
कृष्ण बलदेव वैद को पढ़ा सबने समझा किसने? शायद उन्होंने भी नहीं जो उनको समझने का सबसे अधिक दावा करते रहे। मुझे लगता है सबसे अधिक उनको उस युवा पीढ़ी ने अपने क़रीब पाया जो उनके अस्सी पार होने के आसपास उनका पाठक बना। युवा लेखिका सुदीप्ति के इस लिखे को पढ़ते हुए यह बात और शिद्दत से समझ में आती है। अपनी स्मृतियों, उनकी कहानी, उनके उपन्यास के साथ उनकी डायरियों के अंशों के साथ लेखिका ने एक ऐसा कोलाज बनाया है कि वैद साहब को पढ़ने, उनको समझने के कई सूत्र दिखाई देते हैं। एक बेहद आत्मीय गद्य और वैद साहब के निधन के बाद मैंने जितना पढ़ा उसमें सबसे आत्मीय और सबसे भिन्न यह लिखत लगी। आप भी पढ़िए- मॉडरेटर
========================
मन! मन ही तो है, बेकल…
पता है, वे एक भरी-पूरी जिंदगी जीकर गए हैं। पर सदा के लिए चले गए हैं, अब यही बेचैनी का सबब है।
मन मूलतः स्वार्थी होता है। बार-बार कचोट उठ रही है कि हम उनसे आख़िरी दफ़े नहीं मिल पाए। मन अपना ही सुख देखता है, अपने ही अभावों में भटकता रहता है। किसी के जाने से जो जगह खाली पड़ती है, उस खालीपन में भटकता रहता है। भटकाव के ऐसे ही किसी क्षण में ‘शम’अ हर रंग में’ उठाती हूँ। इसके पहले पन्ने पर नाम के नीचे ब्रैकेट में लिखा है—डायरी। और ठीक उसके नीचे नारंगी रंग की स्याही से देवनागरी में लिखा है—‘सुदीप्ति को प्यार से—कृ ब वैद, 24-1-10’; वे वैद के ‘व’ को अक्सर कुछ यूँ लिखते कि पढ़ने में ‘ब’ का भ्रम होता है। पन्ने पलटती हूँ और समर्पण में लिखा है—‘यह भी चंपा के नाम’।
इस समर्पण को पढ़ मुझे ‘लीला’—नाम और इसी शीर्षक से लिखी गई वैद जी की कहानी—दोनों की याद आती है। ‘लीला’ नाम तो पहले से सुना हुआ था, पर कहानी के शीर्षक के रूप में पढ़ते हुए एक बार को ख़याल आया था कि मेरी कोई बेटी हुई तो उसका घर का, प्यार का नाम लीला रखूँगी। चिढ़ाते हुए कभी-कभी उसे लाली भी बुलाऊंगी। पर समर्पण वाक्य ‘चंपा के नाम’ पढ़ते हुए मुझे ‘लीला’ कहानी क्यों याद आ गई? शायद वह कठिन दाम्पत्य की कथा है इसलिए। जीवन और लेखन का पाठ एक ही नहीं होता, पर लेखक जब अपनी सहधर्मिणी को प्रेम से याद करता है तो मुझे उसकी किसी कहानी के विकट प्रेम की याद आती है। ‘लीला’ इसलिए भी कि वह पहली कहानी थी के.बी. की जो मैंने पढ़ी थी। यों तो उससे पहले उनका उपन्यास पढ़ा था–‘उसका बचपन’।
चंपा जी को लेकर उनका राग उनकी डायरियों में भी बिखरा हुआ है। प्रेम, स्पेस और क़द्र उनकी पंक्तियों में इस तरह गुत्थमगुथा हैं कि क्या कहें! चंपा जी नहीं हैं तो अकेलापन और उदासी, वे कहीं आसपास काम कर रहीं हैं तो सुकून; और अचानक मिल जाती हैं तो हैरान हुआ प्रेमी मन! कभी-कभी मैं सोचती हूँ, इतने लंबे साथ के बाद भी के.बी. ऐसे मुग्ध हो चंपा जी को कैसे देख लेते रहे भला? उन्हीं के शब्दों में पढ़ा जा सकता है—
“चंपा बिस्तर में पड़ी चमक रही है।
चंपा मेरी जान है। उसी ने मुझे संभाला। जब वह पास नहीं होती तो मैं बेबुनियाद हो जाता हूँ।
चंपा उदास तो है लेकिन आज ख़ूबसूरत भी बहुत नजर आई। प्यारी और अपनी और ख़ामोश। ख़ूबसूरती के लिए ख़ामोशी जरूरी।
आज शाम, चंपा को झूमते हुए देख खुश होता रहा। उसकी ख़ूबसूरती बला की है। मंसूर के गायन की ही तरह। मंसूर का गाना सुनते और चंपा को मस्त देखते-देखते मैं मन-ही-मन अपने मंत्र का जाप करता रहा। सिफ़र से शुरू करो, सिफ़र पर खत्म करो।”
चंपा जी को जब पहली बार देखा तो लगा, इनका यह नाम बिलकुल सही रखा है जिसने भी रखा है। कुछ साल पहले उनके जाने की ख़बर मिली तो सबसे पहले यही ख़याल आया, के.बी. के लिए जीवन अब असंभव होगा। वह जो अठावन साल की उम्र में यह सोच रहे थे कि बस दस साल और जीऊंगा और चंपा और बच्चे मेरे बाद रहेंगे, वे चंपा जी के जाने को कैसे झेल पाए होंगे!
वैद जी को पढ़ते हुए सोचने लगती हूँ कि जीवन में अहैतुक कितना मिलता है? अयाचित कितना पाते हैं हम? स्नेह का वह निर्झर जो अबाध हम पर झर जाए, एक जीवन में कितनी बार सम्भव होता है? और जब कभी हो जाए तो हमारी आत्मा में उसकी नमी हमेशा के लिए बनी रह जाती है।
मेरी पीढ़ी के लोगों के लिए कृष्ण बलदेव वैद एक बड़े साहित्यकार थे। बहुत बड़े साहित्यकार! 2010 में जयपुर साहित्य उत्सव के दौरान उनके साथ एक दोपहर बाजार जाने का अवसर मिला। सुदूर देश में रह रहीं अपनी बेटियों और नवासियों के लिए वे जयपुर से कुछ-कुछ तोहफ़े लेना चाहते थे। झुमकियों की एक दुकान में उनके लिए खरीदारी करते हुए अचानक मुझसे बोले, तुम भी लो। मैंने मना किया तो कहने लगे, ‘मेरे लिए तुम भी उनके जैसी ही तो हो.’ कहाँ तो मैं उनके क्यूटपने पर दिलो-जान निछावर किए हुए थी और कहाँ झटके में उन्होंने नवासियों की तरह बता दिया! मैंने मन में सोचा कि नहीं, ये उम्र की बात कर रहे हैं। बस इतना ही।
यह जो जयपुर की बात बता रही हूँ, उससे कुछ साल पहले उनके अस्सीवें जन्मदिन समारोह के दौरान हम कई दोस्त आईआईसी में परिचर्चा सुनने गए थे। जाने क्या हुआ कि हम सब उस परिचर्चा के बाद विशेष रूप से आयोजित रसरंजन और भोज में भी रुक गए। मुझे अजीब लग रहा था कि हम जिसके जन्मदिन में आए हैं उससे बिना मिले खाना खाकर लौट आएं। अपरिचय की झिझक के साथ कस्बाई संकोच में मेरे दूसरे मित्र वैद जी से मिलने जा नहीं रहे थे। जाने कहाँ से आत्मविश्वास जुटा मैं उन तक गई और ‘हैप्पी बर्थ डे’ बोल आई। उन्होंने अच्छे से हाथ मिला कर मुस्कराते हुए शुक्रिया कहा था, यह अच्छी तरह याद है। आज जब सोचती हूँ तो लगता है, जेएनयू जैसे संस्थान से एम.फिल. करने के दौरान भी हम सबमें यह आत्मविश्वास नहीं था कि उस दिन अपने परिचय के साथ ईमानदारी से मेजबान से मिलकर आएं, जबकि हम बिन-बुलाए मेहमान की तरह खाना खा आए।
तीनेक बरस बाद जनवरी की गुनगुनी धूप में जेएलएफ में लंच के वक़्त मैंने उस शाम के बारे में उनको बताया तो उन्होंने मजाकिया लहजे में कहा, “हाँ! मुझे एकदम याद है। मैंने सोचा था कि ये गेटक्रेशर कौन हैं जो मेरा बिल बढ़वाएँगे।” मैं झेंप-सी गई और उन्होंने तपाक से कहा, “अरे! तुम इसे गंभीरता से क्यों ले रही हो! स्टूडेंट्स ऐसे ही तो करते हैं। कार्यक्रम में आए तो फिर खाना खाकर ही जाएंगे न!”
सत्यानन्द को जेएलएफ़ के एक सत्र में उस बार उनसे और अशोक वाजपेयी जी से बातचीत करनी थी। उस दिन का सेशन उस लंच के ठीक बाद ही था। मैं खाना लेने में उनकी मदद कर रही थी, क्योंकि तब खानपान की व्यवस्था फ्रंट लॉन में ही रहती थी। भीड़-भाड़ का आलम तब भी था। अशोक वाजपेयी जी, जो कि वैद जी के साथ ही थे, ने चुटकी लेते हुए कहा कि हम भी बुजुर्ग हैं, हमारी भी मदद कर दीजिए। मगर मैंने उस बार की मुलाकात और वहाँ की भीड़ में वैद जी का अभिभावक बन जाना चुन लिया था। एक-दो दिन पूरे हक से “यहाँ बैठ जाइए” से लेकर “क्या अब वापस होटल जाना चाहेंगे” तक को तय किया। उसी दिन के अगले रोज उन्होंने पूछा था कि “क्या तुम मेरे साथ बाज़ार चलोगी? मैं अपनी नवासियों के लिए कुछ लेना चाहता हूँ।” मुझे अच्छा लगा था कि उन्होंने यह कहा नहीं, मान नहीं लिया कि मैं चलूंगी ही। उन्होंने पूछा, और पूछना ऐसा था कि जयपुर के बाज़ार को ज्यादा जाने बिना मैं उनके साथ गई। हमने बापू बाज़ार से कुछ डैंगलर्स और झुमके आदि खरीदे। बयासी साल के एक बुजुर्ग हिंदी लेखक को डैंगलर्स और झुमके के बीच का फ़र्क पता हो और वह यह भी बता सके कि उसकी किस नातिन को कैसी डिजाईन भा सकेगी तो मेरा हैरान होना स्वभाविक था। दरअसल मुझे कोई और डिजाईन भा रहा था तो उन्होंने स्पष्ट किया कि “… यह वाला पसंद करेगी जबकि दूसरी …को कोई भी एथनिक अच्छा लगेगा।” इसी क्रम में वे मेरे लिए भी खरीदने का इसरार करने लगे। अव्वल तो मेरे लिए यह नई अनुभूति थी कि हिंदी के इतने बड़े लेखक अपने आगे किसी और को भी इतनी तवज्जो दे पा रहे हैं और उसके लिए कुछ उपहार जैसा ले देना चाहते हैं, फिर मैं हतप्रभ और संकोच दोनों में थी। उन्होंने मेरे पसंद किए हुए एक सेट को मेरे लिए भी खरीद दिया। जाने कितनी जंक ज्वेलरी है मेरे पास, लेकिन वह सबसे ज्यादा संभाल कर रखती हूँ। उनमें यह शिष्टाचार संभवत: लंबे विदेश प्रवास के कारण आया या फिर इतनी आत्मीयता उनके स्वभाव में ही थी।
मैं हालाँकि उनसे इतनी प्रभावित हो चुकी थी कि नवासियों की तरह वाली बात झटके जैसी लगी। मैंने उनसे बाद कि किसी मुलाकात में कभी दबी जुबान में कहा होगा (दबी इसलिए कि आज जितनी मुंहफट और बिंदास नहीं थी तब) कि मुझे आपके दोस्तों का आपको के.बी. कहना पसंद हौ। क्या मैं भी बुला सकती हूँ? उन्होंने चुटकी लेने के अंदाज में कहा, “अगर तुम बीस साल पहले हुई होती तो मुझे ज्यादा ख़ुशी होती।”
2009 के नवम्बर में हमारे विवाह से पहले उन्होंने सत्यानन्द के हाथों विवाह के उपहारस्वरूप एक किताब भेजी थी–‘बदचलन बीवियों का द्वीप’। कोई इतना भी शरारती हो जो शादी का उपहार भेजे इस नाम की किताब, यह के.बी. ही हो सकते थे। हालाँकि कथासरित्सागर की री-रीडिंग करती इस किताब की कथाएं बड़ी रोचक और मेरे आस्वाद के अनुसार थीं पर सत्यानन्द और मैं–दोनों उनके इस विट पर हँसते रहे। जेएलएफ में भी सारी किताबें सत्यानंद की थीं पर उन्होंने ज्यादातर पर लिखा सिर्फ मुझे सम्बोधित करते हुए– ‘सुदीप्ति के लिए’–फिर अगली लाइन में ‘प्यार’ फिर अगली पंक्ति में अपना हस्ताक्षर…
अब वे अक्षर किन्हीं रत्नों से कम नहीं लगते क्योंकि साहित्य की दुनिया में रहने के कारण मिले-जुले तो हम कई लोगों से, पर ऐसा निश्छल और निर्द्वन्द्व स्नेह अरुण प्रकाश के अलावा न किसी और से महसूस हुआ था, न किसी और ने दिया था। उनके वसंत कुंज वाले घर पर जाना हो या आईआईसी में हुई उनसे आखिरी मुलाकात, हर बार लगता रहा, काश! उनके साथ थोडा और वक़्त मिल गया होता। वह जो बात कही जाती है न कि अपने प्रिय साहित्यकारों से नहीं मिलना चाहिए। उनका वह आब नहीं बचता मन में। लेकिन वैद जी से मिलने के बाद कोई दुराव नहीं हो सकता था। उनके व्यक्तित्व में ऐसा क्या खास रहा? उन्हीं के शब्दों में बताती हूँ, “मेरे बुढ़ियाते हुए शरीर में एक बच्चा बैठा रहता है–हर चीज को टुकुर-टुकुर देखता हुआ, उदास,यतीम, अकेला।” यह बच्चा जब तब अपनी खास विनोदप्रियता से आपको गुदगुदा सकता था और खुद ‘मैंने कुछ किया नहीं’ के भाव से खड़ा रह जाए।
मैं उनके गद्य की मुतमईन रही। कौन नहीं होगा हिंदी में भला? फिर भी ‘बिमल उर्फ़ जाएं तो जाएं कहाँ’ की भाषा, शिल्प और कथ्य डराते रहे। पर बाद के हिस्से में हिंदी भाषा और समाज के ऊपर क्या ही टिप्पणी है। यह बानगी देखिए-
“मेरी बात समझो साले।
समझाओ साले।
मैं कह रहा हूँ कि हम हिंदुस्तानी एक तरफ परंपरा और आधुनिकता के दो पाटों में घुन की तरह पिस रहे हैं, और दूसरी तरफ अपनी भीतरी विभक्ति से…।
बोलचाल की भाषा बोल साले।
यह हिंदी साहित्य सम्मेलन नहीं।
बोलचाल की भाषा साली में संजीदा बात हो नहीं सकती।
अगर जनता तक अपनी बात पहुंचाना चाहते हो तो…
जनता को मारो गोली मैं बात तुम लोगों से कर रहा हूँ।”
क्या आज भी यह बातें बदली हैं? संजीदा भाषा के बरक्स तो जनता की भाषा की समझ को जाने किन अंधी गलियों में भटका दिया गया है। परंपरा और आधुनिकता के पाट जो मिट जाने चाहिएं वे और मध्यकालीन होकर उभरे हैं। वैसे, के.बी. की डायरियों को पढ़ते हुए बिमल याद आता है। बिमल, जिसने कहा, “केशी कहा करता था, तुम उल्लू हो, अंधेरे के अनुयायी, अकेले, एलियननेटेड। केशी के कड़वे सत्य अभी तक मेरे भीतर खुदे हुए हैं जैसे प्रिमिटिव काल की खबरों में की गई कारीगरी।” क्या के.बी. अपनी डायरियों में अकेले और एलियननेटेड नज़र नहीं आते?
…
मुझे उनकी डायरियां पसंद हैं। उनके नाम भी ग़ज़ब के हैं–‘ख़वाब है दीवाने का’; ‘शम’अ हर रंग में’; ‘डुबोया मुझको होने ने’; ‘अब्र क्या चीज़ है? हवा क्या है?’–इनको पढ़ बार-बार अपने तक पहुंचा जा सकता है। अपने को लेकर लिखी गई उनकी कई बातें मुझे अपनी बातें लगती हैं। इन्हीं डायरियों में से कहीं-कहीं से चुनी हुई ये बातें कुछ ऐसी हैं–
“मैंने अपनी शख्सियत को ना कभी पूरी तरह सराहा है न रद्द किया है। मैं चाहता हूँ कि मैं इसकी शिकायत करता रहूँ , दूसरे इसे प्यार करें।
× × ×
अपनी नजर में मैं कभी अज़ीम नहीं हो सकूंगा, मेरी नजर बला की बेरहम है। दूसरों की नजर में मैं अज़ीम हो भी जाऊं तो मुझे असली तसल्ली नहीं मिलेगी। पागल तो हूँ लेकिन मैंने हमेशा अपने पागलपन को काबू में रखा है। यही मेरी ताकत है यही मेरी कमजोरी।”
“मुझमें एक संन्यासी छुपा बैठा है, जिसे संसार के किसी भी क्रिया में कोई अर्थ नजर नहीं आता, हर शै पर शक होता है, हर शौक बेमानी नजर आता है।”
“इस वक्त भर आया हुआ हूँ । कोई खास कारण नहीं। अचानक अपने-आप पर रहम सा गया। बाहर की खूबसूरत धूप हरियाली बचपन की यादें, विपन्नता के दिए हुए दर्द बीज, दूरियां, दोस्तों की बेवफ़ाइयाँ, तन्हाई…।
दोस्ती, प्यार, परिवार, नौकरी, सफर, मकान, दुनियादारी, चीजें, दिलचस्पियाँ, बातें, किताबें, कामयाबी–ये सब एक तरह से मेरे असली काम, मेरे एकमात्र हुनर के रास्ते में बिखरी पड़ी रुकावटें ही है।”
“हम सब अकेले हैं। हम सब बेसहारा हैं। हम सब बिलावजह हैं।”
कभी-कभी अचरज होता है कि कैसे अपने मन की बातें इतनी मिल जाती हैं किसी और की किसी बात से? शायद यह विचार-साम्य ही किसी को किसी के और करीब महसूस करवा देता है, जबकि हम दुनिया के दो छोर पर रह रहे जीवन के लम्बे काल-खंड में क्षणांश को मिले दो अजनबी भर हों। जो अपने जैसा होता है, शायद उसके शब्द ही गहरी चुम्बकीय आकर्षण शक्ति से आपको अपनी ओर ले जाते हैं।
सोचने और पढ़ने का क्रम ज़ारी रखते हुए मैं ठिठक जाती हूँ जब यह हिस्सा सामने आता है –“घर की याद! लेकिन मेरा घर है कहां? जब बेचैन हो अपने हौल को बहलाने के लिए इस बड़े से घर में तड़पना शुरु कर देता हूँ तो मुझे किस घर की याद सताती है? … … … …
मेरा घर है कहां?”
यह तो मेरा सवाल है–मेरा घर है कहाँ? क्यों मैं इतनी बेचैन रहती हूँ? घर जैसी कोई जगह लगती ही नहीं! ज़मीन और आसमान के बीच कहीं त्रिशंकु-सा क्यों लगता है? क्यों यह बात इतनी अपनी लगती है कि इसके बाद पढ़ना थोड़ा थम जाता है। मन में गुनने लगती हूँ। ख़याल आता है कि इस ईमानदारी से कह देने से निजी बात अपनी रह नहीं जाती।

नितांत निजी और ईमानदार क्षणों में जो शब्द उन्होंने अपने लिए लिखे और बाद में सबके पढ़ने के लिए प्रकाशित करा दिए, छवि-निर्माण और छवि-ध्वस्तीकरण के इस दौर में क्या अपनी निजता के बारे में उन्होंने सोचा होगा? उनकी डायरी से ही उत्तर मिलता है, “शोहरत एक ऐसा आईना है जिसमें लेखक को अपनी प्रतिभा अपनी अहमियत अपनी सूरत अपनी हैसियत अपने अजमत सब बड़ी नजर आते हैं। मेरे पास यह आईना नहीं, मुझे अपनी खुशकिस्मती पर खुश होना चाहिए। कभी-कभी हो भी जाता हूँ ।
मेहनत एक ऐसी खूबी है जो कई खामियों को छुपा लेती है। कभी-कभी मेहनत ही हुनर बन जाती है।
ख़ामोशी की तारीफ़ सब करते हैं लेकिन उसे तोड़ने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं देते।
सफलता के लिए बनावट जरूरी है।”
शायद बनावटी शोहरत की लालसा से वे दूर थे इसलिए उन्होंने बनाव-दुराव की कोशिश नहीं की होगी। या शायद वे अपने काम के तीक्ष्ण आलोचक और परफेक्शनिस्ट थे। इसलिए अपनी डायरियों में अनुच्छेदों के अंतराल से लेकर नुक्ते के इस्तेमाल तक सतर्क रहे। तो फिर लिखे हुए के कतर-ब्योंत से क्या ही रुके होंगे। बस वे अपने समय, समकालीनों और साहित्य के ऊपर टिप्पणी करने के साथ अपने मनोभावों को भी लिखने से बचते नहीं। उनके शब्दों में अपना महिमामंडन नहीं अपने प्रति एक निर्मम मार्मिकता दिखती है। डायरियों में सिर्फ साहित्य और अकेलापन नहीं है, मन की त्रासदी या उदासी भर नहीं है, समय और समाज भी है। मसलन ‘शम’अ हर रंग में’ में पंजाब की चिंता, चौरासी के माहौल की छाया और फिर से विभाजन हो जाने की आशंका साथ चलती है।
उस डायरी में अगर एक सतत चलने वाली बात ढूढेंगे तो वह है–“पंजाब जल रहा है। पंजाब में क्या चल रहा है।”
एक दिन की उनकी डायरी का अंश पढ़ मैं ठिठक गई– “आज दशहरा है। फ़ज़ूल फिल्मी गाने फ़ज़ा में उड़ रहे हैं।
शाम। अब फिर भुर रहा हूँ। शहर में धार्मिक कुहराम मचा हुआ है। भौंडी आवाज में भजन गाए जा रहे हैं। इस उल्लास के साये में भूख और अभाव और भय।”
आज भी यही होता है। दशहरा हो या सरस्वती पूजा या फिर गणपति–यही तो हो रहा है। भूख, अभाव और भय को उल्लास के, धार्मिकता के और आज तो साम्प्रदायिकता के साये में बढ़ाया जा रहा है।
…
खतोकिताबत की आदत उनको कितनी थी कि एक दफ़े उन्होंने खुद को ही ख़त लिख दिया–
“अपने नाम एक खत।
डीयर केबी,
और किसी को तो खत लिखने की ख्वाहिश अब होती नहीं, इसलिए सोचा क्यों ना तुम्हारी खबर ही ले ले जाए! कहो बेटा, कैसे हो? मैं जानता हूँ तुम ठीक हालत में नहीं, लेकिन वह तो तुम कभी भी नहीं होते।
× × ×
लेकिन इस ख़त को यहीं खत्म कर दूं तो बेहतर होगा। इस ख़त को तो शुरू ही नहीं करना चाहिए था। आखिर जो कुछ भी लिखा है, जो कुछ भी लिखता रहता हूँ, जो भी लिखूँगा वह सब एक ख़त ही तो था, होता है, होगा – तुम्हारे नाम!
तुम्हारा वैद-अवैद”
…
मुझे उनकी डायरी के वनलाइनर बड़े पसंद हैं। ऐसा लगता है अपने बहाने वे सबकी खबर ले रहे हैं–
“हर बेवकूफ़ इंसान का बेशतर वक्त बकवास में बर्बाद होता है। हर इंसान कमोबेश बेवकूफ़ होता है।”
“हर तृप्ति की अपनी एक तृष्णा होती है। किंतु हर तृष्णा की अपनी एक तृप्ति नहीं होती।”
लिखने की उनकी तृष्णा गज़ब की है। ‘आज नहीं लिख सके, आज का वक्त बेकार हुआ’ और ‘आज जो लिखा वह लंगड़ा लेखन हैं’ से लेकर ‘क्या लिखना चाहता हूँ कि किलसें भरी हुई हैं’ उनकी डायरियों में। यह लिखते हुए मुझे 1972 में ‘ख्वाब है दीवाने का’ में लिखे एक हिस्से की याद आती है–
“अब कुछ बुनियादी विपदाओं के बारे में लिखना चाहता हूँ– गुरबत (यानी भूख), सेक्स (यानी भूख), अकेलापन, बुढ़ापा, मौत। बाकी सब बकवास है। इन सब विपदाओं की तह में यह तलाश कि इनका मुकाबला कैसे और क्यों किया जाए? हां, एक और विपदा : वक्त! और एक और : याद!”
नहीं! यादों में नहीं डूबना। आज तक तो मुझे भी डुबोया मेरे होने ने ही है। कभी लगता है, मन ऐसा न होता तो क्या ही अच्छा होता! अपना होना ख़ुदा होना तो क्या ही होता, पर अवांछित अँधेरे में डूबना भी होता न। क्या ही करूँ फिर? अपने जैसे के.बी. की डायरियों से से क्या लेकर निकलूं अपने लिए? सोचकर उठाती हूँ- ‘डुबोया मुझको होने ने’, मिलता है यह–
“दिन का लिखा हुआ रात को पढ़ता हूँ तो शर्म नहीं आती यही गनीमत है। सीमाएं हैं, नजर आती हैं लेकिन खूबियां भी हैं। नुदरत तो है ही कोई माने या न माने।
मुझे अब अपने स्वभाव को, अपने काम के स्वभाव को बदलने की कोई कोशिश नहीं करनी चाहिए। जो आता है है, जो होता है, हो कोई सायास परिवर्तन, अब इस इंतहा पर नहीं मुझे अपनी कमजोरियों पर कायम रहना चाहिए कमजोर तरीके से ही।”
अपनी कमजोरियों पर कायम रहना चाहिए। समंदर की चाह वाली स्त्री को डूबने से क्या डर? एक बार और मिलने की अधूरी आस में मन डूबता ही जा रहा है। इस वसंत को शरद से मानो गहरा प्रेम हो गया है इसीलिए उसे जाने नहीं दे रहा। ठीक उसी तरह इस कसक का मेरी इच्छाओं में वास हो गया है। ठहरी रहेगी भीतर अब सदा। उनके स्नेह से मुक्ति भी कौन चाहता है भला?
एक सांस में पढ़ गई। सांस अभी भी रुकी हुई है। इतनी आत्मीयता से, इतनी शिद्दत से याद किया है सुदीप्ति ने कृष्ण बलदेव वैद को। इसे श्रद्धांजलि कहूँ, संस्मरण कहूँ या सृजन का नायाब नमूना ! बधाई लेखिका सुदीप्ति, माडरेटर प्रभात रंजन तथा जानकीपुल!