‘प्रेमलहरी’ के लेखक त्रिलोक नाथ पाण्डेय का नया अंग्रेजी उपन्यास आया है – Becoming God, जिसके बारे में दावा किया गया है कि यह एक आध्यात्मिक थ्रिलर है. पौराणिक शिव-कथा को नये कलेवर और नये आयामों को उजागर करते हुए कहने का प्रयास किया गया है इस उपन्यास में. कथा पुरातन होते हुए भी उसमें नवीनता का ऐसा समावेश किया गया है कि कहानी बड़ी रोमांचक और आह्लादकारी बन गयी है.
कुछ लोगों के आग्रह पर श्री पाण्डेय ने अपने अंग्रेजी उपन्यास के एक छोटे से अंश का हिंदी अनुवाद किया है, जो यहाँ प्रस्तुत किया गया है. यदि लोगों का आग्रह बढ़ा तो पूरे उपन्यास का हिन्दी अनुवाद लाने की सम्भावना भी हो सकती है-
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सावन महीने की अमावस्या – काली, घनी स्याह रात. आसमान में घने-काले बादलों का डेरा. शाम से ही रुक-रुक कर बारिस हो रही थी. लोग जल्दी अपने घरों में घुस गये थे और थोड़ी रात जाते-जाते गहरी नींद में समा गए थे.
अचानक, लोग जग गये. आकाश में भीषण विस्फोट जैसी ध्वनि के साथ हजार सूर्यों का उजाला फैलता देख कर सब चौंक गए. घबड़ा कर वे अपने घरों से बाहर भागे, तो देखा एक विचित्र चमकीला पदार्थ आसमान से घड़घड़ाते हुए धरती की ओर चला आ रहा है. उन्हें लगा कि कोई दानव या दैत्य आसमान से धरती पर उतर रहा है. मारे डर के वे सब त्राहि माम, त्राहि माम चिल्लाते हुए शिव के पास दौड़े गए.
शिव स्वयं यह नजारा देख कर पहले से ही अपने ‘धाम’ (शिव के आवास का नाम) के द्वार पर आ खड़े हुए थे. आग के गोले को आसमान से लुढ़कते हुए और फिर उसे धड़ाम से गंगा की रेती में गिरते हुए देख कर शिव समझ गए कि कोई बड़ा उल्कापिंड आकाश से टूट कर गिरा है. शिव ने बड़ी राहत महसूस की कि वह उल्कापिंड काशी की मुख्य बस्ती से थोड़ी दूर गंगा की रेती में गिरा है अन्यथा अनर्थ हो जाता; उसकी चपेट में आकर न जाने कितनी जन-धन की क्षति हो जाती.
शिव ने लोगों को आश्वस्त किया कि डरने की कोई बात नहीं है. खतरा टल गया है. सब अपने घर जा कर शान्ति से सो जाएँ. सुबह देखा जायेगा कि मामला क्या है.
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अगली सुबह लोग जब शिव की अगुआई में गंगा तट पर पहुंचे तो यह देख कर आश्चर्य में पड़ गए कि अरे, यह तो काले रंग का पत्थर है जो गिरने की वजह से बने एक गहरे गड्ढे में जा अटका है.
यह अनुमान लगाते हुए कि उल्कापिंड अभी भी बहुत गरम होगा, शिव ने लोगों से आग्रह किया कि गंगा से पानी ले आकर वे उस पर डालें ताकि वह ठंढा हो सके.
उल्कापिंड की ऊष्मा से उस पर पानी की धार पड़ते ही वह वाष्प बन कर उड़ जाता. जब यह प्रक्रिया काफी देर तक चली तो अंततः उल्कापिंड ठंढा पड़ गया. फिर, शिव स्वयं उस उल्कापिंड का निरीक्षण करने गड्ढे में उतरे.
शिव ने देखा कि वह उल्कापिंड वेग से गिरने की वजह से जगह-जगह से दरक गया है. उसमे से एक टुकड़ा उठा कर उन्होंने देखा और ख़ुशी से चिल्ला उठे, “अरे यह दिव्य है. आकाश का यह धरती के लिए उपहार है.” वहीं, उसी समय, शिव ने गिना तो पाया कि उस उल्कापिंड के कुल बारह टुकड़े हो गये थे.
उन बारहों टुकड़ों में से एक को शिव ने अपने ‘धाम’ के सामने रखवा दिया. बाकी के ग्यारह टुकड़े शिव के आदेश से विद्यापीठ के अनुशीलन केंद्र के प्रांगण में सुरक्षित रख दिया गया. बाद में, शिव के धाम के सामने वाला उल्काखंड एक विशेष आकर के बनाए गये आधार पर समारोहपूर्वक स्थापित कर दिया गया.
लोगों के मन में इस प्रस्तर-खंड के प्रति अपार श्रद्धा उत्पन्न होने लगी. वे इसे आकाश की ओर से धरती को मिला दिव्य उपहार समझ कर बड़ा आदर करते थे. वे बहुत प्रभावित थे कि स्वयं शिव इस प्रस्तर-खंड को दिव्य मान कर सम्मान देते थे. जलधार से इसे शीतल करने के लिए शिव ने पहले दिन जो क्रिया करवाई थी उसकी स्मृति को सहेज कर रखने के लिए लोग इस प्रस्तर-खण्ड पर श्रद्धा से जल चढ़ाने लगे. कोई-कोई तो इस पर दूध की धार भी गिराता था और कोई अति उत्साही इसे मधु का भोग भी लगाने लगा. जो कोई भी शिव के ‘धाम’ के सामने से गुजरता, श्रद्धा से उस प्रस्तर-खण्ड के समक्ष झुक जाता. शीघ्र ही, लोगों ने इस पर छाया करने के लिए इसके चारों ओर खम्भे खड़े करके छत डाल दिया और उसका नाम मंदिर रखा.
लोग उस प्रस्तर-खण्ड के बारे में तरह-तरह की बातें करते; तर्क-वितर्क करते; विमर्श करते. कई ऐसे थे जो इन विमर्शों से विरत रहते. वे उस प्रस्तर-खण्ड के प्रति गहरी श्रद्धा और भक्ति रख कर ही खुश होते. यही वे लोग थे जो जल, दूध या मधु से अक्सर इसका अभिषेक करते और मानते थे कि इसको शीतल करते रहने से उनके अपने जीवन में सुख-शान्ति आएगी. कुछ दूसरी तरह के लोग इसकी पूजा-अर्चना यह मान कर करने लगे कि इससे वीर्यवृद्धि और प्रजनन-क्षमता बढ़ेगी. इनमें से कुछ लोग थे जो मजाक में कहते थे कि यह आकाश का उत्तेजित लिंग है जो धरती की उर्वर योनि में आ घुसा. कुछ ऐसे भी लोग थे जो इसका नाता शिव पार्वती से जोड़ने लगे. वे अपनी कल्पना-शक्ति को खूब हवा देकर मजाक-मजाक में पत्थर के उस टुकड़े को शिव के उत्तेजित लिंग का प्रतीक मान कर उसे ‘शिवलिंग’ कहने लगे. यही वे लोग थे जो इस मामले में रस ले-ले कर चर्चा करते थे और अपार लैंगिक सुख पाते थे. कई तो आधार के ढांचे की विशिष्ट बनावट देखकर उसे योनि की संज्ञा देने लगे और यह मानने लगे कि वह शिव की संगिनी पार्वती की योनि है. इन कामुकतापूर्ण बातों के परिमार्जन के लिए कुछ समझदार लोग आगे आये जिन्होंने उन लोगों को समझाया कि आकाश से गिरा प्रस्तर-खण्ड पुरुष के पौरुष का प्रतीक है जबकि धरती पर उसे आधार देने वाला ढांचा स्त्री की शक्ति और उर्वरता का प्रतीक है.
ये सब बातें जब शिव की जानकारी में आतीं तो वे कुछ न कहते; बस मंद-मंद मन-ही-मन मुस्काते. वे सबके तर्कों, सबके विमर्शों, सबकी व्याख्याओं का मौन समर्थन करते. वे यह मानते थे कि किसी वस्तु को देखने-समझने की हर व्यक्ति की अपनी दृष्टि होती है और अपनी दृष्टि को बनाये रखने का हर व्यक्ति को अधिकार है.
शिव खूब हँसते थे जब कोई उनका नजदीकी उनकी निगाह में यह बात लाता था कि किस प्रकार कुछ लोग पूरे मामले को अश्लील रंग दे रहे थे और दूसरे कुछ लोग इस अश्लीलता को शिव-पार्वती से जोड़ रहे थे. उनके नजदीकी मित्रों में से जब एक ने यह सुझाव दिया कि उनके बारे में इस तरह की अश्लील को बातों को बंद कराया जाना चाहिए, तो शिव ने इस प्रस्ताव को सिरे से ख़ारिज करते हुए कहा कि सबको निर्भय और निष्कलुष हो कर अपनी बात कहने का अधिकार है. शिव ने समझाया कि इस तरह की बातों पर रोक लगाने से विकृतियाँ उत्पन्न होंगी और यही विकृतियाँ बढ़ कर आगे अपराध का रूप ले लेती हैं. शिव के एक मित्र ने उनका ध्यान इस बात की ओर आकर्षित किया गया कि इस तरह की मुक्त अभिव्यक्ति सामाजिक संघर्ष को जन्म देगी; परस्पर-विरोधी विचारों वाले आपस में लड़ पड़ेंगे यदि हस्तक्षेप न किया गया. मित्र की आशंका को दरकिनार करते हुए शिव ने समझाया कि लोग बड़े समझदार हैं और समझदारी पर किसी एक का सर्वाधिकार नहीं है. सब अपने-आप में चालाक हैं. कुछ लोगों का आक्षेप था कि इस तरह की अश्लील चर्चाएँ भविष्य में समाज के स्वस्थ विकास के लिए घातक होंगी. इस पर शिव का कहना था कि आने वाला समाज ज्यादा समझदार होगा और अपनी चिंता करने में स्वयं सक्षम होगा.
एक दिन कुछ मित्रों ने शिव को सूचित किया कि कुछ लोग शिवलिंग की पूजा इस विश्वास के साथ कर रहे हैं कि वह उनके कष्ट दूर करेगा. मित्रों ने चिंता व्यक्त करते हुए शिव से शिकायत की कि इससे तो लोग अंधविश्वासी हो जायेंगे और स्वाध्याय (स्वयं श्रम करना) से विमुख हो जायेंगे. उनके तर्कों को तार-तार करते हुए शिव ने उन्हें समझाया कि यह सही है कि आगे बढ़ने के लिए खुद मेहनत करने की जरुरत पड़ती है, लेकिन यह भी सही है कि सिर्फ इतना ही काफी नहीं है. इसके लिए मानसिक मजबूती की भी जरूरत होती है जो श्रद्धा से ही संभव होती है. मन जिस किसी वस्तु में स्वाभाविक रूप से रमे ऊसमें श्रद्धा रखने से मन को शान्ति मिलती है और वहीँ से मनुष्य का आध्यात्मिक अभ्युदय शुरू होता है. वह वस्तु चाहे शिवलिंग नामक प्रस्तर-खंड ही क्यों न हो.
अपने मित्रों को समझाते हुए शिव ने कहा कि श्रद्धालु लोगों ने अपना स्वयं का मार्ग खोजा है. यह मार्ग उन्हें सहज और निष्कपट रूप से मिला है. यह मार्ग उनकी श्रद्धा को मजबूत करेगा और उनके लिए शान्ति का स्रोत होगा. यह शिवलिंग उन्हें प्रकृति (पत्थर) में उपस्थित दिव्यता का बोध कराएगा और उन्हें याद दिलाता रहेगा कि यह आकाश की ओर से धरती को मिला उपहार है. शिव ने अपने मित्रों का आह्वान किया कि निरीक्षण-परीक्षण की वैज्ञानिक विधि से ज्ञानी जन उस उल्काखंड का तात्विक शोध और अध्ययन करें जबकि सामान्यजन को श्रद्धापूर्वक उसकी पूजा करने दी जाय. किसी की स्वतन्त्रता में कोई रोक न हो – न ज्ञान-मार्ग में न श्रद्धा की राह पर.
अपने गणों को शिव ने आदेश दिया कि विद्यापीठ के अनुशीलन केंद्र के प्रांगण में सुरक्षित रखे हुए बाकी ग्यारह उल्काखण्डों को देश के विभिन्न महत्वपूर्ण स्थानों में स्थापित कराया जाय ताकि वहां के स्थानीय लोग आकाश के इस दिव्य उपहार का दर्शन कर सकें और ज्ञान जन उसकी वैज्ञानिक व्याख्या और अनुशीलन कर सकें.
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