिया ने देख लिया तो न जाने इस बार किस चीज का चुम्मा लेके दौड़ पड़ेगी।
आसाढ़ के दिन थे। गर्मियों की छुट्टियाँ खत्म हो चुकी थीं। जुलाई शुरू हो चुकी थी। लड़के–लड़कियाँ अब स्कूल जाने लगे थे। दाखिले शुरू हो गए थे और अब सब एक कक्षा ऊपर चढ़ चुके थे। ठुनकिया, सबितरी, मोहनी, फेंकना, झबुआ, छँगुरा, वगैरह अब आठवीं में पहुँच चुके थे। जमुनिया, हेनवा, टँड़वा–अँड़वा, वगैरह भी अब नौवीं में पहुँच चुके थे, तो वहीं सनीचरी, मँगरुआ, बलिस्टर, बुधना और सफरुआ, वगैरह दसवीं में। इन सब लड़के–लड़कियों को भले ही गाँव भर के लोग ऐसे उटपटांग नामों से पुकारते थे, लेकिन स्कूल के रजिस्टर में इनके बड़े ही प्यारे–प्यारे नाम दर्ज थे। गाँव से एक किलोमीटर की दूरी पर स्कूल था। सब वहीं पढ़ते थे।
सुबह के आठ बजने वाले थे। सब लड़के–लड़कियाँ स्कूल पहुँच चुके थे। पहली घंटी खाली ही रहती थी इसलिए पढ़ाई अभी शुरू नहीं हुई थी। कुछ बच्चे अपनी कक्षा में बैठे एक–दूसरे से बातें कर मेल–जोल बढ़ा रहे थे तो कुछ स्कूल के सामने वाले बड़े से प्रांगण में हरी–हरी घास पर खेल रहे थे। सर्दियों में तो वह पूरा प्रांगण क्लासरूम बन जाता था। सारे बच्चे जगह–जगह गोलबंद होकर सर्दी की गुनगुनी धूप में अपनी–अपनी कक्षाएँ लगाकर पढ़ाई करते थे। मास्टर साहब और मास्टरनी साहिबा लोगन को भी एक–दूसरे को देख–देख पढ़ाने में बहुते मजा आता था और तब वे बड़े ही रोमांचित अंदाज में पढ़ाया करते थे।
पच्छू टोले के पास से एक पतली सी सड़क गुजरती थी। बाजार और स्कूल को पार करती हुई वह सड़क जाकर राजधानी मार्ग में मिल जाती थी। स्कूल का प्रांगण एक छह फुट की दीवार से घेराबंद था और उस दीवार से सटे एक पतली सी सड़क जाती थी। सड़क के किनारे ही स्कूल का प्रवेश द्वार था। प्रांगण में जगह–जगह आम और नीम के ढेरों छोटे–बड़े पेड़ लगे हुए थे। जुलाई के पहले सप्ताह का शनिवार था। हर शनिवार को लेजर तक ही पढ़ाई होती थी और लेजर के बाद के बाकी समय में बच्चों को खेल–कूद और सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने का मौका मिलता था। इसलिए हर शनिवार को बच्चों में उत्साह थोड़ा ज्यादा होता था और वह उत्साह सुबह से ही शुरू हो जाता था।
आसाढ़ का शुक्ल पक्ष चल रहा था। मँगरुआ को तो जैसे सुकवा लग गया था। देह हरियाने ही लगी थी उसकी और उसके हम–उम्रों की भी। सुकवा लगता है तो आम के पेड़ के नीचे जामुन मुस्कुराता है! पर यहाँ जमुनिया थी। मँगरुआ प्रांगण में एक आम के पेड़ के नीचे जमुनिया को अपने सामने बिठा कर खुद कुमार सानू बने गाना गा रहा था– ‘‘तू मेरी जिंदगी है… तू मेरी हर खुशी है…’’ जमुनिया उसको सुनकर मुस्कियाए जा रही थी, शरमाए जा रही थी, और थोड़ा घबराए भी जा रही थी। उस दिन पता चला था कि जब हालिया हरियाए देह को सुकवा लगता है तो उसकी आवाज में इक्स के पक्के सुर आ बसते हैं।
एक किशोर के हरियाए देह में ‘‘इक्स’’ का हल्का झोंका छू जाए तो बचपन की उमर भी जवानी के टीले पर पहुँच जाती है। उस टीले पर पहुँचकर सुकवा लगे लड़के की देह पतंगा बन दिनभर उधियाती फिरती है और उसका मन खटूरुस टिकोरे में से भी पकलुस आम का रसास्वादन करने लगता है। बबूल के पेड़ से उचककर गुलाब का फूल तोड़ लेता है और खिसियाए हुए माई–बाबू को भी फौरन मना लेता है। सुकवा को गइया–भैंसिया में भी सुकइया ही नजर आने लगती है और रात के घनघोर अँधियारे में ऐसा उजियार हो जाता है जैसे आसमान से उतरकर चाँद सुकवा–सुकइया के माथे पर पंखा झल रहा हो। इक्स का यह झोंका तो मौसम के मिजाज तक को इधर से उधर कर देता है– जनवरी की हाँड़ कँपाने वाली ठंडी को जेठ की दुपहरी बना देता है और जून की चिलचिलाती गर्मी को पूस की रात में तब्दील कर देता है।
हरियाए बदन पर इक्स बड़ी ही तेजी से अँखुआता है। इक्स अँखुआने लगे तो बुचन्नी भर का दिमाग ऐसा दर्शनिया जाता है कि खुद से ही खूब बतियाने लगता है और इतना फरहर चलने लगता है कि उसको बाकी सब के सब बकरीदू नजर आने लगते हैं। उस टीले पर अकेले बैठकर ‘‘आपन दरसन बघारो आपे’’ जैसी हालत हो जाती है। का सही का गलत, यह सब कुछ नहीं, वह जो सोचे वह सही, जो ना सोचे वह गलत! उस समय में ‘‘लौंडयास्टिक रोमांस’’ का दायरा इतना बड़ा हो जाता है कि जिसमें दो के अलावा किसी और के लिए कोई जगह ही नहीं बचती है। मँगरुआ उसी टीले पर खड़ा होकर गाना गा रहा था और जमुनिया रोमांचित होकर सुन रही थी। उन दोनों के दिल का आलम कौन बताए। और अगर कोई बताए भी तो उसे समझे कौन? ‘‘सुकवा ही जाने सुकइया का हाल… सुकइया ही जाने काहें सुकवा बेहाल!’’
प्रांगण में आम के पेड़ों पर अब कम ही आम बचे थे। घंटी खाली देख बुधना और सफरुआ दीवार से लगे एक पेड़ पर चढ़ गए। पेड़ की डाली झकझोरकर वे बचे आमों को गिराने की फिराक में थे क्योंकि पलई पर फले आम उनकी पहुँच से दूर थे। वहीं हेनवा, ठुनकिया, सनीचरी और अँड़वा सब के सब पेड़ के नीचे भदाभद गिर रहे आमों को बँटोर कर अपने–अपने बस्ते में भर रहे थे। टँड़वा भी प्रांगण की दीवार पर चढ़ गया और वहीं से बुधना और सफरुआ को आम की उन डालियों को दिखाने लगा जिन पर कुछ आम अभी लगे हुए थे। तभी प्रांगण के एक कोने से सड़क पर केशव प्रसाद अपनी साइकिल डगराते आते दिखाई दिए। केशव प्रसाद गणित के मास्टर थे। पढ़ाते कम मारते ज्यादा थे।
‘‘अरे सफरुआ… बुधना… जल्दी उतरो बे भोंसड़ी के… केसउआ आ रहा है। देख लिया तऽ सगरो आम पिछवाड़े घुसेड़ देगा। भागो रे बकरीदुओं…।’’ टँड़वा दीवार से कूदते हुए चिल्लाया। सारे लड़के–लड़कियाँ क्लास की ओर भागे जैसे केशव प्रसाद मास्टर नहीं, कोई भकाऊँ हों, जो आते ही सबको भकोस जाएँगे। बच्चे भी अक्सर भकोसे जाने वाला काम ही करते थे कि मास्टरों का गुस्सा तरकुल पर चढ़ जाता था।
टँड़वा को लगा कि केशव मास्टर बहुत दूर थे इसलिए वे सुने नहीं होंगे कि उसने किस वाक्य में अतिसहायक विशेषण के साथ उनके नाम को इज्जत दी थी। बच्चे तो अक्सर इसी मुगालते में रहते हैं कि मास्टरों के पीठ पीछे वे सब जो कर रहे हैं, मास्टरों को उसके बारे में कुछ पता ही नहीं होता। जल्दी से भागकर सब अपनी–अपनी क्लास में बैठ गए।
थोड़ी देर में केशव प्रसाद क्लास रजिस्टर लेकर क्लास में दाखिल हुए। बड़ी–बड़ी मूँछें थीं उनकी। बाएँ हाथ में रजिस्टर और दायाँ हाथ मूँछ पर। क्लास में घुसते ही अँड़वा से बोले– ‘‘बेटा, एक काम करो तो जरा। स्कूल के पीछे जाओ और उहाँ से बेहाया का डंडा तोड़कर ले आओ।’’ केशव मास्टर का आदेश पाते ही ‘‘जी गुलु जी’’ कहकर अँड़वा फौरन सन्नाटा हो गया। जिस अंदाज में वह क्लास से बाहर निकला, उससे लगा कि अब वह वापस नहीं आएगा।
बेहया के डंडे का नाम सुनते ही टँड़वा को ऐसा लगने लगा जैसे कि उसकी पैंट में एक ओर करइत और दूसरी ओर बिच्छी घुस गयी हो। जरा सा हिला नहीं कि डंक लगा और वह जान से गया। एकटक वह ब्लैकबोर्ड की तरफ देखता रहा। बाकी बच्चे भी समझ गए कि आज मरकहवा मास्टर जी का घान गिरने वाला है और आज सबकी पीठ ललहर होने वाली है। केशव मास्टर बेहाया के छरके से बच्चों को बेमुरव्वत मारने के लिए पूरे स्कूल में ही नहीं बल्कि पूरे गाँव–जवार में मशहूर थे। गलती किसी एक बच्चे की होती लेकिन केशव मास्टर पूरी क्लास की धुनाई करते। शनिवार के दिन यदि वे डंडा मँगा लिए तो बच्चे समझ जाते कि अब लेजर के बाद का धुरंधर–धमाचौकड़ी वाला पूरा हिस्सा पीठ सहलाने में ही जाएगा। न तो केशव मास्टर अपनी आदत की कुर्सी छोड़ते थे, और न बच्चे अपनी शरारत की पोटली घर पे रख के आते थे। आए दिन उनमें प्रतियोगिता भी चलती कि– फलनवा की वजह से हम मार खाए हैं, तऽ हमरा वजह से उ काहें नहीं मार खाएगा।
रजिस्टर खोलकर उसमें अपना चश्मा धँसाए हुए केशव मास्टर तो अभी टँड़वा की ओर देखे भी नहीं थे कि उसकी थरथराहट शुरू हो गयी थी। मास्टर जी बच्चों की हाजिरी लेने लगे। वे जैसे–जैसे एक–एक बच्चे का नाम बोलने लगे वैसे–वैसे टँड़वा के पिछवाड़े की धड़कन बढ़ने लगी। तभी अँड़वा बेहाया के डंडे लेकर आ गया। वह अपनी अँकवारी में सत्रह डंडे भर लाया था और मास्टर जी की कुर्सी के पास पटकते हुए बोला।– ‘‘लेईं गुलु जी।’’
बेहाया का हरा छरका देखकर टँड़वा कुढ़ गया कि ई बकरीदुआ इतना कचहर बेहाया लाया कि पीठ पर पड़ जाए तो चमड़ी पर कटहा कुकुर की तरह अपना निशान छोड़ जाए और बेजइती खराब तो ऐसी होनी है कि कोई अपनी पीठ दिखाने के लिए भी कहीं का न रहे। हाजिरी खत्म कर मास्टर जी कुर्सी से उठे और सारे डंडों को एक–एक कर हाथ में लेकर वजन करने लगे कि कौन डंडा कितना मजगर था। काफी देर से पूरे क्लास में सन्नाटा पसरा हुआ था। तभी सन्नाटा टूटा–
‘‘किसने कहा था कि केसउआ आ रहा है?‘‘
केशव मास्टर ने यह सवाल बड़े प्यार से ऐसे पूछा जैसे पूछ रहे हों कि तिरभुज में केतना कोना होता है और सभी कोने का जोग केतना अंश होता है। और जैसे नौवीं में आ चुके सारे बच्चे एक साथ हाथ उठाकर फटाक से बता दें कि तीन गो कोना होता है गुरु जी और तीनों कोनों का जोग एक सौ अस्सी अंश होता है। लेकिन किसी ने कुछ नहीं बोला। बोलते तब न जब सवाल गणित का होता! मास्टर जी अपने हाथ में बेहाया का मोटा डंडा लिए क्लास के इस कोने से उस कोने तक टहल आए। सारे बच्चे चुपचाप उन्हें टहलते हुए देखते रहे। मास्टर जी ने फिर चुप्पी तोड़ी।
‘‘तू लोग का गणित चाहे जेतना कमजोर हो, लेकिन गरामर बड़ा मजबूत होता है। है नऽ…? आठवीं पास कर गए हो अब… और तू लोग के लिए आठ के पहाड़े में अब भी भले ही ‘अठिका आठ… आठ दुनी दस…’ होता हो, लेकिन गरामर एतना परफेट्ट होता है कि तू लोग एक वाक्य में एक बार अतिसहायक विशेषण का इस्तेमाल करना कभी नहीं भूलते… है कि नहीं?’’ बच्चे चुप रहे, वे समझ रहे थे कि आज सारे डंडे उन सबकी पीठ पर कुर्बान जाने हैं।
‘‘किसने कहा था कि केसउआ आ रहा है?‘‘ केशव मास्टर इस बार गुस्से में मेज पर डंडा पटकते हुए लगभग चीखे।
बच्चे सब सन्न रह गये, उनकी सिट्टी–पिट्टी सब गुम हो गयी। किसी ने कुछ नहीं बोला, किसी ने नहीं बताया कि टँड़वा ने कहा था। बच्चे चुप थे कि बताने से कोई फायदा तो होना नहीं था, मार तो सबको खानी थी, फिर काहें बोलें। मेज से डंडा उठाकर फिर मास्टर जी क्लास में टहलने लगे। भयानक सन्नाटा। बच्चा सब के कपार में खुजली तो हो ही रही थी लेकिन वे खुजलाएँ तो कैसे? कहीं मास्टर जी की नजर पड़ गयी तो डंडे का घान वहीं से गिरना शुरू हो जाएगा। अचानक मास्टर जी टँड़वा के पास जाकर रुक गए। टँड़वा का बायाँ हाथ झट से ऊपर उठ गया। वह अपनी कानी अँगुली दिखाकर सुसुआलय जाने की इजाजत माँग रहा था।
‘‘पहिले बता दो कि किसने कहा था केसउआ आ रहा है… फिर चले जाना अउर खाली कानी अँगुरी नहीं, बाकी अँगुरी भी कर आना।‘‘ डंडे के सहारे टँड़वा के मुँह पर झुककर केशव मास्टर बड़े प्यार से बोले।
‘‘हमको नहीं पता।’’ टँड़वा ने अपना हाथ नीचे करते हुए कहा। वह डर के मारे काँपने लगा था।
‘‘हूँऽऽऽ… तो सच्ची तुमको नहीं पता?’’ झुके हुए मास्टर जी अपनी कमर सीधी करते हुए बोले। एक बार पूरे क्लास को गौर से देखे और फिर एक हाथ में टँड़वा का बाल पकड़कर उसकी आँख में आँख गड़ाए हुए चिल्लाए–
‘‘हम तुम्हरे बाप के बाप के बाप के बाप के बाप को पढ़ाया हूँ और तुम हमको बोलता है केसउआ आ रहा है!’’
इतना चिल्लाने के फौरन बाद केशव मास्टर मारे गुस्से के देदनादन–देदनादन टँड़वा की पीठ पर डंडा बरसाने लगे। टँड़वा चिल्लाने लगा। बाकी बच्चे सहम से गए। क्लास का दरवाजा बंद था। वे भाग भी नहीं सकते थे। थोड़ी देर में अपनी पीठ का झोला–बस्ता अपने पेट से चिपकाए हुए पूरी क्लास बाहर निकली।
इस मार के बाद पूरे एक सप्ताह तक नौंवीं क्लास के बच्चे स्कूल नहीं गए। सारे बच्चों ने अघोषित छुट्टियाँ कर दिया था। जब–जब केशव मास्टर के डंडे की घनबरखा होती थी, तब–तब बच्चे अघोषित छुट्टियाँ कर लेते थे। और जब स्कूल न आने को लेकर बच्चों के घर शिकायत जाती तो घर वाले केशव मास्टर की शिकायत कर देते। मामला बराबरी का हो जाता था। केशव मास्टर कुछ दिन थिर रहते और फिर एक दिन किसी बच्चे की जरा सी गलती पर सिंघिया माँगुर हो जाते। कभी–कभार मँगरुआ जैसे धुरंधर इक्स करते पकड़े जाते तो केशव मास्टर अपने गुस्से की ओखरी में धुरंधरों के रोमांस का चूड़ा कूट डालते। धुरंधर लड़कों को मास्टर जी से पिटने का उतना नहीं अखरता था। उन्हें तो इस बात का अफसोस होता था कि मास्टर जी में लेहाज नाम की कौनो चीज ना थी और वे लड़कियों के सामने ही कूटने लगते थे। मास्टर जी से कूटे जाने के बाद पीठ का दर्द उतना नहीं सालता जितना कि कूटे जाने के वक्त लड़कियों की खी–खी सालती थी। फिर क्या था! मास्टर जी के सम्मान में ऐसी–ऐसी अतिसहायक विशेषणों और सहायक क्रियाओं का प्रयोग होता कि अगर वे सुन लें तो अपने कूट की बूट और मार की धार दोगुनी कर दें।
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उपन्यास : चिरकुट दास चिन्गारी
लेखक : वसीम अकरम
प्रकाशक : हिन्द युग्म प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य : 125 (पेपरबैक)
संपर्क : talk2wasimakram@gmail.com मोबाइल: 9899170273
लेखक परिचय
उत्तर प्रदेश के मऊ जिले में एक छोटे से गांव मुबारकपुर (पोस्ट: रतनपुरा) में जन्म। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से इंग्लिश लिटरेचर में पोस्ट ग्रेजुएट वसीम अकरम ग़ज़ल, नज़्म, स्क्रिप्ट, कविताएं और कहानियां लिखते हैं। इनका लेखन समय–समय पर विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में प्रकाशित। साहित्य लेखन के साथ–साथ वसीम फिल्म निर्देशक भी हैं और ‘दहशतगर्दी‘ नाम से इन्होंने एक पोएटिक शॉर्ट फिल्म भी बनाई है। पहली किताब के रूप में नज़्म संग्रह ‘आवाज़ दो कि रोशनी आए‘ प्रकाशित। ‘चिरकुट दास चिनगारी‘ इनकी दूसरी किताब है और यह पहला उपन्यास है। वसीम फिलहाल दो नये उपन्यासों का लेखन–कार्य पूरा कर चुके हैं, जिनके जल्दी ही प्रकाशित होने की उम्मीद है। पेशे से पत्रकार वसीम अकरम फिलहाल ‘प्रभात खबर‘ के दिल्ली ब्यूरो में कार्यरत हैं।
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