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किन्नौर- स्पीति घाटी : एक यात्रा-संस्मरण

कमलेश पाण्डेय वैसे व्यंग्यकार हैं लेकिन यात्रा इनका जुनून है। इनका यह यात्रा संस्मरण पढ़िए- मॉडरेटर

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पहाड़ आमतौर पर बड़े मनोरम जगह होते हैं. ख़ास कर उनके लिए जो वहां घूमने –फिरने जाते हैं. उनके पास खूब सारे गर्म कपडे और गर्म खाना-पीना होता है. साथ ही जलेबी जैसी सडकों पर सलीके से चलने वाली ड्राइवर युक्त आरामदेह गाड़ी भी होती है और होता है खूब सारा रसूख और पैसा, जिनकी मदद से दुर्गम से दुर्गम पहाड़ों में भी हर किस्म का रास्ता निकल आता है. यही पहाड़ उन लोगों के लिए भी मनोरम ही होते हैं जिनके पास मुग्ध होने के लिए एक जोडी आँखें और संजो लेने के लिए कैमरे की लेंस होती है और होता है प्रकृति को सराहने का भरपूर जज्बा. ये लोग थोड़ी-बहुत सहूलियतें जुटा कर उन मुश्किल राहों पर निकल पड़ते हैं जिन पर एक ऎसी यात्रा संपन्न हो जिसका संस्मरण लिखा जा सके.

जानते बूझते दुनिया की सबसे विकट सड़कों में से एक से होते हुए इतनी ऊँचाई पर चढ़ते जाना कि फेफड़े ऑक्सीजन मांगने लगें, ठीक-ठाक मात्रा में सनक की मांग करता है. उस पर भी आप की जिद हो कि इन उंचाईयों को आप अपने परिवार के साथ ही लांघेंगे, तब ये संदेह हो सकता है कि आप व्यंग्यकार हैं और कुछ भी सोच, लिख और कर सकने का माद्दा रखते हैं. पर यहाँ स्पष्ट कर दूं कि किन्नौर और स्पीती की यात्रा प्रकृति से एक बेहद आत्मीय साक्षात्कार होने के अलावा आपको उफ़ कहने को मज़बूर न कर एक शांत-चित्त सी अनुभूति या कहें तृप्ति देती है. यहाँ प्रकृति के उतार चढाओं की विसंगति भी एकदम संगति में है. नज़ारा ऐसा है कि व्यंग्यकार कवि हो जाए, सहज संभाव्य है.

यहाँ पहुँचने और होने के दौरान रास्तों की दुरुहता से चाहें तो जीवन दर्शन के सबक लें, पर ये तय है कि ढेर सारी सकारात्मक प्रवृत्ति और एडवेंचर की सनक की हद तक ललक के बिना ये यात्रा नहीं की जा सकती.  इस यात्रा में आप धरती की अंदरूनी करवटों से चरमराते पहाड़ों के उठान-ढलानों पर रेंगती सड़कों को पहाड़ों से ही एकाकार देख खुद को पहाड़ों की गोद में खेलता महसूस करेंगे. कभी नीले झक्क आकाश में उजले बादलों के साथ खेलते सूरज को हैरत से देखेंगे कि यही बादल आपके शहर में आपको यों रोमांचित क्यों नहीं करते.  या फिर अपनी दीवार पर टंगी महँगी लैंडस्केप पेंटिंग के लाखों संस्करण वहां एकदम मुफ्त आंखों के आगे बिछे देख आप कुदरत के गतिमान रंगों के पैटर्न को सुकून से निहारते –क्लिक करते वक़्त बिताते सोचेंगे कि क्या ये वही आप हैं जो अपनी रूटीन ज़िन्दगी में कैसे बौखलाए-से वक्त को पकड़ने की जिद में खुद भी भागते रहते हैं. आप इस दार्शनिक उलझन में पड़ जायेंगे कि क्या ज़िन्दगी को भी प्रकृति की दुरूह -सी मगर खूबसूरत उठानों-ढलानों की तरह समन्वित कर नहीं जिया जा सकता? किन्नौर के रास्तों पर ये कोई जीवन दर्शन नहीं बल्कि क्रूर सत्य है जहां हर कुछ दूर पर बोर्ड घोषणा करते रहते हैं कि सावधान आगे सडक बेहद ख़राब है और ऊपर से पत्थर गिरते हैं (अब देख लो जी, आगे जाना है या..). और वाकई गिरते हैं. कई बार तो पूरी की पूरी सडक ऊपर से नीचे पसर आये पहाड़ की ज़द में आ जाती है और नदियों की तरह सडक को भी रास्ता बदलना पड़ता है.

गुरुत्वाकर्ष्ण के मारे भारी पत्थरों ने कई बार हमारा भी रास्ता रोका, पर सीमा सडक संगठन (बी आर ओ) को सलाम जिनकी मशीने तुरंत रास्ता साफ़ करने के काम में जुट जातीं. यहाँ ‘हम’ मेरा छोटा सा परिवार है – मैं श्रीमतीजी और हमारा युवा बेटा, जिसने हमें किन्नौर और लाहौल स्पीती की यात्रा करने को उकसाया है. हम एक गाड़ी जिसे एस यू वी कहने का चलन है, पर सवार हैं जिसको अशोक नाम का पूर्ण  सकारात्मक वृत्ति वाला हंसमुख आदमी चला रहा है. हम कुछ उत्तेजित से हैं क्योंकि रामपुर बुशहर पीछे छोड़ते ही बदलती दृश्यावली  से हिमालय की सबसे ऊंची वादियों में तीन पर्वत-श्रृंखलाओं से घिरी खूबसूरत घाटियों में बसे किन्नौर की गंध आने लगी है, जो सपनों में बसने वाले किसी गाँव जैसा होगा ऎसी आशा जगा रहा है. इस उम्मीद में महादेव शिव के दर्शन भी शामिल हैं जो यहीं किन्नर-कैलाश की चोटी पर विराजे हैं.

जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे हैं, ढलान से जैसे कदम दर कदम उतरती हरियाली, चमकीले छप्परों से आभासित होते नन्हें-नन्हें गाँव, दुनिया के सर्वश्रेष्ठ सेबों के बागीचे और सीढीनुमा खेत दिखने लगे हैं. उसे बादल नीले आकाश से कभी भालू तो कभी खरगोश बन कर बर्फीली चोटियों के कन्धों पर कूदते दिखाई देते हैं. हालांकि स्वभाववश मुझे ये बिम्ब ठीक लगता है कि वे बादल चोटियों पर यूं ही अलसाए से लदे हैं. जून के महीने में एक ठंढा मीठा अहसास फैला है. स्वर्ग के कई रूप हैं हमारी धरती पर, पर वहां तक पहुँचने के रास्ते भी उतने ही कठिन. एक दम शास्त्रों में बताये गए जैसे.

सतलुज, बसपा और स्पीती नदियों की ये घाटियाँ अपनी बनावट में अनोखी हैं. बर्फीले रेगिस्तान का हिस्सा होते हुए भी इनमें हरियाली और नरमी का आभास होता है. तीनों नदियाँ पहाड़ों की चट्टानों और भुरभुरी मिट्टी को चीरती मटमैली होती हुई सांप की चाल से नीचे उतरती हैं. आदमी ने जहां तहां इन्हें बाँध कर इनके बल निकालने की कोशिश की है. पर रुकती कहाँ है नदी. सलीके से पहाड़ों को तराशती है. आदमी की प्रकृति से उलट, जो अपना रास्ता बनाने के लिए बारूद से उड़ाता है. बारूद की ये धमक पहाड़ की छातियों में बस जाती है, उसे रह-रह कर स्खलित करती.

किन्नौर की ऊँची चोटियों को गर्दन उचका कर देखने का आनंद और आतंक एक साथ मन में लिए हम खुद को दुनिया की सबसे धोखेबाज़ (treacherous) सडक बताने वाले रास्ते से होते दस घंटों में शिमला से सांगला पहुंचे तो शाम ढल रही थी. किन्नौर की इस ख़ूबसूरत घाटी को घेरे खड़े पहाड़ों पर रौशनी और छाया का परम्परागत खेल चल रहा था. ये रोमांच किन्नौर की धरती पर होने भर से इस नाम से जुड़े तिलिस्म का भी था. हमें इस पौराणिक तथ्य कि इस जादुई सौन्दर्य वाली धरती के निवासी महाभारत कालीन किन्नौर में पांडवों को अज्ञातवास के सबसे रोमांटिक दौर में शरण देने वालों के वंशज बसे हुए हैं, के अलावा ये भौगोलिक तथ्य भी रोमांचित करता रहा कि भारत से तिब्बत जाने वाले इस ऐतिहासिक मार्ग पर हाल तक सैलानियों के लिए परमिट लेना अनिवार्य था. रामपुर बुशहर से आगे चलते ही नज़ारे बदल गए थे. वांगतू पुल से किन्नौर जिले की सीमा शुरू होती है तो वहीँ करछम में बसपा का सतलुज में विलय होता है.

आगे बसपा नदी के साथ-साथ सांगला की चढ़ाई. ढाई हज़ार मीटर की औसत ऊंचाई और इतनी हरियाली. स्वच्छ चमकते नीले आकाश से नज़रें हिमशिखरों पर टिकतीं और घाटी में बहती नदी से मिलने को इठलाती हुई उतरती पतली-पतली धाराओं के साथ खुद भी उतर जातीं. इस प्राकृतिक सौन्दर्य का कहाँ तक बखान हो. बस समझ लें आँखें निर्मल हो जाती हैं. किन्नौरी स्त्रियों का सौन्दर्य भी मशहूर है, पारंपरिक परिधान में एक ख़ास तरह की टोपी और तीखे नाक-नखश से अलग ही पहचानी जाती हैं. सांगला से 14 किमी दूर रक्छम तक धूल-धूसरित टूटी सड़कों से उलझते चलने में वक़्त इतना लगा कि अँधेरा हो गया. उसपर बूंदा-बांदी भी शुरू. टिमटिमाती रौशनी में घाटी के विस्तार का अंदाजा लगाते बसपा नदी ही हहराती धारा की गूँज में लोरी सा सुनते बेहद थके हुए हम सो गए. सुबह आँख खुली तो बाहर दिख रहे नज़ारे ने कल की हाड-तोड़ यात्रा का मकसद एकदम समझा दिया. पहाड़ों को तराश कर बनाई गई डरावनी सुरंगनुमा सड़कों पर से गुजरते हुए गाडी की ह्चक के साथ आपकी चूलें भी हिलती चलती हैं पर सडक से नज़र हटा कर  नजारों पर ले जाओ तो आँखें वहीँ थमी  रह जाती हैं. बस्पा नदी ने दोनों ओर आसमान छूती चोटियों को भरसक हरे दुशाले उढा रखे थे. बर्फीली चोटियों से ऊंचे देवदार के पेड़ों की ढलान पर फिसलती हरियाली नन्हीं-नन्ही धाराओं में बंट कर पत्थरों पर शरारती बच्चे सी उछलती नदी प्रकृति की एक नायाब कलाकृति थी. दृश्यों के बारे में लिखते हुए दोहराव ज़ुरूर महसूस हो सकता है पर वहां उन्हीं पहाड़, झरने, नदियों और एक शीतल तृप्तिकारी अनुभूति में प्रतिपल एक नयापन था.

यहाँ से ज़रा और ऊपर छितकुल देख हम देखते ही रह गए. ये एक घाटी का ‘पिक्चर-परफेक्ट’ था, जहां प्राकृतिक सौन्दर्य के सभी उपकरणों को इतनी दक्षता और परिपूर्णता से संयोजित किया गया था कि वास्तविक होने पर संदेह हो जाए. यों सैलानी इसे भारत का स्वीटज़रलैंड भी कह लेते हैं, पर ऐसी अफ़वाह अपने यहाँ  कई जगहों के बारे में है. मैं कभी स्वीटज़रलैंड गया तो देख समझ कर उसे यूरोप का छितकुल कह लूंगा. ये जगह आकाश छूते पहाड़ों की गोद में तिब्बत सीमा पर हमारे देश का नन्हा सा आखिरी गाँव है. नदी, पर्वत और आकाश के अनंत विस्तारों के बीच आदमी की जीवट भरी उपस्थिति का प्रतीक. अगले कुछ घंटे हमने इस उहापोह में बिताया कि इस जगह पर किस-किस कोण से फोटोग्राफी की जाय. जिधर कैमरा घुमाते, लेंस उसी फ्रेम को चूम लेता. आखिर हमने उसे खुली छूट दे दी. अब तक कुछ थकी और ज़रा उदासीन सी श्रीमतीजी भी मोबाईल से अपनी फोटोग्राफी के पैतरे आजमाने लगीं. सेल्फियों के तो ढेर लग गए.

पत्थरों पर बस्पा की छलछलाती धारा के साथ, पीछे घाटी के लम्बे विस्तार को रख कर, छितकुल के स्कूल और इमारतों को पहाड़ों की पृष्ठभूमि सहित और नीले कनवास पर दूधिया बादलों के बेतरतीब पैटर्न. छितकुल मन के अलबम में कई पन्ने घेर कर बैठ गया. करछम तक दुबारा उसी रास्ते लौटते हुए दोहराव का कोई अहसास नहीं था, सिवा इस तथ्य के कि रास्ता बेहद ख़राब था. हमारी गाड़ी भी घाटी में नदी की चाल सी उछलती कूदती चली. कुछ बीसेक किलोमीटर चलने के बाद सड़क अचानक एकदम चिकनी हो गई तो भारतीय परम्परा के अनुसार हम समझ गए कि किन्नौर का मुख्य शहर रिकांग-पियो आ गया है. मुख्य चौराहे पर हमारी आँखों और फिर कैमरे को एक अद्भुत दृश्य-फ्रेम दिखा. विशाल लहराते तिरंगे को अपनी गर्वीली पृष्ठभूमि दे रही थी किन्नर कैलाश की भव्य पर्वत श्रेणी. गुनगुनी सी धूप, ठंढी बयार, विश्व की सबसे उन्नत प्रजाति के सेबों के पेड़ों की हरियाली और ऊपर-ऊपर को चढ़ता जाता शहर . हम कुछ पल रुक कर इस शहर को महसूस करने को बाज़ार में घुसे. एक रेस्तोरां में स्थानीय लोगों के साथ नूडल्स, थुक्पा और मोमोज़ खाए. किन्नौर के लोगों के साथ चलने बैठने भर में भी एक ताज़गी और नयापन था.

फिर पन्द्रह किलोमीटर ऊपर चढ़ते चले गए. जहां पहुंचे, वहां किन्नर कैलाश के नाटकीय ढंग से एक दम रू-ब-रू आ खड़े होने का अहसास था. कल्पा सचमुच कल्पनातीत-सा है. इतनी ऊंचाई पर सेब के बगीचों के बीच एक विशाल पर्वत श्रृखला पर बादलों की लुकाछिपी देख पाने का मौक़ा बस यहीं संभव है. कल्पा की शाम धीरे धीरे धुंधलाते किन्नर कैलाश की चोटियों के साथ, बूंदा-बांदी के बीच, पतली सी नहर के साथ टहलते या कंपकंपाती हवा में गम पकौड़े खाते बीती. हाँ, यहाँ एक शांत सा बौद्ध विहार भी था, जहाँ किन्नर  कैलाश से होकर आती ठंढी  हवाएं सरगोशी कर रही थीं. कल्पा में झीनी-झीनी फुहारें गाहे-बगाहे आकर आपको भिगो देती हैं. मालूम हुआ कि साल के छः महीने बर्फ भी यहाँ इसी अंदाज़ में गिरती है. अपनी कल्पना को कि ये घाटी सफ़ेद चादर ओढ़ कर कैसी दिखती होगी, हम होटल की दीवारों पर लगी तस्वीरों में ही देख पाये. शाम ढले अपने होटल में हमें कुछ परिचित आवाजें सुनाई दीं. ये बंगला भाषी पर्यटक थे जो मुझे किन्नौर में भी उसी तरह मिले जैसे घूमने योग्य किसी भी जगह पर अनिवार्य रूप से मिलते रहे हैं. मालूम हुआ कि किन्नौर में आने वाले पर्यटकों में सबसे बड़ी संख्या इन्हीं की है. सो जब-तब कान में ‘कोलपा’ शब्द गूंजता और मुझे कल्पा को ‘कोल्पाता’ कहने का मन करता.

अब  आगे क्या? किन्नौर से स्पीती घाटी की ओर – और क्या? रुडयार्ड किपलिंग ने कुछ ऐसा कहा था कि यहाँ निश्चित ही देवताओं का वास है, आदमी का नहीं. साधे बारह हज़ार फीट की औसत ऊंचाई पर पहाड़ों के ऊंचे नीचे कनवास पर पिघलती बर्फ की धाराओं और नदियों द्वारा उकेरी गई कल्पनातीत आकृतियों से बनी घाटी- जहां दूर-दूर तक नज़र जिधर पड़े एक अनोखी दुनिया से साक्षात्कार करती है. अविश्वसनीय ऊंचाईयों पर बसे गाँव जिनमें गिनती के सफ़ेद गेरुआ रंग के मिट्टी के घर बादलों से बातें करते लगें. दुनिया की सबसे दुर्दांत सर्दियां झेलने वाला ये आबाद इलाका हमें ज़रा सी ही मुहलत देता है कि इसके उलझे पुलझे रास्तों से होते हुए आखिर स्पीती नदी की ऊँगली पकड़ साथ-साथ चलते काजा पहुँच जाएँ, वरना छह माह  तो सब कुछ सफ़ेद बर्फ से ढका होता है. और ये नदी भी कैसी गंभीर चित्रकार है जो धरती पर दोनों और अपनी चोटियों पर सफेदी सी पोते खड़े पहाड़ों से बह कर आती धाराओं को जज़्ब करती खुद भी कई धाराओं में बंटती घाटियों में अनोखे पैटर्न उकेरती चली है. दूसरी नदियों के मुकाबले कुछ शांत, अपने आसपास हरियाली के धब्बे छोडती.

किन्नौर की आखिरी ऊँचाई से उतरने से पहले हमने फिर जन्नत-सा एक जहां देखा. घंटों सतलुज के साथ पहाड़ों को तराश कर बनाई गई छतरी नुमा सड़कों के सहारे बढ़ते हुए एक विन्दु से जैसे एकदम ऊपर चढ़ते चले गए और अब तक गर्दन उचका कर देखे जाते रहे पहाड़ों के बराबर पहुँच गए. ये सड़कें साफ़-चिकने पहाड़ों पर काले सांप सी लिपटी नज़र आती थीं.

 इस मौसम में बर्फ तो चोटियों पर ही दिखती थी मगर नीचे तलहटी तक पिघलती बर्फ के निशाँ पहाड़ों को बड़ी ही नाटकीय आकृति दे रहे थे. नाको की 3662 फीट की ऊंचाई इस ऊंचे नीचे विस्तार को दम साध के देखने का मौक़ा देती है. एक खूबसूरत-सी झील और सूना-सा पर बेहद सुन्दर बौद्ध मठ भी धरती पर इस सबसे अधिक ऊंचाई पर बसे सबसे बड़े गाँव नाको में हैं. फोटोग्राफरों के सबसे प्रिय फ्रेमों में से एक- झील में पहाड़, हरियाली और बादलों का प्रतिबिम्ब पकड़ने की कोशिश में कुछ वक़्त लगा.

फिर गर्म-गर्म थुपका खाते हुए एकदम मन हुआ कि आज यहीं रुक जाएँ. पर कहाँ रुक रुक पाता है आदमी अपने मनचाहे पडावों पर. हम शाम ढले काजा पहुँचने की रेस में लग गए. स्पीती घाटी अपने नाम की नदी के साथ-साथ चली. शहरों के बीहड़ से कितना अलग था ये अजीब सी आकृतियों से रचा संसार, जहां दूर तक बस हम ही हम थे इसे ऊंचे विस्तार में.

काजा में हलकी बूंदा बांदी और ठंढी तेज़ हवाओं के बीच हमने अपने कमरे की खिडकी खोली तो कुछ दूर ही बर्फीली चोटियों पर बैठे बादलों के पीछे से सूरज अपनी सुनहरी किरणों का अद्भुत नज़ारा रचे हुए था. इन ईश्वरीय किरणों (गॉड रेज़) को अपनी शादी की पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर प्रकृति का तोहफा मानकर हमने उसी खुली खिडकी के पास केक, वाइन और पकौड़ों के साथ जश्न मनाया.

थोड़ी ही देर में आकाश जगमगाते तारों से भर गया. हम इस सजीव स्वप्नलोक से फिसलकर नींद की आगोश में चले.

बारह हज़ार फीट की औसत ऊंचाई पर बहती स्पीती नदी के सुन्दर से किनारे पर बसा काजा स्पीती का मुख्य शहर है जहां एक और तिब्बती बौद्ध धर्म व् संस्कृति की झलक है तो दूसरी और हिमाचल सरकार के प्रशासनिक अंगों से नियंत्रित छोटा-सा नगरीय परिवेश. ढेरों होटल व् रेस्तोरां, पतली-सी टेढ़ी-मेढ़ी गलियों के दोनों ओर एक नन्हा सा बाज़ार भी. अगली सुबह के लक्ष्य स्पीती के दो ख़ास विन्दु- ‘की’ और ‘किब्बर’ थे. नदी फिर साथ हो ली. इस बार वो अनगिनत धाराओं में बंटी खूब चौड़ी थी. चोटियाँ सफ़ेद थीं पर पहाड़ों के कंधे और बाजू धूप-छाँव के साथ, अगर पहाड़ क्षमा करें तो कहूँ कि, किसी नेता की तरह  रंग बदल रहे थे.

किब्बर गाँव के वासियों को एक फर्शी सलाम बनता है. वैसे भी जिस हैरत में डालने वाली साढ़े चार हज़ार मीटर की ऊंचाई पर उनका गाँव है, उनके मुकाबले हम हमेशा ज़मीन चूमते ही नज़र आयें. यहाँ ऐसा लगा मानों पूरा गाँव छत से जा लगा हो. सफेद गेरुआ तिब्बती शैली में  रंगे मिटटी के घर, जिनकी छत पर एक और छत आसमान का. बादल ठीक ऊपर बैठे. किब्बर वासियों को नमस्कार करते, जवाब लेते हम आगे बढे. आसपास हर संभव आकृति के टीले, दो पहाड़ों के बीच दर्रेनुमा रास्ते थे. कहीं हरियाली, कहीं मटमैला-पीला सपाट विस्तार. ऎसी अनोखी भूमि हमने तो नहीं देखी थी कहीं. ये लद्दाख के रेतीले रेगिस्तानों से अलग था. किब्बर से हम कुछ और आगे तक गए और लगा जैसे धरती यहाँ ख़त्म हो गई. सुदूर आगे तिब्बत की सीमा थी. एक ऊँचे टीले से हमने पूरे इलाके का जायजा लिया. तस्वीरें लीं और पीछे लौटे. और कर भी क्या सकते थे. साँसें यों भी थमी ह्हुई थीं, ऑक्सीजन अलग से कम था.

साढ़े तेरह हज़ार फीट की ऊंचाई पर एक शंखनुमा चट्टान पर कोई आठ सौ साल पुराना ‘की’ बौद्ध मठ अपनी आकृति और अवस्थिति में इतना अनूठा है कि हम कुछ देर आँखे फाड़ देखते रहे कि क्या ये वाकई वहां है. नदी के साथ चलते रस्ते से ऊपर चढ़ते हुए ये तब तक नहीं दिखाई पड़ता जब तक इसका पूरा आकार सामने न आ जाए. महायान बौद्ध के जेलूपा संप्रदाय से संबंधित ये मठ काष्ठ और मिट्टी से बनी एक बहुमंजिला इमारत है, जिसके परकोटों से स्पीती घाटी का बहुत ही सुन्दर विस्तार दिखाई पड़ता है. ऊपरी मंजिल पर बौद्ध भिक्षु हमें एक अँधेरे से कमरे में ले गए पर पीटने के इरादे से नहीं अपने अहिंसक मिज़ाज के अनुरूप बल्कि स्वादिष्ट चाय पिलाने के लिए. हमने इस जगह के इतिहास के सन्दर्भ याद करते हुए अलग अलग कालों और मौसमों में इसके स्वरूप की कल्पना की और सर खुजा कर रह गए. हज़ारों साल पुराने हस्तलिखित दस्तावेजों और कुछ हथियारों का संग्रह देखा तो संकरी सीढियों से उतरते-चढ़ते कुछ ठोकरें भी खाईं. दरवाज़े मेरे सवा छः फुट लम्बे बेटे के सीने तक ही आते थे. एक न भुलाने वाला अनुभव लेकर हम नीचे उतरे और काजा की ओर लौटे. रास्ते में कुछ जाबांज सैलानियों के झुण्ड मिले, कुछ हमारी तरह गाड़ियों पर, अधिकतर मोटर-साईकिलों पर तो कुछेक पैदल भी. ये दस किलोमीटर वाकई पैदल चला जा सके तो स्पीती के सबसे सुन्दर रास्ते का पूरा लुल्फ़ लिया जा सकता है. काजा से ज़रा पहले जहां से ‘कुंजुम दर्रे’ का रास्ता स्पीती पर बने पुल से होकर अलग हो जाता है, नदी अपने पूरे शबाब पर नज़र आती है. पहाड़ बादलों की छांह में रंग बदलते, नदी की धाराएं किसी विराट कैनवास पर ब्रश से कई रंगों के स्ट्रोक्स जैसी दिखती है. सैलानी खामख्वाह कवि बनते रहते हैं. आज भी हमें अपनी यात्रा के कुछ बेहद सुन्दर तस्वीरें मिलीं.

आज छत से अपने कैमरे में तारों का नज़ारा कैद करना था. रात गहराते ही पूरा आकाश जैसे किसी प्लेनेटोरियम जैसा हो गया. दिल्ली में तो जैसे ये नज़र ही नहीं आते. यहाँ छिटके फिर रहे थे. ठंढ खुली छत पर हावी होने लगी. दो एक बूंदे पड़ीं तो हम भागे.

अगली सुबह वापसी की यात्रा शुरू की. अभी स्पीती में हमारी एक रात और बाक़ी थी. स्पीती घाटी में एक ख़ास पर्यटन स्थल  ‘ताबो’, जहां बौद्ध धर्म के प्राचीनतम मठों में से एक है. पर पहले धनकड़ का बखान सुनिए.

स्पीती में महीनों बर्फ से ढंके रहने वाले पहाड़ों की बाहरी संरचना एक अलग ही परिदृश्य रच देते हैं, पर धनकड़ पहुँचते ही ऐसा लगता है मानों यहाँ विशालकाय दीमकों ने अपने बड़े-बड़े भीत बना रखे हों. भुरभुरी पीली मिटटी की ये आकृतियाँ बर्फीले रेगिस्तानों में खूब मिलती हैं. यहाँ स्पीती और पीन नदी के संगम पर कोई हज़ार फुट की ऊंचाई पर ऎसी ही भीतों के समूह पर एक कोने में लकड़ी और मिटटी से बना एक बेहद पुराना बौद्ध मठ है. संकरे रास्तों से होकर इसमें प्रवेश करते हुए डर सा लगता है कि कहीं ये समूची की समूची संरचना ढह न जाय. पर ये तो सदियों से यूं ही खडा है, छीज जरुर रहा है. हम बेहद संकरी सीढियों से ऊपर गुफओं जैसे कमरों में जैसे सरक कर घुसे. और ऊपर एक कोने से डरते-डरते बाहर झांका तो कुछ कल्पनातीत दृश्य दिखे. घाटी यहाँ अपनी सम्पूर्णता में नज़र आती है – एक ही दृश्य संयोजन में बर्फीली चोटियों वाले पहाड़ की तलहटी में पसरती सी नदियाँ, मिट्टी के भीतों से घिरे सीढीनुमा हरियाले खेत और रौशनी और छाँव से चिन्हांकित उठान और ढलान – जैसे किसी चित्रकार की अंतिम कल्पना हो. हमने यहाँ भी जिस किसी कोण से क्लिक किया विस्मयकारी परिणाम आये.

स्पीती घाटी का अगला पड़ाव ताबो भी अपनी प्राकृतिक संरचना में अनोखा था. एक बड़े कटोरे-सा भूखंड इक्कीस हज़ार फुट की ऊंचाई पर, एक छोटी सी झील विशाल समतल हरियाली के टुकडे के बीच. सडक की दूसरी और पहाड़ों की गोद में प्राकृतिक गुफाएं, जिनतक पहुंचकर हमने ताबो को स्पीती के एक ‘पिक्चर-परफेक्ट’ गाँव के रूप में देखा. यहाँ का सबसे विशिष्ट आकर्षण ताबो  का बौद्ध मठ है. बौध धर्मावलम्बियों के लिए तिब्बत जैसी महत्ता रखने वाला ये मठ 996 ई. से यहाँ अपनी पूरी प्राचीन मौलिकता के साथ खडा है. मिटटी से लिपे मिट्टी के ही स्तूप, और प्राचीन ग्रंथों का एक संग्रहालय. एक नया रंगबिरंगा मठ भी जिसकी पृष्ठभूमि में जैसे सोने का एक हार पहने एक पहाड़. ढलती धूप में इस पहाड़ के गले पर टिके पीली मिटटी के वलय को चमकता देख यही उपमा सूझी थी.

सुबह स्पीती घाटी से विदा लेने का वक़्त आ गया. लौटते नजारों को जी भर देखते हम एक विन्दु से फिर ऊंचाई पर चढ़ने लगे. ‘मेलिंग नाला’ दोबारा मिला तो वापसी का अहसास गहराने लगा. एक गरजते झरने को पार कर हम फिर किन्नौर की कुख्यात सड़कों पर हिचकोले खाते नजर आये. आगे एक तेज़ रफ़्तार वापसी की. आखिर एक और रात सराहन में ,जो भीमाकाली माता का आसन है, बिता कर सात घंटे की यात्रा में नारकंडा जैसे ठौरों पर आडू, खुबानी आदि खरीदते मज़े-मज़े में चलते हुए शिमला लौटे. हैरान हुए कि अचानक कितनी भीड़ में आ फंसे हैं हम. पर्यटन का सीजन पूरे शबाब पर था. पहाड़ों पर आये लोग, शिमला तक आकर रुक जाते हैं. यहाँ सारी सुविधाएं हैं, होटल, मॉल और खूबसूरत  मौसम भी. पर किन्नौर और स्पीती से लौट कर ये सपनों की जगह हमें बेतरह अघाई, फंसी हुई और ऊबती सी लगी. सड़कों पर गाड़ियों के लम्बे जामों का क्या कहें, अपर लोअर सभी माल रोड पर जहाँ वाहनों की आवाजाही मना है, इंसानों तक का जाम लगा था. कंधे से कंधा रगड़े बिना चलना मुहाल.

देर शाम हम बस से दिल्ली रवाना हुए तो शिमला छोड़ते ही एक लम्बे ट्रैफिक जाम में फंसे. फिर बड़ी याद  आयी स्पीती की उन सड़कों की जो पीछे मुड़ कर भी देखी जा सकती थीं और अक्सर मीलों उनपर हमारे सिवा कोई नहीं होता था.

 

 

 

 
      

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