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जो विस्मित नहीं हो सकते, वे अधूरे मनुष्य हैं

‘बनास जन’ पत्रिका के नए अंक में कई रचनाएँ पठनीय हैं। आज पढ़िए वरिष्ठ कवि-लेखक कुमार अम्बुज का गद्य, बनास जन से साभार- मॉडरेटर

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संसार के आश्चर्य

(जो विस्मित नहीं हो सकते, वे अधूरे मनुष्य हैं।)

 

कुमार अम्बुज 

 

आश्चर्य की पिछली कहानियों में जो बता चुका हूँ, वही बात फिर कहने के लिए विवश हूँ कि पर्यटक होना मुश्किलों का और पागलपन का पुलिंदा हो जाना है। पर्यटक अपने आपको असाधारण समझते हैं और शेष दुनिया उन्हें असामान्य मानती है। लेकिन मुझे लगता है  ‘इच्छाएँके उन तीन आश्चर्यों के क्रम में, ये दो और ऐसे आश्चर्य हैं जिनका वृतांत आप तक पहुँचाने में मुझे भी उस आनंद का कुछ हिस्सा फिर से प्राप्त हो सकेगा, जो इन जगहों पर जाकर हुआ था। यों बेकल करनेवाले दृश्यों, जगहों और अनुभवों का प्रचार-प्रसार, लेखक-पर्यटक के नाते मेरा धर्म भी है। इसलिए मैंने कोई व्यावसायिक तरीका कभी स्वीकार नहीं किया। ब्लाॅग भी नहीं बनाया। यूट्यूब पर भी नहीं गया। बेव वगैरह का तो खयाल भी छोड़ दें। मैं तो कहानी को कुछ पुराने तरीकों से ही कहने-सुनने में भरोसा रखता आया हूँ। 

 

लेकिन जानता हूँ कि मेरी तरह आप भी सांसारिक व्याधियों और आर्थिक संकटों से घिरे हुए हैं लेकिन फिर भी थोड़ा समय, कुछ पैसा और असीम उत्साह लेकर आप संसार के इन आश्चर्यों की यात्रा जरूर करें। जितनी जगहों पर जाना मुमकिन हो, उतना ही सही। संभव है कि आप भी किसी आश्चर्य के अनुसंधानक, वाहक और रिपोर्टर बन जाएँ। क्योंकि प्रत्येक आश्चर्य, देखनेवाले की निगाह और अनुभव से भी, कुछ अधिक रोचक, कुछ अधिक विस्मयकारी होता चला जाता है। कौतुहल की यही पर्यटक-दृष्टि उन्हें नित नवीन और आकर्षक बनाए रखती है। वरना ऐसा क्या है जो इस जमाने में नेट पर मौजूद नहीं है। लेकिन यह मनुष्य की स्मृति, दुस्साहस, उत्कंठा, सनक, जिज्ञासा, रोमांच और व्यग्रता ही तो है जो जमाने से चुनौतीरहित है और जो हर तरह की कृत्रिमता का मजाक बनाकर रख देती है।

 

वस्तु-बाजार

संसार के इस आधुनिकतम आश्चर्य को याद करते हुए, मैं इसे बेहद दिलचस्प, मनोरंजक और विकल कर देने वाले आश्चर्य की संज्ञा दे सकता हूँ। सभ्यता-विकास के उल्लेखनीय पड़ावों में इसे रखा जा सकता है। विज्ञान ने सभ्यता को हमेशा ही प्रभावित किया है। प्रभावित ही नहीं बल्कि सभ्यता को बदला है, उसे परिभाषित किया है और मनुष्य की इच्छाओं, आकांक्षाओं, कल्पनाओं का विस्मयकारी ढंग से कार्यान्वयन कर डाला है। मनुष्य ने हवा में तैरने की आकांक्षा की, विज्ञान ने उसे तैराया। मनुष्य ने मछली बनकर महासागरों की यात्रा करने का स्वप्न देखा, विज्ञान ने उसे करने दिया। आदमी ने सोचा कि उसे एक दिमागी-यंत्र मिले, विज्ञान ने उसे दिया। मनुष्य ने सोचा कि उसे एक यांत्रिक-दास मिले, विज्ञान ने वह भी उसे उपलब्ध कराया। यहाँ तक कि आदमी ने इच्छा की कि वह बस एक खटका दबाये और पेड़, पहाड़, नदी या दूसरे मनुष्य खत्म हो जायें तो विज्ञान ने किंचित अरुचिपूर्वक ही सही, उसकी इस इच्छा को भी पूरा किया।

 

आप सहमत होंगे कि मनुष्य प्रारंभ से यह भी जानता रहा है कि बिना दूसरे मनुष्य के उसका काम चलनेवाला नहीं। लेकिन उसकी प्रत्येक गतिविधि अंततः आर्थिक और सत्तावान हो जाने की इच्छाओं के दायरे में है। इस दायरे को चमकदार, विस्तारित और आधुनिक करना भी उसके सहज दायित्वों में शामिल रहता आया है। आदिमानव को छोड़ दिया जाये तो विनिमय और हाट-बाजार, किस जमाने में नहीं रहे। बल्कि बाजार की प्रकृति से मानव-समाज की प्रगति का पता लगाया जा सकता है। जैसा बाजार, वैसा समाज। आप मुझे बाजार की प्रकृति बताइये, मैं उस समाज की प्रकृति बता दूँगा। बाजार को प्रगति का प्रमुख सूचकांक भी कहा जा सकता है। मनुष्य ने अपने काल के सापेक्ष, सदैव ही एक आधुनिकतम बाजार की कल्पना की। जहाँ हर चीज का विनिमय, क्रय, विक्रय सभी लोगों के लिए सुविधाजनक बना रहे। लेकिन यह ‘वस्तु बाजार’ जो अभी तक संसार में एक ही है, अपने आपमें अनोखा है। बाजार और ग्राहक की सारी इच्छाओं, आकांक्षाओं, कामनाओं, और वासनाओं को यहाँ इस तरह समाहित कर दिया गया है कि यह स्वप्न लगता है। इस बाजार में घूमते हुये आप कई बार खुद को चिकोटी काटते  हैं कि कहीं नींद में ही तो नहीं घूम रहे  हैं। इस आश्चर्य को संसार के आश्चर्यों की ‘शास्त्रीय कोटि’ में घोषित नहीं किया है। बस, ‘विज्ञान, बाजार और व्यवहार’ के अंतर्गत ही इसे आश्चर्य मान लिया गया है। बीस बरस पहले बने इस बाजार को, एक ‘बाजारज्ञान पत्रिका’ द्वारा चलाये गए आंदोलन प्रचार के चलते, अभी दस बरस पूर्व ही ‘आश्चर्य’ की अनौपचारिक मान्यता मिली है और असंख्य पर्यटकों का यहाँ आना-जाना है। आँकड़ों पर विश्वास किया जाये तो पिछले साल, संसार के समस्त आश्चर्यों को देखने आये पर्यटकों में से, सर्वाधिक इसी वस्तु-बाजार के हिस्से में आये। कह सकते  हैं  कि यह तकनीकी विज्ञान, उद्योग और सेवाक्षेत्र की आशाओं और उपलब्धियों का समवेत फलन था। यों तो कोई भी पर्यटक इस आश्चर्य का किंचित पूर्वानुमान पहले से ही लगा सकता था लेकिन इसमें घूमते हुये वह मन ही मन स्वीकार करता था कि हाँ,  मैं  ठीक-ठीक और पूरा-पूरा अनुमान नहीं लगा सका था।

 

बाजार क्या एक छोटा-मोटा शहर है। मीलों फैला विशाल काॅम्पलेक्स। पूरा कंक्रीट का बना हुआ। शताधिक प्रवेशद्वारों से सज्जित। क्रेडिट या एटीएम कार्ड धारक ही इसमें प्रवेश कर सकते हैं। कार्ड स्वीप करते ही एक सुंदर महिला द्वार खोलती है, मुसकराकर हाथ मिलाती है, आपकी मात्भाषा में आपका स्वागत करती है। उसके ठीक पीछे खड़ी दूसरी सुंदरी आपको फूल देते हुए सुखद बाजार-प्रवास के लिए शुभकामनाएँ देती है। अंदर पहुँचते ही रोशनी का सर्वथा नया रूप आपके सामने होता है। सूर्य के प्रकाश से कहीं अधिक चमकीला और सांद्र। लेकिन कहीं भी चुभन नहीं। जैसे अब हर चीज अधिक स्पष्टता और अपने उजास के साथ दिख रही है। जैसे यहाँ हम किसी प्राकृतिक दिन के प्रकाश में से नहीं, किसी कृत्रिम प्रकाश में से आये हों और यहाँ जीवन का पहला वास्तविक प्रकाश देख रहे हों। सबसे पहले तो यह उजाला ही आपको इतना प्रसन्नचित्त और स्वस्थ कर देता है कि आप अपनी होशो-हवास की सहमति के साथ, गुलाम हो जाना चाहते  हैं। जैसे आप ऐसी ही किसी जगह की खोज में जीवन भर से थे, जिसके आगे समर्पण करते हुए हार्दिक और संतुष्टिकारक खुशी मिल सकती है। यहाँ कुछ रासायनिक परिवर्तन आपके भीतर होते हैं और आप इन्हें अनुभव करते  हैं। जैसे अनेक तत्वों के अणु एकसाथ लगातार आपके दिमाग और उदर में क्रिया-प्रतिक्रिया कर रहे हों और आप किसी उत्सुक विद्यार्थी की तरह काँच की परखनलियों में उनका होना-बनना-टूटना देखते हों। सब तरफ से खुशी के बुलबुले उठते हों और इस प्रकाश की तेजस्वी शीतलता में समा जाते हों। काफी हद तक इस स्निग्ध प्रकाश को, इसके प्रभाव को उज्जवल चाँदनी के समकक्ष रखा जा सकता है लेकिन आप उस चाँदनी में कई गुना ‘लक्स’ का गुणा कर दें, तब कहीं उसकी रोशनी का अंदाजा किया जा सकेगा।

 

इस प्रकाशलोक से किंचित छुटकारा मिलते ही आपका ध्यान वस्तुओं पर जाता है। कहीं कोई दुकान नहीं। सिर्फ वस्तुएँ। आभायुक्त। एक-दूसरे की उजास में चमकतीं। चलित शोकेसों में सजी, किसी झाड़ीनुमा आकार पर अपने को प्रदर्शित करती हुईं, खुद अचानक आपके सामने प्रकट होतीं, अपने बारे में धीरे-से कान में फुसफुसाती हुईं। आप चलते जाइये, वे आपको रास्ता देती जाएँगी मगर एक शालीन किंतु प्रभावोत्पादक तरीके से आपको घेरे रहेंगी। वे आपको आक्रांत नहीं करेंगी, वे आपके साथ, आपके आसपास इस गरिमा से बनी रहेंगी कि आपको विशिष्टता और आनंद का बोध बना रहेगा। जिस वस्तु को लेने का ख्याल भी आपके मन में आ गया हो, वह वस्तु आपका पीछा लगातार करेगी। लेजर और अदृश्य अन्य किरणों का ऐसा जाल वहाँ बिछा हुआ है कि आप मन की बात वस्तुओं से छिपा नहीं सकते। आप स्वयं से छिप सकते हंै, वस्तुओं से नहीं। आप खुद को धोखा दे सकते हंै, वस्तुओं को नहीं। आप खुद के प्रति कठोर हो सकते हैं, वस्तुओं के प्रति नहीं। आप किसी वस्तु की इच्छा कीजिए और एक सेकंड में ही वह आपके आसपास इठलाती नजर आयेगी। अपने तमाम प्रतियोगी मूल्य और उपलब्ध माॅडल्स साइड स्क्रीन पर, चमकाती हुई। संभव विकल्पों को इस तरह पेश करते हुए कि पलक झपकते ही आप उस वस्तु विशेष की प्रजाति तक के बारे में सब कुछ जान लेते  हैं। हर वस्तु को उसका अपना चलित इलेक्ट्राॅनिक त्रिआयामी डिस्प्ले स्क्रीन हासिल है। और सारे विवरण आपकी अपनी मातृभाषा में। यहाँ भाषाओं का वैश्वीकरण, एकीकरण और पुनर्वितरण हो चुका है।

 

इतने बड़े बाजार में मुझ मूर्ख ने इच्छा भी की तो पत्नी के लिए एक साड़ी की। क्षण भर में ही   मैं आठ-दस रूपवती स्त्रियों से घिर गया। वे सब उन साड़ियों का प्रदर्शन कर रहीं थीं जो मेरे मन को अच्छी लग सकती थीं। मेरी पसंद के संभव रंग, डिजायन और उनके संयोजन का आभास वस्तुओं ने कर लिया था। मुझे वे सभी साड़ियाँ पसंद आईं, फिर भी मन ही मन मैंने उनमें से एक चुनी। देखते ही देखते बाकी स्त्रियाँ गायब हो गयीं और कुल एक महिला बची, जिसकी पहनी साड़ी को मैंने पत्नी के लिए चुना था। आश्चर्यजनक रूप से उसकी कद-काठी और आयु मेरी पत्नी से मिलती थी। मेरे लिए उसकी एक मुश्किल कीमत स्क्रीन पर चमकी। मैं आगे बढ़ा तो वह स्त्री मुझे आलिंगन करने लगी। तब पहली बार जान सका कि वे स्त्रियाँ भी वस्तुएँ हैं। प्लास्टिक और रबर के नवीनतम रूप और रंग में, जिन्हें वास्तविक स्त्रियों की तरह प्रस्तुत किये जाने में लेशमात्र भी कसर नहीं छोड़ी गयी थी। अब प्रवेशद्वार पर मिली स्त्रियों का रहस्य भी समझ में आया। ओह, मैं तो उन्हें वास्तविक होमो सेपियन स्त्रियाँ समझ बैठा था और स्वीकार करूँ कि किंचित वासनाग्रस्त हो गया था। अब समझ पा रहा हूँ कि ये सब आधुनिकतम रोबोटस्त्रियाँ थीं जो बाजार के अनुकूल हर तरह से विचार कर सकती थीं, विश्लेषण और निर्णय कर सकती थीं। हर एक का उसकी मातृभाषा में स्वागत कर सकती थीं। मेरे आगे बढ़ते जाने पर मुझे अनेक तरह की कम कीमत की, सुंदर लुभावनी साड़ियाँ भी प्रदर्शित की जाती रहीं। अंततः  मैंने एक साड़ी के लिए सबसे पास के चलित-बोर्ड पर ‘एन्टर’ का बटन दबाया। स्क्रीन ने बताया कि  तीन हजार तीन सौ रुपए की वह (सस्ती) साड़ी मुझे अब बाजार से बाहर निकलते समय, निर्गम काउंटर पर मिलेगी। जाहिर है कि वहाँ आपकी पहचान अपने आप हो जायेगी।

 

इस बाजार में भुगतान आप कुल दो तरह से कर सकते हैं । अपने बैंक खाते का नम्बर और अपना कोड डायल करके अथवा आधुनिकतम ऋण-सुविधा से। आपके खाते में ओव्हरड्राॅफ्ट हो जायेगा। बाजार में प्रवेश करते समय, कार्ड स्वीप करते ही आपकी और आपके परिवार की आर्थिक हैसियत सहित, बैंक खातों की जानकारी, पिछले वर्षों के लेन-देन का विवरण वस्तु-बाजार के माइंड-केबिनेट में दर्ज हो जाता है। इसके लिए उसके पास पूरा डाटा-बेस है। आप अपनी हैसियत से बाहर की किसी वस्तु की इच्छा करेंगे तो उसका कोई उत्तर बाजार द्वारा नहीं दिया जायेगा। जैसे आप नवीनतम कार की माँग या इच्छा कीजिये, जिसका अंतर्राष्ट्रीय मूल्य एक लाख डाॅलर है, तो आपको उसकी तसवीर भी नहीं दिखायी जायेगी। यह आपका सौभाग्य हो सकता है कि यदि आपके आसपास घूमता कोई पर्यटक या क्रेता बड़ी हैसियत का है और वह नए माॅडल की मँहगी कार देख रहा है तो आप भी देख सकेंगे। लेकिन कोई-सा भी डिस्प्ले आपके लिए या आपके करीब की स्क्रीन पर नहीं होगा। बाजार आपको वही चीजें बतायेगा, उन्ही चीजों के साथ आपसे पेश आएगा, जो आपकी आर्थिक सामथ्र्य में  हैं।

 

इस बाजार में हर घंटे में औसतन एक खरीददारी करना आवश्यक है। यदि आप यों ही घूम रहे  हैं   और कुछ नहीं खरीद रहे  हैं  तो प्रति घंटे के हिसाब से दो सौ रुपए आपके खाते में डेबिट हो जाएँगे। यही बाजार का टिकट है। किस वस्तु का जिक्र किया जाये जो वहाँ उपलब्ध न हो। सूई से लेकर हवाई-जहाज वाला मुहावरा, कुछ सटीक बैठ सकता है। हालाँकि, इस मुहावरे को संशोधित करने की जरूरत है। किसी वस्तु का कोई माॅडल यदि वहाँ नहीं भी होता था तो वह ‘इलेक्ट्राॅनिक आवागमन’ पद्धति से मँगा लिया जाता था। जैसे आप किसी शहर के गलीचे या शाॅल को स्क्रीन पर देखकर ‘एन्टर’ कमांड दीजिये, यदि वह वहाँ नहीं है तो ‘परमाणु-विखण्डन और पुनःसृजन पद्धति’ से वह दस मिनट के भीतर आपकी सेवामें प्रस्तुत कर दिया जायेगा।

 

यह मुमकिन नहीं था कि आप उस बाजार में जायें और बिना खरीदे वापस आ जायें। वस्तुएँ आपसे इतनी संवेदनशीलता, आत्मीयता और आग्रह के साथ पेश आती  हैं  कि आप उनसे अमानवीय व्यवहार कर नहीं सकते। जरा सोचिए, आप  हैं और वस्तुएँ  हैं। आपके-उनके बीच में भी सिर्फ वस्तुएँ  हैं। धड़कती हुईं, आपको स्पर्श करती हुईं, शालीनता से आपके जीवन में, अपने थोड़े-से दखल की याचना करती हुईं और बताती हुईं कि वे किस तरह आपके काम आएँगी और अपने मूल्य से भी अधिक आपको चुकता करेंगी। वे आपके भविष्य में भी झाँकती  हैं और बताती  हैं कि छः महीने बाद या दो साल बाद आपको उनकी जरूरत लगने वाली है। आप उन्हें अभी ले जाइये अन्यथा आॅर्डर दे दीजिए ताकि वे चार माह बाद या एक साल बाद आपको सप्लाई की जा सकें। आज की कीमत पर। वे आपके लिए चिंतित दिखती  हैं। वे आपको केवल मनुष्यों के सहारे नहीं छोड़ देना चाहतीं और बताती  हैं कि वक्त पड़ने पर वस्तुएँ ही मनुष्य के लिए सच्चा सहारा दे सकती  हैं। उनका व्यवहार और आपके प्रति उनकी सजगता आपको प्रभावित करेगी ही। आप उनसे पूरी तरह सहमत नहीं होते  हैं तब भी वे निराश नहीं होती  हैं और आपको इतिहास के गर्भ से, दूसरे लोगों के अनुभवों से उपजे कुछ सामयिक उदाहरण विनम्रता से पेश करती  हैं। वे आपके अकेलेपन, आपकी उदासी और आपके अकिंचन-बोध को खतम करने के लिए लगातार प्रस्तुत दिखायी देती  हैं। उनके इस प्रयास को आप महज वस्तुगत या अमानवीय नहीं समझ सकते। वे जीवंत  हैं और आपसे एक तरह का जैविक संबंध बना लेना चाहती  हैं। आप चलते हुए थकेंगे नहीं क्योंकि सब तरफ आॅटोमेटिक ऐलीवेटर-चेयर्स  हैं। आॅटोमेटिक पगडंडियाँ हैं। आपकी आवश्यकतानुसार मुड़नेवाली, घूमनेवाली, आगे-पीछे होनेवाली और आपकी मनचाही चाल और गति से चलनेवाली।

 

जिन लोगों ने यह बाजार नहीं देखा है उन्हें भला कौन दिखा सकता है!

यों भी तमाम आश्चर्य देखने, अनुभव करने और इस जीवन का हिस्सा हो जाने के लिए होते  हैं। अन्य कोई भी प्रविधि अभी तक तो ईजाद नहीं हो सकी है जो उस सीमा तक आपको आश्चर्यलोक का आनंद दे जो खुद की हिस्सेदारी और इंद्रियबोध से संभव है। अनौपचारिक आश्चर्य की श्रेणी में होते हुये भी यह ‘वस्तु-बाजार’ मुझे दूसरे औपचारिक आश्चर्यों की तुलना में कुछ ज्यादा ही अलग और विस्मयकारी प्रतीत हुआ। या कहूँ कि नवीनतम दुनिया ही कुछ इस तरह के आश्चर्य पैदा कर सकती है। मुझे यह बाजार देखे हुए नौ साल बीत गए। अब वहाँ क्या कहानी हो गई होगी और आश्चर्य का स्तर कितना ऊँचा उठ गया होगा, कहना मुश्किल है। आशा है कोई नया पर्यटक, जो कहानियों से प्यार करता है, आपको जल्दी ही बताएगा।

 

 

जीवितों के पिरामिड

अक्षांशः 28.38 उत्तर और देशान्तरः 77.12 पूर्व।

यह शहर ‘जीवितों के पिरामिड’ के रूप में विख्यात है और जैसा कि आप शायद जानते ही होंगे कि माने हुए संसार के आश्चर्यों में इसका विशेष स्थान है। इन पिरामिडों के निर्माण के पीछे किसी एक व्यक्ति का हाथ नहीं है बल्कि वक्त के साथ-साथ पिछली शताब्दी में क्रमशः ये पिरामिड बनते चले गए। आखिर पूरा शहर पिरामिडों से भर गया। इस आश्चर्यजनक शहर को देखने का बेहतर तरीका है कि आप यहाँ हफ्ता भर तफरीह करते हुए गुजारिए। धीरे-धीरे पिरामिडों का रहस्य और जादू खुलता चला जाएगा। जैसा किसी शायर का कहना है कि जो जितना खुलेगा, वह उतना ही खिलेगा। इस शहर का मजा भी ऐसा ही है। धीरज, उत्सुकता और वास्तुकला में दिलचस्पी- ये तीन चीजें इस शहर का आनंद लेने के लिये न्यूनतम अहर्ताएँ हैं।

 

यह प्राचीन ऐतिहासिक नगर है। पुरातत्ववेत्ताओं, स्थापत्य के अध्येताओं, इतिहासकारों और नृतत्वशास्त्रियों के लिये यह शहर जीवित-पुस्तक की तरह खुला हुआ है। जैसे कुछ नगर चर्चों, मंदिरों, मस्जिदों, पैगोडाओं और स्तूपों से भरते चले जाते हैं, उसी तरह यह शहर पिरामिडों से गुम्फित हो गया। एक विलक्षण, धीमी किंतु सुनिश्चित प्रक्रिया के चलते। बीसवीं सदी के अंत तक आते-आते आखिर इसे संसार के महानतम आश्चर्यों में दर्जा दिया गया।

 

चूँकि अब यह प्रख्यात आधुनिक शहर भी है इसलिए संसार की सभी प्रमुख जगहों से, थल-नभ के मार्गों से जुड़ा है। सुगमता से यहाँ पहुँचा जा सकता है। कहा तो यहाँ तक जाता है कि आप इस देश में, किसी भी दिशा से यात्रा प्रारंभ कीजिये, यह शहर रास्ते में आ ही जायेगा। शुरूआती पिरामिड, शहर की परिधि की तरफ बने थे। दो पिरामिड ऐसे हैं जिन्हें लेकर आज तक विवाद है कि इनमें, शहर का सबसे पहला पिरामिड कौन-सा है। अनेक विद्वान सहमत हैं कि वह घर ही पहला पिरामिड था जिसे एक जटाजूटधारी आदमी ने अपने अज्ञातवास के लिए प्रयुक्त किया। उसका पूरा परिवार, मोहल्ला, गाँव यहाँ तक कि पुलिस भी उसे खोजती रही। अंततः उसे गुमशुदा मान लिया गया लेकिन वह चुपचाप, बाईस साल इस पिरामिड में रहा। प्रारंभ के दस बरस में यहीं उसने योग विद्या सीखी, ध्यान में विशेष योग्यता प्राप्त की, अपनी तरह के ध्यान-केंद्र के स्कूल को विकसित किया और यकायक प्रकट होकर बारह-तेरह साल तक सात प्रधानमंत्रियों का सलाहकार नियुक्त हुआ। यह करीब एक हजार बरस पुरानी बात है। इस पिरामिड को ‘शक्ति केंद्र’ कहा गया। अध्यात्म और राजनीति, दोनों पर दृष्टियों से सहमत हुआ जा सकता है कि इसे शक्ति केंद्र का नाम ठीक ही दिया गया। बाद में कुछ दिनों तक तत्कालीन सरकार की नासमझी की बदौलत, इस पिरामिड को बंदीगृह भी बना दिया गया था। कई महत्वपूर्ण राजनीतिक व्यक्तियों और बुद्धिजीवियों को यहाँ नजरबंद रखा गया। लेकिन जब देखा गया कि वे नजरबंदी के दौरान अधिक स्वस्थ, ऊर्जस्वित एवं प्रसन्नचित्त हो उठते थे, तब इस घर की तरफ विशेष ध्यान गया और पता चला कि यह घर अंदर से एक पिरामिड है।

 

फिर ज्यामिति विशेषज्ञों ने सिद्ध कर दिया कि इस घर की संरचना पिरामिडीय होने के कारण चुंबकीय प्रभावयुक्त है, जिसका सकारात्मक प्रभाव मनुष्य के मनो-मस्तिष्क पर पड़ता ही है। पृथ्वी के चुंबक की अधिकतम ऊर्जा, यहाँ कोण-विशेष की वजह से केंद्रित होती है। सूर्य के प्रकाश और हवा की आवाजाही का इतना ध्यान रखा गया था कि आज भी वैज्ञानिक दाँतो तले उँगलियाँ दबाने को विवश हैं। ध्यान-कक्ष में सूर्योदय के बाद डेढ़-दो घंटे के लिए धूप आती है और पूरा कक्ष प्रातः-रश्मियों से आह्लादित हो उठता है। उत्तराभिमुख ईंटों की चौकी पर चुंबकीय प्रभाव का जैसे कोई पुंज एकत्र है। वरुण-कक्ष की इस चौकी पर जल का पात्र रात्रिपर्यंत रख देने से वह चुंबकीय असर ग्रहण कर लेता है। इस जल सेवन से असाध्य रोगों का इलाज सदियों से किया जाता रहा है। पिरामिड के बाहर परिसर में पवित्र और चमत्कारी जल की सरकारी मान्यता प्राप्त दुकानें भी खुली हैं। प्रतिदन हजारों-लाखों लोग यह चमत्कारी-जल खरीदते हैं। स्पीड-पोस्ट, कूरियर्स के जरिए भी यह जल संसार के कोने-कोने में जाता है। वरुण-कक्ष में विशाल ताँबे के जल-पात्रों को सरकारी विभाग की देखरेख में रखा और निकाला जाता है। इस मद से प्राप्त आय, पिरामिड-रक्षा कोष में जमा की जाती है। इसी पिरामिड के शयन कक्ष में सात दिन तक रात्रि-विश्राम, मनुष्य को नव-यौवन प्रदान करने में समर्थ रहा है। किंतु अब यह कक्ष एक दर्शनीय, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर है। इसे देखा जा सकता है, इसका उपयोग वर्जित है। यह तो अब विरासत है।

 

मगर इसे पहला पिरामिड मानने को लेकर विवाद है क्योंकि कुछ दूसरे वैज्ञानिक शहर के बीचों-बीच बने विशालतम भवन को पहला पिरामिड मानते हैं। जिसका निर्माण जोर-शोर से हुआ था लेकिन तब इसे पिरामिड के रूप में प्रचारित नहीं किया गया था। क्योंकि देश में गरीबी और विद्रोह-भावना इतनी अधिक थी कि इसके निर्माण पर होनेवाले व्यय का औचित्य बताना मुमकिन नहीं था। गोपनीय तरीके से इसे बनाया गया। पहले बाहरी हिस्से में एक गोलाकार बाउंड्री और गलियारा निर्मित किया ताकि इनकी ओट में भीतर, पिरामिड का निर्माण आमजन की निगाह से दूर रखकर जारी रह सके। यह एक विशिष्ट पिरामिड था जहाँ सत्ताधीशों द्वारा, अपने उपयोग के लिये पूरे देश की ऊर्जा केंद्रित करने की योजना थी। इसलिए भी जनता को इसके ‘पिरामिड’ होने की सूचना देना ठीक नहीं था। वैज्ञानिक बताते हैं कि ‘शक्ति-केंद्र’ समझे जानेवाले, उस पहले पिरामिड की तुलना में, यहाँ हजार गुना अधिक चुंबकीय असर है। लेकिन तमाम सावधानियों के बावजूद इसकी संरचना में कुछ वास्तु-दोष आ गया, फलस्वरूप कुछ हानिकारक क्षेत्र बन गए। जिनका अंदाजा कुछ घटनाओं से बाद में धीरे-धीरे हुआ।

 

बाहर से गोलाकार दिखने वाले इस भवन का भीतरी हिस्सा पिरामिडीय है। एक विशाल केंद्रीय कक्ष के अलावा 100 अन्य कक्ष हैं। दो शताब्दी पहले तक देश की सत्ता का वास्तविक केंद्र यही था। इसमें हर किसी को प्रवेश की इजाजत नहीं दी थी। सर्वसम्मति से तय किया गया था कि एक निश्चित चयन-प्रक्रिया के बाद ही यहाँ लोग बैठ सकेंगे। वर्षों तक ऐसा होता रहा और जीवित, स्पंदित, सक्रिय, महत्वाकांक्षी, चयनित व्यक्ति यहाँ आकर बैठते रहे। बहसों के बीच निर्णय लिए जाते रहे। केंद्रीय कक्ष में नवीनतम विचारों के प्रस्फुटित होने में, चुंबकीय ऊर्जा की सहायता मिलती थी। लेकिन एक शताब्दी बीत जाने के बाद, विश्लेषण से पता चला कि कुछ क्षेत्रों में चुंबकीय धाराएँ विपरीत प्रभाव डालती थीं, इसलिए अनेक विध्वसंक विचारों के जन्म का उत्तरदायी भी, इसी पिरामिड को माना गया। तब कुछ अलग सत्ता शक्ति-केंद्र बनाये गए और इसे एक राष्ट्रीय धरोहर के रूप में संरक्षित कर दिया गया। ‘जीवितों के पिरामिड’- यह नाम इस मुख्य पिरामिड के कारण प्रचलित हुआ। कि इसमें जीवित लोग अपने कुल चरित्र में, ‘ममियों’ की तरह व्यवहार करते थे।

 

धीरे-धीरे इन पिरामिडों को महत्वूपर्ण संरचनाओं के रूप में स्वीकार्यता मिलती गई। शासकीय स्तर पर मान्यता मिलने, मीडिया द्वारा प्रचारित होने और वैज्ञानिकों के समर्थन से जनता के बीच पिरामिड लोकप्रिय और दर्शनीय होते गए। शहर की अवस्थिति, मिट्टी, स्थानीय ईंट-पत्थर आदि कुछ विशेषताएँ थीं कि ये संरचनाएँ, यहीं अपने सर्वाधिक प्रभावशील रूप में काम करतीं थीं। उस समय पिरामिड बना सकने वाले कारीगरों, इंजीनियरों, शिल्पकारों के विशेषज्ञ दल भी यहीं केंद्रित होते गए। अकारण नहीं कि संसार का पहला ‘टेक्नीकल इंस्टीट्यूट आॉव पिरामिड साइंस’ TIPS, यहीं खुला। अब तो वह तीन सौ एकड़ में फैल चुका है।

 

बहरहाल, उस वक्त में अनेक महत्वपूर्ण शासकीय संस्थान, ‘जीवितों के पिरामिड’ के सिद्धांत पर ही बनाये गये। खासतौर पर विश्वविद्यालयों, संचार गृहों और पर्यावरण संरक्षण भवनों के निर्माण में ‘पिरामिडीय संरचनाओं’ पर विशेष ध्यान दिया गया। लोगों ने अपने घरों एवं व्यवसाय स्थलों का कम से कम एक कक्ष या एक कोना पिरामिड की तरह बनाया। इससे उनके काम करने की जगहों और घर में चुंबकीय-प्रभाव की एकरूपता मिलने लगी। ऐसे घर और दुकानें आप आज भी यहाँ देख सकते हैं जो ऊपरी तौर पर सामान्य निर्माण का अहसास देंगे लेकिन वस्तुतः वे पिरामिडीय हैं। वहाँ यदि कुछ दिन बिताएँ तो आध्यात्मिक अनुभव हो सकते हैं और आप इस लौकिक जगत की समस्याओं, दैनिक तनावग्रस्तता और आपाधापी की वेदना से ‘मुक्ति के अनुभव’ को सहज ही पा सकते हैं।

 

आज भी इन पिरामिडों में समय गुजारकर महसूस किया जा सकता है कि भूख, प्यास, ईष्र्या, चिंता और भय से आपको छुटकारा मिलता जा रहा है। इसलिए ही पिछले जमाने में अध्यात्म की विशाल धारा के बरअक्स, जीवन की दैनिक समस्याओं की व्यर्थता को, इन पिरामिडों में बैठकर, गोष्ठियाँ करते हुए, सहज ही समझा और विश्लेषित किया जा सका। गरीबी, अशिक्षा, जनसंख्या, अन्याय, बेरोजगारी, असमानता को भी बार-बार इन पिरामिडों के भीतर विमर्श का विषय बनाया गया और पाया गया कि ये चीजें तो समाज में बनी रहती हैं। ये समाज के अवयव हैं और इनके बारे में फिक्र की कोई जरूरत नहीं है। देश के अन्य शहरों-कस्बों-गाँवों से लोग अपनी मुश्किलों में जुलूस बनाकर, आंदोलित होते हुये, यहाँ पहुँचते थे तो तुरंत ही शहर के नियंता और बुद्धिजीवी महत्वपूर्ण पिरामिडों में बैठ जाते। यद्यपि ऐसे कोई निर्णय ज्ञात नहीं हैं, जिनसे लोगों की कठिनाइयों का सचमुच हल निकला हो। लेकिन आक्रोशित, पीड़ित और आंदोलित लोगों को पिरामिडीय महापुरुष हमेशा ही कुछ ऐसे नैतिक वाक्य, अध्यात्मिक बिंदु और साधना के उपाय बताते थे कि उन्हें व्यामोह से निकलने में मदद मिलती। जब भी बेचैनी, घबराहट, अवसादग्रस्तता और संघर्षपूर्ण मनःस्थिति बनती, लोग पिरामिड की शरण लेते और उन्हें महसूस होता कि धीरे-धीरे इन लौकिक रोगों से छुटकारा मिल रहा है। आशा की नयी ज्योति उनमें जग जाती। दिनचर्या में भी सामान्य जनता एक पिरामिड से बाहर निकलती और दूसरे पिरामिड में प्रवेश कर जाती। शहर के लोग यदि अपने अंतिम समय में किसी और शहर में होते तो उनकी एक ही इच्छा रहती कि कैसे भी, वे अपने शहर के गृह-पिरामिड में पहुँच जाएँ ताकि उन्हें शांति से मृत्यु प्राप्त हो सके।

 

मैंने इस शहर में दो सप्ताह बिताए। निम्नमध्यवर्गीय पर्यटकों के लिए, अनेक पुराने अनाज भंडारण-गृहों को सराय में बदल दिया गया है, जो सस्ती दर पर रात बिताने के लिए उपयुक्त हैं। छोटे-बड़े करीब चालीस पिरामिडीय भवन भी पर्यटकों के लिए खोल दिए गए  हैं  । संक्षेप में, प्रथम माने जानेवाले इन दो पिरामिडों के अलावा, मुझ पर जिन कुछ दूसरे पिरामिडों ने अविस्मरणीय छाप छोड़ी, उनमें से ‘विश्वविद्यालय पिरामिड’ का जिक्र जरूरी है। विशाल परिसऱ के इस विश्वविद्यालय में अलग-अलग संकायों के लिए पचास कक्ष  हैं । विद्यार्थियों के बत्तीस छात्रावासों को भी पिरामिड-ज्यामिति के आधार पर बनाया गया था। इस विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना बड़े सम्मान और योग्यता की बात थी। विद्यार्थियों का मस्तिष्क अध्ययन के साथ उत्रोत्तर असीम शांति को प्राप्त होता था। पहले की तरह नहीं कि हर बात में अपना आंदोलन लेकर बैठ जाएँ। यहाँ पढ़ाई का अर्थ और उद्देश्य था कि विद्यार्थी की जिज्ञासा हमेशा के लिए शांत हो जाए और उत्तर-विद्यार्थी जीवन में वे संयमित, सच्चरित्र, गंभीर व्यक्तियों की तरह प्रवेश कर सकें। आत्म और जातीय गौरव के मूल्यों को समझें। प्राकृतिक वातावरण में निर्मित यह विश्वविद्यालय हमें हमारे पूर्वजों के आचरण की सूचनाएँ देने में सक्षम है।

 

इनके अलावा ‘विमर्श कक्ष’ को देखना भी उत्तेजक अनुभव रहा। यह प्रकाश, ध्वनि और वायु अनुकूलित है। इसमें पाँच सभागार  में से दो में मंच बने  हैं । प्रत्येक सभागार में लगभग दो हजार लोग आसानी से बैठ सकते  हैं । बत्तीस कक्ष और हैं। हर एक कक्ष में चालीस-पचास व्यक्ति विमर्श-गोष्ठियाँ कर सकते थे। यहाँ की विशेषताथी, जैसा बताया जाता है, कि आधे घंटे में ही उत्तेजित दिमाग शांत हो जाते थे और मानवीय दुर्बलताओं, महत्वाकांक्षाओं, कल्पनाओं और स्वप्नशीलताओं की पोल खुलने लगती थी। इस पिरामिड ने नये बुद्धिजीवियों के विकास में अप्रतिम योगदान दिया। हालाँकि इसका एक हिस्सा, युद्ध में दूसरे देश द्वारा नष्ट कर दिया गया किंतु आज भी यह दर्शनीय, मोहक और अद्भुत है।  मैंने  खुद इस पिरामिड के मुख्य कक्ष में बैठकर आनंद, तरलता और भारहीनता का अनुभव किया। जैसे मेरे विचारों में मच रही उथल-पुथल शांत हो रही हो। ऐसे न्यूनाधिक अनुभव अन्य पिरामिडकक्षों में कुछ समय गुजारने के बाद भी हुए थे। मेरी व्यक्तिगत राय है कि हर पर्यटक को यह शहर अवश्य ही अपनी पर्यटन-सूची में रखना चाहिये। यद्यपि अनेक पर्यटक इस शहर को देखकर निराश होते रहे  हैं  कि जीवित मुर्दाघरों को क्या देखना!

 

इस शहर को देखने के बाद मैं कई महीनों तक ट्रांस में रहा। इतने बड़े ज्ञान, धरोहर और वास्तुकला का कोई अन्य शहर उत्तराधिकारी नहीं बना। इसकी परंपरा नहीं बनी। या इसे यों ही उपेक्षित छोड़ दिया गया। संसार के आश्चर्यों में शामिल करने भर से क्या होता है। केवल पर्यटकीय आय! हालाँकि इन पिरामिडों के खिलाफ भी कुछ लोग सक्रिय  हैं , जो लगातार अपनी ढपली बजाते रहते  हैं । उससे एक राग यह भी निकलता है कि ये पिरामिड मनुष्य की जाग्रत चेतना को, उसकी स्वतंत्रता को, उसकी सर्जनात्मक अराजकता को, उसके आवश्यक अटपटेपन को, संघर्षक्षमता और उसके नवोन्मेष को खतम करते  हैं  और एक तरह से उसे यथास्थितिवादी बनाते हैं। उसे किसी शांतचित्त केंचुए में बदलते  हैं।

 

लेकिन आप ही बताएँ पिरामिड जैसी तकनीक को और जीवित-मनुष्यों के लिए उसकी उपादेयता को भला कैसे कम करके आँका जा सकता हैे?

ज्यादा सोचने पर मेरा तो दिमाग झनझनाता है।

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