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लव इन टाइम ऑफ़ कॉलरा: प्रेम की अनोखी दास्तान

वरिष्ठ लेखिका विजय शर्मा ने मार्केज़ के महान उपन्यास ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ पर यह लेख लिखा है। इस लेख में उपन्यास और उस पर बनी फ़िल्म दोनों  के बारे में लिखते हुए उन्होंने यह दिखाया है कि क्यों प्रेम का ज़िक्र मार्केज़ के इस उपन्यास की चर्चा के बिना अधूरा रह जाएगा- मॉडरेटर

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भले ही इसकी कोई एक परिभाषा निश्चित न की जा सके, एक बात पर सब सहमत होंगे कि हवा-पानी की तरह यह जिंदगी के लिए अत्यावश्यक है। इसके बिना भी क्या जीना। जब यह होता है तो प्रेमियों के पूरे वजूद को हिला कर रख देता है। आज शोध रिजल्ट बताते हैं कि प्रेम लम्बी उम्र का राज है। यह खुशहाली का बायस है। रहस्यमय है, नियंत्रक है, साथ ही व्यक्ति का विस्तार करता है। काबिज होने पर साथी पर पूरी तरह से कब्जा कर लेता है। किसी और को न तो तू देखे और न कोई और तुझे देखे। संपूर्ण समर्पण और संपूर्ण एकाधिकार चाहिए होता है प्रेम को। प्रेम विचारों पर छा जाता है, निर्णयों को प्रभावित करता है, निर्णय करने का साहस देता है। जोखिम लेने की हिम्मत देता है। यह माँग करता है कि साथी ईमानदार और स्वामीभक्त हो, प्रेमी इसके लिए सहर्ष राजी हो जाते हैं। प्रेम क्या है? प्रेम में पड़ना क्या होता है? इसे लिख कर व्यक्त नहीं किया जा सकता है फ़िर भी युगों-युगों से प्रेम पर लिखा जाता रहा है, आगे भी लिखा जाता रहेगा। इसे जानने-समझने का एक ही तरीका है आपादमस्तक इसमें डूबना। यह प्रेरक है, इसीलिए न मालूम कितने चित्र, मूर्तियाँ और साहित्य इसकी उपज हैं।

दुनिया में प्रेम से कठिन कुछ और नहीं है। यह मात्र हृदय तक सीमित नहीं है, इसका आलोड़न पूरी देह को विचलित कर देता है, भले ही प्रेमियों की उम्र शरीर विरूपित होने तक की हो चुकी हो। विश्वास नहीं होता तो गैब्रियल गार्सिया मार्केस की किताब ‘लव इन टाइम ऑफ़ कॉलरा’ का अंतिम हिस्सा पढ़ लीजिए। फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा और फ़रमीना डाज़ा तीन दिन से रीवरबोट पर यात्रा कर रहे हैं। आज रात दोनों फ़रमीना डाज़ा के प्रेसिडेंसियल स्यूट में हैं। असल में फ़रमीना डाज़ा उसे खींच लाई है अपने बिस्तर तक। वह बिस्तर पर पड़ा खुद को नियंत्रित करने का असफ़ल प्रयास कर रहा है। लाइट जल रही है और फ़रमीना डाज़ा अपने कपड़े उतार रही है। वह कहती है, “मत देखो।” छत की ओर देखते हुए हुए वह पूछता है, “क्यों भला?” उत्तर है, “तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा।” तब  देखता है कि वह कमर तक नंगी है और जैसा कि उसने कल्पना की थी, उसके कंधे झुर्रीभरे थे, उसके स्तन लटके हुए, पसलियाँ पीली, मेढ़क की तरह ठंड़ी, माँसल परतों वाली चमड़ी से ढ़ँकी थी। उसने उसी समय अपने उतारे ब्लाउज से अपनी छाती ढ़ँक ली और बत्ती बुझा दी। तब तक वह उठ कर बैठ गया और अंधेरे में अपने कपड़े उतारने लगा। अपने जो कपड़े उतारता जाता उसे उस पर फ़ेंकता जाता। वह हँसी से दोहरी होती हुई एक-एक कर कपड़ों को अपने पीछे डालती जाती।

अंधेरे में रीवरबोट पर नंगे संग-संग लेटे हुए ये दो व्यक्ति अपनी-अपनी आधी सदी दो अलग दुनिया में जी रहे थे, आज तिरपन साल, सात महीने और ग्यारह दिन के बाद ये एक दूसरे से जीवन साझा कर रहे हैं, उनके पास समय है केवल मृत्यु का। फ़रमीना डाज़ा और फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा का प्रेम पहली नजर में तब शुरु हुआ था जब वह १३ साल की और वह १८ साल का था। आज वह जानती है कि उसके शरीर से एक बुढ़िया की गंध आने लगी है। ये हड़ीले हाथ वे हाथ नहीं हैं जिसके स्पर्श की कल्पना उन्होंने किशोरावस्था में की थी। ठीक आधी से अधिक सदी के बाद, उन्हें यह समय मिला था और उसे ये भरपूर जीना चाहते हैं, जीते हैं। ५१ साल नौ महीने और चार दिन के बाद  फ़्लोरेंटीनो को अपना प्रेम पुन: व्यक्त करने का अवसर मिला था। अवसर भी कैसा? जिस दिन फ़रमीना डाज़ा के डॉक्टर पति की लाश दफ़नाई गई थी। यह उसके वैधव्य की पहली रात थी। अभी शव पर डाले गए फ़ूलों की खुशबू घर में भरी हुई थी।

किशोरावस्था में प्रारंभ हुए प्रेम का मारा फ़्लोरेंटीनो इस बीच छिटपुट अफ़ेयर्स के अलावा मात्र ६२२ स्त्रियों से शारीरिक संबंध बनाता है। इन संबंधों में बच्ची अमेरिका विकुना भी है, जिसका वह गार्जियन है। जिसके डायपर बदलते-बदलते वह उसे बच्ची से स्त्री बनाता है। हर बार प्रेम करने के बाद आइसक्रीम खिलाता है। अमेरिका विकुना जब सुनती है कि वह शादी करने जा रहा है तो पहले विश्वास नहीं करती है और कहती है कि यह झूठ है। ‘‘बूढ़े लोग शादी नहीं करते।’’ मगर यह सत्य है। वह सच्चाई का सामना नहीं कर पाती है और आत्महत्या कर लेती है। इन संबंधों में अश्वेत लियोना कैसीयानी भी है। दोनों एक दूसरे के लिए बने हैं। उसका प्रेम ऐसा है कि परदे के पीछे से सारा व्यापार संभालते हुए उसकी सफ़लता का सारा सेहरा वह फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा के सिर बाँधती है। इसी संबंध से फ़्लोरेंटीनो अरीज़ो को पता चलता है कि एक स्त्री और पुरुष बिना हमबिस्तर हुए भी अच्छे दोस्त हो सकते हैं। जब गिर कर पैर में प्लास्टर बाँधे वह बिस्तर पर पड़ा है लियोना कैसीयानी उसकी खूब सेवा करती है सारे काम करती है। इसमें वह स्त्री भी शामिल है जिसने जबरदस्ती उसका क्वाँरापन लूटा था और वह विधवा भी थी जिसे फ़्लोरेंटीनो डाज़ा की माँ ने बेटे का विरह-वियोग दूर करने के लिए जानबूझ कर उसके बिस्तर पर भेजा था। और भी न मालूम कितनी। हिसाब रखने की कोशिश बेकार सिद्ध होती है। मगर कभी पैसा दे कर उसने संबंध नहीं बनाया। यह तो प्रेम की तौहीन होती। यह दिल द मामला है। दिल है कि मानता नहीं, मन है कि फ़रमीना के अलावा किसी को स्वीकारता नहीं। इस रात वह सच्चे मन से स्वीकारता है, “मैं तुम्हारे लिए क्वाँरा था।” ऐसा नहीं है कि फ़रमीना उसकी बात पर विश्वास करती है। जिस उत्साह से यह मनोभाव व्यक्त किया गया है उसे उसका भाव लुभाता है। क्या हुआ जो वह अपने आठवें दशक में चल रहा है और फ़रमीना अपने सातवें दशक में है। कब्र में पाँव लटकाए ये प्रेमी कब तक रहेंगे प्रेम में? किताब अपने अंतिम वाक्य में कहती है, “सदैव”।

आज जब दुनिया पूरी तरह से सेक्स से सांद्र हो चुकी है, फ़िल्म, मीडिया, कला, विज्ञापन सब सेक्स से भरे पड़े हैं, सेक्स और सेक्स की कल्पना हर जगह दिखाई देती है। लगता है जिन्दगी में इसके अलावा कुछ और है ही नहीं, सारे समय सारे लोग बस यही कर रहे हैं। दिन का एक बड़ा हिस्सा इसे देखने-दिखाने, इसके विषय में बोलने, मजाक करने, इसकी कल्पना करने में, इसको पढ़ने में गुजरता है। असल में इसको हम कितना जानते-समझते-प्रयोग करते हैं? इसके लिए कितना समय निकाल पाते हैं? वास्तविकता में तो यह अधिकाँश समय बस ‘वाम-बाम थैंकयू मॉम’ में ही समाप्त हो जाता है। ऐसे समय में १८८० से १९३० तक चलने वाला ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ का अविश्वसनीय प्रेम, प्रेम के प्रति विश्वास मजबूत करता है। मात्र दो-तीन वाक्यों के कथानक – लड़का-लड़की मिले, पिता ने लड़की की शादी कहीं और करवा दी। लड़का इंतजार करता रहा। विधवा होने के बाद बूढी हो चुकी लड़की और बूढ़ा हो चुका लड़का संग रहने लगे – को साढ़े तीन सौ पन्नों में चित्रित किया है गार्सिया मार्केस ने। चित्रण ऐसा कि एक बार शुरु करके समाप्त किए बिना छोड़ा नहीं जा सकता है। मैं जो मार्केस की डाई हार्ड फ़ैन हूँ आज तक निश्चय नहीं कर पाई हूँ कि ‘क्रोनिकल्स ऑफ़ अ डेथ फ़ोरटोल्ड’ और ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ में किसे ऊपर रखूँ (‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सोलीट्यूड’ को कौन छू सकता है!)। भले ही कहती रहती हूँ कि मुझे ‘क्रोनिकल्स ऑफ़ अ डेथ फ़ोरटोल्ड’ सबसे अधिक रुचता है।

उपन्यास ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ पढ़ने पर मन में प्रश्न उठता है यदि यह प्रेम है तो वह क्या था जो आधी सदी तक डॉक्टर जुवेनल उर्बीनो और फ़रमीना डाज़ा, पति-पत्नी के बीच चल रहा था? प्रेम बहुत अनोखा होता है। यहाँ भी प्रेम है। यह वैवाहिक प्रेम है जिसमें एक दूसरे की आदतों से नफ़रत करते हुए, एक दूसरे को कटु वचन सुनाते हुए धीरे-धीरे एक- दूसरे की आदत पड़ जाती है। इतनी एकरूपता आ जाती है कि एक वाक्य बोलना शुरु करता है तो दूसरा उसे बोल कर समाप्त करता है। एक बोलने के लिए मुँह खोलता है तो दूसरे के होठों से उसके शब्द निकलते हैं। साम्यता इतनी हो जाती है कि दोनों भाई-बहन जैसे लगने लगते हैं। एक दूसरे पर निर्भरता इतनी बढ़ जाती है कि मरे हुए साथी को बताना आवश्यक हो जाता है कि कब, कहाँ जाया जा रहा है। जब-तब इस लोक से गया व्यक्ति सामने आ बैठता है और बाते करने लगता है। जीवित रहने पर वैवाहिक जीवन में नफ़रत होती है, एक दूसरे के मर जाने की कामना की जाती है। लम्बे समय तक एक घर में, एक छत के नीचे, एक बिस्तर पर संग सोते हुए जो लगाव उत्पन्न होता है क्या उसे प्रेम का नाम दिया जा सकता है? डॉक्टर फ़रमीना डाज़ा को प्रेम के नाम पर सारी भौतिक वस्तुएँ देता था। सुरक्षा, आदेश, प्रसन्नता, तमाम चीजें जो बाहर से देखने पर प्रेम जैसी लगती, तकरीबन प्रेम लगती पर वे प्रेम नहीं थीं। यह प्रेम नहीं था, यह शंका फ़रमीना को और बेचैन करती, उसकी उलझन को और बढ़ा देती क्योंकि उसे मालूम नहीं था कि वह प्रेम पाना चाहती है, प्रेम चाहती है, निखालिस प्रेम।

पत्नी बनने की सौगंध खाते ही उसने फ़्लोरेंटीनो को अपने दिमाग से पोंछ डाला और मात्र पत्नी बन गई। क्या होता है विवाह? मार्केस डॉक्टर के मुँह से कहलवाते हैं कि यह एक बेतुका अन्वेषण है जो ईश्वर की असीम अनुकंपा के बल पर ही संभव है। दो लोग जो एक दूसरे को जानते तक नहीं, जिनके बीच कुछ भी साझा नहीं है, कोई जुड़ाव नहीं है, जिनका चरित्र भिन्न है, जिनका लालन-पोषण भिन्न तरीके से हुआ है, जो भिन्न लिंग के हैं, विवाह में एक दूसरे के लिए प्रतिबद्धता में होते हैं, साथ रहते हैं, एक बिस्तर पर सोते हैं, शायद दो ऐसी नियती साझा करते हैं जो बिल्कुल विपरीत दिशा में जाती है। ऐसे दो लोगों का साथ रहना समस्त वैज्ञानिक कारणों के विरुद्ध है। एक समय था जब वैवाहिक जीवन को संक्षिप्त रखने में छोटी जीवनरेखा सहायता करती थी। मगर आज विज्ञान का चमत्कार जीवनरेखा लम्बी हो चुकी है और वैवाहिक यंत्रणा से तमाम मनुष्य छटपटा रहे हैं। वैवाहिक बोरडम को लोग झेल रहे हैं।

आज के जनसंचार माध्यमों के युग में इस बीच में बाजार क्यों चूकता। वैवाहिक जीवन के बोरडम को दूर करने के लिए मृत्यु तक (कहीं-कहीं सात जनम तक) साथ रहने की कसम खाए लोगों के बीच आज के उदार आर्थिक जनतंत्र, भूमंडलीकरण, बाजारवाद के दौर में बाजार अपनी पैठ बनाने में शिद्दत से लगा हुआ है। तरह-तरह की क्रीम, लोशन, वयाग्रा जैसी दवाओं के कारगर होने की जोर-शोर से वकालत की जा रही है। कॉउन्सिलिंग क्लीनिक बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं। पत्र-पत्रिकाओं में सेक्स लाइफ़ को विविधतापूर्ण और रंगीन बनाने के कॉलम हैं। आज की बातों को यहीं छोड़ कर चलिए करीब सौ साल पहले की ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ की दुनिया में लौट चलते हैं, जब बाजार था मगर बाजारवाद न था। यहाँ फ़रमीना डाज़ा और डॉक्टर जुवेनल अर्बीनो आधी शताब्दी तक वैवाहिक बंधन में रहते हैं। दुनिया के लिए सबसे सुखी और सुंदर जोड़ा। समाज के हर सार्वजनिक क्रियाकलाप में संग-संग मुस्कुराते हुए हिस्सा लेने वाला। सब जगह आदर्श जोड़े के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत।

अजब होता है वैवाहिक प्रेम। एक दूसरे के छोटे-छोटे नुक्तों पर खीजना-झगड़ना। बाथरूम में साबुन की टिकिया न होने की शिकायत, इस शिकायत को झूठी साबित करने की जिद, कमोड का रिम गीला करने पर साथी की बड़बड़ाहट और उससे बचने के लिए प्रयोग के बाद रिम को पोंछना, रिम सूखा रखने के लिए स्त्रियों की तरह बैठ कर पुरुष द्वारा उसका इस्तेमाल। एक जल्दी सो कर उठता है दूसरे को देर तक सोना अच्छा लगता है, सुबह नींद में खलल पसंद नहीं है, दूसरा उठ जाता है अत: खलल तो पड़नी ही है। एक को पशु-पक्षी बहुत अच्छे लगते हैं, उन्हें पालने का शौक है, दूसरा पशु-पक्षी देख नहीं सकता है। हुक्म है घर में कोई ऐसा जानवर नहीं आएगा जो बोल नहीं सकता है। नतीजन केवल एक तोता घर में है। तोता जिसे जितना सिखाया जाता है वह उससे ज्यादा सीखता-बोलता है। जब डॉक्टर कहता है, “यू स्काउंड्रल!” तोता उसी आवाज में कहता है, “यू आर इवेन मोर ऑफ़ अ स्काउंड्रल, डॉक्टर।” कॉलरा को जड़ से उखाड़ फ़ेंकने का प्रण किए डॉक्टर जुवेनल उर्बीनो की मौत का कारण यही तोता बनता है। गार्सिया मार्केस वैवाहिक जीवन की छोटी-से-छोटी बात, संवाद-व्यवहार पर निगाह रखे हुए हैं। सो वैवाहिक जीवन में न चित में चैन है न पट में शांति है। असल में इन सबका उत्स कहीं और होता है।

एक बार डॉक्टर अपनी पत्नी की शिकायत पर कहता है कि एक अच्छे वैवाहिक जीवन की सबसे महत्वपूर्ण चीज प्रसन्नता नहीं, बल्कि स्थिरता होती है। वही डॉक्टर खुद अपने वैवाहिक जीवन को अपनी बेवफ़ाई से हिला डालता है। फ़रमीना डाज़ा की कुत्ते की तरह सूँघते रहने की आदत से वह शुरु से परेशान है। वह नफ़रत करता है पत्नी की इस आदत से। दूसरी ओर फ़रमीना डाज़ा अपनी इसी अनोखी घ्राण शक्ति के बल पर पति की बेवफ़ाई उससे कबूल करवा पाती है। फ़रमीना डाज़ा के प्रति एकनिष्ठ डॉक्टर उसे बहुत चाहता था, पर था तो वह भी पुरुष ही। सो एक दिन उसका नाड़ा अपनी एक मरीज, एक मुलाटा मिस बारबरा लिन्च के लिए खुल जाता है। वह हर दिन पाँच बजे उसके पास बस उतने ही समय के लिए जाता है जितने में एक डॉक्टर अपने मरीज को एक इंजक्शन लगा सकता है। दुनिया को दिखाते हुए वह रोज अपनी प्रेमिका (क्या उसे प्रेमिका कहा जा सकता है?) को इंजेक्शन लगाने जाता है। इतने कम समय में कपड़े उतारने का वक्त नहीं होता है अत: पैंट घुटनों तक सरका कर काम चलाया जाता है। शहर छोटा-सा है और डॉक्टर बहुत सम्मानित है, रोज-रोज लिन्च के द्वार पर गाड़ी खड़ी करना खतनाक है।

फ़रमीना डाज़ा को दूसरों से नहीं, पति के बदले-उखड़े व्यवहार से और उसके कपड़ों से आती गंध से उसकी करतूत पता चलती है। सही स्रोत पता करने के लिए एक दिन वह पति से थिर आवाज में कहती है, “मेरी ओर देखो।” डॉक्टर उर्बीनो उसकी नजरों की ताब नहीं झेल पाता है, उस क्षण के बाद से वह कभी लिन्च के पास नहीं जाता है। वह सारी बात फ़रमीना के सामने स्वीकारता है, साथ ही जोड़ता है, “मुझे लगता है मैं मरने वाला हूँ।” पत्नी का उत्तर है, “बड़ा अच्छा होगा, तब हम दोनों को थोड़ी शाँति मिलेगी।” यह है मार्केस द्वारा चित्रित वैवाहिक प्रेम जिसमें शुरु से डॉक्टर जानता है कि उसे फ़रमीना डाज़ा से प्रेम नहीं है। उसने उससे शादी की क्योंकि उसे उसकी अदाएँ अच्छी लगती थीं। शीघ्र उसे मालूम हुआ कि दोनों के बीच सच्चे प्रेम में कोई बाधा नहीं होगी। वह प्रेम को भी अन्य वैज्ञानिक आविष्कारों की भाँति अन्वेषित कर लेगा। वे कभी प्रेम की बात नहीं करते हैं। मगर एक दूसरे से खूब-खूब प्रेम करते हैं। मरते समय डॉक्टर अपनी पत्नी से कहता है कि वह उसे प्यार करता है। पत्नी से उम्र में दस साल बड़ा डॉक्टर स्वाभाविक रूप से उससे पहले बूढ़ा होता है। फ़रमीना उसे एक बच्चे की तरह नहलाती-धुलाती है, कपड़े पहनाती है, खाना खिलाती है। अन्य प्रेम की भाँति वैवाहिक प्रेम भी विचित्र होता है।

दूसरी ओर डॉक्टर के ठीक विपरीत सिर से पाँव तक कुरूप और उदास फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा पूरी तरह से प्रेम का मूर्तिमान रूप है। रोमांस का अप्रतिम नायक। स्त्रियाँ उसकी प्रशंसा इस लिए करती हैं क्योंकि उसने उन्हें वेश्या बनाया है। फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा का रूप-रंग-बाना देखने योग्य है, मौसम कोई हो मगर उसकी पोषाक तय है। एक उपयोगी और गंभीर बूढ़ा, उसका शरीर हड्ड़ीला और सीधा-सतर, त्वचा गहरी और क्लीन शेवन, रुपहले गोल फ़्रेम के चश्मे के पीछे उसकी लोलुप आँखें, रोमांटिक, पुराने फ़ैशन की मूँछें जिनकी नोंक मोम से सजी हुई। गंजी, चिकनी, चमकती खोपड़ी पर बचे-खुचे बाल बिलक्रीम की सहायता से सजाए हुए। उसकी मोहक और शिथिल अदा तत्काल लुभाती, खासकार स्त्रियों को। अपनी छियत्तर साल की उम्र को छिपाने के लिए उसने खूब सारा पैसा, वाक-विदग्धता और इच्छाशक्ति लगाई थी और एकांत में वह विश्वास करता कि उसने किसी भी अन्य व्यक्ति से ज्यादा लम्बे समय तक चुपचाप प्रेम किया है। उसका पहनावा भी उसकी तरह विचित्र है। वेस्ट के साथ एक गहरे रंग का सूट, सिल्क की एक बो-टाई, एक सेल्यूलाइड कॉलर, फ़ेल्ट हैट, चमकता हुआ एक काला छाता जिसे वह छड़ी के रूप में भी प्रयोग करता। दूसरी ओर फ़रमीना डाज़ा ऐसी कि राह चलते लोग मुड़ कर देखें। वह मौके के अनुसार कपड़े-जेवर पहनती है। दुनिया के नवीनतम फ़ैशन की उसे जानकारी रहती है। एक समारोह में उसे जाना है, उसने सिल्क की ढ़ीली ड्रेस पहनी है जिसे बेल्ट से कसा है, गले में छ: लड़ा मोती का हार, हाई हील्ड साटिन शूज हैं और है सजा हुआ घंटी के आकार का (बेल शेप्ड) हैट। भले ही यह उसकी उम्र के लोगों के योग्य ड्रेस नहीं है पर यह उस पर फ़बती है। वह अपने पति के कपड़े भी अवसरानुकूल चुनती है। पहनाती भी है क्योंकि अब बुढ़ापे में वह खुद पहन नहीं पाता है।

फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा बराबर मिलता रहा है फ़रमीना डाज़ा से मगर सदैव सार्वजनिक स्थलों पर। फ़रमीना डाज़ा भी उससे वैसे ही मिलती है जैसे समाज के तमाम अन्य लोगों से मिलती है। डॉक्टर और फ़रमीना डाज़ा हवाई गुब्बारे में डाक लेकर उड़े, संगीतोत्सव में निर्णायक बने, चर्च में मास करने गए, सिनेमा देखने पिक्चर हॉल गए, बाजार-हाट गए, सब जगह वे टकराते हैं। डॉक्टर उसके साथ बड़े सम्मानपूर्वक ढ़ंग से पेश आता है। पहली बार जब वे मिलते हैं और डॉटर अपनी पत्नी की बात करने लगता है तो फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा सोचता है कि दोनों पुरुष एक ही नियती के शिकार हैं, दोनों साझे पैशन-हजार्ड को लेकर चल रहे हैं, दोनों एक जूये में जुते हुए हैं। फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा सफ़लता की सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते रिवरबोट कम्पनी का सर्वोच्च अधिकारी बन चुका है। मगर उसकी पोशाक नहीं बदली। देखने में यह ब्यूटी एंड बीस्ट की कहानी लगती है। जिसमें ब्यूटी तो है, मगर बीस्ट कभी कोई बीस्टली काम नहीं करता है। फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा फ़रमीना डाज़ा को लाल गुलाब देना चाहता है। डरता है क्योंकि वह उसकी तुनकमिजाजी से बहुत अच्छी तरह परिचित है। वह भी एक बूढ़े की जिद पाले बैठा है। उसके सिर के बाल उड़ने लगे, दाँत झड़ने लगे। पर दिल ज्यों का त्यों फ़रमीना डाज़ा के लिए सुरक्षित है। वह फ़रमीना डाज़ा की जिंदगी में आए बदलावों पर आँख रखे हुए है, उसे एक दिन अचानक उम्रदराज़ होने का अहसास होता है, वह देखता है कि फ़रमीना डाज़ा को चलते वक्त डॉक्टर के सहारे की जरूरत पड़ने लगी है। प्रेम समय-कुसमय नहीं देखता है फ़्लोरेंटीनो अपने प्रेम का पुन: इजहार करता है, “मैंने इस अवसर का आधी सदी से अधिक इंतजार किया है, अपने शाश्वत वफ़ाई और असमाप्त प्रेम की दोबारा कसम खाने के।” अवसर है उसके वैधव्य की पहली रात्रि का। किस उत्तर की अपेक्षा की जाती है। सही सोचा। वह कहती है कि दफ़ा हो जाओ मेरी नजरों के सामने से और मरने तक दोबारा फ़िर कभी अपना मुँह न दिखाना, तुम्हारे मरने में अधिक दिन नहीं बचे हैं। अवसर है जब वह अपने पति के साथ एक बार फ़िर से वही जिंदगी गुजारने की सोच रही थी।

जिंदगी को कोई कुछ सिखाता नहीं है, जिंदगी सबको सिखाती है। वह प्रेमी क्या जो हताश हो कर प्रेम पाने की कोशिश करनी छोड़ दे। जिंदगी भर प्रेम पत्र के अलावा कुछ और न लिख पाने वाला फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा फ़िर करीब दो साल तक अपनी प्रेमिका को खत लिखता है मगर इस बार वे पागल प्रेमी के उद्गार न हो कर एक मित्र के रूप में लिखे गए आध्यात्मिक पत्र हैं, जिनसे एक विधवा को अपने वैधव्य सहने की शक्ति मिलती है और वह उसे पुन: अपने जीवन में प्रवेश की अनुमति देती है। प्रेम की एक बार फ़िर जीत होती है।

प्रेम का कौन-सा आयाम है जो इस उपन्यास में चित्रित नहीं है। आधी सदी तक इंतजार करने वाला प्रेम, वैवाहिक प्रेम, माँ-बेटे का प्रेम, माँ-बेटी का प्रेम, एकांतिक प्रेम (जी हाँ इसमें लड़कियों के अपने शरीर के अंवेषण की बात है), समलैंगी प्रेम, विवाहेत्तर प्रेम, नौकर-मालिक-मालकिन, किशोर प्रेम, युवा प्रेम, बूढ़ा प्रेम, बच्ची से किया गया प्रेम। सब यहाँ उपस्थित है। और तो और पशु-पक्षी से प्रेम, पशु-पक्षी का प्रेम, प्रकृति-प्रेम भी यहाँ है। प्रकृति का मनुष्य द्वारा दोहन, प्रकृति का उजाड़ होते जाने, पर्यावरण प्रदूषण सब यहाँ चित्रित है। प्रेम का सकारात्मक और नकारात्मक दोनों रूप यहाँ है। इडीपस कॉम्प्लेक्स और एलेक्ट्रा कॉम्प्लेक्स आयाम इस उपन्यास में भरपूर आए हैं। जिन पर फ़िर कभी। नोबोकॉव की लोलिता भी यहाँ नजर आती है। उस पर भी फ़िर कभी और। बच्चों का फ़ोटोग्राफ़र और उसकी अश्वेत साथिन पर भी कभी और। मृत्यु इस उपन्यास की स्वरलहरी है। हर रूप, हर रंग में, हर स्थान पर उपस्थित। बुढ़ापे से मृत्यु, बुढ़ापे से डर कर आत्महत्या, जवानी में मौत, बच्ची की मौत, स्वाभाविक-अस्वाभाविक मौत, बीमारी से मौत, गंभीर मौत, हास्यास्पद मौत, बेतुकी मौत। मनुष्यों के साथ-साथ प्रकृति भी मर रही है। आदमियों के साथ-साथ शहर-देश मर रहा है। और मोहभंग? तरह-तरह के मोहभंग भी यहाँ वर्णित हैं। मगर अभी तो खालिस लव की बात, वह भी बस ‘लव इन द टाइन ऑफ़ कॉलरा’ की बात। जितने सुंदर, मार्मिक दृश्य इस उपन्यास में चित्रित है उससे कहीं ज्यादा वीभत्स चित्र यहाँ आए हैं। क्यों न आएँ, आखिरकार उपन्यास चल रहा है ‘इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ में।

गेब्रियल गार्सिय मार्केस को इस उपन्यास की सामग्री मिली अपने माता-पिता के जीवन से। कोलंबियन गेब्रियल गार्सिया मार्केस ने स्कूली शिक्षा भी न समाप्त की लेकिन पत्रकार के रूप में पेशेगत जिंदगी की शुरुआत कर विश्व का एक सर्वाधिक लोकप्रिय और बड़ा लेखक हासिल बनने का श्रेय लिया। ये पाठकों को एक दूसरी दुनिया में ले जाने में सिद्ध हस्त हैं। इनका जन्म ६ मार्च १९२७ को कोलंबिया के एक छोटे से तटीय शहर अराकाटाका में हुआ। पत्नी मर्सडीज़ के प्रति एकनिष्ठ रहते हुए इन्होंने न जाने कितने अफ़ेयर्स चलाए। मर्सडीज़ बारचा प्रादो से बेहद प्रेम करने वाले गार्सिया मार्केस स्कूली दिनों में मिले थे जब वे उन्नीस साल और ये तेरह साल की थीं। ये पत्नी का योगदान स्वीकार करते हैं। इनका मानना है कि  पत्नी के कारण ये लेखक बन कर जीवन व्यतीत कर पाए। गार्सिया मार्केस मानते हैं कि उनके जीवन में दो अच्छी बातें हुई है , एक उनका मीन नक्षत्र में जन्म लेना और दूसरा पत्नी मर्सडीज़ का होना। बोर्खेज़ और फ़ॉक्नर से प्रभावित गार्सिया मार्केस की अपने समकालीनों से खूब मित्रता है। संयुक्त परिवार में पले-बढ़े ये ग्यारह भाई-बहनों में सबसे बड़े हैं। इनका एक सौतेला भाई भी इनके पिता के किसी अल्पकालीन संबंध का परिणाम। साहित्य रचते हैं लेकिन उसे जानते नहीं हैं अत: उस पर कभी बोलना पसंद नहीं करते हैं।

इनके पिता गेब्रियल एल्गियो गार्सिया मार्टीनेज़ पढ़ने के लिए अराकाटाका आए थे मगर बनाना कम्पनी में काम करने लगे। वे टेलीग्राफ़ विभाग में काम करते थे। यहीं वे अपनी होने वाली पत्नी लुइसा सैंटीआगा मार्केस से मिले। मगर जैसाकि होता है लड़की के माँ-बाप को यह पसंद नहीं था। कारण वह बाहर से आ कर बसा था। वे खुद भी बाहर से आए थे मगर उन्होंने यहाँ खूब सम्पत्ति जोड़ ली थी। दूसरी बात जो उन्हें नागवार लग रही थी वह था लड़के का एक नाजायज औलाद था इसका मतलब निम्नजीवन। पहले माँ-बाप ने लड़की को रिश्तेदारों और मित्रों के यहाँ-वहाँ रखा ताकि वे एक दूसरे को भूल जाएँ। मगर उन्हें शीघ्र पता चला कि वे टेलीग्राफ़ के माध्यम से एक-दूसरे से लगातार जुड़े हुए हैं। प्रभावशाली पिता ने लड़के का स्थानान्तरण अन्य स्थान रिपोहाचा करवा दिया। इसके फ़लस्वरूप माता-पिता की कामना के विपरीत दोनों के प्रेम में बढ़ोतरी हुई। परिचितों ने माता-पिता को समझाया-बुझाया, अंतत: वे राजी हो गए। शायद राजी होने का असली कारण बेटी का गर्भवती होना था। इस तरह दोनों का, ग्रासिया मार्केस के माता-पिता का ११ जून १९२६ को विवाह कर दिया गया, इस शर्त के साथ कि वे अराकाटाका नहीं लौटेंगे। जल्द ही यह शर्त टूट गई और गेब्रियल गार्सिया मार्केस का जन्म उनके नाना-नानी के घर हुआ। कोलंबिया की संस्कृति में बच्चे के तीन नाम होते हैं। पहला उसका अपना नाम दूसरा पिता का और तीसरा माँ का। वहाँ व्यक्ति को बुलाने के लिए पहले अथवा तीसरे नाम का प्रयोग नहीं किया जाता है उसे दूसरे और तीसरे नाम से एक साथ बुलाया जाता है। इसी रीति का पालन करते हुए इस आलेख में इन्हें गार्सिया मार्केस संबोधित किया गया है। वैसे इनके मित्र और चाहने वाले इन्हें गाबो नाम से बुलाते हैं। इनके माता-पिता के जीवन से उपन्यास का काफ़ी साम्य है। ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ का नायक भी टेलीग्राफ़ विभाग में काम करता है और सारी जिंदगी बस प्रेम पत्र लिखता है। ऑफ़ीसयल लेटर के रूप में भे बस प्रेम पत्र। अपने प्रेम पत्र साथ ही दूसरों के प्रेम पत्र भी लिखता है। पत्रों के माध्यम से ही उसका प्रेम परवान चढ़ता है और एक लम्बे समय तक पत्रों की आस पर वह जीता है।

इनके माता-पिता में बेहद लगाव रहा। ये स्वीकारते हैं कि फ़रमीना डाज़ा का चरित्र इनकी माँ पर आधारित है मगर फ़रमीना डाज़ा अधिक दुनियादार है। रोमांटिक होते हुए भी जमीन से जुड़ी हुई। ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ की फ़रमीना डाज़ा आधुनिक स्त्री है, वह एक दुनियादार स्त्री है जो सुरक्षा और सम्मान के लिए प्रेम को ठुकरा कर डॉक्टर से विवाह करती है। उस डॉक्टर की घर-गिरहस्ती महारानी की तरह संभालती है। उसे एक बेटा और एक बेटी देती है। दुनिया घूमती है, घर में दुनिया की बेहतरीन चीजें सजाती है। जब चीजों से मन भर जाता है तो उन्हें हटा देती है। जरूरत पड़ने पर पति की बच्चे की तरह देखभाल करती है और जब यह भूमिका पूरी हो जाती है तो प्रेमिका की भूमिका में कुशलता के साथ समा जाती है। प्रेम का सब ढ़ंक लेने वाला शक्तिशाली रूप निर्णय लेने का साहस देता है। वह परिवार, समाज, दुनिया की परवाह न करते हुए अपने जनम-जनम के प्रेमी के साथ चल पड़ती है। उपन्यास दिखाता है कि प्रेम को ना कहना त्रासद होता है। इसकी प्राप्ति मनुष्य को सकून देती है।

प्रेम इस धरती पर तभी से है जब से मनुष्य इस धरती पर है। लेकिन यूनानियों के लिए प्रेम एक अनियमित और अल्पकालीन अनुभव हुआ करता था। दरबारी प्रेम अक्सर अवैध और जानलेवा होता। प्रेम का मतलब था दु:ख (क्या आज भी यह सत्य नहीं है?)। सुखांत प्रेम यूनानियों की सांस्कृतिक कल्पना में न था। सत्तरहवीं सदी तक प्रसन्न ‘रोमांस’ शब्द डिक्शनरी में न था। संग-साथ की कामना और लालसा प्रेम की शाश्वत छोटी-सी मासूम माँग रही है। मगर बारहवीं सदी का एडवाइज मैनुअल (ऑन लव एंड द रेमीडीज़ ऑफ़ लव) चेतावनी देता है: ‘प्रेमी को देखने या बात करने के बहुत अधिक अवसर प्रेम को कम कर देते हैं।’ शायद यह भी एक कारण है वैवाहिक प्रेम के घटते जाने का। पता नहीं कितना सही है जब कहा जाता है कि वैवाहिक प्रेम समय के साथ प्रौढ़ होता है, बढ़ता है। प्रेम को परिभाषित करना जितना कठिन है उससे कम कठिन नहीं है उसे फ़ार्मूलाबद्ध करना। पहले वैवाहिक जीवन की अवधि कम होती थी क्योंकि जीवन रेखा छोटी थी। आज जब विज्ञान की कृपा से जीवन रेखा लम्बी हो गई है तो वैवाहिक जीवन अवधि को छोटा करने के लिए तलाक की सुविधा उपलब्ध है। फ़रमीना डाज़ा तलाक नहीं लेती है मगर एक लम्बे समय के लिए अपनी कज़िन के यहाँ रहने चली जाती है। पति में उसे रोकने का नैतिक साहस नहीं है। वह तभी लौटती है जब डॉक्टर उसे खुद लिवाने जाता है।

मार्केस के ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ में पूरा जीवन, आधी सदी लग जाती है प्रेमी को अपनी प्रेमिका पाने में, एक दूसरे को पाने में। बुढ़ापे में दोनों मिल बैठ कर सुख-संतोष से समय गुजार रहे हैं। फ़रमीना डाज़ा की बेटी ओफ़ीलिया को यह नागवार लगता है। वह माँ के इस उम्र में अफ़ेयर की बात सुन कर न्यू ओरलियन से आई है। डॉक्टर बेटे के लिए दो अकेले लोगों के लिए यह एक स्वस्थ संबंध था। वह खुश था कि उसकी माँ को रंड़ापे में कोई साथी मिल गया। वही उसकी बहन के लिए यह कुत्सित वेश्यागिरी थी। वह अपनी दादी के स्वभाव की थी। दादी ने जीते-जी फ़रमीना डाज़ा को कभी चैन से न रहने दिया। एक टिपिकल सास थी वह, उसका बेटा एक टिपिकल बेटा था। बेटा अन्याय देखते हुए भी कभी माँ को कुछ न कह सका, पत्नी के पक्ष में एक शब्द न निकला उसके मुँह से। ओफ़ीलिया ठीक अपनी दादी की तरह कुंठाओं, पूर्वाग्रहों से भरी हुई थी। पाँच साल की नादान उम्र में भी वह स्त्री-पुरुष के बीच मासूम प्रेम की कल्पना नहीं कर सकती थी तो भला अस्सी साल के स्त्री-पुरुष के संबंध को कैसे मासूम मान लेती? वह अपने भाई से कटु विवाद करते हुए कहती है कि माँ को सान्त्वना देने के लिए बस एक ही काम फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा को करना बच गया है, माँ के बिस्तर पर पहुँचना। भाई उससे कभी पार नहीं पा पाता था इस बार भी नहीं पा पाता है। लेकिन उसकी पत्नी चुप नहीं रहती है। वह अपनी सास का पक्ष लेती है। वह प्रेम के लिए किसी उम्र सीमा को नहीं मानती है।

प्रेम अपने आप में पूर्ण होता है, उसका कोई अन्य लक्ष्य नहीं होता है। वह साधन और साध्य दोनों है। सदा से प्रेम को युवाओं, किशोरों का पागलपन माना जाता रहा है। फ़रमीना डाज़ा की बहु को अपनी सास के बुढ़ापे के प्रेम से कोई आपत्ति नहीं है बल्कि वह इसे न्यायोचित ठहराती है। मगर ओफ़ीलिया के लिए उसकी उम्र में भी प्रेम हास्यास्पद है और उनकी उम्र में तो यह जुगुप्सा उत्पन्न करने वाला है। आज के उत्तरआधुनिक युग में भी शायद बहुत सारे लोगों को यह घृणित लगे। जिद्दी ओफ़ीलिया ने तय किया कोई कुछ करे-न-करे वह फ़्लोरेंटीनो अरीज़ो को घर से निकाल बाहर करेगी। फ़रमीना डाज़ा जब ठान लेती है तो उसके रास्ते को कोई नहीं रोक सकता है। जब बेटी का इरादा माँ को पता चलता है वह बेटी को घर से निकल जाने का आदेश देती है। इतना ही नहीं अपनी मरी माँ की सौगंध खा कर कहती है कि अब वह इस घर में कभी कदम न रख सकेगी। फ़रमीना डाज़ा अपने मूल स्वरूप में लौट आती है, अब उसे कोई नहीं रोक सकता है। बेटी बाद में माँ से माफ़ी माँगती है मगर माँ उसे कभी नहीं माफ़ करती है, न ही कभी घर में घुसने देती है, उसने अपनी मरी माँ की कसम जो खाई थी।

ऐसी थी फ़रमाना डाज़ा। एक समय भले ही उसने फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा को अपनी जिंदगी से दूर कर दिया था लेकिन आज उसे पता है कि असल में वह कभी उसे दूर नहीं कर पाई थी। वह दुनिया देख चुकी है आज उसे अपने पिता की सच्चाई मालूम है। पिता की समृद्धि के स्रोत से भी वह अब परिचित है। वह जानती है कि एक सम्मानित विधवा को दूसरे पुरुष के साथ देख कर लोग क्या कहेंगे-सोचेंगे, खास कर इस पकी उम्र में। इसे किशोरावस्था और जवानी में होने वाली भूल माना जाता है। मगर यह कभी भी, कहीं भी, किसी उम्र, किसी जाति, किसी रंग, किसी नस्ल के व्यक्ति को हो सकता है। इससे कोई अछूता नहीं रह सकता है, यह किसी को भी कॉलरा की तरह दबोच सकता है। गार्सिया मार्केस से जब किसी ने पूछा कि वे कैसे मरना पसंद करेंगे तो उनका उत्तर था, ‘प्रेम में’। जब प्रेम व्यक्ति पर छाता है तो उसका सर्वांग निगल लेता है। प्रेमी-प्रेमिका की भूख-प्यास सब गायब हो जाती है। वे प्यार के लिए कुछ भी यहाँ तक की जान भी देने को राजी रहते हैं। अनारकलि अपने सलीम की गली छोड़ कर अपने प्रेमी के साथ डिस्को चल देने को तैयार रहती है। फ़रमीना डाज़ा भी अपने प्रेमी के साथ रीवरबोट की सैर को निकल पड़ती है। और जिस बोट पर जाती है उसका नाम है ‘न्यू फ़िडेलिटी’। सच में यह ‘नई वफ़ा’ का जमाना है जहाँ धैर्य का मीठा फ़ल प्राप्त होता है।

फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा ने उन्नति की है अब वह ‘रिवर कम्पनी ऑफ़ द करेबियन’ का प्रमुख है। उसकी बोट का प्रेसिडेंसियल स्यूट फ़रमीना डाज़ा के लिए आरक्षित है। बेटे की रजामंदी से माँ सैर के लिए जा रही थी। जब बेटे को पता चला कि बोट पर कोई और भी जा रहा है उसका पौरुष जाग पड़ता है और पाठक देखता है कि बाहर से प्रगतिशील बेटा भीतर से अपनी बह न की तरह ही दकियानूसी है। हाँ उसकी पत्नी आधुनिक विचार की है। वही इस नाजुक मौके पर बात संभालती है। फ़रमीना डाज़ा अपनी बहु को पहचानती है इसीलिए वह उससे अपने मन की बात कह पाती है। वह कहती है, “एक सदी पहले उस बेचारे और मुझ पर जिंदगी ने अत्याचार किया था क्योंकि हम बहुत छोटे थे, और अब वही फ़िर से करना चाहती है क्योंकि हम बूढ़े हैं।” कितनी अजीब बात है पेट की जाई उसे नहीं समझ पाती है और एक बाहर से आई स्त्री उसे न केवल सुनती-समझती है वरन उसकी सहायक भी बनती है। कम-से-कम उसे अपने डॉक्टर पति की तरह दु:ख नहीं है कि कोई उसे जानने-समझने वाला नहीं है। गार्सिया मार्केस यहाँ सास-बहु के रिश्तों को एक नया आयाम प्रदान करते हैं।

मार्केस इस अनोखी प्रेम यात्रा में बहुत कुछ दिखाते हैं। इस प्रेम कथा में लेखक पर्यावरण का निरीक्षण करता है। आज हम पर्यावरण को ले कर इतने चिंतित है मगर पर्यावरण प्रदूषण आज से सौ साल पहले भी था और बहुत भयंकर था। फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा इस बार की यात्रा में प्रकृति का बदलाव देख कर चकित है, वह देखता है कि पानियों का पिता कहलाने वाली मैग्डेलेना नदी में आज नॉव चलाना कठिन है। नदी आज मात्र स्मृतिभ्रम बन कर रह गई है। पचास साल से जंगल कट रहा है। बड़े-बड़े पुराने पेड़ रिवरबोट के ब्यॉलर चलाने के लिए काटे जा रहे हैं। फ़रमीना डाज़ा को अपने मनचाहे जानवर कहीं नहीं दीख रहे हैं। चमड़े के कारखानों की आपूर्ति के लिए उनका शिकार किया जा चुका है। न कहीं धूप सेंकते घड़ियाल हैं, न तितलियाँ और न ही चीखते तोते और पागलों की तरह चिंचियाते बंदर, न ही अपने बछड़े को अपने बड़े-बड़े थनों से दूध पिलाती जलगाय जो मनुष्य की आवाज में रो सकती थी। सब नष्ट हो चुका है। सारी धरती बंजर हो चुकी है। आज भी पर्यावरण पर किया जा रहा यह अत्याचार रुका नहीं है। जब पानी नहीं रहेगा तो हम क्या करेंगे? मार्केस व्यंग्य करते हैं, ‘तब हम सूखी नदी की छाती पर लक्ज़री ऑटोमोबील चलाएँगे।’ प्रश्न उठता है जब ऑटोमोबील का ईधन चुक जाएगा तब? समूद्र में डूबे खजाने और उसकी निष्फ़ल खोज का रूप भी इसमें वे रचते हैं।

आज इक्कीसवीं सदी में प्रेम को लेकर कोई वर्जना, कोई कुंठा नहीं है। साथ ही आज लोग प्रेम को लेकर इतने आश्वस्त नहीं हैं। लोग भ्रमित हैं। प्रेम को लेकर इतनी गलतफ़हमी है कि लोग सही-गलत का निर्णय खुद नहीं कर पा रहे हैं। इसे भी आज बाजार के हाथ सौंप दिया गया है। बाजार बहती गंगा में हाथ धो रहा है। पहले कोई एक पाठकजी दुल्हनियाँ दिलवाते थे। आज वैवाहिक विज्ञापनों से दुनिया भरी पड़ी है। वैवाहिक विज्ञापनों की नेट साइट से ज्यादा डेटिंग की नेटसाइट के विज्ञापन हैं। आपको कैसा साथी-साथिन चाहिए इसका डाटा बैंक बना लिया जाता है। पैसा फ़ेंको तमाशा देखो। फ़ैशन के इस दौर में गारंटी कौन दे सकता है। हाँ, आप चाहें तो आपकी जेब के अनुसार डेट की संख्या तय की जा सकती है। आपकी डेट बाजार अरेंज कर देगा और अगर आपकी पॉकेट पार्मीशन देगी तो आपकी पोशाक, नेल पॉलिस, जूते, टाई,, मेकअप, केशविन्यास, मिलने का स्थान, सब बाजार तय कर देगा। वह दुकान सजाए बैठा है बस आपको हाँ करने की देर है। अब आगे आपका भाग्य। आगे की घटना-दुर्घटना की जिम्मेवारी भला कौन ले सकता है। मैच मेकिंग दुनिया का एक प्राचीनतम पेशा है। आज भी ये आपके लिए साल में कम-से-कम बारह ब्लाइंड डेट अरेंज कर दे सकते हैं। ज्यादा नहीं बस आपको अपनी अंटी से १५-२० हजार डॉलर ढ़ीले करने होंगे। क्या कहा आप भारत में हैं। कोई दिक्कत नहीं भारत में आप इसे भारतीय करेंसी में चुका सकते हैं। एक शोध के अनुसार पुरुषों को इस सहायता की अधिक जरूरत होती है वे तय नहीं कर पाते हैं कि प्रेम के लिए किसे चुने। स्त्री अपने सहजज्ञान पर अधिक निर्भर करती है।

समाज में आज खुलेआम सब तरह के प्रेम संबंध, सब तरह के परिवार उपलब्ध हैं। भविष्य में भी लोग प्रेम और रोमांस में पड़ते रहेंगे। लम्बे समय तक संग रहने से पैशन कम हो जाए, सेक्स की इच्छा चुकने लगे, शायद पूरी तरह से बुझ भी जाए, मगर प्रेम में प्रौढ़ता आती जाती है। दिक्कत तब आती है जब एक साथी की सेक्स इच्छाएँ बुझने लगती हैं। क्या दूसरा साथी अपने स्वस्थ शरीर की जायज माँग को दबा कार रखे, उसे मन मार कर ठुकरा दे? प्रेम के लिए सेक्स के आकर्षण को समाप्त नहीं किया जा सकता है। यह तो ऐसे ही हुआ कि स्वस्थ अंग को शरीर से काट कर अलग कर फ़ेंक दिया जाए। इसके लिए बहुत ज्यादा बेहोशी की दवा की खुराक चाहिए होगी। इसके बाद भी दर्द का भूत पूरी तौर पर जाता नहीं है। समाज की नजर में साथी का बदलाव असफ़लता, बेशर्मी, असंतुष्टि का प्रतीक माना जाता है। सामाजिक अपेक्षाओं पर खरे उतरने के लिए वैवाहिक प्रेम के स्थायित्व के नाम पर, आर्थिक जरूरतों की पूर्ति के लिए लोग संबंधों को ढ़ोए चले जाते हैं। खुद भी खीजे रहते हैं, दूसरों को भी चैन से नहीं जीने देते हैं। असफ़लता को सफ़लता की तरह प्रचारित करते हुए वैवाहिक रिश्तों को तोड़ कर बाहर प्रेम खोजना आदिम काल से होता आया है। पहले यह छिपा कर किया जाता था अब खुलेआम किया जाता है। अगर हम इस ढ़ोंग से बाहर निकलता चाहते हैं तो आज के समय में हमें विवाह और वैवाहिक जीवन की परिभाषा बदलनी होगी। वरना समाज की पुरानी मान्यताओं को ठेंगा दिखाते हुए लोग तरह-तरह से रह ही रहे हैं। फ़िर बहकने लगी। एक बार फ़िर से ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ की ओर लौटते हैं जिस पर अब फ़िल्म भी बन चुकी है।

इस उपन्यास में आज से सौ साल पहले की कहानी में आधुनिक युग का वातावरण प्रस्तुत है। जैसे प्रेम और प्रेम कथाएँ कभी पुरानी नहीं पड़ती वैसे ही मार्केस का यह उपन्यास आने वाली पीढ़ियों के पाठकों के लिए सदैव नवीनता लिए रहेगा। गार्सिया मार्केस बनना चाहते थे जादूगर और बन गए शब्दों के जादूगर। प्रेम शब्दों का मोहताज नहीं होता है, प्रेम को लिखित रूप में व्यक्त करने के लिए शब्द चाहिए होते हैं। इस जादू को लिखने के लिए जादूई शब्द चाहिए होते हैं। ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ जादूई शब्दों में, जादूई भाषा में लिखा गया जादूई उपन्यास है। इतना लिखने के बाद भी लेखक को कोई मुगालता नहीं है कि साहित्य दुनिया बदल सकता है। इसके बिना भी दुनिया वही रहेगी। हाँ वे व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि यदि पुलिस न हुई तो दुनिया अवश्य भिन्न होगी। वे सोचते हैं कि यदि वे लेखक न हो कर एक टेरिरिस्ट होते तो मनुष्यता के लिए कितना भला होता। वे प्यार में मरना चाहते हैं मगर एड्स से नहीं। उनके अनुसार एड्स आदमी के अपने व्यवहार से आता है। वह कॉलरा से भिन्न है। कॉलरा आदमी के नियंत्रण के बाहर का खतरा है। एड्स को आप आमंत्रित करते हैं। फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा प्रेम में वैसे ही कष्ट पाता है जैसा कष्ट कॉलरा में होता है। गार्सिया मार्केस ने प्रेम के सारे मानदंडों को झुठलाते हुए शाश्वत प्रेम की कथा लिखी है। बस देखते रहिए कि फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा और फ़रमीना डाज़ा बिना तट पर रुके रीवरबोट पर मैग्डालेना नदी के कितने चक्कर लगाएँगे, क्योंकि फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा ने कॉलरा का फ़ायदा उठाते हुए कैप्टन को आदेश दे दिया है, “लेट अस कीप गोंइंग, गोइंग, गोइंग….

आइए अब इस उपन्यास पर इसी नाम से बनी फ़िल्म की बात करते हैं। २००७ में मार्केस के इस उपन्यास पर माइक नेवेल ने इसी नाम से फ़िल्म बनाई जिसमें फ़रमीना डाज़ा की भूमिका जिओवाना मेज़ोगिओर्नो ने की है और नायक अरिज़ा के किरदार को जेविएर बार्डेन ने निभाया है तथा डॉकटर का अभिनय बेंजामिन ब्राट ने किया है। मार्केस के उपन्यास पर लैटिन अमेरिका में नहीं हॉलीवुड में फ़िल्म बनी। फ़िल्म का एक गीत गायिका शकीरा ने लिखा है। मार्केस शकीरा के फ़ैन थे। ढ़ाई घंटे की यह फ़िल्म समीक्षकों को नहीं जँची। फ़िल्म उपन्यास के काफ़ी अंशों को छोड़ देती है। अगर दर्शक ने उपन्यास पढ़ा है तो वह फ़िल्म समझ सकता है लेकिन उसकी प्रशंसा करेगा इसमें शक है। अगर किताब नहीं पढ़ी है तो फ़िल्म पूरी तरह से समझ सकेगा इसमें शक है। इस उपन्यास को फ़िल्म में ढ़ालना आसान काम नहीं है और निर्देशक इसमें सफ़ल नहीं हुआ है।

किसी साहित्यिक कृति पर फ़िल्म बनाना एक बहुत बड़ा जोखिम है। किसी विश्व प्रसिद्ध साहित्यिक कृति पर फ़िल्म बनाना और बड़ा जोखिम है। कोलंबियन नोबेल पुरस्कृत लेखक गैब्रियल गार्सिया मार्केस इस बात से परिचित थे कि अक्सर फ़िल्म बनते ही साहित्यिक कृति का सर्वनाश हो जाता है। इसी कारण उन्होंने काफ़ीसमय तक निश्चय किया हुआ था कि वे अपनी कृतियों पर फ़िल्म बनाने का अधिकार भूल कर भी किसी को नहीं देंगे} उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘वन हंड्रेड एयर्स ऑफ़ सोलिट्यूड’ पर फ़िल्म बनाने के लिए उन्हें एक बहुर बड़ी रकम की पेशकश की गई। काफ़ी समय तक वे टस-से-मस नहीं हुए, अपनी जिद पर अड़े रहे। उनका एक और उपन्यास ‘लव इन द आइम ऑफ़ कॉलरा’ के फ़िल्मीकरण के लिए निर्देशक उनके चक्कर लगा रहे थे। वे इसके लिए भी सहमत न थे। प्रड्यूसर स्कॉट स्टेनडोर्फ़ ने तय किया कि वे इस विश्व प्रसिद्ध उपन्यास पर फ़िल्म बनाएँगे। इसके लिए उन्होंने मार्केस को घेरना शुरु किया। मार्केस राजी न हों। तीन साल तक मार्केस से अनुनय-विनय करते रहने के बाद अंत में स्कॉट स्टेनडोर्फ़ ने साफ़-साफ़ कह दिया कि जैसे फ़्लोतेंटीनो अरीजा ने फ़रमना डाजा का पीछा नहीं छोड़ा था वैसे ही वे भी मार्केस का पीछा नहीं छोड़ने वाले हैं। हार कर मार्केस ने अपने उपन्यास पर फ़िल्म बनाने की अनुमति स्कॉट स्टेनडोर्फ़ को दे दी। निर्देशन का काम किया जाने-माने फ़िल्म निर्देशक माइक नेवेल ने। और इस तरह 1988 में लिखे उपन्यास पर 2007 में फ़िल्म रिलीज हुई। फ़िल्म पूर्व प्रदर्शन के समय मार्केस स्वयं उपस्थित थे। फ़िल्म की समाप्ति पर उन्होंने चेहरे पर मुस्कान लिए हुए केवल एक शब्द कहा, ‘Bravo!’

उपन्यासकार ने फ़िल्म देख कर कहा, ब्रावो!’ लेकिन फ़िल्म देख कर दर्शकों पर क्या प्रभाव पड़ता है? यदि आपने पुस्तक पढ़ी है तो पहली बार में फ़िल्म जीवंत और तेज गति से चलती हुई लगती है। अगर आपने पुस्तक नहीं पढ़ी है तो बहुत सारी बातें बेसिर-पैर की लगती हैं। दर्शक उपन्यास की गूढ़ बातों से वंचित रहता है। नायिका की मुस्कान, उसका लावण्य दर्शकों को लुभाता है। उसकी डिग्निटी देख कर उसके प्रति मन में आदर का भाव उत्पन्न होता है। प्राकृतिक दृश्य बहुत कम हैं मगर सुंदर हैं, आकर्षित करते हैं। फ़िल्म का रंग-संयोजन मनभावन है। फ़िल्म देखने में आनंद आता है। कारण फ़िल्म की गति और उसकी जीवंतता है। पर जब दूसरी-तीसरी बार आप समीक्षक की दृष्टि से इसे देखते हैं तो यह आपको उतनी प्रभावित नहीं करती है।

यह सही है कि साहित्य और फ़िल्म दो भिन्न विधाएँ हैं और उनके मापादंड भी भिन्न हैं। चलिए इस वजह से ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ उपन्यास और ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ फ़िल्म की तुलना नहीं करते हैं। जब सिर्फ़ फ़िल्म को लेते हैंतो पाते हैं कि जिस दर्शक ने पुस्तक नहीं पढ़ी है, उसके पल्ले क्या अप्ड़ेगा? उसके पल्ले अप्ड़ेगा एक ऐसा हीरो जो कहीं से भी कन्विंसिंग नहीं लगता है। उसका हेयर स्टाइल, उसका झुका हुआ शारीरिक आकार, उसकी मुस्कान, सब मिल कर एक कॉमिक इफ़ैक्ट पैदा करते हैं। वैसे यह कोई नया एक्टर नहीं है। जेवियर बारडेम को इसके पहले ‘नो अकंट्री फ़ॉर ओल्डमैन’ के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का ऑस्कर पुरस्कार मिल चुका है। मगर यहाँ कुछ गड़बड़ हो गई है। दोष किसे दिया जाए? उनके मेकअप मैन को या जिसने उनकी विग डिजाइन की या उसको जिसने उनकी मूँछें और ड्रेस बनाई, या निर्देशक जिसने उनकी ऐसी कल्पना की। आखिर फ़िल्म तो निर्देशक की आँख से बनती है। ठीकरा किसी के सिर पर फ़ोड़ा जा सकता है। लेकिन बारडेम की एक्टिंग और मुस्कान फ़्लोरेंटीनो अरीजा के रूप में प्रभावित नहीं करती है। ठीक है वह एक निम्न आर्थिक स्तर, एक क्लर्क ग्रेड के लड़के के रूप में जीवन प्रारंभ करता है। बाद में जब वह रिवार बोट कंपनी का मालिक बन जाता है तब भी उसकी चाल-ढ़ाल में कोई परिवर्तन नहीं आता है, वह वैसा ही झुक कर रहता है। सबसे खराब प्रभाव डालती है, उसके चेहरे पर चिपकी उसकी मुस्कान। इस मुस्कान के चलते वह एक क्लाउन नजर आता है, डाई हार्ट प्रेमी नहीं, जैसा कि मार्केस ने उसे दिखाने का प्रयास किया है। वैसे उपन्यास में भी ठीक वह इसी रूप में चित्रित है (फ़्लोरेंटीनो अरीजा का रूप-रंग-बाना देखने योग्य है, मौसम कोई हो मगर उसकी पोशाक तय है। एक उपयोगी और गंभीर बूढ़ा, उसका शरीर हड़ीला और सीधा-सतर, त्वचा गहरी और क्लीन शेव्ड, रुपहले गोल फ़्रेम के चश्मे के पीछे उसकी लोलुप आँखें, रोमांटिक, पुराने फ़ैशन की मूँछें, जिनकी नोंक मोम से सजी हुई। गंजी, चमकती खोपड़ी पर बचे-खुचे बाल बिलक्रीम की सहायता से सजाए हुए। उसकी मोहक और शिथिल अदा तत्काल लुभाती, खासकर स्त्रियों को। अपनी छिहत्तर साल की उम्र को छिपाने के लिए उसने खूब सारा पैसा, वाक-विद्गधता और इच्छाशक्ति लगाई थी और एकांत में वह विश्वास करता कि उसने किसी भी अन्य व्यक्ति से ज्यादा लंबे समय तक चुपचाप प्रेम किया है। उसका पहनावा भी उसकी तरह विचित्र है। वेस्ट के साथ एक गहरेरंग का सूट, सिल्क की एक बो-टाई, एक सेल्यूलाइड कॉलर, फ़ेक्ट हैट, चमकता हुआ एक काला छाता, जिसे वह छड़ी केरूप में भी प्रयोग करता। – पुस्तक के अनुसार) लेकिन लिकित शब्दों में पढ़े वर्णन के साथ आपकी, पाठक की कल्पना जुड़ी होती है। वहाँ उसका यह रूप फ़बता है। वही रंग-रूप जब परदे पर रूढ़ हो जाता है, तो खटकता है। यह एक अब्ड़ा अंतर है साहित्य और सिनेमा का। सिनेमा चाक्षुष विधा है अत: अधिक सावधानी की आवश्यकता है। और यहीं निर्देशक चूक गया है।

पूरी फ़िल्म में एक बात अब्ड़ी शिद्दत से नजर आती है और दर्शक पर उतना अच्छा प्रभाव नहीं डालती है, वह है हर स्त्री –   चाहे वह किशोरी अमेरिका हो या फ़िर बूढ़ी फ़रमीना डाजा – का अपना वक्ष दिखाने को तत्पर रहना। हाँ, शुरु से अंत तक फ़रमीना डाजा के रूप में जिवोना मेजोगिओर्नो अपनी सुंदरता, अपने अभिनय से लुभाती है। उसकी स्मित मन में गहरे उतर जाती है। उसके बैठने, चलने और खड़े रहने का अंदाज उसकी उच्च स्थिति और उसके आंतरिक अग्र्व को प्रदर्शित करता है। फ़्लोरेंटीनो अरीजा की माँ ट्रांसिटो अरीजा के रूप में ब्राज़ील की अभिनेत्री फ़र्नाडा मोंटेनेग्रो का अभिनय प्रभावित करता है। फ़रमीना डाजा की कजिन हिल्डेब्रांडा सेंचेज के रूप में सुंदरी काटालीना सैडीनो को देखना अपने आप में एक भिन्न अनुभव है। यह किशोरीएक शादीशुदा व्यक्ति के प्रेम में है। इसकी मासूमियत पर फ़िदा होने का मन करता है। डॉ. जुवेनल उर्बीनो के रूप में बेंजामिन ब्राट के लिए कुछ खास करने को नहीं था} द विडो नजरेथ के रूप में एंजी सेपेडा जरूर परदे को हिला कर रख देती है।

फ़िल्मांकन की बात करें तो फ़िल्म की सिनेमैटोग्राफ़ी अवश्य प्रभावित करती है। घर, बोट की आंतरिक साज-सज्जा और बाह्य प्राकृतिक सौंदर्य को कैमरे की आँख से इतनी खूबसूरती से पाक्ड़ने के लिए सिनेमैटोग्राफ़र एफ़ोंसो बीटो बधाई के पात्र हैं। मेग्डालेना नदी और सियेरा नेवादा डे सांता मार्टा की पर्वत शृंखला बहुत कम समय के लिए दीखती है लेकिन अत्यंत सुंदर है। फ़िल्म की शूटिंग के लिए कोलंबिया के ऐतिहासिक पुराने शहर कार्टानेजा के लोकेशन का प्रयोग किया गया है। घर और बोट की साज-सज्जा पात्रों की आर्थिक और सामाजिक हैसियत के अनुरूप है।

फ़िल्म की शुरुआत मेंजब क्रेडिट चल रहे होते हैं बहुत खूबसूरत ऐनीमेशन है। चटख अरंगों में फ़ूलों का किलना, उनके प्ररोहों (टेंड्रिल्स) का सरसराते हुए आगे बढ़ना, विकसित होना और साथ में चलता संगीत, सब मनमोहक है। ऐनीमेशन फ़िल्म के मूड को सेट करता है। दर्शक तभी जान जाता है कि वह एक रोमांटिक फ़िल्म देखने जा रहा है। इसी तरह फ़िल्म की समाप्ति का ऐनीमेशन है। दक्षिण अमेरिका के पर्यावरण और रंगों का विशेष ध्यान रखते हुए, उनसे प्रेरित हो कर इसे लंदन के एक ऐनीमेशन स्टूडियो वुडुडॉग ने तैयार किया है। और संगीत इस फ़िल्म की जान है। क्यों न हो? संगीत लैटिन अमेरिका की प्रसिद्ध गायिका शकीरा ने दिया है। वे गैब्रियल गार्सिया मार्केस की बहुत अच्छी दोस्त हैं। उन्होंने इसका एक गाना लिखा भी है और गाया भी है। फ़िल्म का संगीत देने में शकीरा के साथ हैं अंटोनिओ पिंटो। फ़िल्म लैटिन अमेरिका, खासतौर पर कोलंबियन जीवन को बड़े मनोरंजक तरीके से प्रस्तुत करती है। स्पैनिश लोग हॉट ब्लडेड होते हैं। अल्डने, मरने-मारने को जितने उतारू, उतना ही प्रेम करने को उद्धत। भारत के पंजाब प्रांत के लोगों की तरह वे जो भी करते हैं, खूब आन-बान-शान से करते है, जीवंतता के साथ करते हैं।

‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ फ़िल्म का स्क्रीनप्ले रोनांड हार्वुड ने तैयार किया है। स्क्रीनप्ले ठीकठाक है। साढ़े तीन सौ पन्नों के उपन्यासमें पात्रों का जो मनोवैज्ञानिक चित्रण अर विकास है, उसे 139 मिनट की फ़िल्म में समेटना संभव नहीं है। उपन्यास के कई महत्वपूर्ण अंशों को बिल्कुल छोड़ दिया गया है, जैसे लियोना कैसीयानी का प्रसंग, जैसे फ़रमीना डाजा का अपने पति की कब्र पर जा कर उसे एक-एक बात बताना. जैसे डॉ. जुवेनल उर्बीनो और फ़रमीना डाजा का गैस बैलून में पत्र ले कर उड़ना, बुढ़ापे में फ़रमीना डाजा का अपने पति की सेवा करना, प्रकृति का मनुष्य द्वारा दोहन, प्रकृति का उजाड़ होता जाना, पर्यावरण प्रदूषण आदि, आदि। माइक औड्स्ले की एडीटिंग अच्छी है। फ़िल्म में एक बात खटकती है, वह है इसके पात्रों द्वारा बोली गई भाषा। फ़िल्म इंग्लिश भाषा में बनी है, स्पैनिश भाषा में नहीं। यह इंग्लिश में डब नहीं है। फ़िर पात्र स्पैनिश लहजे में इंग्लिश क्यों बोलते हैं? अगर फ़िल्म स्पैनिश भाषा में बनत तो क्या पात्र किसी खास एक्सेंट में बोलते या सहज-स्वाभाविक स्पैनिश भाषा का प्रयोग करते?

1880 से 1930 तक की अवधि को समेटे हुई फ़िल्म ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ मुझे बहुत अच्छी लगी। अगार ऊपर गिनाई गई कमजोरियाँ इसमें न होतीं तो यह अवश्य मेरी पसंदीदा फ़िल्मों की सूचि में बहुत ऊपर स्थान पर होती जैसे मार्केस मेरे मनपसंद लेखकों की सूचि में पहले नंबर पर आते हैं। यह मार्केस के उपन्यास पर हॉलीवुड स्टूडियो में बनी पहली फ़िल्म है, जिसे लैटिन अमेरिकन या इटैलियन निर्देशकों ने नहीं बनाया है।

हॉलीवुड के निर्देशक बहुत-बहुत कुशल होते हैं। इसके साथ ही उनकी एक सीमा भी है। एक खास तरह की सभ्यता-संस्कृति से ये निर्देशक बखूबी परिच्जित हैं। मगर इस खास दायरे के बाहर की सभ्यता-संस्कृति की या तो इन्हें पूरी जानकारी नहीं है या फ़िर ये उसे महत्व नहीं देना चाहते हैं। लैटिन अमेरिकी सभ्यता-संस्कृति अमेरिकी सभ्यता-संस्कृति से बहुत भिन्न है। यह बहुत समृद्ध है, इसकी बहुत सारी विशेषयाएँ हैं। यह एक विशिष्ट सभ्यता-संस्कृति है। मार्केस का साहित्य इसकी बहुत ऑथेंटिक झलक देता है। ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ फ़िल्म इस सभ्यता-संस्कृति की खुशबू को समेटने में समर्थ नहीं हो सकी है। हॉलीवुड के श्वेत निर्देशक अपने ही देश की अश्वेत सभ्यता-संस्कृति को पकड़ने में कई बार चूक जाते हैं। स्टीफ़न स्पीलबर्ग जिन्होंने उत्कृष्ट फ़िल्में बनाई है, लेकिन जब वे अफ़्रो-अमेरिकन साहित्य से ले कर ‘द कलर पर्पल’ फ़िल्म बनाते है तो उसके साथ न्याय नहीं कर पाते हैं। एलिस वॉकर का यह उपन्यास जिस संवेदनशीलता से रचा गया है, स्टीफ़न स्पीलबर्ग ने यह फ़िल्म उतनी ही असंवेदनशीलता से बनाई है। फ़िल्म निर्देशक माइक नेवेल ने भी बहुत अच्छा काम नहीं किया है।

क्यों करते हैं हॉलीवुड के माइक नेवेल या स्टीफ़न स्पीलबर्ग ऐसा खिलवाड़? क्यों दूसरों को कमतर दिखाते हैं? क्या यह हॉलीवुड के श्वेत निर्देशकों का अहंकार है अथवा उनकी समझ की कमी? क्या यह उनकी अज्ञानता है या फ़िर उनका अदंभ? यह शोध का विषय हो सकता है। अगर यह नासमझी है तो आज के जागरुक और वैश्विक युग में इस तरह की नासमझी स्वीकार नहीं की जानी चाहिए। अगर यह झूठा दंभ है तब तो इसे कतई स्वीकार नहें किया जाना चाहिए।

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डॉ. विजय शर्मा

326, सीतारामडेरा, एग्रीको

जमशेदपुर – 831009

मो. 8789001919, 8430381718

 
      

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140 comments

  1. विकास कुमार झा

    लव इन द टाइम आव कालरा पर माननीया विजय शर्मा की समीक्षा पढकर मुग्ध हूँ। मुझे तो लगता है कि इस उपन्यास को लिखते समय स्वयं मार्खेज की दृष्टि में भी जो बातें नहीं होगी,और कथा कहने के क्रम में प्रवाह में अनायास जो बातें आयीं,विजयजी ने उसे अद्भुत बारीकी से पाठकों के सामने ला दिया है।और यह विजयजी सरीखी कलम की धनी ही कर सकती हैं।
    इस लेख के लिए विजयजी का जितना आभार करूँ, कम ही होगा।आभार जानकी पुल का भी।

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