Home / Featured / मुड़ मुड़ के क्या देखते रहे मनोहर श्याम जोशी?

मुड़ मुड़ के क्या देखते रहे मनोहर श्याम जोशी?

आमतौर पर ‘जानकी पुल’ पर अपनी किताबों के बारे में मैं कुछ नहीं लगाता लेकिन पंकज कौरव जी ने ‘पालतू बोहेमियन’ पर इतना अच्छा लिखा है कि इसको आप लोगों को पढ़वाने का लोभ हो आया- प्रभात रंजन

======================

ट्रेजेडी हमेशा ही वर्क करती आयी हैं और शायद आगे भी करती जाएंगी क्योकि वे भीतर तक छू जाती हैं, तंद्रा तोड़ देती हैं और मोहभंग कर जाती हैं। मनोहर श्याम जोशी की प्रसिद्धि के उफान से शुरू होकर उनके दैहिक अवसान तक के संस्मरणों की बेहद पठनीय यात्रा करवाती प्रभात रंजन की किताब पालतू बोहेमियन भी एक लिहाज से हिंदी साहित्य जगत की सबसे ताज़ा ट्रेजेडी है। हालांकि गौर करने वाली बात यह है कि यहां इसे ट्रेजेडी कहने के निहितार्थ बहुआयामी हैं।

बेशक यह किताब मनोहर श्याम जोशी के जीवन के विभिन्न चरणों, ख़ासकर उनके जीवन के उत्तरार्ध पर केंद्रित संस्मरणों का बेहद रोचक पाठ प्रतुस्त करती है। इसे पढ़ते हुए आप हंसते हैं, वर्तमान साहित्य जगत की हठ और कुंठाओं के गैर-विस्मयकारी उद्घाटन से कुछ ठिठकते भी हैं। अपनी शैली में यह कुछ उपन्यास सरीखा है। इन संस्मरणों के केंद्र में ‘कुरू कुरू स्वाहा’ जैसे बेहद लोकप्रिय उपन्यास के लेखक और ‘बुनियाद’ धारावाहिक से भारतीय टेलिविजन के सूत्रपात में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले मनोहर श्याम जोशी हैं, वहीं दूसरी तरफ डीयू के मानसरोवर हॉस्टल में रहने वाला एक ऐसा शोधार्थी है जो फटाफट लेखक बन जाना चाहता है। उदय प्रकाश की कहानियों पर एमफिल के बाद पी-एचडी में प्रभात रंजन एक ऐसा विषय चुनते हैं जिसमें उत्तर-आधुनिकता भी है और मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास भी, पर बतौर संस्मरण-कर्ता वे यह स्वीकारने में ज़रा भी नहीं झिझकते कि उनके लिए मनोहर श्याम जोशी के प्रति आकर्षण का सीधा मतलब धारावाहिकों के लिए लिखने का मौका पाना भर रहा। अब इसे मनोहर श्याम जोशी के असाधारण व्यक्तित्व और उसका आकर्षण न कहें तो क्या कहें कि मनोहर श्याम जोशी के दीर्घकालिक संग साथ का असर धीरे धीरे प्रभात रंजन के भीतर आकार ले रहे लेखक पर पड़ता है और वे रचनात्मक और आलोचनात्मक लेखन की दिशा में बढ़ते चले जाते हैं। हालांकि उनका खुद एक पटकथा लेखक बनने का सपना इस प्रक्रिया में पटाक्षेप पा लेता है। यह भी एक तरह से ट्रेजेडी है.

 ‘पालतू बोहेमियन’ के एक संस्मरण में मनोहर श्याम जोशी प्रभात रंजन से कहते हैं- ‘जानते हो, मैंने तुम्हारे और न जाने कितने संपादकों, लेखकों के बार बार कहने के बावजूद अज्ञेय जी के ऊपर कोई संस्मरण क्यों नहीं लिखा? क्योंकि मेरा यह मानना रहा है कि किसी के ऊपर संस्मरण लिखने का अधिकारी वही होता है जिसकी दक्षता कुछ तो उसके समकक्ष हो जिसके ऊपर वह लिख रहा है। मैं चाहे जो भी हो गया होऊं, अज्ञेय जी के आसपास भी नहीं पहुंच पाया- न प्रतिभा में न उपलब्धियों के मामले में।‘

तो क्या प्रभात रंजन एक लेखक के तौर पर मनोहर श्याम जोशी के आसपास पहुंच गए हैं जो उनके ऊपर संस्मरणों की पूरी की पूरी किताब लिखने का दुस्साहस कर बैठे? दरअसल यह सवाल ही बेमानी है। विनम्रतापूर्वक असहमति दर्ज करते हुए यहां इतना जोड़ना ज़रूरी है कि किसी योग्य व्यक्ति पर संस्मरण लिखने की योग्यता के लिए बस उसकी जीवन यात्रा में कहीं न कहीं जुड़ा होना भर ज़रूरी है। यह भी कि वह सिर्फ बेलाग लिख सके फिर भले ही संस्मरण लिखने वाला वह व्यक्ति वर्षों तक नामवर सिंह का ड्राईवर या अज्ञेय का टाइपिस्ट ही क्यों न रहा हो। यकीनन पाठकों के लिए शायद वे ही सबसे सरस संस्मरण होंगे। क्योंकि उनके अनुभवों से निकले संस्मरण जरूरी नहीं कि सिर्फ महानता ही गढ़ें, सिर्फ किसी विचारधारा को पुष्ट करें। यहां प्रभात रंजन इस मामले में ईमानदार लगते हैं। वे कोई विशिष्ट लेखक/आलोचक के तौर पर नहीं बल्कि एक शोधार्थी के तौर पर अपनी स्मृतियों में बसे मनोहर श्याम जोशी का जादुई व्यक्तित्व कागज़ पर उतारते हैं। फीकी चाय पीते हुए गुड़ की डली कुतरते मनोहर श्याम जोशी देखते ही देखते पाठक के सहचर हो जाते हैं. बोनस में मिलते जाते हैं उनसे वक्त वक्त पर एक से बढ़कर एक सूत्रवाक्य! साथ ही लेखक प्रभात रंजन को अमेरिकन सेंटर लाइब्रेरी का मेंबरशिप कार्ड मिलना एक तरह से इस संस्मरण के पाठक के लिए भी विश्व-साहित्य का द्वार खुलने जैसा हो जाता है। ‘उत्तर-आधुनिकतावाद और मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास’ विषय पर सुधीश पचौरी के निर्देशन में पी-एचडी के दौरान उनका इस बोहेमियन लेखक से परिचय हुआ, इसके आगे उनका मनोहर श्याम जोशी से जितना भी संग साथ रहा, वह अपनी परिपूर्णता के साथ रहा, यह बात तो ‘पालतू बोहेमियन’ साबित करती ही है साथ ही मनोहर श्याम जोशी के व्यक्तित्व की ऐसी अभिव्यंजना भी प्रस्तुत करती है जिसमें उन्हें महान सिद्ध करने की कोई जुगत नहीं, न ही स्वयं अपनी वैचारिक या सैद्धांतिक दृढ़ता गढ़ने का कोई सायास प्रयास है। इस विधा में लेखन का पहला त्रास या ट्रेजेडी यही है कि संस्मरण व्यक्ति-विशेष और स्वयं की वैचारिक प्रतिबद्धता गढ़ते रहने के विधान भी रहे हैं। कभी कभी एक वैचारिक दृष्टि से घोर लंपट नज़र आने वाला व्यक्तित्व दूसरे वैचारिक दृष्टिकोण से घनघोर वैचारिक प्रतिबद्धता वाला दिखता है या दिखाया जाता है।

एक और बेहद मारक ट्रेजेडी यह है कि मीडिया के घनघोर प्रभाव के दौर ने हमें जो भी अच्छी-बुरी चीजें दी हैं, उनमें जो सबसे बुरी चीज हर किसी ने सीखी, वह है – हैडलाइन ले उड़ना। संदर्भ कांट-छांटकर विवादास्पद लगने वाला वाक्य ले उड़ना कोई कम बड़ी विभीषिका नहीं है। ‘पालतू बोहेमियन’ के सतही पाठ में भी इस तरह के जोखिम बहुत हैं। हो सकता है अबतक कुछ लोग ऐसी हैडलाइन ले भी उड़े हों। यह भी हो सकता है उन हैडलाइनों का वे अपनी धरा और धारा मजबूत करने में इस्तेमाल भी शुरू कर चुके हों, और ‘पालतू बोहेमियन’ में मनोहर श्याम जोशी और प्रभात रंजन के कहे हुए कुछ सूत्र वाक्य दिखा-दिखाकर अपनी जमात में तालियां भी बटोर रहे हों। लेकिन संदर्भों की कांट-छांट में यह कैसे भूला जा सकता है कि खुद मनोहर श्याम जोशी अपनी युवावस्था के दिनों में वामपंथ के प्रति उनका गहरा लगाव रहा। इतना ही नहीं अपने अंतिम दिनों तक वे वामपंथ की आलोचना दृष्टि के कायल रहे. प्रभात रंजन लिखते हैं कि जब कभी कोई वामपंथी आलोचक उनकी रचना की तारीफ कर देता था तो वे बहुत खुश हो जाया करते थे। किसी भी विचारधारा से चिपके न रहने वाले मनोहर श्याम जोशी भले कितने भी बोहेमियन क्यों न रहे हों लेकिन मार्क्सवादी आलोचना के प्रति मनोहर श्याम जोशी की आस्था ‘पालतू बोहेमियन’ में दर्ज इसी बात से हो जाती है – ‘हिंदी में मार्क्सवाद का जोर शायद ही कभी कम हो, इसका कारण वे यह मानते थे मार्क्सवाद के आलोचकों ने, ख़ास कर नामवर सिंह ने, हिंदी में मार्कवाद का रचनात्मक पक्ष बहुत मज़बूती से तैयार किया’। लेकिन हैडलाइन ले उड़ने वालों को यह बात समझ नहीं आएगी और वे हो सकता है दूसरे चटपटे प्रसंग ले उड़ें, यह भी एक ट्रेजेडी ही है।

हालांकि इस सब के बावजूद इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि मार्क्सवाद की कसौटी पर खरी न उतने वाली रचनाओं और रचनाकारों को ख़ारिज करते जाने की परिपाटी ने भी हिंदी का कोई बड़ा हित किया हो, ऐसा नहीं है। इसके उलट हुआ यह कि राजनीति से प्रेरित जिस तरह का ध्रुवीकरण समाज में पिछले कुछ दशकों से प्रभावशाली हुआ जा रहा है, कमोबेश उसी तरह के साहित्यिक ध्रुवीकरण की नींव भी इसी बहाने भरी जाती रही है। देखते ही देखते अब तक खारिज किए जाते रहे बहुसंख्यक हो चले हैं। मनोहर श्याम जोशी का सबसे प्रिय शब्द ‘दुचित्तापन’ शायद इसी आने वाले ख़तरे का इशारा रहा होगा। वैसे भी वे वागीश शुक्ल के साथ मेल-मिलाप में अक्सर इस निष्कर्ष पर पहुंचते रहे थे कि ग्लोबलाइजेशन के अंतिम दौर में राष्ट्रवाद बेहद प्रभावशाली रूप में सामने आएगा। अब सवाल यह है कि विचारधाराओं के बंधन से मुक्त रहते हुए मनोहर श्याम जोशी और उन्हीं की तरह तटस्थ भाव रखने वाले अन्य लेखक विद्वानों को अगर इन आने वाले ख़तरों का अंदाज़ा रहा, तो मार्क्सवादी आलोचना दृष्टि इन्हें चिन्हित और लक्षित करने से कैसे चूक गई? अगर ऐसा किसी वैचारिक आत्ममुग्धता की वजह से हुआ तो यह भी कोई कम ट्रेजेडी नहीं है।

अपनी आत्मकथा ‘मुड़ मुड़के देखता हूं’ में राजेन्द्र यादव चेखव के नाटक ‘तीन बहनें’ का एक संवाद उद्धृत करते हुए लिखते हैं – ‘काश, जो कुछ हमने जिया है, वह सिर्फ ज़िन्दगी का रफ-ड्राफ्ट होता और इसे फेयर करने का एक अवसर हमें और मिलता!’ हालांकि राजेन्द्र यादव ने यह संवाद भाषा महात्म्य और शुचिता को लेकर बवाल मचाने वालों की खिंचाई करते हुए कोट किया था. लेकिन यह संवाद अपने अंतिम दिनों में मनोहर श्याम जोशी के मन की उथलपुथल बयां करने में बेहद सटीक नज़र आता है. जब उन जैसा आइडिया गुरू अपने तमाम आधे-अधूरे उपन्यासों पर बेतरतीब ढंग से एक साथ काम करने बैठ जाता है। ऐसा करके अपनी ज़िन्दगी का कौन सा रफ-ड्राफ्ट फेयर करने लग गए थे मनोहर श्याम जोशी? क्या हिंदी के लोकप्रिय लेखक और फिर एक सफल पटकथा लेखक के तौर पर मिली सफलता और पहचान के बावजूद उनके मन का कोई कोना खाली रह गया था जिसे वे जल्द से जल्द भर लेना चाहते थे? पछतावा उन्हें बेशक अपने किसी निर्णय का न रहा हो पर क्या धारावाहिक लेखन में मिल रही नाकामी उन्हें वापस साहित्य की ओर मोड़ रही थी या फिर उन्होंने आखिरकार समझ लिया था कि उन्हें क्या करना चाहिए? लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी? अगर यह सही है तो बेहद मारक है, क्योंकि जब हमें पता चले कि दरअसल अब आगे क्या करना क्या है, ठीक उसी वक्त… सारा वक्त हथेली से रेत की तरह फिसल जाए… तो यह सबसे बड़ी ट्रेजेडी है।

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

शिरीष खरे की किताब ‘नदी सिंदूरी’ की समीक्षा

शिरीष खरे के कहानी संग्रह ‘नदी सिंदूरी’ की कहानियाँ जैसे इस बात की याद दिलाती …

2 comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *