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ईशान त्रिवेदी की नई कहानी ‘एक चूहे की मौत’

ईशान त्रिवेदी फ़ेसबुक पर ईशान श्रिवेदी के नाम से हैं। टीवी-फ़िल्मों की दुनिया से ताल्लुक़ रखते हैं लेकिन मैं उनकी क़िस्सागोई का क़ायल होता जा रहा हूँ। कहाँ कहाँ से चुन चुन कर किससे लाते हैं। मत पूछिए। सुना है कि इनका एक उपन्यास जल्दी ही राजकमल प्रकाशन समूह से आने वाला है। वह जब आएगी तब आएगी फ़िलहाल इस छोटे से क़िस्से का आनंद लीजिए और लेखक को दाद दीजिए- प्रभात रंजन

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एक चूहे की मौत

मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है कि मैं स्वाद वाली चीज़ें बचा के रख लेता हूँ। जैसे करेलों के साथ भुने आलू। जनपथ से ४०-४० रुप्पइये की पाँच टी शर्ट्स में जो उँगलियों को सबसे ज्यादा सलसलाती उसे बाकी की चार फाड़ के ही पहनता। आज भी सबसे अच्छे दोस्तों को संभाल के ही रखता हूँ कि कहीं खर्च न हो जाएँ। ऐसा करने से एक बेचैनी पैदा होती है जो ठीक वैसा दर्द देती है जैसा तलवों में फंसा वो काँटा देता है जिसे कभी भी निकाला जा सकता है। और मुझे ये कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं कि मेरी इसी आदत ने मुझे बरबाद कर दिया। बात है तब की जब १४ बिना छुए ही मुझे इश्क़ हो गया। आठवीं में पढता था और पाखाने में बैठ के ‘सूरज और चंदा’ का हिट गाना ‘तेरे नाम का दीवाना’ गाया करता था। पाखाना इसलिए कि एक वही जगह थी जहाँ हमेशा मैंने अपने आप को अपने आप से सुर में पाया है। वो मेरे कस्बे की तथाकथित ‘सबसे खूबसूरत लड़की’ थी। मेरे से एक साल बड़ी थी और मुझ से २ से ५ साल बड़े लड़कों की उसपे नज़र थी। इन में से कई लड़के सूरमा किसम के थे और उनकी धाक में वाज़िब दम था। उनके प्यार जताने के तरीकों में भी दम था। वो लड़की भी इस बात को जानती थी कि बिन मसें भीगे कस्बे का दो तिहाई हिस्सा उस पे मरता है और बाकी का एक तिहाई जो नहीं मरता वो जाए तिलहट्टी लेने।

तो ये उस दिन की बात है जब एक साथ बहुत सारी अच्छी अच्छी बातें हुईं। कोतवाली के सामने मेरे मैथ्स के टीचर टकरा गए। बुला के बोले – भई वाह! तुम तो ५० में ५० लाये हो। ये सुबह सुबह की बात थी। गर्मियों की छुट्टियां चल रही थीं। घर पे कर्नल रंजीत की ‘पीले बिच्छू’ और इब्ने सफ़ी की ‘नीला महल’ मेरा इंतज़ार कर रहे थे। ‘पीले बिच्छू’ में मैं उस पन्ने पे था जहाँ सोनिया अपनी एड़ियाँ उचका चुकी थी और मैं बेचैन था कि क्या वो मेजर बलवंत को चुम्बन देगी। इस अद्भुत चुम्बन को मैंने पिछली रात बचा के रख लिया था। बेचैनी का भी अपना एक सुख होता है। मुझे पता था कि मैं अगर घर में घुस गया तो वो पन्ना खुल ही जाएगा। इसलिए लू झेलता भी मैं इधर उधर लफंदड़ी करता रहा। ‘उसके’ घर के सामने से गुज़रा तो उसकी बड़ी बहन ने बुला लिया। “तुम आते नहीं आजकल?” अब उसे कैसे बोलता कि उसकी छोटी बहन मेरे लिये करेलों का आलू हो चुकी है। जितना नहीं मिलूंगा उतना ही बेचैन रहूंगा। “तीन नए इंद्रजाल आये पड़े हैं और तुम … एक काम करोगे … ये ज़रा गंज जाके ले आओ ना …” – और उसने एक पर्ची और थैला थमा दिया। पाव किलो मसूर, सेंधा नमक और अब्बास टेलर से पूछ के आना था कि जो दो बेलबॉटम दीं थीं बनने को वो कब मिलेंगी। लौट के आया तो चाची ने बेल का शरबत पिलाया। जिस कमरे में बैठा था वहाँ से ‘वो’ दो तीन बार गुज़री। मेरे कस्बे में उस समय ‘हाए हेलो’ का दस्तूर नहीं था। मुस्कुराने का भी नहीं क्योंकि ‘हंसी तो फंसी’ वाली कहावत हर जवान हो रही लड़की को कंठस्त थी। उठने लगा तो ‘वो’ इंद्रजाल लेके सामने आ गयी। वैसे तो नए नए इंद्रजाल देख के मुंह में पानी आ रहा था लेकिन इम्प्रैशन मारने के लिए मैंने कह दिया – “मैं आजकल ये सब नहीं पढता …” “तो क्या पढ़ते हो?” – मुझे याद है वो किसी अच्छे साबुन जैसी महक रही थी। “तुम्हें नहीं पता” – मैंने और शान झाडी। “मुझे सब पता है। ” – उसने भी तर्रा कर कहा। “क्या पता है?” – मुझे पता था कि उसका ये तर्राना तब तब याद आएगा जब जब सोनिया अपनी एड़ियां उचकायेगी। “अर्रे! मुझे सब पता है!” – उसने आँखें तरेर के कहा और बाहर चली गयी। लगभग बारह बजे जब नगलिया वाली तरफ से पीली धूल का बवंडर उठने लगा तो मैं घर लौट आया। दादी ने काली उरद की सूखी खिचड़ी बनाई थी। माई मोस्ट फेवरेट। आँगन में बैठे पापा बी बी सी सुन रहे थे। इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी डिक्लेअर कर दी थी। किसको पता था की दो ही दिन बाद पापा १८ महीने के लिये जेल के भीतर होंगे। आज का दिन तो अच्छा जा रहा था। खिचड़ी की थाली लिए मैं अंदर कमरे में चला गया। बवंडर के चलते दिन में भी अँधेरा था। वो आखिरी पल था जब मैं उजाले से अँधेरे में गया और फिर कभी वापिस नहीं लौटा। ‘पीले बिच्छू’ और ‘नीला महल’ के साथ एक और किताब रखी थी जिसे मैंने पहले कभी नहीं देखा था। बदीउज़्ज़माँ की ‘एक चूहे की मौत’। शायद पापा कॉलेज की लाइब्रेरी से इशू करवा के लाये थे। मुझे अच्छी तरह से याद है कि ये वोई बचा के रखने वाली आदत थी कि मैंने सोनिया की उचकती एड़ियों को रोक दिया और इस नयी किताब को उठा लिया। एक कारखाने में मज़दूरों की ज़िंदगी की इस काफ्केसकिएन कहानी को पता नहीं मेरे उस १४ साल के दिमाग ने कैसे छाना। लेकिन इतना पता है कि दिल तो ठहरा रहा वहीं … उसी पन्ने पे … जहाँ वो एड़ियाँ आज भी आधी उचकी सी ठहरी हैं … लेकिन दिमाग … बहुत सालों बाद दिल्ली के हयात में बैठ के कबर्नेत सविग्नोन पीते हुए और सूशी खाते हुए जब मैंने अपने दिल और दिमाग के झगडे को प्रिय मित्र राजीव कुमार को बताया तो उसने मुस्कुरा के कहा – “हम सब रेडिकल बूर्जुआ हैं … ” सुनने पे ये उस समय भी गाली लगी थी … आज भी लगती है …

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ईशान त्रिवेदी की कहानी ‘ग्योलप्पा’ का लिंक https://www.jankipul.com/2019/08/a-short-story-by-ishan-shrivedi.html?fbclid=IwAR0ZdTGN59msFzP-TG5LA5djJ3SlCm5CcLsD7HeTRl28AFiNpLpE-N89nSA

 
      

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