वरिष्ठ लेखक विभूति नारायण राय की पुस्तक आ रही है हाशिमपुरा 22 मई। राजकमल से प्रकाशित होने वाली इस पुस्तक का अंश पढ़िए-
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किताब का नाम – हाशिमपुरा 22 मई – स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा हिरासती हत्याकांड
किताब के बारे में – यह पुस्तक लेखक द्वारा उसी समय लिये गए एक संकल्प का नतीजा है, जब वे धर्मनिरपेक्ष भारत की विकास-भूमि पर अपने लेखकीय और प्रशासनिक जीवन के सबसे जघन्य दृश्य के सम्मुख थे। साम्प्रदायिक दंगों की धार्मिक-प्रशासनिक संरचना पर गहरी निगाह रखनेवाले, और ‘शहर में कर्फ़्यू जैसे अत्यंत संवेदनशील उपन्यास के लेखक विभूति जी ने इस घटना को भारतीय सत्ता-तंत्र और भारतवासियों के परस्पर सम्बन्धों के लिहाज से एक निर्णायक और उद्घाटनकारी घटना माना और इस पर प्रामाणिक तथ्यों के साथ लिखने का फैसला लिया जिसका नतीजा यह पुस्तक है।
आज तीन दशक से भी ज्यादा समय बाद जब भारत के राजनीतिक और सामाजिक सत्ता-प्रतिष्ठानों और देश के बीस प्रतिशत जन-गण के पारस्परिक सम्बन्ध और ज्यादा विचलनकारी हो चुके हैं, इस किताब का आना खास अर्थ रखता है।
यह सिर्फ उस घटना का विवरण-भर नहीं है, उसके कारणों और उसके बाद चले मुकदमे और उसके फैसले के नतीजों को जानने की कोशिश भी है। इसमें दुख है, चिंता है, आशंका है, और उस खतरे को पहचानने की इच्छा भी है जो इस तरह की घटनाओं के चलते हमारे समाज और देश के सामने आ सकता है—घृणा, अविश्वास और हिंसा का चहुँमुखी प्रसार।
पुस्तक अंश
मैंने और मजिस्ट्रेट ने तय किया कि समय खोने से कोई लाभ नहीं है। हमारे पड़ोस में मेरठ जल रहा था और 60 किलोमीटर दूर बैठे हम उसकी आंच से झुलस रहे थे। अफ़वाहों और शरारती तत्त्वों से जूझते हुए हम निरंतर शहर को इस आग से बचाने की कोशिश कर रहे थे। यह सोचकर दहशत हो रही थी कि कल जब ये शव पोस्टमार्टम के लिए िज़ला मुख्यालय पहुँचेंगे तो अफ़वाहों के पर निकल आएँगे और पूरे शहर को हिंसा का दावानल लील सकता है। हमें दूसरे दिन की रणनीति बनानी थी, इसलिए जूनियर अधिकारियों को शवों को निकालने और ज़रूरी लिखा-पढ़ी करने के लिए कह कर हम लिंक रोड थाने के लिए मुड़े ही थे कि नहर की तरफ़ से खाँसने की आवाज़ सुनाई दी। सभी ठिठक कर रुक गए। मैं वापस नहर की तरफ़ लपका। फिर मौन छा गया। स्पष्ट था कि कोई जीवित है लेकिन उसे यक़ीन नहीं है कि जो लोग उसे तलाश रहे हैं वे मित्र हैं। हमने फिर आवाज़ें लगानी शुरू कीं, टाॅर्च की रोशनी अलग-अलग शरीरों पर डालीं और अन्त में हरकत करते हुए एक शरीर पर हमारी नज़रें टिक गईं। कोई दोनों हाथों से झाड़ियाँ पकड़े आधा शरीर नहर में डुबोये इस तरह पड़ा था कि बिना ध्यान से देखे यह अन्दाज़ लगाना मुश्किल था कि वह जीवित है या मृत! दहशत से बुरी तरह काँप रहा और काफ़ी देर तक आश्वस्त करने के बाद यह विश्वास करने वाला कि हम उसे मारने नहीं बचाने वाले हैं। जो व्यक्ति अगले कुछ घंटे हमें इस लोमहर्षक घटना की जानकारी देने वाला था, उसका नाम बाबूदीन था। गोली दो जगह उसका मांस चीरते हुए निकल गई थी। भय से निश्चेष्ट होकर झाड़ियों में गिरा तो भाग-दौड़ में उसके हत्यारों को पूरी तरह यह जाँचने का मौक़ा नहीं मिला कि वह जीवित है या मर गया। दम साधे वह आधा झाड़ियों और आधा पानी में पड़ा रहा और इस तरह मौत के मुँह से वापस लौट आया। उसे कोई ख़ास चोट नहीं आई थी और नहर से सहारा देकर निकाले जाने के बाद अपने पैरों पर चलकर वह गाड़ियों तक आया था। बीच में पुलिया पर बैठकर थोड़ी देर सुस्ताया भी।
लगभग 21 वर्षों बाद जब हाशिमपुरा पर किताब लिखने के लिए सामग्री इकट्ठा करते समय मेरी उससे मुलाक़ात हाशिमपुरा में उसी जगह हुई, जहाँ से पी.ए.सी. उसे उठा कर ले गई थी, वह मेरा चेहरा भूल चुका था, लेकिन परिचय जानते ही जो पहली बात उसे याद आई वह यह थी कि पुलिया पर बैठे उसे मैंने किसी सिपाही से माँग कर बीड़ी दी थी। बाबूदीन ने जो बताया उसके अनुसार उस दिन अपराह्न तलाशियों के दौरान पी.ए.सी. के एक ट्रक पर बैठाकर चालीस-पचास लोगों को ले जाया गया तो उन्होंने समझा कि उन्हें गिरफ़्तार कर जेल ले जाया जा रहा है। वे लगातार प्रतीक्षा करते रहे कि जेल आएगा और उन्हें उतार कर उसके अन्दर दािख़ल कर दिया जाएगा। वे सभी वर्षों से मेरठ में रह रहे थे और कुछ तो यहीं के मूल बाशिंदे थे—इसलिए कर्फ़्यू लगी सूनी सड़कों पर जेल पहुँचने में लगने वाला वक़्त कुछ ज़्यादा तो लगा पर बाक़ी सब कुछ इतना स्वाभाविक था कि उन्हें थोड़ी देर बाद जो घटने वाला था, उसका ज़रा भी आभास नहीं हुआ। जब नहर के किनारे एक-एक को उतार कर मारा जाने लगा तब उन्हें रास्ते भर अपने हत्यारों के ख़ामोश चेहरों और फुसफुसा कर एक-दूसरे से बात करने का राज़ समझ में आया।
इसके बाद की कथा एक लम्बी और यातनादायक प्रतीक्षा का वृत्तांत है, जिसमें भारतीय राज्य और अल्पसंख्यकों के रिश्ते, पुलिस का ग़ैर पेशेवराना रवैया और घिसट-घिसट कर चलने वाली उबाऊ न्यायिक प्रणाली जैसे मुद्दे जुड़े हुए हैं। मैंने 23 मई, 1987 को जो मुक़दमे गाज़ियाबाद के थाना लिंक रोड और मुरादनगर में दर्ज कराए थे, वे 28 वर्षों तक विभिन्न बाधाओं से टकराते हुए अदालतों में चलते रहे और 21 मार्च 2015 को सभी 16 अभियुक्तों की रिहाई के साथ उनका पहला चरण ख़त्म हुआ है।
मैं लगातार सोचता रहा हूँ कि कैसे और क्योंकर हुई होगी ऐसी लोमहर्षक घटना? होशोहवास में कैसे एक सामान्य मनुष्य किसी की जान ले सकता है? वह भी एक की नहीं पूरे समूह की? बिना किसी ऐसी दुश्मनी के, जिसके कारण आप क्रोध से पागल हुए जा रहे हों, कैसे आप किसी नौजवान के सीने से सटाकर अपनी राइफ़ल का घोड़ा दबा सकते हैं? बहुत सारे प्रश्न हैं जो आज भी मुझे मथते हैं। इन प्रश्नों के उत्तर तलाशने के लिए हमें उस दौर को याद करना होगा जब यह घटना घटी थी। बड़े ख़राब थे वे दिन। लगभग दस वर्षों से उत्तर भारत में चल रहे राम जन्मभूमि आन्दोलन ने पूरे समाज को बुरी तरह से बाँट दिया था। उत्तरोत्तर आक्रामक होते जा रहे इस आन्दोलन ने ख़ास तौर से हिन्दू मध्यवर्ग को अविश्वसनीय हद तक साम्प्रदायिक बना दिया था। देश विभाजन के बाद सबसे अधिक साम्प्रदायिक दंगे इसी दौर में हुए थे। स्वाभाविक था कि साम्प्रदायिकता के इस अंधड़ से पुलिस और पी.ए.सी. के जवान भी अछूते नहीं रहे थे।
पी.ए.सी. पर तो पहले से भी साम्प्रदायिक होने के आरोप लगते रहे हैं। मैंने इस किताब के सिलसिले में वी.के.बी. नायर, जो दंगों के शुरुआती दौर में मेरठ के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक थे, से एक लम्बा इंटरव्यू लिया था और जो घटनाएँ 23 साल बाद भी उन्हें याद थीं, उनमें से एक घटना बड़ी मार्मिक थी। दंगे शुरू होने के दूसरे या तीसरे दिन ही एक रात शोर-शराबा सुनकर जब वे शयनकक्ष के बाहर निकले, तो उन्होंने देखा कि उनके दफ़्तर में काम करने वाला मुसलमान स्टेनोग्राफ़र बंगले के बाहर बीवी-बच्चों के साथ खड़ा है और बुरी तरह से दहशतज़दा उसके बच्चे चीख़-चिल्ला रहे हैं। पता चला कि पुलिस लाइन में रहने वाले इस परिवार पर वहाँ कैंप कर रहे पी.ए.सी. के जवान कई दिनों से िफ़करे कस रहे थे और आज अगर अपने कुछ पड़ोसियों की मदद से वे भाग नहीं निकले होते तो सम्भव था कि उनके क्वार्टर पर हमला कर उन्हें मार दिया जाता। पूरे दंगों के दौरान यह परिवार वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक निवास में शरण लिए पड़ा रहा। इन्हीं दिनों जब मेरठ से कुछ मुसलमान क़ैदी फतेहगढ़ जेल ले जाए गए तो उनमें से कई को वहाँ के बन्दियों और वार्डरों ने हमला करके मार डाला। हाशिमपुरा कांड के लिए उत्तरदायी 41वीं बटालियन के ही एक मुसलमान कांस्टेबल ड्राइवर इफ़्तख़ार अहमद के साथ जो कुछ घटित हुआ, वह उस समय के सच को अच्छी तरह से परिभाषित कर सकता है।
इस किताब का बेसब्री से इंतजार है।