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वैशाली के आचार्य और एक मेघाच्छादित रात्रि की बात

गीताश्री आज कल हर सप्ताह वैशाली के भगनावशेषों में जाती हैं कथा का एक फूल चुनकर ले आती हैं। स्त्री-पुरुष सम्बंध, मन के द्वंद्व, कर्तव्य, अधिकार- परम्परा से अब तक क्या बदला है! इतिहास के झुटपुटे की कथा कहने की एक सुप्त हो चुकी परम्परा गीताश्री के हाथों जैसे पुनर्जीवन पा रही। आज नई कथा पढ़िए- मॉडरेटर

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गगन में घटाएं घिर आईं थीं। वर्षाकाल आया नहीं था फिर भी मेघों ने आकाश को ढंक दिया था। आचार्य दिव्य ने आकाश की तरफ सिर उठा कर देखा। वे किंचित चिंतित भी हुए। मेघों ने पृथ्वी को प्रकाशविहीन क्यों कर दिया। दिवस में ही रात्रि का आभास होने लगा था। सदानीरा के तट पर बैठे हुए गीले नेत्रों से उस पार देख रहे थे। दोनों कूल कभी मिल नहीं सकते, जल उन्हें जोड़ता है। अचानक घटाएं घहराने लगीं, बिजली कौंधी और दिवस में सांध्य बेला का भास होने लगा। आचार्य घबराए। जाने क्या होने वाला है। असमय बरसात की वे कल्पना नहीं कर पा रहे थे। हृदय में भयानक उथल-पुथल मची हुई थी। गहन चिंतन उन्हें झकझोर रहा था। वे लगातार सोच रहे थे – “आचार्य का पद स्वीकार करके उन्होंने खुद के साथ घोर अन्याय किया है। ये वैशाली के हित में भी नहीं है। वे इस पद के लायक नहीं हैं। वे अब राजसत्ता के नियमों और मर्यादाओं से बंध गए हैं। उनका जीवन पहले जैसा नहीं रहा।“

“आह ”… निकल गई मुंह से। झुक कर सदानीरा का जल अंजुरी में भरा और चेहरे पर झोंक दिया। ठंडी लहर दौड़ गई मन-प्राण में, नसों में। व्यग्रता थम ही नहीं रही थी। कुछ तो गलत हुआ है, बहुत गलत। जो नहीं होना चाहिए था। वे इस पद के लिए अपनी अभिलाषाओं, अपने प्रेम की बलि नहीं चढ़ा सकते। तो फिर…

उनके संवलाये -कुम्हलाए चेहरे पर नैराश्य का भाव उमड़ा। जैसे मेघ घुमड़ आए थे, नीले गगन में।

रास्ता क्या है।

इससे श्रेयस्कर होता कि मैं देवी दिव्या के वादक मंडली में शामिल रहता। कम से कम देवी की दृष्टिछाया तो मुझ पर बनी रहती। हर समय उनका सान्निध्य मिलता।

अपने आप से बातें करने लगे- “कितना भी कुछ और सोचना चाहूं तो नहीं सोच पाता हूं, चारों तरफ से देवी मेरे सम्मुख आ खड़ी होती है, मेरा मार्ग रोक कर खड़ी हो जाती हैं।“

अपनी दुर्बलता पर, अपनी असमर्थता पर क्रोध भी आ रहा था और झुंझलाहट भी हो रही थी।

आखिर इसमें देवी का क्या दोष है। न मेरा दोष न देवी का, दोष तो हैं केवल आचार्य बहुलाश्व का जिसने मुझे वैशाली में इसी दुविधा के लिए भेजा है। यहां आते ही देवी के दर्शन हुए और वे संयम खो बैठे। विस्मृत से होते जा रहे थे सब राजकाज। हा…आचार्य…आपने किस दुविधा में डाल दिया…?

आचार्य के प्रति मन में विकार आते ही खुद को वे धिक्कार उठे।

दुविधा से निकलने का मार्ग तो सूझ ही गया था। बस आज की रात ही है उनके पास। कल से जीवन बदल जाएगा। न खुद वही होंगे न देवी शिव्या मार्ग रोकेंगी। कल सबकुछ बदल जाएगा।

देवी का भी क्या दोष। जब वह खुद ही उनके लायक नहीं हैं। एक दिन उनके मन में आया था कि देवी के आगे प्रेम निवेदन कर ही दें। परंतु अगले ही क्षण वे सोचने लगे- क्या प्रेम भी याचना से मिल सकता है। और जब मैं उससे यह याचना करुंगा तो और देवी कह देंगी- जाओ, मैं तुम्हे प्रेम नहीं करती तो क्या होगा। क्या प्रेम याचना से मिल सकता है।

मन ही मन सोचने लगे- क्यों देवी ही उसके लिए सबकुछ बन गई हैं। क्या उनकी कृपा पाए बिना जीवित नहीं रहा जा सकता ?

मन में गहरा द्वंद्व चल रहा था।

“देवी के बिना जी तो रहा हूं, परंतु क्या इसी जीवन की कामना की थी मैंने जिसमें देवी का प्रेम न हो। ऐसा जीवन निस्सार है, धिक्कार है ऐसे जीवन पर, जिसमें प्रेम न मिल सके।“

अपने जीवन को धिक्कारते धिक्कारते थोड़ी ग्लानि का अनुभव भी हुआ। जिस वैशाली ने उन्हें इतना कुछ दिया, मान-सम्मान, पद –प्रतिष्ठा, सुख वैभव सबकुछ। क्या उस वैशाली के प्रति इतना उदासीन होना उचित है।

यह उदासीनता ही तो है कि वे सबसे विमुख होकर सदानीरा के तट पर बैठ कर अपने जीवन का सबसे कड़ा निर्णय ले चुके हैं। आचार्य उठे और झटपट अपने प्रसाद में पहुंचे जहां उनकी अर्द्धांगनी मंजरिका भोजन के लिए उनकी राह ताक रही थी। कुछ व्यग्र-सी, खिन्न-सी, विभिन्न प्रकार की आशंकाओ से घिरी हुई। आचार्य ने मंजरिका का चेहरा देखा और उनका चेहरे पर अपराध-बोध की छाया गहरा गई। मजंरिका ने भोजन परोस दिया। वे भोजन के लिए बैठे और तत्क्षण उठ खड़े हुए। कुछ ध्यान आया और वे द्रुत गति से बाहर निकले, अश्वारुढ़ हुए और दूर मार्ग पर ओझल हो गए। मंजरिका स्तब्ध होकर सब देखती रह गई।

रात गहरा गई थी। हल्की बूंदाबादी भी शुरु हो गई थी। आम्रवन से कच्चे-पके आमों की हल्की गंध आने लगी थी। मार्ग के दोनों तरफ घने आम्रवन थे।

वे खाली हाथ नहीं जाना चाहते थे। देवी के लिए कुछ भेंट ले जाना चाहते थे। आजतक उन्होंने देवी शिव्या को कुछ भी भेंट नहीं दिया था। दस सालो के संबंधो के पटाक्षेप का समय आ ही गया है तो उसे क्यों न यादगार बना लिया जाए। कोई भेंट देकर। उनकी स्मृति में पुष्करिणी सरोवर में खिला कमल का फूल याद आया। वे खिल उठे। कमल का फूल लेकर वे देवी को कहेंगे- देवी, मैंने घनघोर बारिश में, गरजते मेघों और गहन अंधकार के बीच, अपने श्रम से आपके लिए यह भेंट अर्जित की है, मेरे पास नगर के श्रेष्ठीपुत्र कप्पिन की भांति कोई बहूमूल्य मुक्ताहार तो नहीं है, आप इसे स्वीकार कर लें, आपके केशपाश में कंठ के मुक्ताहार से कहीं अधिक शोभायमान हो सके। सरोवर के पास अश्व से उतरे और कमल के फूलो को देख कर देवी के मुखड़े को याद करते रहे। जब यह कमल उनके केशपाश में टंकेगा तो वे कितनी शोभेंगी। उनकी आभा द्विगुणी हो जाएगी। कमल फूल तोड़ने के लिए उन्हें गहरे कुंड में उतरना पड़ा।

मन ही मन सोचते रहे- “प्रेम की गहराई कुंड से कहीं ज्यादा होती है। मेरे लिए प्रेम धर्म है, त्याग है, साधना है, आज के बाद देवी आप मेरी तरफ से मुक्त हैं, जिसे चाहे प्रेम करें, मैं कभी आपके मार्ग की बाधा नहीं बनूंगा।“ वे श्वेत कमल लेकर कुंड से बाहर निकले, पूरी तरह जल से तर बतर हो चुके थे। रक्तिम कमल जानबूझ कर नहीं तोड़ा, क्योंकि उनके अनुराग की यह अंतिम रात्रि साबित होने वाली थी।

आचार्य कुछ ही देर में देवी के द्वार पर जा पहुंचे थे। मन में विचारो का अंधड़ वैसे ही उठ रहा था-

“आज मन की बात करके रहूंगा। अब तक जो न कह सका, वो बातें कह डालना चाहता हूं। बरसो अपनी और उनकी मर्यादा का पालन करता रहा। आज की रात्रि बस आखिरी है, कल से जीवन बदलने वाला है, आज नहीं कह पाया तो बदले हुए जीवन में भी शांति न पा सकूंगा।“

“देवी से कल की बारे में कोई बात नही बताऊंगा…क्या पता, देवी मार्ग रोक दें…नहीं, अब मुझे वापस इस जीवन, इस रुप में नहीं आना है। इतनी विपदा नहीं सहनी है। मन ही मन कामनाओं की भट्टी में झुलसते हुए नही जीना है। इसी देह और मन के नियंत्रण में खुद को सौंपना नहीं है। इनसे मुक्ति चाहिए। कल से जीवन का अर्थ, धर्म सबकुछ बदल जाएगा।“

इतना सबकुछ चिंतन करते हुए उनका अश्व अट्टालिका की तरफ बढ़ा चला जा रहा था। भांति भांति के विचारो का तूफान झेलते हुए वे बेसुध हुए जा रहे थे। उनके मन से देवी शिव्या की वह छवि जाती न थी। बार बार कौंधती थी वह छवि, वह मुग्धता, वह परिहास , जब श्रेष्ठीपुत्र कप्पिन ने उनके नृत्य पर रीझ कर उनके कंठ में मुक्ताहार पहनाया था और देवी की वह मोहक मुस्कान भुलाए नहीं भूलती। देवी ने कभी उस तरह उन्हें नहीं देखा। मुग्ध तो वे भी हुए उस रात। जब देवी अलौकिक नृत्य कर रही थीं। देवी आम्रपाली की सबसे योग्य शिष्या के नृत्य की प्रशंसा चहुंओर होती थी।

परंतु देवी के मन में क्या है। यह प्रश्न उन्हें बींधता रहता।

“देवी…आज कुछ ऐसा कहें कि मैं आपसे घृणा करने लगूं। आपसे घृणा करने में आपकी सहायता चाहता हूं। अपनी दुर्बलता पर उन्हें खीझ भी हो रही थी। देवी से वैसी मुस्कान की आकांक्षा क्यों पल रही है जैसी वे कप्पिन को दे रही थीं। अब अगर वे ऐसा करें भी क्या, अपने निर्धारित मार्ग से वे डिग जाएंगे। नहीं, बिल्कुल नहीं।असंभव।“

मन ही मन आचार्य प्रण करते हुए अंदर प्रवेश की अनुमति की प्रतीक्षा कर रहे थे।

उन्हें भय था कि देवी कहीं कल के फैसले पर जाने से उन्हें रोक न दें। अब रुकने का क्या लाभ। देवी तो कभी नहीं मिलेंगी। कल के बाद देवी को पाने की लालसा ही समाप्त हो जाएगी। इसी लालसा ने तो उन्हें भटका दिया है और ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां से उनका रास्ता कहीं और जाता है।

ये सब सोचते सोचते अपने फैसले पर वे और ढृढ़ संकल्प हो गए। चाहे कुछ भी हो जाए, देवी की बात नहीं मानेंगे।

बाहर बरसात बहुत तेज हो गई थी। काली घटाएं गरज रही थीं और दामिनी रह रह कर दमक उठती थी। बरसात का रौद्र रुप देख कर आचार्य थोड़े हैरान भी हुए। तेज हवाएं उन्हें रह रह कर कंपकंपा जातीं। अश्व से उतर कर द्वार तक पहुंच कर लगभग वे बारिश से तर हो चुके थे। देवी की अट्टालिका उस अंधेरे में भी दमक रही थी। आचार्य ने देखा – देवी खुद चल कर उन्हें द्वार तक लेने आ गई थीं। मेघों की गर्जना सुनकर वे थोड़ी सहमी-सी दीख रही थीं। देवी भी भींगी हुई थीं। उन्हें आश्चर्य हुआ। ऐसा मालूम हो रहा था कि वे जानबूझ कर भींगती हुई उन्हें स्वंय लिवा लाने आना चाहती थीं। देवी को मानो अपनी सुधि नहीं थी। उज्ज्वल-धवल वस्त्र उनके गात से चिपक गए थे। आचार्य उन्हें इस अवस्था में देखकर पहले स्तब्ध हुए, जैसे देवी इतनी रात्रि में उन्हें अचानक अपने द्वार पर देखकर स्तब्ध हुई थीं। दोनों की वाणी मौन थी। किसी के कंठ से बोल न फूटे। आचार्य मंत्रसिक्त होकर उनके पीछे पीछे अस्थानागार में चले गए। देवी के भीगे केशपाश में कमल का फूल टांकने की इच्छा हो रही थी। आज की रात के बाद न ऐसी अभिलाषा उत्पन्न होगी न ऐसे अवसर आएंगे। बस दोनों के बीच यह एक रात ही बची हुई है।

अस्थानागार में पहुंच कर आचार्य ठिठक गए। अपने साथ लाया हुआ कमल पीठिका पर रख दिया। देवी ने कमल को देखा और आचार्य से सीधा पूछा- आगे चलोगे अब तो

“अवश्य चलूंगा,परंतु वस्त्र बदलना चाहिए। देवी के सामने जाने लायक नहीं हूं अभी…”

“क्या देवी को अभी भी प्रमाण की आवश्यकता है ?”

देवी मुस्कुरा उठी।

“नहीं देवी शिव्या, वैशाली में प्रमाण नितांत आवश्यक है..” आचार्य गंभीर हो उठे थे।

“सो तो है, मैं जानती हूं, अच्छा चलो…मेरे कक्ष तक चलो, वहां कोई प्रमाण की आवश्यकता नहीं “

“चलो, वस्त्र बदलने की आवश्यकता नहीं…”

देवी के जोर देने पर आचार्य खुद को रोक न सके। बारिश और तेज हो गई थी। खुले गलियारे से होते हुए देवी के कक्ष तक जाना होता था। सो दोनों भींगते हुए कक्ष की तरफ चल पड़े।

कक्ष के बाहर ठिठक कर देवी अपनी परिचारिका को आदेश दिया- आज की सांध्य समाज का आयोजन संभव न हो सकेगा। ऐसी सूचना करवा दो।

फिर वह आचार्य को लेकर अपने निजी कक्ष की ओर चल पड़ी।

देवी ने अपने काष्ठ मंजूषा से पुरुष परिधान निकाल कर आचार्य के सामने धर दिए।

“देवी, सच सच बताइए, क्या मंजरिका ने आपसे कुछ कहा है। कुछ बताया है मेरे बारे में ?”

“नहीं तो, वो क्यों कुछ कहेंगी, मंजरिका तो देवी हैं”

“देवी शिव्या, ऐसा कह कर आप मेरा परिहास तो नही कर रही हैं ?”

“मैं ऐसी धृष्टता कैसे कर सकती हूं, यह परिहास नहीं है, आपने कैसे ऐसा समझ लिया?”

देवी गंभीर हो उठी।

“सांध्य समाज में नियमित नृत्य करना मेरा कर्तव्य है, कर्तव्य के प्रति निष्ठा भाव ही मेरी जीवन है। कदाचित मंजरिका ने भी यही समझा होगा। तभी तो वे यहां आईं, आपके वस्त्र रख गईं और बोली-

“देवी शिव्या, मैं आचार्य दिव्य को व्यवस्थित रखने में असमर्थ हूं, असहाय भी हूं। यदि तुम ऐसा कर सको तो मुझ पर बड़ा उपकार होगा। ऐसा उपकार जिससे मैं जीवन भर उऋण न हो पाऊंगी।“

आचार्य के होठो पर कारुणिक मुस्कान उभरी।

“देवी, कल से सबकुछ व्यवस्थित हो जाएगा, कल से मेरी भूमिका बदल जाएगी। तब देवी मंजरिका को कोई कष्ट न होगा और न किस अन्य को कोई कष्ट पहुंचेगा।“

आचार्य का स्वर अवरुद्ध हो गया था।

वे देवी से कल के लिए अनुमति लेने आए थे, ये बात वे भूल ही चुके थे और उनका मष्तिष्क कहीं और भटकने लगा था। वे वापस जाने को उद्दत हुए कि देवी ने उनका हाथ पकड़ लिया।

“आज मैं आपको ऐसे नहीं जाने दूंगी ”  देवी खुल कर हंस पड़ी थी।

“क्यों…?” आचार्य पूछ बैठे।

“देवी, मैंने इसके पूर्व आपको इस तरह हंसते हुए नहीं देखा था, कदाचित यह अभिनय नहीं है, मेरा उपहास उड़ा रही हैं आप…”

देवी के मुख पर खिन्नता भरी।

“यह सत्य है कि पहली बार मैं इतना विहंस रही हूं। परंतु यह उपहास की हंसी नहीं है। रही बात अभिनय की तो क्या जीवन ही अभिनय नहीं है।“

“कमसेकम मैं वैसा नहीं समझता ”

“आप भले न समझे, यह एक वास्तविकता है, ये कैसे, बताना चाहूं भी तो नहीं बता सकती। मेरी भी कोई अपनी मर्यादा है। खैर…”

“आप बताइए…आज यहां कैसे आना हुआ ?” ऐसा क्या हुआ कि आप अपना निश्चय भूल कर यहां चले आए।

आचार्य को देवी का इस तरह पूछना अपमानजनक लगा। परंतु बिना उत्तेजित हुए बोले- “मालूम पड़ता है, भयंकर भूल हो गई मुझसे।“

देवी ने बीच में बात काटते हुए कहा- “इसमें भूल की बात कहां, अच्छा हुआ आप यहां चले आए। अवश्य कोई विशेष प्रयोजन होगा।“

आचार्य ने अपनी गीली आंखें देवी पर टिका दी- “अच्छा होता, अगर आप मेरा यहां कभी प्रतीक्षा की होती। अप्रतिक्षित, अयाचित अतिथि भूल ही करता है।“

देवी इतना सुनकर निरुत्तर रहीं। उन्हें यह उत्तर शायद पसंद नहीं आया था। वे बहुत कुछ बोलना चाहती थीं, मगर होठ कांप कर रह गए। वे शांत रहीं। उन्हें इस अवस्था में देख कर आचार्य असहज हो उठे और कक्ष से बाहर की ओर चल पड़े।

देवी ने आगे बढ़ कर उनकी बांह फिर से थाम ली। आचार्य उन बांहो की पकड़ से छूटना नहीं चाहते थे।

“आचार्य , अब इस समय कहां जाएंगे आप। बाहर मूसलाधार बारिश हो रही है। रात्रि भी हो गई है। नगर के सूने राजपाथ पर आज प्रकाश भी नहीं है। चारो दिशाओं में अंधेरा ही अंधेरा है। यदि कोई अनहोनी हो गई तो…?”

“तो क्या देवी…लोग तो यही कहेंगे न कि रात्रि के इस पहर में देवी शिव्या ने अपने आचार्य को नही रोका, उन्हें जाने दिया। और लोगो को छोड़िए, देवी मंजरिका क्या कहेंगी। “

“और यदि आज रात्रि यहां रहा तो कल प्रात: सारी वैशाली क्या कहेगी”

देवी मुस्कुराई- “वैशाली की चिंता आप करें, यह तो व्यय है अपनी चिंताओ का “

“ऐसा क्यो देवी ?”

“आपने स्वंय ही कहा है कि वैशाली हृदय नगरी है, उसका यहीं वास है…फिर चिंता व्यर्थ हुई न ”

दोनों प्रथम बार एक साथ हंसे। सम्मिलित हंसी से कक्ष का प्रकाश झिलमिला उठा।

“देवी, आप सचमुच गण-कल्याणी हैं।“

देवी अपनी परिचारिका को पुकार उठीं।

“आचार्य का यहीं पर शय्या लगा दो, मैं यहीं भूमि पर सो रहूंगी। आचार्य यह सुनकर स्तब्ध रह गए। परिचारिका भी चकित उनका मुंह ताकती रह गई।“

परिचारिका के बोल निकले- “क्यों देवी, आप भूमि पर क्यों सोएगी। इतनी बड़ी अट्टालिका है, अनेक सुशोभित कक्ष हैं, केवल यही एक शय्या तो नहीं है।“

आचार्य ने परिचारिका को रोकते हुए कहा- “नहीं, तुम रहने दो। यह संभव नहीं। मुझे इसी पहर अपने प्रासाद में लौटना होगा।“

देवी पूछ उठी- “आपको यहां सोने में कोई संकोच है ?”

“हां, संकोच तो है देवी , और…”

“और क्या…आपको आत्मविश्वास नहीं , आपको आज यहीं सोना पड़ेगा, इतनी रात्रि को मैं न जाने दूंगी।“

“मेरा संकोच ये है कि आज की रात्रि यहां रुका तो हम दोनों पर कलंक लगेगा। मुझ पर लगे तो परवाह नहीं, क्योंकि कल से मेरा जीवन बदल जाएगा, आपको तो अभी इसी तरह रहना है, आप कलंकित हों, मुझे स्वीकार्य नहीं देवी…”

देवी अट्टाहास कर उठीं।

“केवल कलंक के भय से तो मैं आपको बाहर नहीं जाने दे सकती। आपको अपने पर विश्वास न हो तो वो दूसरी बात है। मुझे विश्वास है कि सारी रात्रि आप न भी सो पाएं तो भी प्रात: आप खुद को अस्वस्थ नहीं पाएंगे।“

आचार्य, देवी को समझाने में सफल न हो पाए। उन्हें उनके हठ के आगे झुकना पड़ा। वे मन ही मन उलझ गए थे कि देवी आज रहस्यमयी संवाद कर रही हैं। कुछ भी खुल कर नहीं बोल रही हैं। सारी शंकाओ और प्रश्नों को उलझा दे रही है, अपने वाक चातुर्य से।

कक्ष में थोड़ा व्यवस्थित होने के बाद आचार्य ने फिर प्रश्न उछाल ही दिया। उनका मन बहुत भरा हुआ था सवालों से। बस आज की आखिरी रात्रि थी उनके बीच, जिसमें सबकुछ कह देना, सुन लेना था। एक प्रश्न जो उनके चित्त को अशांत किए हुए था, पूछ ही लिया।

“देवी, क्या श्रेष्ठी-पुत्र कप्पिन पर मेरा संदेह उचित नही है ?”

देवी मौन रहीं।

आचार्य फिर बोले- “मैं जानता हूं कि ये प्रश्न अनुचित है, मेरी संकीर्णता का परिचायक है, कदाचित इसका मुझे अधिकार भी नहीं है, फिर भी न जाने क्यों, मैं इस प्रश्न का उत्तर जानने को व्यग्र हूं। इस प्रश्न के निसंदेह दो उत्तर होंगे, उनमें से कोई भी उत्तर सुन कर मुझे संतोष होगा। मैं तैयार हूं किसी भी उत्तर का सामना करने के लिए, आप विश्वास रखे। “

इसका एक तीसरा उत्तर भी हो सकता है आचार्य, वो ये कि मैं इसका उत्तर दूं, ये आवश्यक तो नहीं।

“अपने लिए न सही, मेरे लिए ही , आप उत्तर दे सकती थीं। चलिए, इतना बता दीजिए कि क्या अगर मेरी जगह ये प्रश्न आपसे कप्पिन पूछते, मेरे बारे में तब भी क्या आप ऐसा ही उत्तर देतीं ?”

आचार्य के होठो पर फीकी मुस्कुराहट उभरी। व्यथा की रेखाएं और गहरी होती चली जा रही थीं।

“आचार्य, हमारे आपके बीच श्रेष्ठी पुत्र कप्पिन की वार्ता हो, यह कई अनिवार्य तो नहीं। आप इस समय मुझे नगर के सुरक्षा प्रधान प्रतीत हो रहे हैं। “

“देवी, न जाने क्यों, मैं इस मामले में आश्वस्त होना चाहता हूं…क्या इतना भी मेरा आप पर अधिकार नहीं है ?”

देवी आचार्य के भीतर पुरुषोचित ईर्ष्या देख कर भीतर ही भीतर सिहर गई। ऊपर से गर्वीली मुस्कान ओढ़ कर बोली-

आचार्य दिव्य, मैं भी कुछ आश्वस्त हुआ चाहती हूं। मुझ पर अधिकार ही नहीं, मेरे प्रति आपका कर्तव्य भी है।

आचार्य कक्ष से बाहर की तरफ जाने लगे। देवी ने उन्हें इस बार नहीं टोका, रोका। आचार्य खुद ही कुछ पग चल कर ठिठक गए। शायद उन्हें उत्तर की प्रतीक्षा थी।

अपने मन को कड़ा करके बोले-

“देवी, मैं इस समय बहुत दुविधा सी स्थिति में हूं। परंतु मैं आपको आश्वस्त कर सका तो मेरा सौभाग्य होगा। बताएं…”

“आपका ही नहीं, ये वैशाली का भी सौभाग्य होगा…सुरक्षा प्रधान का दायित्व अत्यंत महत्वपूर्ण है। उसके प्रति आपका यह भाव किसी प्रकार उचित नहीं है। आचार्य दिव्य, आपसे मेरा निवेदन नगर की गण-कल्याणी के कारण है।“

“देवी शिव्या होने के नाते कोई और आग्रह नहीं…?”

देवी उल्लास से भर गईं। मानो मनोनूकूल प्रश्न पूछ लिया गया हो।

“अच्छा हुआ, आपने ये पूछ लिया। सुनिए , देवी मंजरिका भी आपसे कुछ अपेक्षा रखती हैं। हमारा क्या, जब तक यह गणराज्य अजर-अमर है, तब तक गण –कल्याणी भी जीवित है। और उसका सुरक्षा-प्रधान भी। फिर उसकी चिंता क्यों ?”

मंजरिका का नाम सुनते ही हृदय में शूल-सा चुभा। कहीं अपराध-बोध सा जागा।

कम से कम यहां आने से पहले मंजरिका को बताते आते कि बस आज रात भर का संबंध इस मायावी संसार से बचा रहेगा। प्रात उनका संसार अलग हो चुका होगा। फिर उसके बाद तुम्हे कोई कष्ट नहीं देगा मंजरिका, चलते चलते जो अनाचार तुम पर कर बैठा, वैसा अब फिर नही कर पाऊंगा। फिर कभी नही देवी मंजरिका…फिर कभी नहीं…मैं तुम्हें बता नहीं पाया, इसका पछतावा रहेगा देवी। तुम्हे कल दूसरे लोग बताएंगे, मेरा प्रहरी बताएगा, मैं नही होऊंगा बताने के लिए…

बड़बड़ाते हुए आचार्य का गला रुंध गया। बाहर मेघ वैसे ही गरज रहे थे। देवी वैसे ही मौन थीं। अपने सांसारिक जीवन की अंतिम रात्रि एकांगी प्रेम के मौन के साथ बिताना चाहते थे। देवी के हृदय से नितांत अनभिज्ञ आचार्य ने देवी से आगे कोई वार्ता न करने का संकल्प ले लिया। उस कक्ष में देवी की शय्या पर सोए हुए, भूमि पर लेटी हुई उस स्त्री को देखते रहे। निद्रा में स्त्रियां देवी की भांति लगती हैं और देवियां स्त्रियों की भांति। बार बार उनके हृदय में अभिलाषा जगे- एक बार देवी के खुले केशपाश में पुष्करणी सरोवर से लाए हुए श्वेत कमल टांक दें। एक बार दूधिया, झिलमिल चादर चेहरे से खिसका कर शयन कक्ष को रोशन हो जाने दें। बस एक बार…एक बार…देवी के बाहुपाश में स्वंय को खो जाने दें। फिर चाहे मेघ गरजते रहें, बिजली गिर जाए। एक बार देवी उसके प्रेम को स्वीकार लें। एकांगी प्रेम की पीड़ा को किसे समझाएं।

व्यग्र चित्त को निद्रा कहां आती है। निद्रा सिर्फ बाहर-बाहर थी और उनके मौन में थी। जाने किस पहर, किस विधि दोनों को निद्रा ने दबोच लिया होगा अपने पाश में।

प्रात: आचार्य निद्रा से जगे। देवी वहां नहीं थीं। कुछ देर बाद देवी वहां प्रकट हुईं। अनिद्रा का प्रभाव उनके नेत्रों पर भी वे भांप गए थे।

आचार्य ने वज्रपात किया-

“देवी, मेरे मन में एक भ्रम था, वह यहां आकर और गहरा हुआ है। अब कहने को कुछ नहीं बचा है। सुनने का अवकाश भी कहां। सत्य तो ये है कि मेरे मन का बोझ उतर चुका है। मैं खुद को बहुत मुक्त महसूस कर पा रहा हूं। आपसे विदा चाहता हूं, मंजरिका आपके पास आएगी, आप जो बताना चाहें, बता देंगी। यहां आने के कारण, रात्रि विश्राम के कारण और अब यहां से वापसी के कारण। यह निर्णय मैं कल ही ले चुका था।“

“मैं आज से भिक्षु संघ में प्रवेश करने जा रहा हूं…”

आचार्य को लिवा लाने उनका प्रहरी द्वार पर अश्व लेकर खड़ा था।

देवी ने उन्हें सूने नेत्रों से देखा, उसमें एक आश्वस्ति थी, जिसे वे देख न सके। पीछे खड़ी परिचारिका ने उन्हें थाम लिया।

देवी बुदबुदाई- मेरे मार्ग पर मुझसे पहले आप चले गए आचार्य। जब आप ही मुक्त हुए तो मैं भला बंध कर क्या करुंगी आचार्य।

 

…..

 

 

 

 

 

 

 
      

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9 comments

  1. वैशाली के इस.क्षेत्र में गीता जी एक अलग रूप में मिलीं।भाषा बेहद रोचक है।बधाई

  2. सारिका

    पहली बार पढ़ा आपको और मंत्रमुग्ध हो पढ़ती गयी। बहुत बारीक बहुत सरस लिखा है आपने। अनेकानेक शुभकामनाएं💐💐💐

  3. सरोज शर्मा

    वैशाली के आचार्य…. बेहद खूबसूरत कथानक।पूर्णतः गुंथा हुआ वाक्य विग्रह।रोचकता पूर्ण।अंत तक पाठक को बांधे रखने वाले संवाद।

  4. प्रेम के सत्य या उसके भ्रम को जीने या इन दोनों के बीच सांस लेने और फिर उस कथ्य को समय मे बांधने की कितनी सुंदर बुनाई। कितना सुंदर विचार। अनटोल्ड/ अकथ का बीयूटीफिकेशन। प्रेम अपने अकथ में बहुत सुंदर होता है, इसे लेकर मेरा यक़ीन अब और पुख़्ता हुआ। प्रेम के चस्पा न होने के बावजूद उसकी लो भीतर धीमीं धीमीं जलती रहे इससे ज़्यादा और बेहतर उजाला क्या हो सकता है, वरना तो भड़की हुई आग प्रेम और जीवन दोनों को नष्ट कर सकती हैं, ख़ाक कर सकती है। विज़ुअल्स, मौसम और भाषा कमाल। लय और कहानी की गरिमा की तो बात ही क्या! आपकी पहली कहानी पढ़ी मैंने। पता नहीं कहाँ तक उसके करीब पहुँच पाया हूँ!

  5. Avinash Chandra Jha

    Excellent story in a beautiful language.Sorry i cannot type in hindi my apologies.

  6. वैशाली के आचार्य की भाव मन देह की सांसारिकता और देवी भी आचार्य के प्रेम में। बहुत सरस सुंदर भाषा में अद्भुत प्रस्तुति मित्र। बधाई

  7. Beautifully written..

  8. बहुत पढ़ा है गीता जी को, ये अलग और बहुत अच्छा लगा

  9. I loved as much as you’ll receive carried out right here. The sketch is attractive, your authored material stylish. nonetheless, you command get bought an shakiness over that you wish be delivering the following. unwell unquestionably come further formerly again as exactly the same nearly a lot often inside case you shield this hike.

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