कवि यतीश कुमार ने पुस्तक समीक्षा की अपनी शैली विकसित की है- काव्यात्मक समीक्षा की। इस बार उन्होंने कृष्णनाथ जी की यात्रा पुस्तक ‘किन्नर धर्मलोक’ पढ़कर उसके ऊपर डूबकर लिखा है- मॉडरेटर
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किन्नर धर्मलोक
किन्नर धर्मलोक
एक अंतर्यात्रा : कृष्णनाथ के साथ
1)
अलंघ्य रास्ते तक जाना है
रास्ता पहले कदम के बिना तय नहीं होता
जबकि अपनी जगह पर
खड़े रहने के लिए भी दौड़ना है
दौड़ नहीं पाता हूँ तो छूटता हूँ
और फिर छुटे हुए को
बटोरने की यात्रा करता हूँ
मेरे भीतर का दरवाजा ओंठगाया हुआ है
जिसे भीतर से ही खोलना है
प्रवेश का मार्ग ढूंढता हूँ
इसलिए मैं यात्रा पर हूँ
अयाचित सहायता इंतजार में है मेरे
और किन्नर कैलाश मेरी आँख में
द्रुत रास्ते पहले संकड़ी गली
फिर बे-रास्ते में बदल जाते हैं
अंतिम मार्ग मिलना है
इस मति में आगे बढ़ता हूँ
शहर रात के अंधेरे से आवृत है
नाले चलने लगे हैं
पृथ्वी के उरोजों के बीच भी
सूरज कई बार डूबता है उगता है
अरुणाई चेहरे पर नीली आँखे
स्याह कोरों में नीलमणि
दिप दिप कर रही हैं
अलस मदिर चल रहा है प्रेम
न आस्वादु हूँ
न सुस्वादु
उपवास से ज्यादा भूख
प्रवास में लगती है
दो स्वाद लिए भटकता हूँ
स्वादजीवी से आनंदजीवी के बीच
अंतर नाद से अनहद नाद के बीच
भ्रमित हूँ
स्वप्न से निःस्वप्न के बीच संतरित
विराग से राग के बीच
टहलते,निरखते ,मेल्हते
जो देखिए बस लख लीजिए
पहाड़ों पर दूरी किलोमीटर नहीं
आवाजें नापती हैं -हाँक भर
और वक़्त को नापता है सूरज
मैं वक़्त से आगे की दौड़ में हूँ
पर मेरा सूरज रोज अस्त हो जाता है
वह थकी नहीं छकी हुई मछलियाँ हैं
जिसकी चाक में मैं सतलुज में झांकता हूँ
2)
कभी- कभी नदी बहती है
पर दिखाई नहीं देती
सिर्फ सुनाई देती है ।
उसका अपना ही राग और आलाप है
प्यासों को ये आवाजें
ज्यादा साफ सुनाई पड़ती है
लस्त हूँ पस्त हूँ
मेरा जल मुझसे रूठ गया है
कहते हैं प्रेत पानी नहीं पीते
खुद अपना ही प्रेत बन गया हूँ
प्यास अपनी यात्रा
सह्य से असह्य
और फिर असह्य से सह्य की ओर करती है
सामने जो पर्वत श्रृंखला है
वह नीलिमा में घुल रही है
किन्नर कैलास भी एक कैलास है
जो भी शिखर है वह कैलास है
3)
पहली किरण सिंगार करती हैं
पिघलाती नहीं
प्रेम में संतुलन कायम है
काम में संतुलन कहाँ
जो कुछ जाना जा सकता है
उससे कहीं बेहतर अनजाना है
और जो महसूस किया है
उसे जताया नहीं जा सकता
शब्द ,संकेत,चित्त,ध्वनि
और फिर मौन
कुछ-कुछ मिलकर
सबकुछ होने की ओर अग्रसर
समझना एक दूरी है
और दूर से समझना और दुस्तर
मैं समझने की दूरी कम करने की यात्रा पर हूँ
बर्फ का आँचल लिए हिमाचल है
आँकड़े नीलाई गोलाई ऊँचाई
कहाँ नाप पाते हैं
वो बस इसे समझने की दूरी कम करते हैं
4)
किम्पुरुष बनरखा हैं किन्नौर के
सुना है कुछ दिनों से
जो किम्पुरुष नहीं हैं
उन्होंने कदम रखा है
जहां बारिश नहीं होती वहां
थोड़ी बूंदा बांदी होनी शुरू हुई है
जो भी बादल वहाँ जाता है
वहीं का हो जाता है
ये बादल टकराते हैं
विलय हो जाते हैं
इतिहास के पीछे से
झाँकते रहते हैं
अज्ञात अजर बर्फ
पिघलती चाँदी सा
पिघलते सोने सा
मणियों से गूंथे गए
इनको देख
रंग बदलता
सूरज मुस्काता है
उसे पता है जो बर्फ सौ साल नहीं पिघलती वो मणि हो जाती है
आदम का मन और काम की चादर तो सदियों से नहीं पिघलती
उसका क्या ??
5)
चाँदनी और चाँदना
दोनो की गुफ्तगू होतीं हैं
वो गुफ्तगू सुनना चाहता हूँ
पिछली रात चाँदनी चटकी हुई थी
अब वो मेरी शगल है
अभी और ऊपर जाना है
जहाँ तक ऊपर जाया जा सकता है
उससे भी थोड़ा और ऊपर
मैं उसके प्रेम में हूँ-अतृप्त
मुझे तृप्त होना है
मुझे ताबो जाना है
मुझे तुम्हारे नाम -रूप की नहीं
गुण-कर्म की जरूरत है
तुम सहारा हो सकती हो
तुम छड़ी हो
सहारा और बोझ के अंतर में उलझता हूँ
वेग और उदासी में भी
बचपना उभरता है भीतर
वेग लेकर छड़ी छोड़ देता हूँ
यथार्थ के साथ थकान है
छड़ी की मुठ को महसूसता हूँ
द्वंद मुझे और ऊपर ठेलती है
थोड़ी सहेजी सुंदरता बची हुई है
जन्म दुःख है
व्याधि भी
मृत्यु सुख है
छुटकारा किसे पसंद नहीं
मैं अपनी पसंदीदा चादर ओढ़ता हूँ
मुझे किन्नर कैलास और साफ दीखते हैं
मृत्यु से निश्चिंत हूँ
उसके आने से नहीं
इन्द्रियाँ उसके आने को महसूसती ही नहीं
पर वो आ रही है
मन क्षीण है
छड़ी बाहरी टेक नहीं
मनोवृति है
जरूरत हो न हो
जरूरत मालूम पड़ती है
आरोपित अंग है
न रहे
तो एक कमी रहेगी
भीतर बाहर चलता हूँ
बाहर सहारे के साथ
और भीतर
बिना छड़ी के- बेसहारा
पूछते है
सैर सपाटे के लिए आये हो
सोचता हूँ
अगर सैर सपाटे के लिए आता तो कितना अच्छा होता!!
उम्र एक सैर है
सपाटा ……ढूंढ रहा हूँ
6)
हर योनि के बच्चे सुंदर लगते हैं
मनुष्य के भी
और ज्यादा सुंदर दिखे
पहाड़ों पर देवयोनि के किन्नर
उनकी हँसी संक्रामक है
इसलिए वहाँ से उठ जाता हूँ
पुरानी दुनिया मिट रही है
नई मिल नहीं रही
शून्य नजदीक आ रहा है
मुझे ऊपर जाना है
एक बचा है
उसे शून्य से भरना है
मैं जानना चाहता हूँ
देवता का यश बढ़ रहा है या
जस के तस है
पर मंदिर बंद है
बौद्ध विहार भी
सिर्फ चाय घर और गप चालू है
पहाड़ के नीचे -ऊपर
अखंड गप एक अभिन्न क्रिया है
जानना मुक्त होना है
अनजाने ख्याल भी मुक्त नहीं होते
मैं द्रष्टा और जानने के बीच संतरित हूँ
श्रेय और प्रेय के बीच चुनाव है
महसूस करूँगा लिप्त नहीं हूँगा
कलपा सफर का पड़ाव है
और सामने प्रत्यक्ष संवेदन
अगम्य है वह
और मैं विरथ,रथी नहीं
मुक्तता में कमी
शेष तृष्णा है मन की
सफर में रथ भी एक तृष्णा है
काम और तृष्णा मिलकर
धनुष पर चाँप चढ़ाते हैं
कमान दोहरी हो जाती है
रास्ता और दूभर दोहरा
शिला का शील से रिश्ता है
शील एक पाश है
मेरा शील टूट रहा है
थोड़ा-थोड़ा हल्का हो रहा हूँ
सफर का दूभर भी उतर रहा है
7)
ऊँचे पहाड़ शिकायत दर्ज करते हैं
कहते हैं लोग नीचे से आते हैं
और हमारे नाम को अपनी जुबान से टेढ़ा कर जाते हैं
वो सड़क बनाते हैं और उस पर टेढ़ी नाम लिख जाते हैं
सड़क और नाम
दोनो टेढ़े एक दूसरे को ताकती रहती है
अब मैं भी पिलो को स्पिलो बुलाता हूँ
फिर स्पिलो भी ठेड़ा होकर स्पिलू हो जाता है
देवता भी हिंकारते हैं
और उनके कारदान भी
मेरा सुर नहीं मिलता
मैं उन्हें तज देता हूँ
हर देवता आपकी बात मान लें ऐसा संभव नहीं
हाथ में हाथ डाले
एक दम गूंथे हुए
वो सामूहिक नृत्य में हैं
मैं सकुच में हूँ
उछाह ,वेग ,श्लील से अश्लील
उसके मंजूषा में सब है
धीरे धीरे मैं भी उसी में समा न जाऊँ
उसकी आँखों से अपनी डोर तोड़ता हूँ
8)
उस नृत्य में कुछ भी मिथक नहीं
जो टूटी हुई भाषा को जोड़ दे
मुझे बताया गया
पेड़ गिनने से जंगल खो जाता है
मुझे मलंग होना था
मैंने संगीत चुना
रस ,गंध ,स्पर्श
सब अवतरित होने लगे
अनुभव उकस रहा है
देखना सनक है
लिखना सनद
ऊनी पट्टे सुंदर है
ऊन तो नीचे से आता है
बुनावट परंपरा से आती है
बिछुड़ना थोड़ा-थोड़ा मरना है
मैं बिछुड़ता चलता हूँ
ज्ञान अकारथ है?
मन दोरसा क्यों है
प्राचीर स्थावर नहीं जंगम हैं
मेरी आँखों से आँखों में टहलते हैं
बादल और किरणें
इस कैनवस पर ब्रश चलाते हैं
9)
भास्वर आकाश देखते हुए मुझे मरना है
बंद कोठरी जेल है
मैं बाहर आया
गर्भ के भीतर भी शायद
आकाश की ही तलाश थी
मैं आकाश की तरह
अशब्द पसरा हुआ हूँ
हवा लगातार बात करना चाहती है
मैं चुप रहना चाहता हूँ
मन बुद्धि अहंकार सब
मेरे भीतर के आकाश से बतियाना चाहते हैं
और फिर थक कर
निःशब्द होने लगते हैं
मुझे नींद आने लगती है
सतलुज के खाबों में स्पीति मिलती है
मेरे ख्याल में दोनों
मन में बयार है
हिमानी बयार घाटी को मन की तरह मथती हैं
मन की तरह
पहाड़ों के रास्ते त्रिभंग है
त्रिभंग से दोरसा
और फिर स्वरस हो जाना चाहता हूँ
स्पीति सतलुज हांगरंग में मिल रही है
हवा हिमानी हो रही है
जैसे विराग राग में विलय हो रहा हो
बाह्य हिमालय और अंतर हिमालय का फैलाव
अंतस और गेसू की तरह हैं
10)
कवियों ने जिसे सिरजा
जतन से पाला
उस चकोर से मिल आया
छोटा है बटेर से जरा बड़ा
उदास उदास सा है
किसी कवि की तरह
चौरा से समदू
जब किन्नौर को लांघ गया तो जाना
किन्नर एक हद तक भिन्न हैं
एक हद के बाद अभिन्न
और फिर न भिन्न न अभिन्न
बस किन्नर हैं किन्नरियाँ हैं
पुरानी नष्ट हो गई
नई मिली नहीं
इस शून्यता में खोज जारी है
और ललक जिंदा
कुछ है जो आज भी
कहीं फंसा अधर में फड़फड़ा रहा है
त्रेता युग से कलयुग के बीच
यथार्थ खुद मिथक बना रहा
योनियों में अपनी योनी ढूंढता रहा
जिसे तिब्बत और हिन्द के बीच
द्वलित होना पड़ा
जो आज भी हिंदी और भोटी के बीच
अपनी भाषा ढूंढ रहा है
11)
सात बार अग्नि से प्रलय होता है
फिर एक बार जल से
सात बार जल से
तो एक बार वायु से
प्रणय से प्रलय कितनी बार हुआ? जानना है
एक क्षण आता है
जब क्षण के निर्वाण जैसी
निःशब्दता आती है
अवाच्य है वह अनुभव
मौन अशब्द है उसकी भाषा
गोनपा के आकाश में
सिर्फ साधना का अनुभव है
अनुभव संचित करता हूँ
ताबो भारत का सीमांत है
इक्षा का सीमांत नहीं
मैंने उसे आहूत नहीं किया
वो अनाहूत आई
उसे भगाने रात्रि का प्रकाशक
अग्नि की शरण में गया
वो कहीं नहीं दिखे
न बाहर न भीतर
अपने को सहेजा
देवता,वायु,अग्नि,जल
कोई मेरे काम नहीं आने वाले
अब बस अंदर देखना है
मैं ताबो का दर्शन
अंतिम बार करता हूँ
मुझे फिर से आरम्भ तक लौट जाना है …..
यतीश11/2/2020
Wahhhh Kya khooob speeches..abhi padhkar turant comments Dena jaldbaji hogi..par us behad khoobsurat aur anuthe tarke se ki gai vivechna ke lite aapko sadhuwad..
वाह, बेहतरीन।
अद्भुत। कवि के साथ पाठक भी यात्रा पर निकल पड़ता है। हद से अनहद की यात्रा, बाहर से भीतर की यात्रा, प्रकृति और अध्यात्म को जोड़ने की यात्रा, शब्दों के पिघलने और भाप बनकर उड़ जाने की यात्रा कब शुरू हुई और कब खत्म हो गई, पता ही नहीं चला।