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रूसी लेखक इवान बूनिन की कहानी ‘बर्फ़ का सांड’

नोबल पुरस्कार प्राप्त करने वाले पहले रूसी लेखक इवान बूनिन की एक छोटी सी कहानी पढ़िए। बूनिन मानव मन और प्रकृति का चित्रण जिस बारीकी से करते हैं, वह मन को छू लेती है. आप उनकी रचनाएँ न केवल पढ़ते हैं, न सिर्फ ‘देखते’ हैं, बल्कि उन्हें जीते हैं, उनके पात्र में घुलमिल जाते हैं.बूनिन को भारत में कम पढ़ा गया है. उनकी संकलित रचनाओं का सिर्फ एक संग्रह निकला है जो एक अनुवाद-कार्यशाला का परिणाम है. कहानी का मूल रूसी से अनुवाद किया है आ. चारुमति रामदास ने-मॉडरेटर
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गाँव, जाड़ों की रात, एक बजे दूर के कमरों से अध्ययन-कक्ष तक बच्चे के कातर रोने की आवाज़ सुनाई दे रही है. ड्योढ़ी, दालान और गाँव सब कुछ काफ़ी देर से सो रहा है. नहीं सो रहा है सिर्फ खुश्योव. वह बैठकर पढ़ रहा है. कभी-कभी अपनी थकी हुई आँखें मोमबत्ती पर टिका देता है : सब कुछ कितना ख़ूबसूरत है. यह नीली-नीली स्टेरिन भी (स्टेरिन – मोमबत्तियों में प्रयुक्त चर्बीयुक्त पदार्थ – अनु.) .

लौ के सुनहरे चमचमाते किनारे, पारदर्शी चटख़ नीले आधार समेत, हौले से फ़ड़फ़ड़ा रहे हैं – और बड़ी-सी फ्रांसीसी किताब के चिकने पृष्ठ को चकाचौंध कर देते हैं. ख्रुश्योव मोमबत्ती के पास अपना हाथ ले जाता है – उँगलियाँ पारदर्शी हो जाती हैं, हथेलियों के किनारे गुलाबी हो जाते हैं. वह, बचपन की तरह, मगन होकर, मुलायम चटख़ लाल द्रव की ओर देखता रहता है, जिससे उसका अपना जीवन प्रकाशित हो रहा है, लौ के सामने से गुज़रता हुआ दिखाई दे रहा है.

रोने की आवाज़ और तेज़ हो गई – दयनीय, मिन्नत करती हुई.

ख्रुश्योव उठकर बच्चों के कमरे की ओर जाने लगता है. वह अँधेरे मेहमानख़ाने से होकर गुज़रता है, उसमें लटके हुए फ़ानूस और शीशा बड़ी मुश्किल से टिमटिमा रहे हैं – अँधेरे, फ़र्नीचर से सजे, बैठने के कमरे से, अँधेरे हॉल से गुज़रते हुए, खिड़कियों के पार चाँद की रात, बगीचे के देवदार के पेड़ों और उनकी काली-हरी, लम्बी, रोयेंदार शाख़ों पर पड़ी हुई हल्की सफ़ेद भारी परतों को देखता है. बच्चों के कमरे का दरवाज़ा खुला है, चाँद की रोशनी वहाँ पतले-से धुँए जैसी दिखाई दे रही है. बिना परदों वाली चौड़ी खिड़की से बर्फ़ से ढँका, आलोकित आँगन सादगी से, ख़ामोशी से झाँक रहा है. नीलिमा लिए सफ़ेद दिखाई दे रहे हैं बच्चों के पलंग. एक पर सो रहा है आर्सिक. लकड़ी के घोड़े फ़र्श पर सो रहे हैं, अपनी गोल-गोल काँच की आँखें ऊपर करके सफ़ेद बालों वाली गुड़िया पीठ के बल सो रही है, वे डिब्बे सो रहे हैं, जिन्हें कोल्या इतनी लगन से इकट्ठा करता है. वह भी सो रहा है, मगर नींद में ही अपने छोटे-से पलंग पर उठकर बैठ गया और फूट-फूटकर असहाय-सा रोने लगा – नन्हा, दुबला-पतला, बड़े-से सिर वाला…

“क्या बात है, मेरे प्यारे?” ख्रुश्योव पलंग के किनारे बैठकर फ़ुसफ़ुसाया, बच्चे का छोटा-सा मुँह रुमाल से पोंछते हुए और उसके नाज़ुक जिस्म को बाँहों में भरते हुए, जो अपनी छोटी-छोटी हड्डियों, छोटे-से सीने और धड़कते हुए नन्हे-से दिल समेत कमीज़ के भीतर से भी दिल को छू लेने वाले अन्दाज़ में महसूस हो रहा है.

वह उसे घुटनों पर बिठाता है, झुलाता है, सावधानीपूर्वक चूमता है. बच्चा उससे लिपट जाता है, हिचकियाँ लेते हुए सिहरता है और कुछ शान्त होता है…यह तीसरी रात उसे कौन-सी चीज़ जगा-जगा दे रही है?

चाँद हल्की-सी सफ़ेद तरंग के पीछे छिप जाता है, चाँद की रोशनी बदरंग होते हुए पिघलती है, मद्धिम हो जाती है, और एक ही पल के बाद फिर बढ़ जाती है, चौड़ी हो जाती है. खिड़की की सिलें फ़िर से सुलगने लगती हैं. आड़े तिरछे वर्ग बने हैं फ़र्श पर. खुश्योव फ़र्श से निगाहें हटाता है, खिड़की की सिल की चौखट पर, देखता है चमकीला आँगन – और याद करता है…यह रहा वो, जिसे आज फ़िर तोड़ना भूल गए. ये सफ़ेद अजीब-सी चीज़ जिसे बच्चों ने बर्फ़ से बनाया था, आँगन के बीचों-बीच खड़ा किया था, अपने कमरे की खिड़की के सामने. दिन में कोल्या उसे देखकर डरते-डरते ख़ुश होता है, यह किसी आदमी के धड़ जैसा, साँड के सींगोंवाले सिर और छोटे-छोटे फ़ैले हुए हाथों वाला – रात को , सपने में उसकी भयानक उपस्थिति का आभास होता है, अचानक, नींद खुले बिना ही, वह फूट-फूटकर आँसू बहाने लगता है. हाँ, हिम मानव रात में एकदम डरावना लगता है, ख़ासकर तब, जब उसे दूर से देखा जाता है, शीशे के पार से : सींग चमकते हैं, फैले हुए हाथों की काली परछाई चमकती बर्फ पर पड़ती है. मगर उसे तोड़ने की कोशिश तो करो! बच्चे सुबह से शाम तक बिसूरते रहेंगे, हालाँकि वह अभी से थोड़ा-थोड़ा पिघलने लगा है : जल्दी ही बसन्त आएगा, फूस की छतें गीली होकर दोपहर में सुलगने लगेंगी…ख्रुश्योव सावधानी से बच्चे को तकिए पर रखता है, उस पर सलीब का निशान बनाता है और पंजों के बल बाहर निकल जाता है. प्रवेश कक्ष में वह रेण्डियर की खाल की टोपी, रेण्डियर की खाल का जैकेट पहनता है, काली नुकीली दाढ़ी को ऊपर किए बटन लगाता है. फ़िर ड्योढ़ी का भारी दरवाज़ा खोलता है, घर के पीछे कोनेवाली चरमराती पगडण्डी पर चलता है, चाँद, विरल उद्यान के कुछ ही ऊपर ठहरा हुआ, बर्फ के सफ़ेद ढेरों पर अपना प्रकाश बिखेरते हुए, साफ़ है, मगर जैसा मार्च के महीने में होता है, वैसा निस्तेज है. बादलों की हल्की तरंगों की सींपियाँ क्षितिज पर कहीं-कहीं बिखरी हैं. उनके बीच की गहरी नीली पारदर्शिता में बिरले नीले सितारे ख़ामोशी से टिमटिमा रहे हैं. ताज़ी बर्फ ने पुरानी, कड़ी बर्फ़ को थोड़ा-सा ढाँक दिया. स्नानगृह से बाग में, शीशे जैसी चमकती छत से, शिकारी कुत्ता ज़लीव्का भाग रहा है.

“हैलो!” ख्रुश्योव उससे कहता है. “सिर्फ हम दोनों ही नहीं सो रहे हैं. दुःख होता है सोने में, छोटी-सी ज़िन्दगी है, देर से समझना शुरू करते हो कि वह कितनी हसीन है…”

वह हिम मानव के पास जाता है और एक मिनट के लिए झिझकता है. फ़िर निश्चयपूर्वक, प्रसन्नता से उस पर पैर से चोट करता है. सींग उड़ जाते हैं, साण्ड का सिर सफ़ेद फ़ाहे बनकर गिर जाता है…एक और प्रहार – और रह जाता है सिर्फ बर्फ का ढेर. चाँद की रोशनी से आलोकित ख्रुश्योव उसके ऊपर खड़ा हो जाता है और जैकेट की जेबों में हाथ डालकर चमकती छत की ओर देखता है. अपनी काली दाढ़ी वाला निस्तेज मुख, अपनी रेण्डियर की टोपी कंधे पर झुकाए, वह प्रकाश की छटा को पकड़ने और याद रखने की कोशिश करता है फ़िर मुड़ जाता है और धीरे-धीरे घर से मवेशीख़ाने के आँगन को जानेवाली पगडण्डी पर चलता है. उसके पैरों के पास, बर्फ़ पर, तिरछी परछाई चल रही है. बर्फ़ के ढेरों तक पहुँचकर वह उनके बीच से दरवाज़े से देखता है, जहाँ से तेज़ उत्तरी हवा आ रही है, वह बड़े प्यार से कोल्या के बारे में सोचता है, वह सोचता है कि ज़िन्दगी में हर चीज़ दिल को छू लेने वाली है, हर चीज़ में कोई अर्थ है, हर चीज़ महत्वपूर्ण है. और वह आँगन की ओर देखता है. वहाँ ठण्ड है, मगर आरामदेही भी है. छत के नीचे झुटपुटा है. हिमाच्छादित गाड़ियों के सामने के हिस्से धूसर हो रहे हैं. आँगन के ऊपर नीला – इक्का-दुक्का बड़े सितारोंवाला आसमान. आधा आँगन छाँव में है, आधा प्रकाश में है. और बूढ़े, लम्बे अयालों वाले सफ़ेद घोड़े, इस रोशनी में ऊँघते हुए हरे प्रतीत हो रहे है।

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