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पराग मांदले की कहानी ‘चाह की गति न्यारी’ उपसना झा की टिप्पणी के साथ

‘नया ज्ञानोदय’ के अगस्त अंक में प्रकाशित पराग मांदले की कहानी ‘चाह की गति न्यारी’ पढ़िए युवा कवयित्री-लेखिका उपासना झा की टिप्पणी के साथ- मॉडरेटर

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नया ज्ञानोदय के अगस्त अंक में छपी पराग मांदले की कहानी ‘चाह की गति न्यारी’ मनुष्य के मन की परतों को खोलती हुई एक अच्छी कहानी है। हिंदी में इस तरह की कहानियाँ जैनेंद्र और इलाचन्द्र जोशी ने लिखी हैं। इनकी कहानी में रुआँसी भावुकता नहीं है बल्कि दबी हुई समस्या और उनके समाधान तक जाने का प्रयास भी है। जैनेंद्र कहते हैं कि कहानी तो एक भूख है जो निरंतर समाधान खोजने का सतत प्रयत्न करती है। युंग ने अन्य कारकों के साथ-साथ व्यक्तित्व संरचना में व्यक्तिगत अचेतन की भूमिका मानी है। मनोविश्लेषकों का यह मानना है कि बचपन में हुई अच्छी और बुरी घटनाएं हमारे व्यक्तित्व निर्माण पर बहुत प्रभाव छोड़ती हैं। कहानी में चार मुख्य पात्र हैं- छाया, अजय, अथर्व और ठाकुर साहब। छाया को केंद्रीय चरित्र कह सकते हैं। वह एक सुलझी हुई महिला है, अपने परिवार और जीवन में रमी हुई। अजय छाया का पति है, आम भारतीय पुरुषों की तरह परिवार के दायित्वों और दफ़्तर के काम में दबा हुआ। ठाकुर साहब छाया के बॉस हैं, कहानी में वे अभिभावक और संवेदनशील, अनुभवी व्यक्ति हैं जो सफल मनोचिकित्सक भी हैं। कहानी में एक पॉइंट है कि याद करने की कोशिश में छाया अपने इक्कीस वर्षों के वैवाहिक जीवन में कोई सुखद स्मृति नहीं याद कर पाती इसका अर्थ है कि क्रोध और उससे उपजे भय की स्मृतियाँ हावी हैं। अधिकांश भारतीय पुरुषों की तरह अजय को अत्यधिक क्रोध करने की समस्या है। हमारे समाज में क्रोध को एक समस्या या रोग की तरह लिया ही नहीं जाता। जबकि अगर किसी भी ट्रेट से अन्य व्यक्तियों को शारीरिक या मानसिक कष्ट होता है उसे अस्वाभाविक समझा जाना चाहिए। उस स्थिति को समझने, स्वीकारने और उसका उचित उपाय करने की आवश्यकता है। घरेलू हिंसा के अधिकांश मामले एक थप्पड़ से शुरू होकर कई बार हत्या और आत्महत्या के प्रेरक बनते हैं। छाया ने ग्यारह वर्ष की आयु में जो हिंसा और तकलीफ़ सही, उसे वह किसी को बता नहीं सकी। वह भय, हिंसा और उससे उपजा दर्द उसके मन के एक हिस्से में दब गए हैं। बरसों बाद जब उसका पति उसकी असहमति को दरकिनार कर उससे जबरदस्ती करता है तो उसका आहत मन उसी मानसिक अवस्था में चला जाता है। बरसों से उसके मन में दबा गुस्सा, असहायताबोध और भय एक साथ प्रकट होते हैं। उस एक क्षण में उसे पुरुषजाति से घृणा होती है, कहानी के अनुसार उन्हीं क्षणों की परिणीति से उसे गर्भ ठहरता है। उसका बेटा बचपन से ही अपने क्रोधी पिता का स्वभाव सहता-देखता आ रहा है लेकिन जब वह एक साधारण बहस के बाद उसे अपनी माँ पर हाथ उठाते देखता है तो उसके मन में दबी हुई घृणा, गुस्सा और क्रोध एकसाथ हावी हो जाता है और वह प्रहार कर बैठता है। कहानी समस्याओं, जीवन पर उनके प्रभाव और उनके समाधानों की तरफ संकेत भी करती है।

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चाह की गति न्यारी

पराग मांदले

ठाकुर साहब ने जैसे ही उसके सिर पर हाथ फेरा, उसकी चेतना पालतू कबूतर की तरह अपने ठिये पर लौटी।

सब कुछ इतनी तेजी से घटा था कि उसे अपने होशो-हवास संभालने का होश भी नहीं रहा था।

उसे केवल इतना याद है कि फूटे हुए तरबूज की तरह खुले अजय के सिर में से फर-फर बहते खून को अपनी साड़ी से रोकने का प्रयास कर रही थी वह।

उसके बाद क्या हुआ, अजय और उसे कौन इस अस्पताल में लेकर लाया, उसे पता नहीं। वह यंत्रवत् संवेदनाशून्य होकर साथ चली आई थी।

अस्पताल पहुँचते ही अजय को तुरंत ऑपरेशन थियेटर ले जाया गया। इधर उस पर प्रश्नों की बौछार हो रही थी। उन प्रश्नों की स्वर-लहरियां छू भर रही थीं उसे, मगर उन स्वर-लहरियों पर सवार शब्दों को उसके मन-मस्तिष्क को स्पर्श करने का कोई अवसर नहीं मिल रहा था। पता नहीं उसके मस्तिष्क में उस समय सौ-सौ तूफान एक साथ उमड़ रहे थे या फिर भयानक सन्नाटा छाया हुआ था। साथ में आये लोगों ने ही उसकी ओर से यथासंभव उत्तर देने का प्रयास किया। सारी हलचल से बेख़बर वह ऑपरेशन थियेटर के बाहर रखी बेंच पर चेतना-शून्य होकर बैठी थी।

सामने शून्य में ताक रही थी वह, जब ठाकुर साहब ने आकर उसके सिर पर स्नेह से हाथ फेरा था। अचानक मानो स्वप्न से जागकर उठ खड़ी हुई वह। ठाकुर साहब के पैरों में झुकी तो सही वह मगर उन्होंने बीच में ही उसे थाम लिया। ठाकुर साहब के स्पर्श ने उसकी हिचकियों और रूलाई के सोतों को मार्ग दिखा दिया। उनकी हथेलियों का कोमल स्पर्श कुछ देर तक उसकी पीठ पर थपकियां देता रहा।

भीतर का शोक, संताप, पीड़ा जब कुछ हुई तो अथर्व के हाथ में लहराता क्रिकेट का बेट और अजय का खुला हुआ सिर एक साथ एक दृश्य के रूप में उसकी खुली आँखों के सामने लहराये।

“अथर्व कहाँ है?” अचानक जैसे नींद से जागकर चीखी वह।

“पुलिस हिरासत में है वह।”  ठाकुर साहब ने शांत स्वर में उत्तर दिया।

“पुलिस हिरासत में?”  हैरत से उसकी आँखें और स्वर दोनों फैल गए थे।

“हाँ, अजय पर वार करने के बाद रक्त से सना बेट लिए वह खुद पुलिस थाने पहुँच गया था। मैंने एडवोकेट जाधव से कह दिया है। वह उसकी जमानत के लिए पूरी कोशिश कर रहे हैं।” ठाकुर साहब का स्वर उनके समान ही कोमल और शांत था।

“यह अचानक सब क्या हो गया है बाबा? ”  उसके आँसू एक बार फिर बह निकले थे।

“जो नियति की इच्छा थी, वही हुआ है बेटा।” ठाकुर साहब ने कहा।

“मगर ऐसी अनहोनी मेरे ही घर में क्यों होनी थी? ” उसके स्वर में कातरता थी।

“हर घटना की तरह हर प्रश्न के उत्तर का भी एक निर्धारित समय होता है बेटा। समय आने पर तुम्हें अपने हर प्रश्न का उत्तर मिल जाएगा। फिलहाल तुम्हारी प्राथमिकता अपने प्रश्नों का उत्तर नहीं, बल्कि अजय है।” ठाकुर साहब ने कहा।

“अजय बच तो जाएंगे न बाबा? ”  अजय का ध्यान आते ही तमाम आशंकाओं ने उसके स्वर को जकड़ लिया था।

ठाकुर साहब पहली बार हौले से मुस्कुराए। “घृणा से अधिक प्यार बलशाली है। फिर बचेगा क्यों नहीं वह? “

घृणा शब्द ने कुछ पलों को उसे उलझन में डाला, किसकी घृणा, किसके लिए घृणा; मगर फिर सावन की हल्की फुँहारों-सी आश्वस्ति की ठंडक उसके कलेजे में उतर गई।

उसने स्वप्न में भी कभी इस बात की कल्पना नहीं की थी कि उसका बेटा अथर्व कभी अपने ही पिता पर इस तरह जानलेवा वार कर सकता है।

बचपन से ही संस्कारों के झीने आँचल तले अपने प्रेम का दूध पिलाकर पाला है उसने अथर्व को। अपनी ही तरह थोड़े-से क्रोधी स्वभाव के अपने इस बेटे को खुद अजय ने भी कोई कम प्यार नहीं दिया है। तमाम नोक-झोंक के बावजूद अजय और अथर्व के बीच समान सोच और रूचियों की डोर बड़ी मजबूती से बंधी हुई थी। फिर अथर्व के हाथ से यह पाप कैसे घटा, खुद वह भी समझ नहीं पा रही थी।

यूँ तो अपने-आपको संपूर्ण लुटा देने की अभिलाषा और उत्साह से भरा प्यार तथा अपने समक्ष की हर वस्तु और व्यक्ति को तहस-नहस कर देने की धधकती अग्नि से भरा क्रोध – दोनों ही अजय के व्यक्तित्व के अहम् हिस्से हैं। बल्कि अटूट कहना ज्यादा समीचीन होगा। हालाँकि यह सच है कि प्यार उसका स्थायी भाव है, जबकि क्रोध क्षणिक, मगर खुद उसे आँखें बंद करने पर सबसे पहले अजय का क्रोध से भरा चेहरा ही याद आता है। अपने वैवाहिक जीवन के 21 वर्षों के लम्बे सफ़र में अजय ने उससे प्यार भी बहुत डूबकर किया है और जब कभी किया है तो क्रोध भी उतना ही खुलकर किया है। पर पता नहीं क्यों उसकी स्मृति में हमेशा प्यार करने वाले अजय को धकेलकर क्रोध करने वाला अजय हावी हो जाता है। खुद अजय को भी उससे हमेशा इसी बात की शिकायत रही है। वह कहता है कि उसने जितना क्रोध किया है, उससे कई-कई गुना अधिक प्यार किया है। मगर प्यार से भरा उसका रूप कभी छाया की आँखों के आगे नहीं रहता।

और यह बात केवल उसके ही मामले में नहीं है। बच्चों के मामले भी ठीक वैसा ही है। बच्चे और खुद वह भी अजय की कमजोरी हैं। उनके बिना एक दिन भी रहना पहाड़ जैसा हो जाता है अजय के लिए। बच्चों की इच्छाओं, मांगों और फरमाइशों को पूरा करने की कोशिश में अजय हमेशा पूरी जी-जान से जुटा रहा है। इसके लिए अपनी हर बड़ी इच्छा से समझौता किया है उसने। मगर कभी किसी भी वजह से यदि उसे क्रोध आ जाए तो फिर साक्षात् दुर्वासा का अवतार बन जाता है अजय। ऐसे समय में हमेशा छाया का तो हलक ही सूख जाता है, जिसमें से एक शब्द भी बाहर निकलने को राजी नहीं होता। वैसे चाहे उसके शब्द हों या उसका मौन – दोनों ही अजय की क्रोधाग्नि को और भड़काने वाले घी का ही काम करते हैं। इन इक्कीस सालों में आज तक कभी वह इस बात को सुनिश्चित नहीं कर पायी कि जब अजय को क्रोध आता है तो उसे क्या करना चाहिए। परिणाम यह होता है कि इस असमंजस में भावहीन चेहरा लिए चुप लगा जाती है वह।

अथर्व में बड़ी हद तक अजय के ही स्वभाव की छाप है। बाप के क्रोध का एक बड़ा शिकार भी वही इस मायने में रहा है कि बेहद क्रोध में भी अजय ने कभी छाया पर हाथ नहीं उठाया। उधर बेटी होने के कारण सृष्टि भी हमेशा अपने पिता की मार से बच जाती है। मगर अथर्व ऐसी किसी भी छूट से अक्सर वंचित ही रहा। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि अपने पिता की तरह ही क्रोधी होने के कारण ऐसे समय में वह मौन नहीं रहता, बहस करता है। हालाँकि इधर कुछ सालों में जबसे अथर्व अपने पिता के कद के आगे निकला है, अजय ने बड़ी हद तक अपने हाथों को नियंत्रित करना सीख लिया है। मगर क्रोध पर नियंत्रण करना अजय कभी सीख नहीं पाया।

उस दिन भी तो यही हुआ था।

अथर्व की बारहवीं की परीक्षाएं अभी खत्म ही हुई थीं। आईआईटी में एडमिशन के लिए पिछले दो सालों से तैयारियां कर रहा था वह और सीईटी बस एक महीने दूर थी। यही वजह थी कि वह रात-दिन पढ़ाई में जुटा हुआ था। आईआईटी में अथर्व का एडमिशन दरअसल उसका और अजय का दोनों का ही साझा सपना था। अपने जमाने में अजय का यह सपना बस कुछ ही अंकों से पीछे रह जाने के कारण पूरा नहीं हो पाया था इसलिए अथर्व के मामले में वह ज्यादा आग्रही हो गया था। यूँ तो अथर्व अपनी ओर से मेहनत में कोई कमी नहीं कर रहा था, मगर क्रिकेट की वजह से वह पढ़ाई पर पूरा ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाता था। बचपन से क्रिकेट अथर्व की कमजोरी था। विश्वकप विजय के बाद तो क्रिकेट मानो उसका जीवन हो गया था और धोनी उसका भगवान। अजय क्रिकेट को अथर्व और उसके सपने के बीच की सबसे बड़ी बाधा मानता था। यही बाप-बेटे के बीच टकराहट का एक बड़ा कारण बन गया। अजय का मानना था कि इस समय अथर्व का केवल एक ही लक्ष्य होना चाहिए – आईआईटी में प्रवेश। इसके लिए उसे लाखों स्पर्धकों में सबसे अव्वल रहने वाले चुनिंदा लोगों में शामिल होना होगा। और इसके लिए उसे अपना ध्यान विचलित करने वाली हर चीज से दूर रहना होगा – क्रिकेट से भी।

अथर्व इसके लिए तैयार नहीं था।

उस दिन जब ऑफिस से घर लौटा अजय तो सबसे पहले उसने अथर्व के बारे में पूछा। जब उसे पता चला कि वह किसी क्रिकेट टूर्नामेंट में भाग लेने के लिए सुबह से गया है तो बस उसका पारा थर्मामीटर के सारे अंकों को पार कर गया।

बची-खुची कसर पूरी कर दी छाया ने अथर्व की तरफदारी करके। बस बुरी तरह भड़क उठा अजय।

“तुम्हारी इसी तरफ़दारी ने उसे लापरवाह बना दिया है छाया।” अजय की आँखें कोटरों से बाहर निकलने के लिए तड़प उठीं।

“एक दिन क्रिकेट खेलने चला गया तो वह लापरवाह कैसे हो गया?” न जाने क्यों उस दिन अपने स्वभाव के विपरीत बहस के मूड में आ गई वह।

“आईआईटी के लिए चुना जाना क्या तुम्हें बच्चों का खेल लगता है?”  अजय ने उत्तेजित होकर पूछा।

“जानती हूँ कि बच्चों का खेल नहीं है, और अथर्व भी तो जानता है यह। क्या वह दिन-रात मेहनत नहीं कर रहा है इसके लिए?” आमतौर पर वह ऐसा करती नहीं थी, मगर उस दिन न जाने क्यों वह भी हथियार डालने के लिए तैयार नहीं थी।

“जितनी मेहनत वह कर रहा है, उतनी पर्याप्त नहीं है। इस तरह क्रिकेट के लिए दिन-दिन भर बाहर रहेगा तो क्या खाक चुना जाएगा वह आईआईटी में, और वह भी कानपुर में।” अजय का स्वर कुछ और तेज़ हो गया था।

“तुम्हें एक दिन उसका क्रिकेट खेलने के लिए जाना तो इतना चुभ रहा है आँखों में, मगर रोज रात-रात भर बैठकर उसका पढ़ना कभी दिखाई नहीं देता।” उसने भी अजय के स्वर में ही स्वर मिलाया।

“मुझे सब दिखता है, इसीलिए कह रहा हूँ कि उसकी कोशिशें पर्याप्त नहीं हैं। यदि इसी तरह उसका ध्यान विचलित होते रहा तो उसकी सारी कोशिशें बेकार जाएंगी और मेरी सारी मेहनत मिट्टी में मिल जाएगी। क्या तुम्हें नहीं पता कि वह आईआईटी में सिलेक्ट होकर इंजीनियर बने, इस एक सपने को पूरा करने की ख़ातिर अपनी इच्छाओं से कितने समझौते किए हैं मैंने?” शायद थोड़ा भावुक हो गया था अजय।

“तो तुम उन समझौतों की कीमत उसकी छोटी-छोटी खुशियों से वसूलना चाहते हो?” उसकी कठोरता में कोई कमी नहीं आई थी।

“और मैंने उसके लिए जो सपना देखा, उसका क्या?” भावुकता की जगह फिर उत्तेजना ने ले ली।

“तुम अपने सपने को उसकी खुशियों का कफ़न बना रहे हो।” उसकी कठोरता न जाने कैसे उस दिन निर्ममता में बदल गई थी। न जाने कैसे उसके मुँह से फिसल गया था वह वाक्य। मगर उस वाक्य ने अजय को बुरी तरह से भड़का दिया।

“बहुत बोलने लगी हो तुम। जी करता है तुम्हारा गला दबा दूँ।” क्रोध से अपने दाँत भींचे अजय ने।

वह भी रणचंडी बन बैठी, “और कर भी क्या कर सकते हो तुम? हम सबका गला ही तो दबा सकते हो। तो दबा दो। देर किस बात की कर रहे हो?”

इतनी खुली चुनौती उसने जीवन में पहली बार दी थी अजय को। कभी उस पर हाथ न उठाने वाला अजय बेकाबू हो गया और उसकी दोनों हथेलियां छाया की गरदन पर कस गयीं।

पता नहीं दरवाज़े पर कब आकर खड़ा हुआ था अथर्व।

अंदर आकर जब उसने अजय की हथेलियों की पकड़ में छटपटाती छाया को देखा तो फिर आव देखा न ताव, पूरी ताकत से अपने हाथ का बेट उठाकर घूमा दिया।

नारियल की तरह खुल गये अजय के सिर से बहते ख़ून को अपनी साड़ी से रोकने का प्रयास करती छाया को फिर कुछ याद नहीं रहा।

अजय की हालत ख़तरे से बाहर थी, मगर उसे अब तक होश नहीं आया था।

एडवोकेट जाधव का कहना था कि एक बार अजय को होश आ जाए, पुलिस उसका बयान ले ले, फिर वह जमानत पर तुरंत अथर्व को छुड़ा लेगा।

छाया अथर्व से मिलने थाने गई थी, मगर वह उससे एक शब्द भी नहीं बोला। सारा समय उसकी ओर पीठ किए खड़ा रहा।

अपने मन के हज़ारों प्रश्नों के साथ वह ठाकुर साहब के सामने थी।

जिस स्कूल में वह शिक्षिका थी, ठाकुर साहब वहाँ के प्राचार्य थे। बहुत छोटी थी वह, जब उसके पिता की मौत हो गई थी। बचपन से ही पिता के प्यार से वंचित छाया को ठाकुर साहब में अपने खोये हुए पिता मिल गए थे।

दुबला-पतला शरीर, मध्यम कद, खिचड़ी दाढ़ी, छोटी मगर बहुत गहरी आँखें और अपूर्व शांति से भरा चेहरा। अधिकांश लोगों की दृष्टि में वे एक विद्वान, सज्जन और बेहद अनुशासनप्रिय प्रिंसिपल थे। मगर बहुत कम लोग जानते थे कि वे बहुत अच्छे मनोविश्लेषक और मनोचिकित्सक भी थे।

“जो कुछ हुआ, अथर्व तो उसमें निमित्त मात्र था बेटा। मुझे लगता है कि इसके मूल में तुम्हारे अपने भीतर की घृणा ही काम कर रही थी।” बड़ी देर तक उसके साथ बातें करने के बाद कहा ठाकुर साहब ने।

“मेरी घृणा! इस हद तक! और वह भी अजय के प्रति! यह क्या कह रहे हैं आप?” वह अपने कानों पर विश्वास नहीं कर पा रही थी।

“हाँ, किसी समय अजय को मार डालने की हद तक पहुँची तुम्हारी घृणा ने ही इस घटना का रूप लिया है, इसकी मुझे ज्यादा संभावना लग रही है। क्योंकि जितना मैं अथर्व को जानता हूँ और जितना तुम्हारी बातों से समझ सका हूँ, मुझे लगता है कि इस घटना में उसके भावों की जगह तुम्हारे भाव प्रबल थे।” ठाकुर साहब का स्वर अब भी उतना ही शांत था।

“मगर मैं अजय से घृणा कैसे कर सकती हूँ बाबा? मैंने तो हमेशा उन्हें प्यार ही किया है। उनका क्रोध कई बार मन में दुःख और शिकायत उपजाता रहा है, मगर घृणा, और वह भी इस सीमा तक! और इसका मुझे पता भी न चले, यह कैसे संभव है?” वह भयानक उलझन में थी।

“एक पल, केवल एक पल का भी बहुत असर पड़ता है जीवन पर। हर पल हम जिस-जिस कामना के बीज बोते हैं, उन्हें पाल-पोसकर वृक्ष बनाती है इस विश्व की नियंता शक्ति, और फिर एक दिन उसी का फल हमारे हाथ में थमा देती है। चाहे उस पल की, उस बीज की स्मृति हमें हो या न हो।” ठाकुर साहब ने कुछ रहस्यमय अंदाज़ में कहा।

“यह कैसी पहेलियां बुझा रहे हैं आप बाबा? मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है।” कातर भाव से उसने कहा।

“थोड़ा याद करने की कोशिश करो सुधा, क्या अथर्व के जन्म के बाद, उसकी अबोधावस्था में कोई ऐसी घटना घटी थी, अजय के क्रोधपूर्ण स्वभाव के ही कारण, जिसने तुम्हारे भीतर अजय के प्रति प्रबल घृणा का भाव उपजाया हो और चेतन या अचेतन रूप से अथर्व उसका साक्षी रहा हो।”

सुधा बड़ी देर तक अपने अतीत के पन्नों में उलझी रही। बहुत प्रयास से उसने अथर्व के जन्म के बाद से अब तक की उन घटनाओं को याद किया, जिनमें अजय का रौद्र रूप देखा था उसने। उस समय उसके अपने भीतर रोष और क्रोध तो कई बार उपजा था, मगर लाख कोशिश करने के बाद भी उसे एक भी ऐसी घटना याद नहीं आई, जब उसके भीतर अजय के लिए घृणा का भाव उपजा हो।

लम्बे विचार के बाद जब उसने यह बात कही ठाकुर साहब से तो वह गहरी सोच में पड़ गए। फिर अचानक उनकी आँखों में एक चमक कौंधी, “पिछले जन्म जैसी बात मैं इस समय करना नहीं चाहता बिटिया, इसलिए मेरे हिसाब से तो फिर सिर्फ एक ही संभावना शेष रह जाती है।” कुछ पलों को रूके ठाकुर साहब।

वह उत्सुकता से उनकी ओर देख रही थी।

“हालाँकि यह मुश्किल हो सकता है मगर क्या तुम उस पल को याद कर सकती हो, जिस पल के संयोग का नतीजा अर्थव है। …… मेरा अनुमान है कि अथर्व का तुम्हारे गर्भ में जिस क्षण बीजारोपण हुआ था, शायद उस पल अजय के प्रति किसी वजह से तीव्र घृणा का भाव रहा हो तुम्हारे मन में। इस हद तक कि उस पल उसकी जान ले लेने की तमन्ना उपजी हो तुम्हारे भीतर।”

ठाकुर साहब के इस वाक्य ने एक विस्फोट-सा किया था उसके भीतर। एक क्षण में कोई उन्नीस साल का फासला तय कर लिया था उसने। जैसे टाइम मशीन में बैठा दिया हो किसी ने उसे।

वह दिन या कहे कि वह रात उसकी आँखों के सामने चलचित्र की तरह घूम गई।

जनवरी महीना। दिल्ली का जाड़ा। हड्डियों को कँपकँपा देने वाला। स्कूल से घर लौटते समय वह जाम में फँस गई थी। जब घर लौटी तो बुरी तरह थकी हुई थी। उसका बस चलता तो वैसे ही सो जाती, मगर कम से कम उस दिन तो यह संभव नहीं था। क्योंकि अपनी कक्षा के बच्चों की टेस्ट काँपियां लादकर लायी थी वह। अगले दिन रिजल्ट बनाना था इसलिए बिना कुछ खाये-पीये ही देर तक काँपियां जाँचती रही। काम पूरा करते-करते देर रात हो गई और फिर उसमें उठकर कुछ खाने की हिम्मत भी नहीं रही।

अजय होता तो उसकी कुछ मदद कर देता और उसे कुछ बना कर खिला भी देता। मगर वह तो ऑफिस से सीधे सिरीफोर्ट जाने वाला था। किसी अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में। उसके किसी दोस्त ने पास का जुगाड़ किया था। बड़े उत्साह से बता रहा था वह सुबह, बिना सेंसर की हुई कई हॉट फिल्में शामिल हैं फेस्टिवल में।

आधी रात को लौटा वह। उसके पास लेटते ही मचलने लगा था अजय का हाथ।

“अजय, प्लीज़ अभी नहीं। मैं बहुत थकी हुई हूँ और मुझे बहुत नींद आ रही है।” उसने अजय का हाथ अपनी छाती से परे किया।

आमतौर पर उसकी सहमति-असहमति का सम्मान करता था अजय, मगर उस दिन पता नहीं क्यों उसकी अनिच्छा के बावजूद अजय ने उसे अपनी बाँहों में कसकर जकड़ लिया और उसके होठों को अपने होठों से बंद करते हुए उसे कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया।

उसकी घुटी हुई आवाज़, शरीर के माध्यम से छटपटाकर कुछ देर प्रतिरोध करने का प्रयास करती रही। मगर फिर प्रतिरोध करने की शक्ति भी शेष न रही।

कुछ पलों बाद सब कुछ शांत हो जाता, मगर किसी विदेशी फिल्म के जाने किस दृश्य का भूत छाया हुआ था अजय के भीतर। उसने छाया को पलटकर उस पर हावी होने की कोशिश की।

“नहीं अजय, इस तरह नहीं।” उसके भीतर का प्रतिरोध एक बार फिर जाग उठा।

मगर अजय था कि कुछ मानने को तैयार ही नहीं था।

कैमरे के फ्लैश की तरह एक पल के भीतर छाया के मन में अपने अबोध बचपन की वह दर्दनाक स्मृति जाग उठी।

महज ग्यारह साल की थी तब वह। घर में बड़े भैया की शादी की धूम मची हुई थी। रिश्तेदारों का मेला लगा हुआ था। उसे यह भीड़-भाड़ बिलकुल पसंद नहीं थी। ज्यादातर समय कोई ना कोई किताब लेकर किसी कोने में बैठी हुई होती। उस दोपहर घर की बैठक में हो रहे हो-हल्ले से पहेशान होकर वह ऊपरी मंजिल पर अपने कमरे में सिंड्रेला की कहानी की किताब पढ़ते-पढ़ते सो गई थी। जब तेज दर्द से उसकी आँखें खुलीं तो उसने खुद को पेट के बल लेटे हुए पाया। कोई पीछे से उस पर हावी था। वह चीखना चाहती थी मगर एक सख्त हथेली ने उसके मुँह को कसकर बंद कर रखा था। पता नहीं कितनी देर तक छटपटाने के बाद वह बेहोश हो गई थी। कुछ देर बाद जब उसे होश आया तो कमरे में कोई नहीं था। उस वक्त तो वह यह भी ठीक से समझ नहीं पायी थी कि उसके साथ हुआ क्या था। बस एक लिजलिजा अहसास था, जिससे उपजा डर उसके भीतर कई दिनों तक बना रहा। शायद उस डर के कारण ही न तो वह किसी को कुछ कह पायी और शादी की भागादौड़ी में किसी के पास इतनी फुर्सत नहीं थी कि उसके बिना कुछ कहे, घर के लोग कुछ समझ पाते।

अजय की हरकतों ने एक पल में उसके घाव को कुरेद कर हरा कर दिया था। उसे महसूस हुआ जैसे उसके बचपन की नींदों को डरावना कर देने वाला वही व्यक्ति एक बार फिर उसके साथ अपनी घिनौनी हरकत दोहराने की कोशिश कर रहा है। घृणा से भरकर अपनी पूरी ताकत लगाकर पलटी थी वह। अजय एक पल को हकबकाया, मगर फिर उसके होठों को अपने होठों से कसते हुए उस पर छा गया।

उस पल अजय के प्रति, बल्कि सचे कहे तो पूरी पुरुष जाति के प्रति असीम घृणा से भर उठी थी वह। उस पल सचमुच उसका दिल चाहा था कि खून कर डाले वह अजय का।

क्या ठीक उसी पल अजय के बीज ने किया था उसके अपने बीज के साथ उसके गर्भ में प्रवेश, और फिर लिया था अथर्व का आकार?

आश्चर्य से विस्फारित थे नेत्र उसके।

विस्मय से भरा था उसका ह्रदय।

जैसे अंधेरी कंदराओं से निकालकर जलते सूर्य के समक्ष खड़ा कर दिया था किसी ने उसे।

अचानक विस्फारित नेत्रों को ढक लिया था मेघों ने।

वह वर्षा थी या हिमशिखरों से निकल पूरे प्रवाह के साथ बहती गंगा!

“अब क्या होगा बाबा? ” इस एक वाक्य के लिए सदियों का साहस जुटाना पड़ा था उसे।

उसके चेहरे पर तेजी से बदलते भावों को देखकर ठाकुर साहब समझ गए थे कि जिस पल की आशंका उनके भीतर है, उसके उत्स तक पहुँच गई थी सुधा। अब कुछ और पूछने की जरूरत नहीं थी। इस समय सबसे ज्यादा जरूरी सुधा को हौंसला देना था। इसलिए वह बोले, “होना क्या है पगली, जब एक पल की घृणा यह रूप ले सकती है तो अजय के प्रति लाखों पलों का तुम्हारा प्यार क्या नहीं कर सकता? उस प्यार पर भरोसा करो। सब ठीक होगा।”

वह विश्वास और अविश्वास, उम्मीद और आशंका के दो सिरों के बीच झूलती बड़ी देर तक अनमनी-सी बैठी रही थी कि तभी उसका मोबाइल कुनमुनाया।

दूसरी तरफ सृष्टि थी, खुशी और उत्तेजना से भरे स्वरों में कह रही थी, “माँ, पापा को होश आ गया है।”

सृष्टि के स्वरों के उजाले से उसका ह्रदय भर गया।

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पराग मांदले

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2 comments

  1. घृणा और स्नेह के बीच का पारस्परिक सम्बन्ध तलाशती, बहुत ही करीने से रची गयी।
    यह पढ़ाने के लिये जानकी पुल का धन्यवाद।

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