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गुजराती लेखिका कुंदनिका कपाड़िया की कहानी ‘जाने देंगे तुम्हें’

गुजराती की वरिष्ठ लेखिका कुंदनिका कपाड़िया की कहानी का अनुवाद किया है प्रतिमा दवे ने- मॉडरेटर

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 खिड़की से उन्होंने आकाश की तरफ नज़र फेरी। पलंग उन्होंने इस तरह रखवाया था कि जिससे आँगन में लगे नीम के पेड़ को अच्छी तरह से देखा जा सके। कई बार नीम की डालियाँ हवा में खूब ज़ोर से हिल उठतीं, तो ऐसा लगता जैसे खिड़की पर दस्तक दे रही हों। डालियों के बीच की फाँकों से भूरा, सफ़ेद आकाश और उसमें सरकते दूधिया बादलों के टुकड़े दिखते। डालियों पर कभी-कभी एक सफ़ेद पक्षी आ बैठता। लंबी पूंछ वाला, शायद दूधराज होगा। आमतौर  पर वह घनी झाड़ियों में रहता है। सामान्यतः दिखता नहीं। पर, यहाँ तो वह ऐसे आ बैठता, जैसे खुद को दिखाने आया हो।

      घर में खूब चहल पहल है। आज दोपहर की फ्लाइट से दीपांकर और मारिया  आने वाले  दीपांकर उनका सबसे छोटा बेटा। सात वर्ष पहले अमरीका गया था। वहीं अमरीकी लड़की से विवाह कर लिया। बार-बार आने का लिखता था, पर आया नहीं। अब माँ बीमार है, मरणोन्मुख है, तो पत्नी को लेकर आ रहा है। अमरीकी लड़की, क्या पता कैसी हो!

      वे मन ही मन थोड़ा हंसीं। टैगोर का गीत, मेघानी ने अनुवाद किया था-‘वह कैसी है  कैसी नहीं, माँ मुझे ज़रा भी याद नहीं’। अपने समय में उन्होंने टैगोर को खूब पढ़ा था। टैगोर, यीट्स और इब्सन। अपने हमउम्र मित्रों के साथ रविवार को दूर नहीं, पास ही किसी जंगल में जाते, खाते- पीते, वृक्षों के नीचे आड़े पड़ते, गीत गाते और ऊंची आवाज़ में काव्य वाचन करते- ‘जेते आमी दियो न तोमाय’, विलियम ब्लेक का- ‘टू सी द वर्ल्ड इन अ ग्रेन ऑफ सैंड’। यीट्स का पहले का काव्य तो उन्हें कंठस्थ ही था -‘आई विल अराईज़ अँड गो नाऊ— जहां दिन रात सरोवर का जल थपकी देता है, वहाँ जाऊंगा’। जॉन मेंसफील्ड की कविता- ‘मुझे एक राह दो, सिर पर हो आकाश, ठंड हो तो राह में अलाव तापूँ, फिर प्रभात, फिर-फिर प्रवास’।

      उन्होंने सौंदर्यपूर्ण जीवन जिया था। जीवन उन्हें हमेशा जीने योग्य लगा। अब इस पीढ़ी- बड़ा बेटा और उसकी पत्नी माया, मंझला बेटा और उसकी पत्नी छाया ने क्या कभी टैगोर, कालिदास या शेक्सपियर को पढ़ा होगा? नीत्शे और बर्गसन के तो शायद नाम भी न सुने होंगे। अपने कमरे की अल्मारी में उन्होंने अपनी पसंद की किताबें रखी थीं- क्रिएटिव इवोल्यूशन, फ़ोर्थ वे, एकोत्तरशती, रवीन्द्रनाथ, जॉन डन और ब्लेक के संग्रह जमा किए थे। जाने कितनी किताबें थीं। पर, इन बहुओं ने कभी अल्मारी को हाथ भी नहीं लगाया। पूछा भी नहीं कि ये कौन सी किताबें हैं। वे तो एलिस्टर मैकलीन्स, जेम्स हेडली चेज़, इयान फ्लेमिंग, गुलशन नन्दा की पुस्तकें ही पढ़तीं। बार- बार कहतीं, बहुत बोर हो गए। बोर शब्द उनकी बातों से झरता ही रहता। उन्होंने अपने जीवन में बोरियत का कभी एहसास भी नहीं किया। वे और उनके पति पूर्णमासी पर कई बार लोनावला चले जाते। वहाँ एकांत में सौंदर्य प्रेमी यात्रियों के लिए ‘स्वप्न’ नाम का एक गेस्ट हाउस था। नीची छत का छोटा सा मकान। ऊपर एक  छोटी सी कोठरी थी, जिसमें चारों तरफ, ऊपर से नीचे तक काँच की खिड़कियाँ थीं। पूर्व दिशा में एक लंबी पर्वतमाला थी। उसके पीछे से चंद्रमा ज़रा देर से ऊपर आता। वे वहाँ शांत, स्थिर, एकाग्र होकर बैठ जाते। सूक्ष्म से सूक्ष्म स्पंदन ग्रहण करते और राह तकते चिरपरिचित, चिर- आह्लादकारी प्रकाश दर्शन की। धीरे -धीरे पहाड़ियों के पीछे से एक रतनार आभा दिखाई देती, फिर एक चमकीली सफ़ेद लकीर। उनके और उनके पति के हाथ अचानक मिल जाते। आनंद की अनुभूतियों में साथी होने का विश्वास जाग जाता। फिर चाँद झट से ऊपर आ जाता। उस समय जैसे पृथ्वी की गति थम जाती। मुमकिन होता तो दो तीन दिन वहीं रुक जाते। पूनम के चाँद के बजाय एकम -दूज के चाँद को उगते देखना अधिक रोमांचक होता। इस छोटे से पहाड़ी स्थान में 9 बजे से ही नीरवता छा जाती। सब कुछ शांत हो कोने में दुबक सा जाता। आकाश सांस रोककर देखता। हवा में कहीं धुआँ, घरों की बत्तियों की तीखी किरणें, चारों तरफ सन्नाटा और कोमल-मुलायम अंधकार भरी नीरवता । फिर ज़रा देर में चाँद उगता, विस्मय से पहाड़ियों को देखता, सोई हुई पृथ्वी को निहारता और फिर तो जैसे प्रकाश की झड़ी ही लग जाती। उन्हें इसका सघन स्पर्श महसूस होता और तन-मन भीग जाता।

       सौंदर्य की ऐसी सेंकड़ों अनुभूतियों से उनका जीवन भरा पड़ा था। किसी साँझ की बेला  में नीम के नीचे रिल्के की कविता पढ़तीं –वी द वेस्टेर्स ऑफ सोरोज़–। दुख से  छुटकारे की राह देखने में ही हम शोक को व्यर्थ कर देते हैं। उनके पति चुपचाप सुनते। जीवन के इस आवागमन के पीछे छिपे मर्म की अलप-झलप झांकी दिखती। दुख को समझदारी के साथ स्वीकारने  व वेदनाओं में छिपे मर्म को समझने की कोशिश करते।

      ये लोग जीवन को किस तरह देखते हैं, कई बार उनके मन में यह सवाल भी उठता। परंतु, माया व छाया के पास इत्मीनान से बैठने की, बात करने की कभी फुर्सत ही नहीं रहती थी। वे तो सारा दिन किसी न किसी चीज़ में व्यस्त रहतीं। कभी कुकिंग क्लास में जातीं और फ्रेंच पुडिंग, इटालियन पिज्जा बनाना सीखतीं। इंटीरियर डेकोरेशन की कक्षा में जातीं, ईकेबाना की मीटिंग करतीं, कैंडल लाइट डिनर लेतीं,  बालों की नई नई स्टाइल सीखतीं और बनातीं। कपड़ों के नए नए मैचिंग करतीं और सुंदर भी दिखतीं। पर, बाहर से जब वे घर आतीं तो हमेशा कहतीं- बोर हो गए, थक गए, वो प्रेमनाथ कितना बोर था। बोरियत की क्यारी में ही उनका दिन उगता और साँझ ढलती।

      स्थापित व्यवस्था एवं परम्पराओं  के विद्रोह की बातें भी करतीं। कई बार कुछ हिप्पी भी उनके मेहमान बनकर घर में आए। इस सबके बावजूद भी उनके जीवन में बड़ा खालीपन था। जीवन का आनंद तत्व उनकी मुट्ठी से फिसल चुका था। वे जी रही थीं, पर उन्हें लगता था – इस सबका अर्थ क्या है?

      और अब एक नई लड़की घर में आ रही है। मात्र 23-24 वर्ष की। दीपांकर ने विवाह के समय के फोटो भेजे थे। पर, फोटो से, और वे भी विवाह के फोटो से व्यक्ति का परिचय कहाँ मिलता है? उन्हें कौतुहल हो रहा था – दीपांकर  की पसंद की लड़की जाने कैसी होगी?

      वह मेरा आदर करेगी या नहीं? मुझे चाहेगी या नहीं? वैसे यह सब इतना महत्वपूर्ण नहीं था। अब उन्हें और कितने दिन जीना था? पर, एक चाव था, अंजान दूर देश की कन्या बहू बनकर आ रही है, उसे जानने की इच्छा थी। यूं तो माया और छाया भी उसके बारे में उत्कंठित थीं- भय और आशंका से भरी। एक दिन दोनों को खुसर-पुसर करते सुना भी था। एडजस्टमेंट करना पड़ेगा, ऐसा ही कुछ कह रहीं थीं। यह तो अच्छा है कि घर खूब बड़ा है। सभी इसमें समा सकते हैं। बेटियाँ भी अपने पति और बच्चों के साथ आई हुई हैं। माँ के अंतिम समय में उनसे मिल लें। परंतु, उन्हें फुर्सत ही नहीं मिलती॰ “भाभी टीनू  के लिए दूध गरम हो गया?  महाराज से कहना, याद से बिना मिर्च की सब्जी निकाले। अविनाश के पेट में अल्सर है।” उनके व्यवहार में एक तरह की अधीरता रहती। अब कितनी छुट्टियाँ बची हैं, इसका हिसाब वे मन ही मन लगातीं। छुट्टियाँ कहीं बढ़ानी तो नहीं पड़ेंगी? घर तो बस ऐसे ही छोड़कर आना पड़ा। माँ के पास घूमती-घामती आ जातीं। “दवा ली न माँ? नींद ठीक से आई? रात कैसी गुज़री?” मच्छरदानी  के कोने ठीक करतीं, सिमटी चादर ठीक से बिछातीं, माँ के पलंग के पास टेबल पर  ताज़े फूल रखतीं। बच्चे अगर शोर मचाते, तो उन्हें बाहर निकाल देतीं। यानी माँ की पूरी फिक्र रखतीं। रोज़ उनके लिए तरह-तरह की हल्की फुल्की खाने की चीज़ें बनातीं। उन्हें लगता जैसे उनकी परिचर्या पूरी हो गई। परंतु, माँ को पता था खालीपन कहाँ है।  पर, अब मृत्यु के सामने आकर सारी अपेक्षाएँ समेट ली थीं- जीवन भर मैंने सौंदर्य की कामना की है। जीवन को चाहा है। मरते समय इसे खंडित नहीं होने दूँगी। उन्हें याद आए उनके अतिप्रिय लेखक हेनरी फ़्रेडरिक एमियल सौंदर्य शास्त्र के प्रोफेसर  जिन्होंने तीस वर्ष एकांत में रहकर सोलह हज़ार पन्नों का जर्नल लिखा था। एमियल, बर्गसन और टैगोर के बारे में वे और उनके पति ऐसे बातें करते, मानो वे उनके घनिष्ठ मित्र हों। इनके लिखे साहित्य, जीवन दर्शन का उन्होंने आकंठ पान किया था। अब मृत्यु बेला सामने थी, जीवन की सर्वोच्च अनुभूति के परम आस्वाद का पल! इस पल में अंतिम कामना थी कि पूनम और दूज के चाँद की आभा उनके अंगों को सिक्त करे, बस।

      कुछ आहट हुई। माया थी। उन्होंने उसकी तरफ नज़र घुमाई। माया पास आई- “कुछ चाहिए माँ?” उन्होंने सर हिलाया। हल्के से हंसीं । पर, माया ने माँ के हास्य को देखा ही नहीं। वह तो किन्हीं और ही विचारों में गुम थी। वह होशियार, कार्यदक्ष और स्वार्थी थी। खुद को जो चाहिए, वह हर कीमत पर ले लेती थी। दूसरों की उसे कभी परवाह नहीं थी। पति और बच्चे उसके जीवन की सीमाएं थीं।  मित्र, पार्टी, सिनेमा सब थे, पर उसने कभी किसी के लिए शायद ही कुछ किया हो।

      मँझली छाया थोड़ी अलग थी। आनंदी, उदार और ग्राम्य हास्य से भरी। स्थूल, बहिर्मुख व संवेदनाहीन। इस बड़े मकान में दोनों के रसोईघर अलग-अलग थे। धन बहुत था, इसलिए दोनों के बीच संघर्ष का प्रसंग नहीं आया था। उनका खुद का कमरा अलग ऊपर था। दोनों घरों से बारी-बारी थाली आती थी। कई बार वे स्वयं नीचे आकर सबके साथ टेबल पर खाना खाती थीं। परंतु ऐसा तभी हो पाता था, जब बाहर का कोई मेहमान न हो। कई बार  रात को नीचे नृत्य संगीत होता, गिटार- ऑर्गन बजते। माया अच्छा गाती थी। उनकी बेटी उमा भी अच्छा गाती थी। कभी-कभी सुर उन तक पहुँचते, उन्हें अच्छे भी लगते। पर, माया और उमा ने कभी उनसे नहीं पूछा- माँ तुम्हें कोई गीत या भजन सुनना है? अच्छे से यदि कविता भी पढ़ी जाए तो अच्छी लगती है।– ‘जेते दियो न तोमाय’- तुम्हें जाने नहीं देंगे। चार वर्ष की बालिका की पिता के लिए स्नेह और गर्व भरी वाणी –‘जाने नहीं दूँगी तुम्हें’। परंतु, जाना तो पड़ता है। प्रलय समुद्र के हू- हू करते वेग में सब कुछ बह जाता है।

      अब उनके जाने की घड़ी आ गई है। पर, किसी ने नहीं कहा –जाने नहीं देंगे तुम्हें। शायद उनके जाने की राह ही देख रहे हों। ठीक है, मन में अब कोई तृष्णा, कोई  भय नहीं, या शायद कहीं है?

      खिड़की के पास झूलती नीम की डालियाँ इस चैत्र वैशाख में सफ़ेद मंजरियों से लद जाएंगी।  ऑलबेयर कामू ने अपनी डायरी में जिस बादाम की श्वेत मंजरी की चर्चा की थी, शायद उससे भी सुंदर। पूरी रात महका करेंगी। मन में सुख की लहर उठी। ‘जेनेरेशन गैप’  है तो जाने  दो। ईश्वर ने उनकी अंतिम रातें तो महका ही दी हैं।

      अचानक मारिया याद आ गई। उसे यहाँ अच्छा लगेगा? यहाँ की उमस व गर्मी, यहाँ की गंदगी, लोगों की आदतें आदि वह कैसे सहन करेगी? उसे इस देश की वास्तविक स्थिति का पता चलेगा? खैर, जो होगा देखा जाएगा। कुछ ही घंटों में इस कौतुहल का अंत हो जाएगा।दिल में एक धीमा सा सुर उठा। अंतिम पलों की आभा पर इन बेटे-बेटियों, बहुओं के बीच संघर्ष की छाया न पड़े तो ही अच्छा। हाथ पाँव अब चलते नहीं। केवल तरल पदार्थ  ही ले सकती हैं। आवाज़ धीमी पड़ गई है। सुनाई भी कम देता है। केवल दृष्टि सतेज है और सतेज है मन, हृदय और स्मृतियाँ।

      फ्लाइट थोड़ी लेट थी। दोपहर के बदले शाम 6 बजे विमान आया। कस्टम से निकलते, घर पहुँचते- पहुँचते साढ़े सात बज गए। दीपांकर और मारिया ने जब उनके कमर में प्रवेश किया तो उस समय प्रकाश व अंधकार की संधि बेला थी। दीपांकर उमगकर दौड़कर लिपट गया।– “कैसी हो माँ?” उसकी आवाज़ से स्नेह झर रहा था। उन्हें गहरा संतोष हुआ। थोड़ी देर तक वह माँ से सटकर बैठा रहा। फिर जैसे कुछ याद आया हो-“मारिया, यह मेरी माँ है,” उसने कहा। इसमें कुछ गर्व की छटा थी, या शायद उन्हें भ्रम हुआ। मारिया आगे आई। उसने हाथ लंबा कर, उनका हाथ थोड़ा हिलाया। बोली कुछ नहीं, केवल हंसी। दोनों उनके पास आ बैठे। दीपांकर ने जल्दी-जल्दी बहुत सी बातें कह डाली। उनके स्वास्थ्य की, पत्र मिलने के बाद हुई चिंता की,  “अब कैसी तबीयत है माँ? अब मैं आ गया हूँ, तो सब ठीक हो जाएगा।” स्नेह भरी चिंता की बातें। “माँ, तुम्हें याद है एक बार मैं बहुत भटककर, कपड़े फाड़कर घर आया था, तो बापू ने  मुझे गुस्से में बहुत मारा था। तब तुमने कैसे मुझे गरमागरम हलवा खिलाया था?” लेटे-लेटे वे सुनती रहीं। बहुत-बहुत अच्छा लगा। “ माँ अब आराम से सो जाओ। कल सुबह मिलेंगे। चाय साथ में पिएंगे”, दीपांकर ने कहा। मारिया ने भी सर हिलाया। उसकी आँखें सुंदर थीं, पनीली, गहरी संवेदना भरी। मानो कह रही हों- तुम्हारे मना में क्या है, मैं समझती हूँ। फिर वे दोनों नीचे चले गए।

      दीपांकर ने सुबह मिलने का कहा है- पर, जब वे अकेली हुईं तो उन्हें लगा- क्यों न आज की रात उनकी अंतिम रात हो जाए। अचानक से बहुत कमजोरी लगने लगी। आज क्या तिथि है, शायद दूज? धीरे से सहज ही सुंदर लाल चंद्रमा उगेगा। बस अब और कुछ नहीं चाहिए। आज रात ही अंत आ जाए तो उत्तम है।

       नीचे से आवाज़ें सुनाई देना बंद हो गईं। अभी कुछ ज़्यादा समय तो नहीं हुआ था। शायद 9 बजे होंगे। सभी शायद दूसरी तरफ के आँगन में बैठे होंगे। दीपांकर अमरीका की बातें कर रहा होगा। बेटियों, माया- छाया को यह देखने का इंतज़ार होगा कि वह उनके लिए क्या लाया था। माया मन ही मन तिकड़म लगा रही होगी कि सबसे अच्छी चीज़ खुद के  लिए कैसे ले।

      हवा की तेज़ लहर आई। नीम की डालियाँ झूल पड़ीं। दो सफ़ेद छोटी कलियाँ उनके पलंग पर आ गिरीं।

       अचानक उन्हें लगा, दरवाजा खुला और कोई भीतर आया। आखिरी खुराक तो काम वाली बाई दे गई थी, फिर कौन होगा?

      धीमी पदचाप से कोई उनके पास आया। उन्होंने पहचाना , मारिया थी। उन्हें थोड़ा अजीब लगा। मारिया भला क्यों आई होगी?

      मारिया उनके पास आ बैठी। हाथ में हाथ लिया। थोड़ी देर तक कुछ नहीं बोली। मात्र सामने देखकर हँसती रही।–“ मुझे यहाँ बैठना अच्छा लगेगा, बैठूँ?”, उसने पूछा।

      उन्होंने सर हिलाकर हाँ कहा फिर भी उत्सुकता कम न हुई। बहुत देर तक मारिया चुप बैठी रही। नीम के पीछे का आकाश देखती रही। फिर धीमे से बोली-“ आपने पलंग बिलकुल सही कोण पर रखा है। यहाँ से वृक्ष सुंदर दिखता है। अब इसमें फूल आएंगे न? थोड़े- थोड़े दिख भी रहे हैं।” वह अंग्रेज़ी में धीरे- धीरे अटक-अटककर बोल रही थी।  उच्चारण अमरीकी था। पर उन्हें सब समझ में आ रहा था।

      मारिया ने फिर कहा,”हमारे विवाह पर आपने मुझे  टैगोर की कविताओं की पुस्तक भेजी थी। मुझे बहुत अच्छी लगी । कितनी ही बार मैंने उन्हें पढ़ा है। कुछ तो कंठस्थ भी हो गई हैं।” वे हंसीं। उसने माँ के हाथ पर अपना हाथ फेरा और पूछा-“ आपको वे कविताएं याद हैं?” उन्होने आनंद से सिर हिलाया। मारिया सहज ही और करीब सरक आई। “ आप बहुत कमजोर लग रही है,” वे कुछ नहीं बोलीं। मारिया ने उनकी आँखों में आँखें डालकर बहुत गहरे देखा। माथे के बाल सहेजे। फिर कान के पास मुंह सटाकर बहुत मृदुता से बोली,” आपको डर तो नहीं लग रहा न?”

      “कैसा डर?”

     “अज्ञात का”, मारिया धीमे स्वर में बोली,”सब परिचितों को छोड़कर शून्य में विलीन होने का?”

      हृदय में आनंद की एक बड़ी लहर उठी। यह लड़की मुझे समझती है। मेरे भीतर जो घट रहा है, उसे जानने की इच्छा है। मेरे भय की चिंता है। शायद इसी भय को दूर करना चाह रही है।उन्हें जवाब देना था, पर इस उमड़े ज्वार से वे थक गईं। जीवन के  अंतिम क्षणों में एक नया संबंध उदित हुआ है। ज़रा देर से ही सही, पर अत्यंत सुंदर। उन्होंने प्यार और संतोष से मारिया की तरफ देखा। अचानक उन्हें लगा, लोग कहते हैं- पति के जीवित रहते पत्नी की मृत्यु हो जाये तो पत्नी को सौभाग्यवान कहते हैं। ओह, लोगों को क्या पता सौभाग्य यानी क्या? सौभाग्य यह है। अंतिम क्षणों के आकाश में एक नया संबंध, नया प्रेम उदित हुआ है। यही असली सौभाग्य है। आनंद से मृत्यु वरण करना सबसे बड़ा सौभाग्य है। नीम के पीछे से चंद्रमा की श्वेत किनारी दिखी। मारिया ने कमरे की बत्ती बुझा दी। लगा, जैसे सफ़ेद फूलों से डालियाँ भर गईं । उन्होंने मारिया का हाथ पकड़कर चंद्रमा की तरफ इशारा कर कहा – “देखो वह अलविदा कह रहा है।”

      मारिया ने उनके माथे पर हल्के से हाथ फिराया- “आपकी यात्रा शांति पूर्ण हो।” उनके मुंह पर रतनारी आभा खिल उठी॰

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लेखिका: कुंदनिका कापड़िया – गुजराती की प्रसिद्ध कथाकार

अनुवादक: प्रतिमा दवे

 
      

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