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रानी एही चौतरा पर

लेखक राकेश तिवारी का यात्रा वृत्तांत ‘पवन ऐसा डोले’ रश्मि प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। प्रस्तुत है उसी का एक अंश- मॉडरेटर
रानी एही चौतरा पर
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अगले दिन सोन पार उतर कर अगोरी की ओर डोल गये। ऊँचे सिंहद्वार पर सिंहवाहिनी दुर्गा। भीतर, जहाँ-तहाँ बढ़ चले झाड़-गाछ-लतरें, ढही दीवारें, छितरी ईंटें, आगारों की ध्वस्त छतें और तिलिस्मी खजाने की खोज में पास-पड़ोसियों द्वारा फर्श पर खने गये गड़हे। इनके बीच रास्ता बनाते पश्चिमी सिरे की अधगिरी दीवार के सहारे बची रह गयी छत पर जा बैठे।
पीछे किले की दीवार से सोन तट तक को छूती चापाकार पर्वत श्रेणी, अगले सिरे से सटे सोन के सुनहरे पाट पर सजी चमकीली धारा, ओ पार गहरी हरियाली के बीच फूली पीली सरसों।
कुछ गयार-भैंसवार टहलते हुए किले के भीतर आये। एक काली बड़ी नाव से सवारियाँ उतरती रहीं। उतराई का पैसा ना चुका पाने वाले और सिर पर जलावन धरे औरतें पंजिया हेल कर नदी पार करती दिखीं। एक बगल ऊँटों की कतार।
बगल से गुजरे लंबे, खासे कढ़े, मजबूत, पतली मूँछ वाले गयार ने बरबस हमारा ध्यान खींचा। लंबी खुली कमीज और घुटनों तक चढ़ी धोती में बड़ा जँच रहा था। टूटे कंगूरों पर चढ़ा, ढही प्राचीरों से उतरा, गिरते-गिरते लड़खड़ा कर सँभला। फिर, बीच के बड़े चौतरे पर पसर कर मुक्त भाव से अलापने लगा,  ‘रानी एही चौतरा पै बैठल रहलीं ना- ऽ-ऽ-ऽ-ऽ-ऽ-ऽ-ऽ…।’
थोड़ी ही देर में एक और फक्कड़ जवान ‘रूदन खरवार’ भी वहाँ  आ जुटा। चुटकी भर तमाखू होंठों में दबा कर पूरब दिशा में खेतों में बिखरे प्रस्तर-पट्टों  की ओर अँगुली उठा कर बताने लगा-
‘सामने के खंडहर की जगह कभी ‘महरा’ की बखरी रही। एतना धनी, बली ओ  समरथ कि अकेले अगोरी-राज बरब्बर।
एक बारी राजा अगोरी अपने राज में टहरै बदे निकरलन। ‘महरा’ अपनी बखरी में सोना की चौकी पर जमल रहल, राजा के ओरी देखबौ न कईलस। राजा दू-एक बार खंखारलस तब्बौ नाहीं। राजा ने महल में लौट कर सिपाही भेज कर ‘महरा’ के बुलाय कै कौड़ी खेलै के दाँव फेंकलस – हम दुन्नो हई बरब्बर बकी राजा तो एक्के रही दुन्नो में से, जे जीतै, ओही रहै। ‘महरा’ मान गइल। राजा बिराजै राजगद्दी पै, ओ ‘महरा’ कथरी पर।  कौड़ी फेंकावै लागल खड़ाभड़। घोड़ा-घुड़शाल, हाथी-हथिसार, घटिहटा गाँव, अगोरी पाल, किला-दरबार, राजा की गद्दी। एक पै एक, महरा कुल जीततै गईल। राजा कान पकरि के निच्चे ओ ‘महरा’ चढ़ल सिंहासन उप्पर।
राजा मुँह लटकाये बन में चलल। राह में भेष रखवले बरह्मा मिल गइलन। राजा के लिलारे पै लिखल तुरतै बाँच के बतउलें – वापिस अगोरी जाओ, साहोकार से धन उधारी जुटा के फिर से कौड़ी खेलौ, राज-पाट वापिस पाय जउब्या।
अबकी ‘महरा’ सिंहासन पर ओ राजा कुश की कथरी पर। फिन फेंकावै लागल कौड़ी – घोड़ा-घुड़शाल, हाथी-हथिसार, घटिहटा  गाँव, अगोरी पाल,  किला-दरबार, राजा की गद्दी। एक पै एक, राजा जिततै चलल। सब जीत कै आखिरी दाँव में ‘महरिन’ कै कोखवौ ओकर हो गइल – लइका भया तो घुड़साल में सईस, ओ लइकी भई तो रनिवास में दासी।
महरिन के कोख से एक-एक कर छह कन्या जनमतै राजा के रनिवास गयीं। सतवीं कै जनमले दिग-दिगंत में परकास फैल गया, पहरन सोना बरसा। महरिन के कहे उसका भाई ‘सोबाचन’ नेग देवै बदे सेर भर सोना गँठियाय कै, नाल-छेदन बदे, नोना चमाइन के ली-आवै दौड़ल। बकी मौका लउक कै नोनवौ तमक गइल – सतवंती कन्या जनमल हौ पालकी-कहार ली आवा तब्बै चलब। वो भी आया, तो सोलह नाहीं बत्तीस सिंगार किये, चार-चार अंगुल पै सोना कै तार जड़ल चटकत दखिनिही साड़ी पहरि कै चलल। सतवंती कन्या जनमल रहल, सोना के कटारी से नाल कटल। राजा सुनलस तो इहौ कन्या के महल में ली आवै लपकल।’
महरिन ने बड़ा दु:ख पाया था, अब तक जनमते ही छह कन्याएँ छिन चुकी थीं। इस बार चातुरी बानी बोली – ‘इसे लेकर आप क्या करेंगे महाराज? माता का दूध पिलाया तो बहिन, बहिन का पिलाया तो भयनी, और, रानी का पिलाया तो पुत्री। फिर, आप इसका भोग कैसे करेंगे, महाराज? मेरा दूध पिएगी, तो जल्दी युवती हो जाएगी। किसी अहीर से ब्याह देंगे, हमारा धरम रह जाएगा। फिर, आप बलपूर्वक उसे अपने रनिवास में  रख लीजिएगा।’
ई बात राजा के जँच गइल।
कन्या के नाम धराइल ‘मँजरी’। दिन दूना, रात चौगुना बढ़ी। अनिन्न सुन्नरी निकरी। उसकी सुंदरता की खबर पंख लगाये चौतरफा उड़ चली। अगोरी के राजा ‘मुलागत’ ने सुना, तो उसे पाने को अकुलाया।
‘मँजरी’, जनम कै बिलक्षण। राजा को वारने को राजी नहीं और राजा से लड़कर उससे ब्याह करे, तो कौन? राजा से ठान कर धरती-आकाश-ओ-पाताल में रहत तो कहाँ?
ओहर ‘गौरा गाँव’ में रहा एगो अहीर, नाम धराइल रहल ‘लोरिक’। बेहिसाब साहस ओ ताकत कै धनी। जे ओसे टकराय ढहि जाय। एक बारी ‘सोन’ ओ लोरिक में ठन गइल। कंडाकोट पहाड़ से पाथल लाये कै लोरिका सोन कै धारा पाट देहेलस। आवाज लगाये, तो बादर थर्राए, कदम धरे धरती धमके, एक्कै परग में सोन छलाँग जाय।
लोरिका कै करतब मँजरी लै पहुँचल, तो मनै मन नेह जागल। साध उठल कि ओही से बियाह करब। लोरिका के पता चला, तो बारात लै के अगोरी आ धमकल, ओ तलवार कै दम पर डोला लेवाय गइल। केकर बल जो लोहा ले ओसे। बकी, मारकुंडी घाटी पार करते-करते मँजरी ने लोरिका की परीछा लेने की गरज से लोरिका को ललकारा कि सामने की चट्टान तलवार के एक्कै वार में काटा त जानी तोके? लोरिका की तलवार वज्र सी चली, चट्टान का एक हिस्सा गिर गया, दूसरा जस का तस रहा, दूर तक चिंगारी चटक गयी।
अब मँजरी ने दूसरी चुनौती रख दी- ऐसन कटे कि जस के तस खड़ी रहे।
लोरिका उहौ कै के देखाय देहलस।
दो फाँक कटल ऊ  चट्टान आजऊ  खड़ी बा उहाँ, लोरिका पाथल के नाम से पूजल जा ली। सीनुर फूटा ला ओसे। शादी के बाद सब दुलहिन ऊ  सीनुर माथे धरैं ली, लम्मा सुहाग बदे।’

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पवन ऐसा डोलै ( यात्रा-संस्मरण)
राकेश तिवारी
सहयोग राशि : 275 रुपये
ISBN : 978-93-87773-20-2
प्रकाशक
रश्मि प्रकाशन
204, सनशाइन अपार्टमेंट,
बी-3, बी-4, कृष्णा नगर, लखनऊ-226023

 
      

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