वैशाली से इस हफ़्ते गीताश्री लाई हैं प्रेम और अध्यात्म के द्वंद्व में फँसी एक भिक्षुणी की कथा। वैशाली के अतीत की एक और सम्मोहक कथा-
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“माते, आज आप मेरा इतना श्रृंगार क्यों कर रही हैं। मुझ पर इतनी साज सज्जा शोभती नहीं है। मैं आपका मंतव्य जानना चाहती हूं।“
कुमारी विमला ने अपनी माता के म्लान चेहरे को देखा, जो इस समय कांतिविहीन हुआ जा रहा था। उसे अकुलाहट हुई कि माते मुझे सज्जित करते हुए क्यों विकल हुई जा रही हैं। सबकुछ तो था माते के पास। अपार धन, ऊंची अट्टालिका। नगर के अनेक श्रेष्ठ जन सांध्य बेला में पधारते थे, माते गायन, नृत्य प्रस्तुत करती थीं। वे प्रसन्न रहा करती थीं, अपनी कला साधना में। पिता की अनुपस्थिति पर कभी विलाप नही किया। माते ने उसे इतने वैभव से पाला था। स्वभाव से अल्पभाषिणी विमला चकित थी अपनी माते के व्यवहार से। माते स्वंय अपने हाथों उसे सजा रही थीं। उनकी परिचारिका हाथों में सज्जा की वस्तुएं लिए खड़ी थी। गोटे-बूटे वाली चमचमाती रेशमी वस्त्र उसे पहना कर कंठ में सफेद मोतियों की माला डालने ही जा रही थी कि कुमारी ने उनका हाथ रोक दिया-
“माते, आपको बताना पड़ेगा। आज क्या है, कोई उत्सव है, हमारे बैठकखाने को इतना क्यों सजाया जा रहा है, आज समूचा माहौल परिवर्तित प्रतीत होता है। बताइए न…”
वह ठुनकने लगी। उसके युवा मुख पर दीप्ति उभरी।
माते ने परिचारिका के हाथ से बड़ी –सी नथ उठाई और कुमारी के नाको में पहना दिया। वह कराह उठी। उसे समझ में आ गया कि उसके साथ सबकुछ बलपूर्वक किया जा रहा है।
माते एकदम चुप थीं। कुमारी बोल उठी- “कोई विशेष प्रयोजन है माते, आप छुपा रही हैं। आप पर ऐसे वस्त्र रोज सांध्य बेला में शोभते हैं। मैं तो अपने सादे वस्त्रो में ही प्रसन्न रहा करती थी। मुझे कभी आपको देख कर लालसा न हुई कि आपकी तरह सिंगार करुं। मैं आपके रुप-यौवन को सराहती रही हूं, कभी आपकी तरह बनने की कामना नहीं की।“
माते के नेत्रों को देखा, जो उफन रही थीं। सदानीरा जब वर्षाऋतु में ऐसे ही उफनती है, वैशाली के लोग भयभीत हो उठते थे। तटबंध टूटने के भय से सबसे चेहरे पर पीत छायाएं उभर आती थीं। मछुआरें भयभीत हो जाल पेड़ों पर टांग देते थे। यहां तो माते के नेत्रों में उफान आ रहा है। जोर से वह माते से चिपट गई।
कुमारी विमला देर तक भींगती रही, सदानीरा का पानी झरझर बह रहा था।
माते ने खुद को सयंत किया। परिचारिका के नेत्र भी गीले हो आए थे। उसने पार्श्व से आकर अपनी कोमल हथेली माते के पीठ पर रख दी। दोनों छिटक कर अलग हुए।
“अब तुम्हें प्रतिदिन सांध्य बेला ऐसे ही साज सिंगार करना पड़ेगा पुत्री, मेरा समय समाप्त हो गया है। तुम्हारा समय प्रारंभ होता है। तुम्हें सारा दायित्व परिचारिका सुगंधा बता देंगी। इनकी हर बात गौर से सुनना, मानना आपका दायित्व है।“
“माते…” विलाप कर उठी विमला।
“आप मेरी जननी हैं, मेरा आदर्श नहीं।“
“पुत्री, जीवन की आवश्यकताएं, परिस्थितियां सारे आदर्श विस्मृत करा देती हैं। अभी तक जिस वैभव में तुम पली हो, वो आदर्शो के मूल्य पर ही अर्जित किए गए थे। सदा स्मरण रहे, योग्यता से ज्यादा वैभव हमेशा मूल्यों की भेंट चढ़ा कर ही पाए जाते हैं।“
छटपटा उठी कुमारी।
सुगंधा, शाम के समारोह के लिए आवश्यक निर्देश देकर कुमारी को बैठकखाने में ले आएं। नगर क सबसे बड़े श्रेष्ठीपुत्र सुमंत पधारने वाले हैं।
अपने हृदय को कठोर बना कर, लीला देवी वहां से ये वचन बोल कर चली गई। परिचारिका आज्ञा का पालन करने को उद्धत हुई। कुमारी उससे छिटक कर अट्टालिका के झरोखे के पास जाकर खड़ी हो गई।
बाल्यकाल के लेकर युवा होने तक की सारी घटनाएं दृश्य की तरह झरोखे से दिखाई देने लगी थी। सांझ होने में देर थी अभी। बाहर चहल पहल की आहटें सुनाई देने लगी थी। कुमारी की माता लीला देवी, वैशाली की रुपजीविता स्त्री, जिसकी इस गणराज्य में रुप की चर्चा सबसे ज्यादा थी। उनके यहां आने वालो में संभ्रांत लोग अधिक थे। कुछ तो स्थायी सदस्य थे जो नृत्य और संगीत के बाद देर तक सुरापान में डूबे रहते, फिर मुद्राएं फेंक फेंक कर लीला से अभिसार करते थे। वो सबके मनबहलाव का साधन थी।
वैशाली के इस छोटी-सी बस्ती मधुवन में सिर्फ गणिकाओं की अटटालिकाएं थीं। मधुवन सांध्यबेला में रमणीय हो जाता था। ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं में प्रकाश झिलमिला उठते थे। उसके स्तंभो में बंधी मशालें जल उठती थीं और नगर के युवा, अधेड़ और बूढ़े आसपास मंडराने लगते थे। चहल पहल बढ़ जाती थी। इलाका अपना रुप, चरित्र सब बदल लेता था। दिवस में शांत, उचाट पड़ी अट्टालिकाएं बजने लगती थीं। घुंघरुएं खनकने लगती थीं। ढोलो की थाप बाहर तक सुनाई देती और कोई कोई सुरीली आवाज, दर्द में डूबी हुई, अंधेरे को भेद देती । अट्टालिका के बाहर खड़ी परिचारिकाएं अतिथियों को बड़े सम्मान के साथ अंदर लिवा ले जाती। नगर के संभ्रांत, श्रेष्ठी-जन, नगर सेठ, सभा के सदस्य साधिकार अट्टालिका में घुसते थे।
मधुवन क्षेत्र में प्रवेश करते ही पहली अट्टालिका के बाहर खंबो से चिपक कर एक नन्हीं-सी बच्ची नियमित ये तमाशा देखा करती थी। उसे कौतुहल होता। उसे सबकुछ विचित्र लगता। वह कभी इसका हिस्सा नहीं बनना चाहती थी। उसे माता की गायन-वादन मंडली में सबसे प्रिय वह युवक माधव लगता, जो शाम को नृत्य के साथ गाने के लिए गीत लिखा करता था। कई बार छुप कर देखा, वह कोने में बैठा कुछ कुछ भोजपत्र पर लिखा करता था। पास जाने का कभी साहस न हुआ, परंतु माधव के चेहरे पर जो तेज देखती, वह समझती, लिखना शायद सबसे रोमांचक काम होगा। तरुण बेचैनी से पहलू बदलता, कभी लेट जाता, कभी झुका रहता घंटो। बेसुध-खोया-खोया –सा। उसकी एकाग्रता तब भंग होती जब मंडली का कोई उसके पास जाकर कुछ कहता। वह ध्यान से उन्हें सुनता। सहमति में सिर हिलाता और फिर सबसे बेखबर होकर मोरपंख उठा लेता। उस वक्त उसका मुख देखने लायक होता। कुमारी को लगता- एक दिन कोने में बैठ कर वह इसी तरह कुछ लिखना चाहती है। माता की तरह न नाचना चाहती है न किसी को रिझाना। एकबारगी मन हुआ तरुण के पास जाकर पूछे- क्या लिखते रहते हो। एक दिन पहुंच ही गई।
युवक ने चौंक कर उसकी तरफ देखा, उसके मुंह से बोल फूटे-
“इस रंगमहल में कौन हो देवी, किस लोक से चली आई हो, कैसा ये मेला है जग का, कैसी ये तरुणाई है”
माधव ने उसे हाथों के संकेत से दूर जाने को कहा। जबकि उसका मन हुआ, वहीं पास बैठ कर दो पंक्तियां इसमें जोड़ दे…
“सुख-वैभव के स्वप्नलोक में पलना, चमक-दमक का मेला है, ये मेरी नहीं, इनकी-उनकी अमराई है”
मन की बात मन में ही रह गई। उसके मुख से फूटने वाली पहली कविता मन में ही घुट कर रह गई। होठ कांप कर रह गए। माधव अपने गीतों में खो गया। हर शाम उसे एक नया गीत रच कर मंडली को देना होता था।
उसे माधव पर अतिशय क्रोध आया। वह पास जाना चाहती थी, वह उसे दूर भगा रहा था। वह उसकी शिष्या बनना चाहती थी, वह अपने में बेसुध था। जिसमें वह खुल कर अपने को व्यक्त कर सकती थी, वह संसार उससे छूट गया था। इस भवन-भुवन में कौन सुनेगा उसकी आकांक्षा को। कैसे बताए कि उसके भीतर कुछ पल रहा है, जो उसके साथ जन्मा है, जिसे वो अव्यक्त नहीं रखना चाहती। उसे सुअवसर की खोज है। लीला देवी तो दिन में एक बार ही मिल पाती हैं। स्नेहालिंगन करके, परिचारिका को आवश्यक निर्देश देकर फिर वे बड़े से भवन में खो जाती हैं।
कुमारी चिंहुक गई। परिचारिका ने साधिकार आवाज दी थी। उसे जाना होगा।
नयी जिंदगी, नया काम और अनजाने लोग। परिचारिका समझा रही है कि ये उनकी परंपरा है। जिसका पालन करना ही होगा। वे कुछ और नहीं कर सकती।
नथ के दर्द से कराहती हुई कुमारी ने उसे उतारना चाहा तो परिचारिका ने रोक दिया।
आपके शरीर पर इस वक्त सबसे मूल्यवान यही है कुमारी। परंपरा के मुताबित नथ-उतराई की रस्म होगी, जो सबसे अधिक मूल्य चुकाएगा, वही उतारेगा। वो तय हो चुका है।
परिचारिका सुगंधा का मुख लाल हो उठा था। उसके भीतर जाने दर्द की कौन-सी चट्टाने थीं जो दरक रही थीं।
कुमारी शिथिल कदमों से उसके साथ चल पड़ी। लंबे गलियारे को पार करते हुए बार बार कुमारी को लगता- वह कहीं दूर भाग जाए। सदानीरा नदी में छलांग लगा दे। इससे पहले की वह किसी परंपरा का हिस्सा बने, वह आम्र वन में ही छिप जाए। डाल-पात खेलते हुए कितनी बार वह छुपी थी, कोई नहीं ढूंढ पाता था, जब तक वह खुद कुहुक कर बोलती न थी। कोयल की आवाज में कूकती थी और पकड़ी जाती।
अब भाग कर कहां जाएं। इस नगर के बाहर का संसार उसे मालूम नहीं। उसके पास मुद्राएं नहीं, कोई अंतरंग सखा भी नहीं। कोई शुभचिंतक भी नहीं जो उसे यहां से दूर ले जाए। एक एक पग उसे भारी मालूम हो रहे थे।
बैठकखाने के पास पहुंची तो कदम थम गए। समूची वादन मंडली अंदर प्रवेश कर रही थी। सबसे आखिरी व्यक्ति रुक गया। वह माधव था।
उसके हाथ में कुछ मुड़ा हुआ-सा था, जिसे कस के पकड़ रखा था।
कुमारी से नेत्र मिले। उन नेत्रों में कोई चिट्ठी –सी थी, मानो। वह वहीं ठिठका रहा, कुमारी की प्रतीक्षा कर रहा था। द्रुत गति से कुमारी ने उनके सामने से कदम बढ़ाए। कुमारी को उसे देख कर उन्माद हुआ। चित्त में शांति मिली। गर्वीली हो कर , थोड़ी अकड़ कर उसने उसे देखा। भीतर से मुक्ति की लेन-देन का प्रथम आभास हुआ। उसने कृत्रिम मुस्कान के साथ नये जीवन को स्वीकार कर लिया।
…..
प्रात: जगी तो उसके जीवन की ऋतुएं बदल चुकी थीं। लीला देवी न्योछावर हुईं जा रही थीं।
उनके हर्ष में डूबे स्वर कक्ष में शोर कर रहे थे- “पुत्री, मैं अत्यंत प्रसन्न हूं। देखो, श्रेष्ठीपुत्र क्या क्या न देकर गए हैं। हमारा जीवन यापन आराम से होगा। तुमने सबकुछ अच्छे से संभाल लिया है। आज तो उनसे भी बढ़कर महानुभाव आ रहे हैं। उन्होंने संदेशा भिजवा दिया है। मैं अब आराम कर सकूंगी। मैं थक गई हूं।“
“परंपरा से थकान होने लगी माते आपको ?”
उनींदी आंखों से माते को देखते हुए कुमारी ने पूछा।
“कुमारी…!!”
“आपने तो जीवन भर के लिए झोंक दिया मुझको…क्या आप जानती हैं कि मैं इससे अलग भी कोई कला जानती हूं। मैं उससे जीवन यापन कर सकती थी। अगर मैं भार थी आपके लिए तो मैं गृहस्थी बसा सकती थी। क्या कमी है मुझमें, मुझे कोई अंतरंग सखा मिल जाता माते, इस वैभव से उचित होता कि किसी विपन्न साथी का हाथ थाम लेती। परंपरा के नाम पर आप मेरी बलि तो न चढ़ातीं।“
“कुमारी…”
लीला देवी जोर से चीखी।
“धृष्टता कर रही हैं आप। हम आपकी माता हैं। हमारे प्रति भी आपका कोई कर्तव्य है या नहीं। आप जानती हैं कि गणिकाओ से कोई ब्याह नही करता है, चाहे वैशाली हो या राजगृह या पाटलिपुत्र। उज्जयिनी, कलिंग तक भी आप चली जातीं, आपकी छाया आपका पीछा नहीं छोड़ती। कमसे कम हम वैशाली की गणिकाएं जनपद कल्याणी तो हैं, प्रतिष्ठा तो पाती हैं। देवी अंबपाली ने तो हमें और प्रतिष्ठा दिलवाई है। आप उस ऊंचाई को प्राप्त करने की कोशिश करें। और हां, एक सत्य जान लीजिए कि हमारी अनुमति के बगैर हमें कोई छू नहीं सकता। हां, हम मुद्रा कमाने के लिए ये काम करती हैं। हमारा काम है ये, हम अपने काम से मुद्रा कमाते हैं, किसी से भिक्षा नहीं मांगते। आप एक बार इस काम में आ गईं, फिर कभी बाहर नहीं जा पाएंगी। मुक्ति का मार्ग नहीं है इसमें। बाहर जाने का मार्ग नहीं होता।“
“मुझे एकांत चाहिए…आप अविलंब प्रस्थान करें। मैं वार्तालाप नहीं चाहती। मुझे चिंतन –मनन का समय दें। मैं जो कुछ घटित हुआ है, उस पर विचारना चाहती हूं। जब तक मैं कुछ न कहूं, आप कुछ तय नहीं करेंगी मेरे लिए। कृपया प्रतीक्षा करिए…”
कुमारी ने माते को हाथ जोड़ कर प्रणाम किया।
क्लांत-मुख लिए, अचरज से भरी हुई लीला देवी वहां से लौट गईं।
इस भीरु, अल्पभाषिणी कन्या में इतना साहस कहां से आया। एक रात में इतना कटु बोलना कैसे सीख गई।
देर तक कुमारी अपनी शय्या पर अनमनस्क-सी पड़ी रही। जीवन में मानो सारे लक्ष्य समाप्त हो गए थे। एक अयाचित लक्ष्य की तरफ ढकेल दी गई थी। जिसमें प्रवेश का मार्ग होता है, निकास का नहीं। जितना सोचती, तड़पती जाती। कुछ लिखना चाहती थी। ये सबकुछ लिख देना चाहती थी। उसने परिचारिका को पुकारा।
माते को बोल देना, अब मैं जब कहूं, तभी मेरे लिए सांध्य समारोह करें, और जिसे मैं चुनूं, वहीं आएं…मैं इस पर उनसे संवाद करने को उत्सुक नहीं हूं। थोड़ी देर मैं शब्द साधना करना चाहती हूं, कोई ध्यान भंग न करें।
सुगंधा ने उसके हाथ में कुछ पकड़ा दिया। एक छोटा-सा वसन-टुकड़ा था-
लिखा था-
“सखि, परमार्थ बिताए दिवस-काल
लौकिक सुख को नहीं चाहता थामना
निज जीवन में नहीं कोई स्वार्थ –साधना
ढंक लिया है तिमिर ने मेरे मन को
कदाचित मैं नहीं स्वप्न भीरु
मैं अस्वतंत्र, असमर्थ की क्यों करुं कामना …”
इस छोटे से टुकड़े को पढ़ते हुए आंखें मूंद ली। काजल पिघल कर बहते रहे नेत्रों के किनारे पर।
कुछ दिवस ऐसे बीते। अट्टालिका में शांति छाई रही। लीला देवी अपने कक्ष में सिमट गई थीं। बाहर से कुमारी के लिए अनेक कुमारों के, धनाढयों के संदेशा आए, वे परिचारिका से उसके कक्ष तक भिजवा देतीं। एक दिवस उन्होंने दर्पण में खुद को निहारा। वे अपने को ही नहीं पहचान पाईं।
कुमारी ने माधव को ढूंढवाया। गायन-वादन मंडली खाली हो गई थी। माधव का कहीं पता न चला। मंडली के लोग अलग अलग अट्टालिकाओं में काम पा गए थे। इसी उदासी में कुछ मास बीते तो परिचारिकाओ ने कुनमुनाना प्रारंभ किया। सब की सब अट्टालिका की आसन्न विपन्नता से भयभीत हो गई थीं। मुंडेरों और झरोखो पर कपोतो की कुर-कुर ज्यादा ही बढ़ गई थी, जिसे सुन सुन कर परिचारिकाओ का हृदय कांपने लगा था। एक दिवस साहस करके एक परिचारिका ने कुमारी को आगाह किया। कुमारी मन बना चुकी थीं। परंपरा और मुद्राएं दोनों उन्हें खींच रही थीं। अट्टालिका एकबार फिर से गूंजने लगी।
….
देवी अंबपाली भिक्षुणी बन चुकी थी। उनके पीछे पीछे मधुवन की अनेक गणिकाएं भी, सामान्य स्त्रियां भी गृहत्याग कर चुकी थीं। वैशाली में अनेकानेक लोग भिक्षु संघ में प्रवेश पाने के लिए उतावले थे। अपना घर द्वार त्याग कर लोग संघ की ओर उन्मुख हो रहे थे। वैशाली पर आक्रमण की भी आशंकाएं थीं। नगर का समूचा दृश्य बदल चुका था। सांध्य बेला में अपने धनाढ़य रसिको की प्रतीक्षा करती हुई कुमारी विमला अर्थात देवी विमला झरोखे पर बैठ कर बाहर के दृश्य देखना पसंद करती थीं। उस सांझ भी वे वैसे ही बैठी थीं। उन्हें बरस भर बीते थे, गणिका बने हुए। पहले मधुवन में सिर्फ रसिकों की टोली घूमा करती थी। उनके अश्व आते जाते दिखाई देते थे या घोड़ेगाड़ियां। देवी की आंखों ने जो कुछ देखा, वह सहसा विश्वास न कर सकी। सुंदर, गठीला शरीर, सिर मुड़ाए हुए, कंधे पर उत्तरीय, छोटी धोती, घुटनो तक की, सफेद झक्क वसन पहने, हाथ में भिक्षा-पात्र लिए एक दिव्य पुरुष धीमी धीमी गति में दक्षिण दिशा की तरफ चला जा रहा था।
सुगंधा को जोर से पुकारा…
“ये देखो, अदभुत दृश्य, भगवान बुद्ध भिक्षाटन के लिए चले जा रहे हैं।“
“देवी, ये महात्मा बुद्ध नहीं हैं, वे आजकल राजगृह में निवास कर रहे हैं। ये हमारे नगर के भिक्षु संघ के स्थविर, महामौदगल्यायन हैं।“
सुगंधा पास में ही बैठी थी। वो मुग्ध भाव से भिक्षु को देखने लगी। देवी विमला के नेत्रो में एक परछाई सदा के लिए अंकित हो गई।
“सुगंधा, इनके बारे में सबकुछ पता करो, वह कब निकलते हैं, कहां कहां जाते हैं भिक्षाटन के लिए, यथाशीघ्र पता करो…”
बोलते हुए देवी की आंखें मोहक हो उठी थीं। सुगंधा अनुभवी स्त्री थी। नेत्रो की भाषा पढ़ते-देखते-समझते अधेड़ हो चली थी। उम्र की ढलान पर वह मुख के एक एक भाव पकड़ लेती थी। उसे चिंता हुई। देवी व्यर्थ के कामों में लगा रही हैं उसे।
“देवी, पता करने की क्या आवश्यकता। सबको मालूम है कि देवी अंबपाली के आम्रवन में इनका विहार है। वहीं निवास है सारे भिक्षुओ का। कूटागार शाला में नियमित आते हैं भिक्षा के लिए। नियमित अलग अलग दिशाओ में जाते हैं भिक्षाटन के लिए। इनकी पीछा करना कठिन है देवी।“
“हमें कल आम्रवन विहार के लिए जाना है, हमारे जाने का प्रबंध करो…”
उस सांझ देवी ने सांध्य समारोह स्थगित कर दिया। बस वे वीणा सुनना चाहती थी। दूर से उसकी ध्वनि आती रहे। वे अपने सुगंधित कक्ष में जाकर शय्या पर लेटी रही। मोरपंख निकाल कर कुछ लिखने की चेष्टा करती रहीं। कुछ न लिख पाईं। शब्द मानों रुठ गए हों।
उस रात्रि देवी ने एक गाढ़ा और अबूझ स्वप्न देखा। स्वप्न में गंध और लय भी और पलायन भी।
एक बड़ा –सा संदूक है, उसके पास खड़े हैं मौदगिल्यायन। उनके मुख-मंडल पर प्रसन्नता दिखाई दे रही है।
बाहर से चंपा-गंध आ रही है, मंद मंद समीर के साथ। चिड़ियाएं मधुर गान गा रही हैं। तरुवर हिलोरे ले रहा है।
यही हैं…यही हैं मेरे स्वप्न पुरुष…मेरे आकांक्षा-पुरुष । हृदय पुरुष । मुझे आपसे मिलन की आकांक्षा है…
अपने को ध्यान से देखती है। वह भी किसी की काम्य स्त्री हो सकने लायक है। चंपई-स्त्री जो अपनी ही आभा में दमकती है बस कलंक ने उसे स्याह बना रखा है। उससे मुक्ति चाहिए। उसकी मुक्ति यही है। स्थविर मना नहीं कर पाएंगे। उन्हें वापस गृहस्थ आश्रम में आना पड़ेगा। मैं वापसी लेकर आऊंगी…
देवी को अपने उपर अभिमान हुआ। नगर के बड़े बड़े वणिको को अपने आगे झुकाने वाली स्त्री के लिए एक सुंदर भिक्षुक कहां कठिन है। सामना तो होने दें, इनकार न कर पाएंगे। वह दौड़ कर उनके शरीर से लिपट जाना चाहती है। उनके भिक्षा-पात्र में स्वंय को डालना चाहती है।
अचानक कुछ आवाजें गूंजने लगती हैं-
बुद्धम शरणम गच्छामि….संघम शरणम….
नींद झटके से खुल जाती है। वह नेत्रों को फाड़ फाड़ कर उनमें प्रकाश भरने की कोशिश करती हैं। भोर का सपना था। सच होकर रहेगा…वह कांप गई।
हिम्मती, दुस्साहसी देवी कहां मानने वाली थीं। प्रातकाल ही सुगंधा को साथ लेकर वे आम्रवन विहार करने पहुंच ही गईं। वह समय भिक्षुओ के भिक्षाटन पर निकलने का था। संघ स्थल से दूर वे उस मोड़ पर खड़ी थी, जहां से मार्ग पास के गांवो में जाता था। भिक्षुओ की कतारें निकलीं। देवी सबको एक एक कर देखतीं जाती। जैसे ही महामौदगल्यायन दिखे, वे घोड़ा गाड़ी से उतर कर उनकी तरफ चल पड़ी। वे मार्ग रोक कर खड़ी हों गई थी। भिक्षुक उनकी धृष्टता पर मुस्कुरा उठे। देवी निहाल हो गईं। ये उनके जीवन का दूसरा सर्ग था। पहला सर्ग माधव का था, जो अधूरा रहा। इस दूसरे सर्ग को कदापि अधूरा न रहने देंगी। भिक्षु के सामने एक रुप,वैभव, लावण्य से भरपूर स्त्री खड़ी थी, मार्ग रोके।
“स्थविर, क्या आपको इन हवाओं में मेरे आर्त्तनाद की प्रतिधव्नियां नहीं सुनाई देतीं-?”
बोलते हुए देवी ने पलकें मींच लीं।
“आप मुग्धमती, स्वैरिणी-सी मान-मर्यादा मत भूलिए। मैं आपके जीवन और उसके अभावों को समझ सकता हूं“
“मैं विवश हूं स्थविर…” वह विकल हो उठी। उसे दोनों बार प्यार किसी निष्ठुर से ही क्यों हुआ।
उसके अश्रु बहने लगे।
“आप उन्मादिनी हैं, यह प्रेम शरीरी है, मात्र आकर्षण। हम जिससे वंचित रहते हैं, वह हमें सदैव खींचता है देवी। हम उसे बहुधा प्रेम समझ बैठते हैं। प्रेम गुणों से विकसित होता है, उसके ध्यान से स्थिरता आती है। हम असांसारिक रह कर भी प्रेम में निवास कर सकते हैं। आप प्रेम प्रदर्शित कर रही हैं, यह प्रदर्शन की वस्तु नहीं, आंतरिक गुण है। एक भिक्षुक से ऐसा आचरण अमर्यादित है देवी”
“मुझे भी संघ में प्रवेश चाहिए, मैं इस जीवन से ऊब गई हूं महामना, मुझे अपनी शरण में लें”
वह कांप रही थी। सुगंधा ने आकर फिर से थाम लिया।
“स्थविर…” सुगंधा के अधर कांपे।
“इन्हें मार्ग से गृह की ओर ले जाओ देवी। ये भटक गई हैं। इन्हें संघ में भी प्रवेश की अनुमति नहीं मिल सकती, जब तक अपने विकारो पर ये नियंत्रण नहीं पा लेतीं।“
कोई तो मार्ग होगा स्थविर कि देवी को शांति मिल जाए, अगर संन्यास से ही इन्हें सुख मिलता हो तो आप क्यों बाधक बन रहे हैं ?
सुगंधा गिड़गिड़ा रही थी और शिकायत भी कर रही थी।
मैं एक मार्ग सुझाता हूं, उस पर पहले देवी चलें, फिर हम इनके संघ प्रवेश पर विचार करेंगे।
ये नियमित धर्मोपदेश सुनें। उस पर विचारें। मैं फिलहाल इन्हें उपासिका के रुप में दीक्षित करता हूं…
मैं इन्हें सुनाता हूं, आइए, कहीं बैठते हैं, देवी सुनें।
“को नु हासो किमानन्दो निच्चं पज्जलिते सति।
अंधकारेन ओनद्धा पदीपं न गवेसथ॥’
धम्मपद में दिए गए इस श्लोक का तात्पर्य है कि यह हंसना कैसा? यह आनंद कैसा?
जब नित्य ही चारों ओर आग लगी है। संसार उस आग में जला जा रहा है। तब अंधकार में घिरे हुए तुम लोग प्रकाश को क्यों नहीं खोजते?
देवी विमला की अप्रत्याशित सुधि लौटी। नेत्र नीचे करके हाथ जोड़ लिए। सपने का पहला और आखिरी हिस्सा कौंधने लगा। धर्मोपदेश से भरे संदूक के साथ खड़े महामौदगल्यायन और अंतिम हिस्सा, सारी छवियां लुप्त होने के बाद एक प्रकाश का वृताकार टुकड़ा पृथ्वी पर बचा रहता है।
इसी प्रकाश की खोज करते हैं हम सब जीवन भर। जीवन का पूरा सर्ग है यही प्रकाश वृत्त। उसे वहीं तक पहुंचना है।
स्थविर वहां दोनों देवियों को बुद्ध के मुख्य उपदेश सुनाते रहे।
वहां से लौटते हुए दोनों की काया और हृदय बदल चुके थे। अब विमला देवी एक दीक्षित गृहस्थ शिष्या के रुप में दीक्षित हो चुकी थी। कठिन परीक्षा में उनके गुरु ने उन्हें डाल दिया था। काजल की कोठरी में रहना था, बिना काजल का बिंदू लगे।
यह ध्यान और साधना की उच्चतम उपासिका थी। वे जानती थी कि स्थविर उनकी परीक्षा ले रहे हैं और जब तक पात्रता प्राप्त नहीं करतीं, उनके लिए संघ का प्रवेश असंभव है। अन्य गणिकाओ के लिए जितना सुगम था, उतना देवी विमला के लिए नहीं। वे प्रेममार्गी जो थीं। अब उन्हें ध्यानावस्था में कुछ मास बिताना था। एक वर्षाकाल बीते तब महामौदगल्यायन उन्हें स्वंय संघ में प्रवेश कराने ले जाएंगे।
देवी विमला ने मोरपंख उठाया। जिस ब्राम्ही लिपि को वे लगभग विस्मृत कर चुकी थी, उसमें उनकी वाणी फूट पड़ी –
“रुप-लावण्य से , सौभाग्य और यश से मतवाली हुई
यौवन के अहंकार में मस्त
मैं अज्ञानी
अपने को कितना गौरवमय समझती थी
गहनो से शरीर को सजाए हुए
मैं अनेक तरुण युवको का आकर्षण बनती थी
वेश्या-गृह के द्वार पर सतर्क दृष्टि से
बैठी हुई मैं
व्य़ाध के समान जालों का निर्माण करती थी
लज्जा-शर्म को छोड़ कर मैं कपड़े उतार कर नंगी तक हो जाती थी
वही आज मैं मुड़े हुए सिरवाली हूं, चीवर-वसना हूं
वृक्षों के नीचे ध्यान-रत हुई
मैं अविर्तक ध्यान को प्राप्त कर
बिहरती हूं
देवी और मानुषी कामनाओं के सभी बंधन मेरे उच्छिन्न हो गए
सब पापों को मैंने दूर फेंक दिया है
आज मैं निर्वाण की परम शांति का अनुभव कर रही हूं
मैं निर्वाण-प्राप्त हूं
परम शांत हूं।“
महामौदगल्यायन के निर्देश पर वे चलीं, विकारो से दूर हुई, संघ में प्रवेश की अर्हता प्राप्त की। उनकी शब्द साधना युगो युगो तक के लिए थेरीगाथा में दर्ज कर ली गई।
(थेरीगाथा की एक प्रमुख थेरी विमला की कथा पर आधारित)
बहुत सुंदर कथानक और भाषा भी बहुत ही परिमार्जित😊
सुंदर कथानक व सशक्त भाषा विन्यास ।
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