Home / Featured / सिगफ्रीड लेंज़ की कहानी ‘सरकार का समर्थक’

सिगफ्रीड लेंज़ की कहानी ‘सरकार का समर्थक’

वरिष्ठ लेखक-अनुवादक जितेंद्र भाटिया की टिप्पणी के साथ उनके द्वारा अनूदित जर्मन लेखक सिगफ्रीड लेंज़ की कहानी पढ़िए-

============

आज योरोप के दक्षिण पंथी नेताओं की एक टीम कश्मीर के दौरे पर  है, सरकार के इस ऐलान पर मोहर लगाने के लिए कि वहाँ सब कुछ सामान्य है. मुझे जर्मन कथाकार लेन्ज की एक चालीस वर्ष पुरानी कहानी ‘सरकार का समर्थक’ याद आ रही है जिसका मैंने हिंदी अनुवाद किया था. आप इस कहानी को ज़रूर पढ़ें. शायद आपको लग सकता है कि इसे आज की तारीख में कश्मीर से लौटने के बाद लेन्ज ने लिखा है
==========

उन लोगों  ने खास निमन्त्रण देकर प्रेस वालों को बुलवाया था कि वे आकर खुद अपनी आंखों से देखें, हुकूमत के प्रति जनता का समर्थन कितना ज़बर्दस्त है। शायद वे हमें यकीन दिलाना चाहते थे कि उस सरकार की ज़्यादतियों के बारे में जो कुछ लिखा जा रहा था, वह सब झूठ था, वहां किसी को भी ‘टॉर्चर’ नहीं किया जा रहा था, घेराबंदी पूरी तरह हट चुकी थी और प्रदेश के किसी भी हिस्से में आतंकी या आज़ादी की लड़ाई जैसा कोई अभियान बाकी नहीं बचा था।

निमन्त्रण के मुताबिक हमें शहर की ऑपेरा बिल्डिंग के सामने इकट्ठा होना था। वहां एक मीठी ज़बान वाले अधिकारी ने हमारी अगवानी की और वह हमें सरकारी बस की ओर ले चला। बस के भीतर हल्का संगीत बज रहा था। बस चली तो उस अधिकारी ने क्लिप पर लगा माइक्रोफोन निकाला और विनम्रता से फिर हम लोगों का स्वागत किया। ‘‘मेरा नाम गारेक है!’’ उसने कुछ संकोच से कहा, ‘‘इस यात्रा पर मैं आपका मार्गदर्शक हूं!’’ कुछ आगे चलकर उसने हाथ के इशारे से वह जगह दिखाई जहां सरकार की एक आदर्श हाउज़िंग कॉलोनी की नींव रक्खी जाने वाली थी। शहर से बाहर निकलकर हमने सूखी नदी पर बने एक पुल को पार किया जहां एक नौजवान सिपाही हाथ में हल्की मशीनगन थामे लापरवाही से खड़ा था। हमें देखकर उसने गर्मजोशी से अपना हाथ हवा में हिलाया। गारेक ने बताया कि इस इलाके में निशानेबाज़ी की ट्रेनिंग दी जाती है।

टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर ऊपर चढ़ते हुए हम एक गर्म और खुश्क मैदान में निकल आए। खिड़की से छनकर आती खड़िया जैसी महीन धूल से हमारी आंखें जलने लगी थी। गर्मी से हमने अपने कोट उतार दिए, लेकिन गारेक ने अपना कोट पहने रक्खा। माइक्रोफोन हाथ में पकड़े वह उन बेजान, बंजर मैदानों में पैदावार बढ़ाने की सरकारी योजनाओं के बारे में बता रहा था। मेरी बगल में बैठे शख्स ने कुछ ऊब में अपना सिर पीछे टिकाकर अपनी आंखें बंद कर ली थी। मैंने उसे कुहनी मारकर उठा देने की सोची क्योंकि गाड़ी के ‘रियर व्यू’ शीशे में से दिखाई देती गारेक की आंखें रह-रहकर हम दोनों पर ठहर जाती थी। तभी गारेक अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ और मुसकराहट भरा चेहरा लिए सीटों के पतले गलियारे से होता हुआ सब अतिथियों को पुआल की बनी टोपियां और कोल्ड ड्रिंक की ठंडी बोतलें बांटने लगा।

कुछ आगे हम एक गांव से गुज़रे। यहां सभी खिड़कियाँ लकड़ी की पेटियों से तोड़े गए तख्तों पर कीलें ठोंककर बन्द कर दी गयी थी। टहनियों से बनी मेंड़ें जगह-जगह आंधी से टूट चुकी थी और साबुत-सलामत हिस्सों में जगह-जगह सूराख थे। सपाट छतें वीरान थी और कहीं भी कपड़े नहीं सूख रहे थे। कुंआ पतरे से ढंका हुआ था और ताज्जुब की बात है कि हमारे पीछे कहीं भी न तो कुत्ते ही भौंके और न ही कोई शख्स वहां नज़र आया। बिना रफ़्तार कम किए हमारी बस जन्नाटे के साथ आगे निकल गयी।

गारेक इस बीच फिर से सबको सैंडविच के पैकेट बांटने लगा था। बस के भीतर की गर्मी के ऐवज़ में उसने हमें तसल्ली भी दी कि अब आगे का सफर बहुत लम्बा नहीं है। सड़क आगे नदी के कटाव से बनी घाटी के सिरे पर बसे एक छोटे से गांव के करीब आ पहुँची।

गारेक ने हाथ से इशारा किया कि यहीं हमें उतरना है। अब हम सफेदी पुती एक साफ-सुथरी झोंपड़ी के सामने कच्चे चौक में खड़े थे। उस झोंपड़ी की सफेदी इस कदर चमकदार थी कि बस से उतरते हुए वह हमें अपनी आंखों में वह चुभती हुई सी लगी। एक नज़र झोंपड़ी पर डालकर हम गारेक के लौटने का इंतज़ार करने लगे, जो बस से उतरने के बाद झोंपड़ी के भीतर गायब हो गया था।

गारेक को लौटने में कुछ मिनट लगे। जब वह बाहर आया तो उसके साथ एक और शख्स था, जिसे हमने इससे पहले कभी नहीं देखा था।

‘‘ये मिस्टर बेला बोंजो हैं!’’ गारेक ने उस आदमी की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘ये अपने घर में कुछ काम कर रहे थे, लेकिन फिर भी आप इनसे जो सवाल चाहें पूछ सकते हैं!’’

हम सब बड़े ध्यान से बोंजो की ओर देखने लगे। हमारी तलाशती हुई निगाहों को झेलते हुए उसका सिर कुछ झुक-सा गया। उसके बूढ़े चेहरे और गर्दन पर गहरी स्याह रेखाएं थी। हमने गौर किया कि उसका ऊपरी होंठ कुछ सूजा हुआ था। उसे घर के किसी काम के बीच अचानक हड़बड़ा दिया गया गया थ और जल्दी-जल्दी अपने बालों में कंघी फिरा चुकने के बाद अब वह हमारे सामने प्रस्तुत था। उसकी गर्दन पर बने उस्तरे के ताज़े निशान बता रहे थे कि उसने जल्दबाज़ी में किसी खुरदुरे ब्लेड से दाढ़ी बनायी है। ताज़ा सूती कमीज़ के नीचे उसने किसी और के नाप वाली बेढंगी पतलून पहन रक्खी थी जो बमुश्किल उसके घुटनों तक आती थी। पैरों में कच्चे बदरंग चमड़े के नये जूते थे, जैसे रंगरूटों को ट्रेनिंग के दौरान मिलते हैं।

हम सबने ‘हैलो!’ कहते हुए बारी-बारी से उससे हाथ मिलाया। वह सिर हिलाता रहा और फिर उसने हमें घर के भीतर आने का न्यौता दिया। भीतर एक बड़े से कमरे में एक बूढ़ी औरत जैसे हमारा इंतज़ार कर रही थी। कमरे की मरियल रोशनी में हमें उसके चेहरे की जगह सिर्फ उसका शाल दिखाई दिया। आगे बढ़कर उसने अपनी मुट्ठियों के आकार का एक अजीब सा फल खाने को दिया जिसका गूदा इस कदर सुर्ख लाल था कि हमें लगा, हम किसी ताज़े ज़ख्म पर अपने दांत गड़ा रहे हैं।

कमरे से निकलकर हम वापस चौक में आए तो बहुत से अधनंगे बच्चे हमारी बस के गिर्द इकट्ठे हो गए थे। वे सब अपनी जगह से हिले-डुले बगैर बहुत गौर से बोंजो की ओर देख रहे थे। एक अजीब संतोश भरी सांस खींचकर बोजो उनकी ओर देखते हुए मुसकराया।

‘‘ तुम्हारे बच्चे हैं?’’ हमारे एक साथी ने रुककर पूछा तो बोंजो ने कहा, ‘‘हां, एक बेटा है। लेकिन उससे मेरा कोई संबंध नहीं। वह सरकार विरोधी था और साथ ही आलसी और निकम्मा भी। पैसों की खातिर उसने बागी क्रांतिकारियों का साथ दिया, जो इन दिनों हर जगह गड़बड़ी फैला रहे हैं। वे समझते हैं कि सरकार के मुकाबले वे बेहतर ढंग से इस देश को चला सकते हैं!’’ उसकी आवाज़ में गहरा आत्मविश्वास और विश्वसनीयता थी। मैंने गौर किया कि उसके सामने के दांत नहीं हैं।

‘‘ लेकिन उनका यह दावा सही भी तो हो सकता है!’’ हममें से एक ने उसके प्रतिवाद में कहा।

इस पर गारेक, जो सब-कुछ सुन रहा था, कुछ विनोद-भाव से मुसकराया। लेकिन बोंजो ने बहुत सधी हुई आवाज़ में कहा, ‘‘सरकार का बोझ, चाहे वह हल्का हो या भारी, आखिरकार जनता को ही उठाना होता है।“

बच्चों ने अर्थपूर्ण ढंग से एक-दूसरे की ओर देखा।

‘‘फकत आज़ादी को लेकर आप क्या चाटिएगा!’’ बोंजो ने मुसकराकर कहा, ‘‘ऐसी आज़ादी किस काम की जिससे पूरा देश गरीबी की चपेट में आ जाए।’’

बच्चों में एक लहर सी दौड़ गयी। बोंज़ो ने अपनी गर्दन झुकायी और दुबारा कुछ अजीब से भाव से मुसकराया। गारेक कुछ फासले पर खड़ा चुपचाप सब सुन रहा था।

गारेक मुड़कर बस की ओर चला गया। बोंजो बहुत सावधानी से उसकी ओर देख रहा था। जैसे ही बस का भारी दरवाज़ा बंद हुआ और हम अकेले रह गए तो मेरे साथी रिपोर्टर ने इसका फायदा उठाकर जल्दी से सवाल किया, ‘‘ अब असली माजरा बताओ! अब हम अकेले हैं!’’

बोंजो ने थूक निगली और कुछ आश्चर्य से बोला, ‘‘माफ कीजिए, मैं समझा नहीं आपका सवाल….’’

‘‘अब हम खुलकर बात कर सकते हैं!’’ रिपोर्टर ने कुछ हड़बड़ाते हुए कहा।

‘‘खुलकर बात कर सकते हैं!’’ बांेजो ने काफी सावधानी के साथ सवाल को दोहराया और फिर उसके चेहरे पर हंसी फैल गयी। उसके सामने के दांतों की खाली जगह अब बखूबी देखी जा सकती थी।

‘‘ मैं आपसे खुलकर ही बता रहा था। मैं और मेरी पत्नी, हम दोनों इस हुकूमत के तरफदार हैं। हमें जो कुछ अब तक मिला है उसमें सरकार का बड़ा हाथ रहा है। मैं ही नहीं, मेरे पड़ोसी और सामने खड़े ये सारे बच्चे और इस गांव का एक-एक आदमी, हम सब इस हुकूमत के वफादार हैं। आप यहां किसी भी घर का दरवाज़ा खटखटा लें, वहां आपके सरकार के समर्थक ही मिलेंगे।’’

इस पर एक दुबला-पतला नौजवान पत्रकार अचानक आगे निकल आया। बोंजो के नज़दीक आकर उसने फुसफुसाहट भरे स्वर में सवाल किया, ‘‘ मुझे जानकारी है कि तुम्हारा बेटा पकड़ लिया गया है और शहर के कैदखाने में उसे यातना दी जा रही है। इस पर तुम्हारा क्या कहना है?’’

बोंजो ने अपनी आंखें बंद कर ली। उसकी पलकों पर अब धूल की मटमैली सफेदी थी। ‘‘जब वह मेरा बेटा ही नहीं है तब उसे ‘टॉर्चर’ कैसे किया जा सकता है? मैं आपसे फिर कहता हूं कि मैं इस हुकूमत का वफादार और उनका दोस्त हूं।’’

उसने एक मुड़ी-तुड़ी हाथ से बनायी बीड़ी सुलगा ली और तेज़ी से उसके कश खींचते हुए बस के दरवाज़े की ओर देखने लगा, जो अब तक खुल चुका था। गारेक बस से उतरकर हमारी ओर आया और हल्केपन से पूछने लगा, सब कैसा चल रहा है। बोंजो के चेहरे से लगा कि गारेक की वापसी से उसकी बेचैनी काफी कम हो गयी है। वह बहुत सहजता से हमारे सभी सवालों का जवाब देता रहा। बीच-बीच में वह अपने दांतों की खाली जगह से बीड़ी का धुंआ छोड़कर निःश्वास लेता।

फावड़ा लिए एक आदमी उधर से गुज़रा तो बोंजो ने हाथ के इशारे से उसे अपने पास बुला लिया। फिर बोंजो ने उससे वे सारे सवाल किए जो हमने उससे पूछे थे। उस आदमी ने कुछ नाराज़गी से अपना सिर हिलाया। जी नहीं, वह जी जान से सरकार का समर्थक था। उसके बयान को बोंजो विजय-भाव से सुनता रहा, गोया कि हुकूमत के साथ अपने सांझे रिश्ते पर वे विश्वसनीयता की मुहर लगा रहे हों।

चलने से पहले हम सब बारी-बारी से बोंजो से हाथ मिलाने लगे। मेरा नम्बर आखिरी था। जब मैंने उसके सख्त, खुरदुरे हाथ को अपनी उंगलियों से दबाया तो अचानक हथेली पर कागज़ की एक गोली का दबाव महसूस हुआ। फुर्ती से उंगलियां मोड़ते हुए मैंने उसे वापस खींचा और जब हम बस की ओर मुड़े तो मैंने चुपचाप उस गोली को जेब में डाल लिया। बीड़ी के सुट्टे लगाता हुआ बोंजा उसी तरह नीचे चौक में खड़ा था। जब बस चलने को हुई तो उसने अपनी पत्नी को भी बाहर बुला लिया और वे दोनों उस फावड़े वाले आदमी और उन बच्चों के साथ खड़े पीछे घूमती बस की ओर अविचलित भाव से देखते रहे।

हम उसी रास्ते से लौटने की जगह उसी रास्ते पर आगे बढ़ते गए। इस पूरी यात्रा के दौरान मेरा हाथ अपने कोट की जेब में घुसा हुआ था और मेरी उंगलियों के बीच थी कागज़ की वह गोली, जो इतनी सख्त थी कि उसे नाखून से दबाना भी मुश्किल था। उसे जेब से बाहर निकालना खतरे से खाली नहीं था क्योंकि गारेक की पैनी आंखें ‘रियर व्यू’ के शीशे से होती हुई बार-बार हम पर आकर ठहर जाती थीं।

कागज़ की उस गोली को अपने हाथ में दबाते हुए मुझे बोंजो का खयाल आया। एक हाथगाड़ी पास से गुज़री तो उसपर बैठे सिपाहियों ने मशीनगनें हवा में हिलाते हुए हमारा स्वागत किया। मौका पाकर मैंने कागज़ की उस गोली को चोर जेब में छिपाकर ऊपर से बटन बंद कर दिया। इसके साथ ही मुझे दुबारा हुकूमत के दोस्त बेंजो का चेहरा याद हो आया। मैंने अपनी आंखों के सामने उसके कच्चे चमड़े के जूतों, उसके चेहरे की मुसकराहट और बोलते समय नज़र आती उसके दांतों के बीच की खाली जगह को देखा। हममें से किसी को भी शक नहीं था कि बोंजो के रूप में सरकार को एक सच्चा समर्थक मिल गया था।

समुद्र किनारे से होते हुए हम वापस शहर लौट आए। ऑपेरा हाउस पर बस से उतरे तो गारेक ने शिष्टता पूर्वक हम सबसे विदा ली। मैं होटल तक अकेला लौटा और कमरे का दरवाज़ा बंद करने के बाद मैंने बाथरूम मे सरकार के उस समर्थक द्वारा खुफिया तौर पर थमायी गयी कागज़ की उस गोली को सावधानी से खोला। लेकिन पूरा कागज़ खाली था, न उस पर कोई शब्द लिखा था और न ही वहां कोई निशान बना था। और तब मैंने देखा कि उसी कागज़ में लिपटा हुआ था कत्थई रंग का एक टूटा हुआ दांत, जिसपर बने तम्बाकू के दाग को देखते हुए अन्दाज़ लगाना मुश्किल नहीं था कि यह दांत किसका हो सकता है!

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

अक्षि मंच पर सौ सौ बिम्ब की समीक्षा

‘अक्षि मंच पर सौ सौ बिम्ब’ अल्पना मिश्र का यह उपन्यास हाल ही (2023 ई.) …

2 comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *