त्रिलोक नाथ पांडेय अच्छे और प्रेरक लेखक हैं। गुप्तचर सेवा में उच्च पद से रिटायर होने वाले त्रिलोकनाथ जी बहुत अच्छे और रसदार लेखक हैं, जिन्होंने उनके उपन्यास ‘प्रेम लहरी’ को पढ़ा है वे इस बात से सहमत होंगे। आजकल वे जासूसी के क़िस्से लिखने में लगे हुए हैं। आज साम्बा जासूसी कांड पर पढ़िए। जानकी पुल की इस साल की अंतिम पोस्ट- मॉडरेटर
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रायता फैलाती जासूसी
एक जासूस ने एक बार जासूसी का ऐसा रायता फैलाया कि लगभग आधी सदी तक सेना के तमाम लोग उसमें लथपथ रहे और पूरा देश हैरान-परेशान रहा.
कौन था वह शख्स जिसने यह हैरतंगेज कारनामा कर दिखाया! कौन था वह काइयां जिसकी चालबाजियों से दर्जनों सैन्य अधिकारी और कर्मचारी पस्त पड़ गए!! कौन था वह जासूस जिसके डंक से घायल कई पीड़ितों को अभी भी इन्साफ की तलाश है!!!
वह था एक मामूली-सा गंवार, अशिक्षित इंसान. नाम था सरवन दास, रहने वाला जम्मू जिले के चकरा गाँव का. चकरा पाकिस्तान की सीमा के निकट एक छोटा-सा गाँव. गाँव में सरवन ने सुन रखा था कि सरहद के उस पार बहुत पैसा है और मजे लेने के लिए मिलती हैं इफरात खूबसूरत औरतें. पैसे और औरत की चाहत सरवन को सीमा पार करने के लिए हमेशा उकसाती थी. इसी बीच, वह सेना की आर्टिलरी रेजिमेंट में गनर भर्ती हो गया और गाँव से दूर चला गया. मनमौजी और लापरवाह सरवन को सेना का सख्त अनुशासन रास न आता था. सेना के रंग-ढंग से वह तंग रहता था.
भारत-पाकिस्तान का 1971 का युद्ध समाप्त हुए कुछ ही महीने बीते थे. उन दिनों आज की तरह सीमा पर बाड़बंदी नहीं थी. चकरा गाँव के पास दोनों देशों के बीच बड़ी अस्पष्ट-सी सीमा-रेखा थी और दोनों ओर दूर-दूर तक खेत फैले हुए थे.
सन 1972 की जुलाई-अगस्त की बात है. सरवन छुट्टी में अपने गाँव आया हुआ था. एक रात खेतों-खेतों चलता हुआ सरवन सरहद के उस पार पहुँच गया. जब तक सुबह हुई वह सरहद से काफी आगे निकल चुका था. सरवन जिस जगह पहुंचा वहाँ एक बस खड़ी दिखाई पड़ी जो चलने ही वाली थी. सरवन फुर्ती से उसमें सवार हो गया.
लगभग दोपहर बाद बस जब अपने गंतव्य स्थान पर पहुंची तो पता लगा कि वह सियालकोट है. बस रुकने पर कंडक्टर ने सरवन से किराया माँगा तो उसने बड़ी सफाई से झूठ बोल दिया कि उसका बटुआ कहीं खो गया. कंडक्टर ने सरवन की बात सच समझ कर उसे बख्श दिया. लेकिन, सरवन उब इसके बाद क्या करता; कहाँ जाता! जेब में पैसे नदारद. फिर तो वह वहीं बस स्टैंड पर ही भूखा-प्यासा पड़ा रहा.
रात को गश्त करते हुए स्थानीय पुलिस के कुछ सिपाही जब उधर से गुजरे तो एक अनजान आदमी को यूँ बस-स्टैंड में पड़ा देख कर तहकीकात करने लगे. उनकी पूछताछ पर सरवन ने चुप्पी साध लिया. इससे उनका शक और बढ़ा. उन्होंने उसकी जामा-तलाशी ली. तलाशी में उसका फौजी आइडेंटिटी कार्ड मिला.
सरवन को थाने ले जाया गया, जहां से दो दिनों बाद उसे सियालकोट के गोरा जेल भेज दिया गया. जेल पहुँच कर सरवन बुरी तरह डर गया. वहां उसने अपने ही जैसे अन्य कई भारतीय कैदियों को भयंकर यातना झेलते देखा.
जल्दी ही एक दिन पाकिस्तान आर्मी की फील्ड इंटेलिजेंस यूनिट के कुछ लोग सरवन के पास पहुंचे और उससे पूछताछ शुरू की. पूछताछ के बहाने सरवन की खूब पिटाई हुई. अंततः, सरवन के सामने चारा फेंका गया कि अगर वह उनके लिए जासूसी करने को राजी हो जाय तो उसे रिहा कर दिया जायेगा, और इनाम के तौर पर बहुत पैसा और दूसरी मनचाही चीज भी दी जायेगी. इस चारे को सरवन ने जल्दी से लपक लिया.
सरवन को तुरंत 200 रुपये दिए गये और उसे ससम्मान सरहद तक पहुँचाया गया, जहाँ से वह चुपके से अपने घर वापस लौट आया.
दो सप्ताह बाद सरवन फिर सीमा पार कर पाकिस्तान पहुंचा और भारतीय सेना के बारे में कुछ खबरें दीं. इन ख़बरों की गुणवत्ता और उपयोगिता काफी निम्न स्तर की थी, फिर भी मेजर अकबर खां ने सरवन की तारीफ की और उसका हौसला अफजाई करने के लिए भरपूर इनाम-इकराम दिया. सरवन की औकात को आंकते हुए मेजर ने उससे किसी खास संगीन खबर की उम्मीद छोड़ कर उसका इस्तेमाल भारतीय सेना में अपना जासूसी नेटवर्क फ़ैलाने में करने का प्लान बनाया. इस प्लान के मद्देनजर मेजर ने सरवन को ताकीद किया कि वह अपने अन्य फौजी साथियों को भी जासूसी के इस काम में लगाए.
छुट्टी काट कर सरवन जब अपनी यूनिट बबीना (झाँसी, उत्तर प्रदेश) लौटा तो वह भारतीय सेना में पाकिस्तान का पक्का ‘मोल’ बन चुका था. अपने हैंडलर मेजर अकबर खां के निर्देशानुसार दूसरा ‘मोल’ रिक्रूट करने के लिए उसने अपने एक ग्राईं (पड़ोस के गाँव के रहने वाले) आया सिंह को टारगेट किया. सरवन आया सिंह को तरह-तरह के सपने दिखाता. उसे वह समझाता कि पाकिस्तान के लिए काम करने में बड़े मजे हैं. रूपये-पैसे और इज्जत सब कुछ मिलता है. और, यहाँ क्या है! बस, अफसरों की डांट-डपट. बहलाते-फुसलाते सरवन आखिर आया सिंह को राजी कर ही लिया.
मार्च 1973 में सरवन और आया दोनों एक साथ अपने-अपने गाँव छुट्टी आये. दोनों एक साथ सीमा पार करने की योजना बना कर एक रात सीमा पार कर पाकिस्तान जा पहुंचे. वहां सरवन ने आया सिंह को मेजर अकबर खां से मिलवाया. मेजर ने आया सिंह को बहुत-सारी बातें समझा कर जासूसी का काम सौंपा. इस तरह अब आया सिंह भी पाकिस्तानी जासूसी नेटवर्क का जासूस बन गया.
छः माह बाद जब दोनों बबीना अपनी यूनिट वापस आये तो उन्हें बिन बताये और स्वीकृत छुट्टी से अधिक समय तक गैरहाजिर रहने के लिए दोनों को सजा दी गयी. दोनों को सजा भुगतने के लिए सिकंदराबाद (आंध्र प्रदेश) भेजा गया, जहाँ से कुछ समय बाद दोनों फिर अपनी यूनिट बबीना वापस लौट आये.
जासूसी के धंधे में सरवन को बड़े मजे आ रहे थे और मोटी कमाई भी हो रही थी. लेकिन, अंततः उसका भांडा फूट गया जब इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) ने अपने एक डबल एजेंट की मदद से उसकी ख़ुफ़िया कारगुजारी का पता लगा लिया.
आईबी की रिपोर्ट पर मिलिटरी इंटेलिजेंस (एम आई) के लोग बहुत चिड़चिड़ाए . आईबी द्वारा फौजी के ऊपर आरोप लगाने से उन्हें बड़ी शर्मिंदगी और गुस्सा आया. गुस्से में उन्होंने सरवन को धर दबोचा. लेकिन, जब जांच-पड़ताल के सिलसिले में सरवन को ट्रेन से बबीना से जम्मू ला रहे थे तो जालंधर में वह गार्डों को चकमा देकर ट्रेन से कूद पड़ा और फरार हो गया.
छुपते-छुपाते सरवन चुपके से अपने गाँव चकरा पहुँच गया. थोड़े दिनों अपने घर में छुप कर रहने के बाद जब सरवन को लगा कि अब इधर रहना खतरे से खाली नहीं है तो वह चुपके से भाग कर पाकिस्तान पहुँच गया जहाँ वह बड़े मजे से सात महीने रहा. बीच-बीच में वह रात को कुछ ही घंटे पैदल चल कर अपने गाँव चकरा आ जाता और अपनी माँ और बीवी से मिल जाता. इंटेलिजेंस ब्यूरो के जासूस निरन्तर सरवन के फ़िराक में लगे हुए थे. आखिर एक रात वह पकड़ा गया.
चकमा देकर अपनी गिरफ्त से फरार हो जाने और फिर इतने दिनों बाद आईबी द्वारा पकड़ लिए जाने पर खिसियाई एमआई इस बार सरवन से बड़ी सख्ती से पेश आई. पूछताछ के दौरान उसे खूब प्रताड़ित किया, खूब यातना दिया. बार-बार उससे सवाल किया जाता रहा कि कैसे वह जासूस बना और कौन-कौन उसके जासूसी नेटवर्क में शामिल है.
जबरदस्त मारपीट और बार-बार के सवालात से तंग आकर सरवन आंय-बांय बकने लगा. अपने द्वारा बतायी हुई बातों पर पूछताछ करने वालों को विश्वास न करता हुआ देख कर सरवन सांसत से बचने के लिए वह मनगढ़ंत कहानियां सुनाने लगा. उसने उन लोगों के भी नाम लेना शुरू किया जिनका नाम उसने सिर्फ सुना था, लेकिन उनसे कभी न मिला था. बस अपनी खाल बचाने के लिए वह अंड-बंड नाम लेता गया. उनमें ज्यादातर वे लोग थे जिनका इस जासूसी नेटवर्क से कोई लेना-देना न था. उसमें उसने उन लोगों का भी नाम जोड़ दिया जिनसे उसकी न पटती थी. उन्हीं में से एक उसके बैटरी कमांडर कैप्टेन आर जी गहलावत भी थे. कैप्टेन गहलावत को बाद में 14 वर्ष के कठोर कारावास की सजा हुई. मारे शर्म और दुःख के उस स्वाभिमानी अफसर की बाद में हार्ट अटैक से मृत्यु हो गयी.
सरवन ने जिस-जिस का नाम लिया, एमआई ने उन सबको एक-एक कर धर दबोचा. उन सबसे बारी-बारी पूछताछ शुरू हुई. पूछताछ के दौरान एक-एक कर सबकी खूब पिटाई हुई. ज्यों-ज्यों प्रताड़ना और यंत्रणा बढ़ती गयी, खुद को सांसत से बचाने के लिए हर एक एक झूठी कहानी गढ़ता गया. हर कहानी में कुछ नये लोगों का नाम उभर कर आता. इस तरह दूसरों का गला फंसा देने का दुर्भाग्यपूर्ण सिलसिला चल पड़ा. सरवन ने जासूसी का जो जाल बुना था उसमे एक-एक कर अनेक लोग फंस गए. एमआई की कस्टडी में सरवन जुलाई 1975 से अगस्त 1978 तक रहा.
इसी बीच सरवन का साथी आया सिंह भी एमआई की पकड़ में आ गया. जब आया सिंह से पूछताछ हुई तो पिटाई से बचने के लिए उसने भी कहानियां गढ़ना शुरू किया. उसकी कहानियों में भी कई नाम उभर कर आये.
सेना से इतनी बड़ी संख्या में लोगों का नाम उभर कर आने से एम आई के लोग बौखलाए हुए थे. पूछताछ करने वाले लोग बहुत गुस्से से भरे रहते थे. आरोपी जो भी झूठी-सच्ची कहानी सुनाता उसका विवेकपूर्ण विश्लेष्ण करने के बजाय आँख मूँद कर विश्वास कर लेते थे. उन कहानियों में जिनका भी नाम आता उसे दौड़कर धर दबोचते और क्रूरतापूर्वक पिटाई करते हुए तरह-तरह की मनमानी बातें उगलवाने की उग्र कोशिश करते. पूछताछ की सूक्ष्म और सभ्य तकनीकों, मनोवैज्ञानिक तरीकों को अपनाने के बजाय पूछताछ दल सिर्फ अंधाधुंध पिटाई का क्रूर फौजी तरीका अपना रहा था. इसकी वजह से परत-दर-परत छुपी हुई सच्चाई उभर कर सामने न आ पा रही थी, बल्कि बदले में झूठी-सच्ची कहानियां और उलटे-सीधे नामों का खुलासा हो रहा था.
आया सिंह ने जिन लोगों का नाम लिया था उनमें उसका एक रिश्तेदार कैप्टेन नाग्याल भी था जो सेना के कोर हेडक्वार्टर में जीएसओ-3 इंटेलिजेंस था. आया सिंह ने अन्य कई लोगों के नाम लिए जिनमें से कैप्टेन आर एस राठौर और कैप्टेन ए के राना का नाम भी था. राठौर उस समय साम्बा में सेना के इंटेलिजेंस यूनिट में कैप्टेन था. कैप्टेन नाग्याल ने भी पूछताछ में राठौर का नाम लिया और सरवन ने भी पूछताछ के दौरान तस्दीक किया कि गोपनीय फाइलें उसने कैप्टेन राठौर से लिया था और उन्हें अपने हैंडलर पाक आर्मी के मेजर अकबर खां से मिलाने भी ले गया था.
पूछताछ में कुछ दिनों तक तो कैप्टेन राठौर अडिग रहे, किन्तु निरन्तर यंत्रणा से अंततः वह भी टूट गये और तंग आकर उन्होंने भी कई अंड-बंड नाम ले डाले. इनमें से एक नाम हवालदार राम स्वरुप का भी उभरा जो सिर्फ इस बात के लिए गिफ्तार हो गया कि वह कैप्टेन राठौर का पुराना परिचित था और दिल्ली में एक सरकारी काम के सिलसिले में उनसे मिला था. अपनी गिफ्तारी के एक महीने में ही रामस्वरूप दिल्ली कैंटोनमेंट एरिया में मरा हुआ पाया गया. कहते हैं कि पूछताछ के दौरान यंत्रणा के कारण वह मर गया, जबकि आधिकारिक तौर पर कहा गया कि वह नशीली दवायें लेने का आदी था और दवा के ओवरडोज़ से मर गया. यह 1978 की घटना है. इस सिलसिले में रामस्वरूप के कमांडिंग ऑफिसर मेजर आर के मिढा भी पूछताछ के दायरे में आ गये. आरोप है कि मेजर मिढा को इसलिए फंसाया गया क्योंकि उन्होंने आधिकारिक बयान के विरुद्ध जा कर रामस्वरूप का पक्ष लेने का प्रयास किया था.
अब तो जो भी जरा भी शक के दायरे में आता या पूछताछ की प्रक्रिया पर सवाल उठाता, एम आई उसे उठा लेती और पूछताछ के नाम पर घनघोर प्रताड़ित करती. यहाँ तक कि उत्तरी कमांड के डिप्टी अधिवक्ता जनरल मेजर निर्मल आजवानी भी तथाकथित रूप से इस बात के लिए फंसा दिए गए कि जज के रूप में सुनवाई करते समय उन्होंने झूठे सबूतों को मानने से इन्कार कर दिया. यह बात दीगर है कि इस आरोप से वह बच निकले क्योंकि एक गवाह ने तथाकथित रूप से उनके विरुद्ध झूठी गवाही देने से इन्कार कर दिया.
एक सरवन ने जासूसी की जो गलती की थी उसका रायता फैलते-फैलते लगभग एक पूरे इन्फेंट्री ब्रिगेड को अपनी चपेट में ले चुका था. वह इन्फेंट्री ब्रिगेड जम्मू शहर से कोई 40 किमी दूर पाकिस्तान सीमा के निकट बसे साम्बा नामक छोटे से शहर में स्थित था. इस 168 इन्फेंट्री ब्रिगेड एवं इसकी सहायक इकाइयों से 24 अगस्त 1978 से 23 जनवरी 1979 के बीच कोई पचास लोग इस केस में गिरफ्तार हुए. लगभग पूरा का पूरा अधिकारी वर्ग इसमें लिप्त पाया गया और गिफ्तार हुआ. इसमें एक ब्रिगेडियर और तीन लेफ्टिनेंट कर्नल के अलावे कई मेजर, कैप्टेन, जूनियर कमीशंड अधिकारी, नॉन-कमीशंड अधिकारी और अन्य पदों के सैन्यकर्मी थे. इनके अलावा ग्यारह सिविलियन्स भी गिरफ्तार हुए. ये सारी की सारी गिरफ्तारियां हुईं उन दो लोगों के खुलासे के आधार पर जो पाकिस्तान के लिए जासूसी कर रहे थे. ये थे गनर सरवन दास और गनर आया सिंह.
फिर शुरू हुआ आरोपित सैन्यकर्मियों का कोर्ट मार्शल. सरवन और आया सिंह दोनों नौकरी से बर्खास्त कर दिए गए और उन्हें सात साल के कठोर कारावास की सजा हुई. कैप्टेन राठौर और कैप्टेन राना भी नौकरी से बर्खास्त हो गये और उन्हें 14 साल के कठोर कारावास की सजा हुई. कई अन्य आरोपित सैन्य अधिकरी व कर्मी बिना औपचारिक मुकदमा चलाये ही नौकरी से निकाल दिए गए.
वैसे बाद में, सरवन (मार्च 1979 में) और आया सिंह (मार्च 1978 में) नौकरी में वापस रख लिए गए. आरोप यह लगाया जाता है कि कैप्टेन राठौर और कैप्टेन राना व अन्य को झूठा फंसाने के बदले उन्हें यह इनाम मिला था.
कोर्ट मार्शल के फैसले के खिलाफ कैप्टेन राना ने अक्टूबर 1980 में एक पेटीशन दाखिल किया, किन्तु दिल्ली हाई कोर्ट ने उनके पेटीशन को ख़ारिज कर दिया. उन्होंने हिम्मत न हारी और कैप्टेन राठौर के साथ मिलकर पेटीशन दाखिल करते रहे. ये सारे पेटीशन ख़ारिज होते गये और अंततः 1987 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर विचार व्यक्त करते हुए कहा, “हमने सारे रिव्यु पेटीशन और उनसे सम्बंधित कागजात अच्छी तरह देखे, किन्तु हमने उनमें कोई दम नहीं पाया. इसलिए रिव्यु पेटीशन ख़ारिज किया जाता है.”
सुप्रीम कोर्ट की रूलिंग के बाद भी पेटीशनों के दाखिल किये जाने का सिलसिला जारी रहा. अब पेटीशन इस बात के लिए दाखिल किया जा रहा था कि क्या आर्मी एक्ट की धारा 18 (संविधान के अनुच्छेद 310 के संग पठित) को चुनौती दी जा सकती है. धारा 18 के अंतर्गत ही बिना औपचारिक मुक़दमे चलाये आरोपितों की नौकरी समाप्त की गयी थी और उन्हें सजा दिया गया था. पेटीशनरों को इस मामले में सफलता मिली और कोर्ट ने माना कि आर्मी एक्ट की धारा 18 के प्रयोग के औचित्य की जांच की जा सकती है यदि यह लगे कि इस धारा के प्रयोग से नैसर्गिक न्याय और संविधान के अनुच्छेद 14 में दिए गए मूल अधिकारों का उल्लंघन हुआ है.
मई 1989 में जेल से छूटने के बाद राठौर ने 1995 में फिर एक पेटीशन दाखिल किया. इस बार उन्होंने मांग की कि कोर्ट मार्शल की सारी कार्रवाई रद्द की जाय क्योंकि कोर्ट मार्शल ने अविवेक और दुर्भावना से प्रेरित होकर कार्य किया था. किन्तु, यह पेटीशन सफल न हो सका. 1994 में एक दूसरे आरोपी मेजर अजवानी के पेटीशन पर सुनवाई करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने माना कि इस मामले की फिर से जांच होनी चाहिए और पूरे मसले पर से पर्दा हटाया जाना चाहिए ताकि सच्चाई सामने आ सके.
इसी बीच, आया सिंह भारत-पाक सीमा अवैध रूप से पार करते समय दिसम्बर 1990 में मारा गया. कहा तो यह भी जाता है कि दिसम्बर 1994 में सरवन ने यह स्वीकार किया कि उसने निर्दोष लोगों को इस केस में झूठा फंसाया था.
इन सब बातों के आलोक में इस केस की सुनवाई करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने साल 2000 में माना कि पूरे मामले में न्याय का गला घोंटा गया. हाई कोर्ट ने कोर्ट मार्शल की कार्रवाई को गलत ठहराया और सभी आरोपियों को दोषमुक्त कर दिया.
हाई कोर्ट के इस फैसले के विरुद्ध 2006 में सुप्रीम कोर्ट में अपील हुई. सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के दृष्टिकोण में कई त्रुटियाँ निकाल दी और इस केस को 2007 में दिल्ली हाई कोर्ट को लौटा दिया इस निर्देश के साथ कि पूरे मामले की फिर से नए सिरे से सुनवाई की जाय.
सारी न्यायिक प्रक्रियाओं के बाद भी सुप्रीम कोर्ट अपने पुराने रुख पर कायम रहा और 1914 में कोर्ट मार्शल की कार्रवाइयों को सही ठहराया. 2017 में मेजर आजवानी ने फिर एक बार कोशिश की और सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की कि साम्बा जासूसी काण्ड के कागजात जिसे सेना और सरकार ने राष्ट्रिय सुरक्षा के नाम पर गोपनीय बना रखा है उन्हें कम से कम याचिकाकर्ताओं को देखने के लिए उपलब्ध कराया जाय. किन्तु, सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका को सिरे से ख़ारिज करते हुए इस मांग को अस्वीकृत कर दिया.
इस वर्ष, अप्रैल 2019 में, राना और राठौर ने दिल्ली हाई कोर्ट में फिर एक पेटीशन दाखिल किया है जिसमे मांग की गयी है कि राष्ट्रिय सुरक्षा को आधार बना कर साम्बा जासूसी कांड के जिन सारे कागजात को सेना और सरकार ने गोपनीय बना रखा है उन्हें सार्वजनिक किया जाय ताकि लोगों को सच्चाई का पता लग सके और लोग जान सकें कि सेना ने इस मामले कितना घपला लिया है. दिल्ली हाई कोर्ट ने पेटीशन को स्वीकार करते हुए सेना और सरकार को इस मामले में 3 सितम्बर को अपना पक्ष रखने को कहा. प्रतिपक्षी भारत सरकार 3 सितम्बर को काउंटर-एफिडेविट दाखिल करने में विफल रही. हाई कोर्ट ने प्रतिपक्षी को अपना जवाब दाखिल करने के लिए फिर चार हफ्ते की मोहलत देते हुए अगली सुनवाई की तारिख 15 जनवरी 2020 मुकरर्र की.
साम्बा जासूसी काण्ड सर्व साधारण की दृष्टि में तब आया जब 1979 में इस काण्ड में आरोपित और गिरफ्तार किये गए सैन्य अफसरों और कर्मियों की पत्नियाँ अपने पतियों की खोज-खबर लेने डायरेक्टरेट ऑफ़ मिलिटरी इंटेलिजेंस के मुख्यालय जा धमकीं. यही नहीं, उन्होंने तत्कालीन रक्षामंत्री जगजीवन राम के आवास पर धरना भी दिया. उन दिनों यह काण्ड संसद में भी थोड़ी देर के लिए चर्चा का विषय रहा.
सेना के गुप्त आवरण से बाहर आते ही साम्बा जासूसी काण्ड प्रेस की सुर्खियाँ बन गया. तरह-तरह की अटकलों वाली ख़बरें प्रेस में छपने लगीं. उनमे से कई तो बड़ी चटपटी, रसीली, फ़िल्मी स्टाइल में लिखी कहानियाँ थीं.
जिन पत्र-पत्रिकाओं ने साम्बा जासूसी काण्ड के विविध पहलुओं को बड़े विस्तार और सूक्ष्मता से कवर किया, उनमें प्रमुख हैं फ्रंटलाइन, इंडिया टुडे, वीक वगैरह. ये सभी पत्र-पत्रिकायें सेना की तथाकथित मनमानी और न्याय की हत्या पर जोरदार आवाज उठाते रहे हैं. यही नहीं, इस केस पर कई किताबें भी लिखी गयी, जिनमे प्रमुख हैं पीड़ित सेना अधिकारियों की आपबीती कथा पर आधारित पुस्तकें. इनमे सबसे प्रमुख है ‘प्राइस ऑफ़ लोयालिटी’ जिसे जेल (तिहाड़ जेल, दिल्ली) में रहते हुए आर एस राठौर ने अपनी व्यथा-कथा के रूप में लिखा है. दूसरी महत्वपूर्ण पुस्तक है मेजर आजवानी की लिखी हुई ‘दि फाल्स स्पाई’. एक और महत्वपूर्ण किताब है ‘दि साम्बा स्पाइंग स्कैंडल : स्पाइस, दे वेर नॉट!’ जिसे कर्नल वेद प्रकाश ने लिखा है. ऐसी ही एक किताब है ‘दि साम्बा स्पाइंग केस’ जिसे ब्रजमोहन शर्मा ने लिखा है.
साम्बा जासूसी काण्ड पर आई बी के दृष्टिकोण को भी जानना रोचक है क्योंकि आई बी शुरू से ही इस केस पर नजर बनाए हुई थी. दुर्भाग्य से आई बी की रिपोर्टों और सलाहों को डायरेक्टरेट ऑफ़ मिलिटरी इंटेलिजेंस ने एक प्रतिद्वंद्वी दृष्टिकोण से देखा. मजबूरन, आईबी के तत्कालीन डिप्टी डायरेक्टर वी के कौल, जिन्होंने इस मामले की छानबीन की थी, को कहना पड़ा “यह केस झूठ और मनगढ़ंत आरोपों का ऐसा घालमेल है जिस पर किसी ठोस सबूत के बिना विश्वास नहीं किया जा सकता है. और, ऐसा कोई सबूत है नहीं.”
एक अनपढ़ फौजी, जो पाकिस्तान के लिए काम कर रहा था, ने जासूसी का ऐसा रायता फैलाया कि सेना के कई अफसरों और कर्मियों का कैरियर बर्बाद हो गया और पूरी सेना पर इसका भयानक दुष्प्रभाव पड़ा.
यह कहानी सब सुनी-सुनाई है. मसाला अलग से लगाई है.
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