Home / Featured / जेंडर डिस्कोर्स में अंततः पुरुष ही हीरो बनता है

जेंडर डिस्कोर्स में अंततः पुरुष ही हीरो बनता है

अनुभव सिन्हा की फ़िल्म ‘थप्पड़’ पर यह सुविचारित टिप्पणी लिखी है युवा लेखक-पत्रकार फ़िरोज़ खान ने-

===================

हिंदी में हम जिस तरह का सिनेमा देखते रहे हैं, उसमें सांप्रदायिकता पर भी बात हुई है, जाति पर भी और जेंडर पर भी। सांप्रदायिकता और जाति पर काफी फिल्में हैं। कुछ बहुत अच्छी और सार्थक फिल्में भी हैं, लेकिन जेंडर पर ज्यादातर फैशनेबल फिल्में ही हैं। अनुभव सिन्हा की ‘थप्पड़’ देखी तो एक बार तो यकीन ही नहीं हुआ कि हिंदी में जेंडर पर कोई इस तरह बात भी कर सकता है। थप्पड़ पर बात करें, उससे पहले इसके फिल्मकार पर थोड़ी सी बात कर ली जाए।
ऐसा जान पड़ता है जैसे अनुभव सिन्हा ने मुक्तिबोध से पाॅलिटिकल सर्जरी करवा ली हो। उनकी पिछली तीन फिल्में देखने के बाद अब उनसे यह पूछने की जरूरत महसूस नहीं होती कि ‘पार्टनर तुम्हारी पाॅलिटिक्स क्या है।’ मोदी 1.0 से पहले का उनका सिनेमा पारंपरिक और ठीक-ठाक कहा जा सकता है। इस बात को यों भी कह सकते हैं कि उनकी पिछली तीन फिल्में देखें तो यह यकीन करना मुश्किल है कि 2018 से पहले का उनका सिनेमा उन्हीं ने बनाया है। लंबे-लंबे वक्फे के बाद ‘सामान्य’ लेकिन ‘हिट’ फिल्में देने वाला कोई डायरेक्टर तीन लगातार सालों में तीन पाॅलिटिकल और देश-दुनिया को एक नजरिया देने वाला सिनेमा बना दे तो ऐसे डायरेक्टर की जेहनी खुराफात को समाज शास्त्रियों की लैब में रखकर देखा जाना चाहिए। हिंदुस्तान ही नहीं, दुनिया के लिए जब सांप्रदायिक तौर पर मुश्किल वक्त है, तब अनुभव सिन्हा ‘मुल्क’ बनाकर सांप्रदायिकता पर गहरी चोट करते हैं। मजे की बात यह है कि अनुभव सिन्हा कोई सोशलिस्ट या कम्युनिष्ट होने का दावा नहीं करते। ‘मुल्क’ के बाद उन पर जब मुस्लिमपरस्त होने के आरोप लगते हैं तब वे राम नाम का पीत और भगवा गमछा गले में डालकर लोगों को बता रहे होते हैं कि वे हिंदू हैं, हालांकि उनका हिंदू आरएसएस के हिंदू से कतई अलग गांधी वाला हिंदू है। और इसी दौरान वे हिंदुस्तान के कास्ट डिस्कोर्स को सामने लाने वाला सिनेमा ‘आर्टिकल 15’ बनाते हैं। हालांकि यह फिल्म इसके सह लेखक गौरव सोलंकी के लिए भी याद की जानी चाहिए। जाति को लेकर आजादी से पहले से सिनेमा बनता आ रहा है। फ्रेंज आॅस्टन की अछूत कन्या, चेतन आनंद की नीचा नगर (हालांकि इसमें कास्ट से ज्यादा क्लास डिस्कोर्स है), विमल राॅय की सुजाता, गौतम घोष की पार, गिरीश कर्नाड और बी.वी कारंत की गोधूलि, अरुण कौल की दीक्षा, जेपी दत्ता की गुलामी, शेखर कपूर की वैंडिट क्वीन और केतन मेहता की मांझी जाति पर बात करने वाली बहुत सार्थक फिल्में हैं, लेकिन आर्टिकल 15 जाति डिस्कोर्स को सामने रखने वाली एक मुकम्मल फिल्म है, जो सीधे-सीधे जाति पर और जाति की पाॅलिटिक्स पर बात करती है।
अनुभव सिन्हा की तीसरी फिल्म ‘थप्पड़’ है। ‘थप्पड़’ जेंडर सेंसिटिविटी को लेकर एक ऐसी फिल्म है, जिसके बराबर में कम से कम मेरे ख्याल में हिंदी सिनेमा की कोई फिल्म नहीं ठहरती है। हालांकि जब मैं यह बात कह रहा हूं तो मेरे जेहन मे सिर्फ वह विमर्श है, जो हिंदी सिनेमा में इतनी संवेदनशीलता और जिम्मेदारी के साथ नहीं आया। फिल्म थोड़ी स्लो है और उस तरह बांधकर नहीं रखती, जो अच्छे सिनेमा की शर्त है। लेकिन अनुभव सिन्हा जो बात कहते हैं, उसे देखते हुए ये तमाम चीजें नजरअंदाज की जा सकती हैं। अनुभव सिन्हा के साथ यह फिल्म मृणमयी लागू ने लिखी है। गौर करने वाली बात यह है कि इस फिल्म का समाज कोई अलग से गढ़ा हुआ समाज नहीं है। यह फिल्म अपने मेसेज में एक यूटोपिया है, लेकिन इसके किरदार यूटोपिया नहीं हैं। वे इसी समाज से आते हैं। ये किरदार उतने ही धार्मिक और रूढ़िवादी हैं, जितना कि हिंदुस्तानी समाज है। धर्म को साथ लेकर लैंगिक समानता पर बात करना मेरे लिए थोड़ा मुश्किल जान पड़ता है, लेकिन अनुभव सिन्हा इस मुश्किल को उस एक चीज से आसान बनाते हैं, जिसे ‘सभ्य समाज’ में बुरा जरूर माना जाता है, लेकिन जिसपर या तो बहुत आपत्ति नहीं की जाती या जिसे जस्टिफाई किया जाता रहा है। …और वह है किसी औरत को थप्पड़ मारना। यह बात जैसे यहां लिख दी गई, वैसे ही महसूस नहीं की जा सकती। मुझे नहीं पता कि इस बात को किस तरह कहा जा सकता है कि थप्पड़ सिर्फ मर्द के गुस्से की एक प्रतिक्रिया न लगे, बल्कि वह किसी इंसान की रूह पर हमला महसूस हो। इस फिल्म को देखने के बाद मुझे पहली बार लगा कि स्त्री का पुरुष को मारना उस तरह नहीं होता, जिस तरह पुरुष का स्त्री को मारना होता है। याद करिए इस फिल्म के आखिरी हिस्से का वह सीन, जिसमें फिल्म की मुख्य पात्र अमृता उर्फ अम्मू (तापसी पन्नू) की हाउस हेल्पर सुनीता (गीतिका विद्या) अपने पति करतार (संदीप यादव) को थप्पड़ मारती है। यह फिल्म परोक्ष रूप क्लास की बात भी करती है। निम्न वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग का पुरुष इस बात की ज्यादा चिंता नहीं करता कि समाज उसके बारे में क्या कहेगा या कि यह भी कि उस समाज के ज्याादतर पुरुषों की वैसी ही बनावट है, जो करतार सिंह की है। करतार की पत्नी सुनीता घरों में काम करती है और जब वह घर पहुंचती है तो करतार अपने मर्द और मर्दानगी के साथ घर में मौजूद होता है और बात-बात पर सुनीता पर हाथ उठाने को गलत नहीं मानता। वह सुनीता को घर से भगा देने की धमकियां देता है। सुनीता भी यही मानती आई है कि पुरुष ऐसे ही होते हैं। एक बार वह अपनी ‘मालकिन’ अमृता से कहती है कि अगर सच में उसने किसी दिन उसे घर से बाहर निकाल दिया और अंदर से कुंडी लगा ली तो वह कहां जावेगी। लेकिन सुनीता जब देखती है कि अमृता इसलिए तलाक ले रही है कि उसके पति विक्रम (पवैल गुलाटी) ने उसे एक थप्पड़ मार दिया, तो सुनीता को पहली बार अहसास होता है कि थप्पड़ उसके चेहरे पर नहीं लगते, उसकी आत्मा पर लगते हैं। तब वह डरती नहीं है और करतार के थप्पड़ के जवाब में वह करतार को कई थप्पड़ मारती है। उस वक्त में करतार अवाक रह जाता है। बेरोजगार और शराबी होने के बावजूद उसे मर्द होने का प्रिविलेज है और वह सोच ही नहीं सकता था कि उसे थप्पड़ मारा जा सकता है। यहां यह महसूस होता है कि स्त्री जब थप्पड़ मारती है तो वह पुरुष के जिस्म पर लगते हैं या कि उसकी मर्दानगी पर। वहीं, पुरुष का स्त्री को मारना एक आदिम प्रेक्टिस है, कंडीशनिंग है और ऐसा करते हुए मर्द थोड़ा और मर्द हो जाता है और इसे सामान्य मानता है। अगर वह आधुनिक कहे जाने वाले सभ्य समाज का हिस्सा है तब सबके सामने नहीं मारेगा या सबके सामने मारे जाने को गलत कहेगा। कमरों में वह सभ्य मर्द थोड़ा अधिक मर्द हो जाता है।
हाउस वाइफ होना एक नाॅनपेड नौकरी है। 24 घंटे की नौकरी और तनख्वाह एक पैसा नहीं। लैंगिक असमानता की जो वजहें हैं, उनमें से यह सबसे बड़ी वजह है। अनुभव सिन्हा ने इस फिल्म में इस बात को बहुत अच्छे तरीके से दिखाया है कि जो पुरुष घर के काम करते हैं, खासतौर से किचन के काम करते हैं, वे ज्यादा बेहतर इंसान होते हैं और स्त्री-पुरुष विभेद को नहीं मानते। याद कीजिए इस फिल्म के सबसे मजबूत और बेहद प्यारे किरदार अमृता के पिता सचिन (कुमुद मिश्रा) को। फिल्म में वे इकलौते पुरुष हैं जो किचन में काम करते हैं। विक्रम जब अमृता को थप्पड़ मार देता है और अमृता की सास, मां, भाई और यहां तक कि विक्रम भी जब इस बात को भूल जाने और आगे बढ़ने की बात करते हैं, तब सिर्फ सचिन ही होते हैं जो इस मसले में कुछ नहीं बोलते और सबकुछ अमृता के ऊपर छोड़ देते हैं। विक्रम के थप्पड़ मारे जाने के बाद अमृता का उसी घर में कुछ दिन बने रहने के समय भी, पिता सचिन के घर आने के समय भी और अमृता के तलाक के फैसले के समय भी सिर्फ सचिन ही थे, जो हर वक्त अमृता के फैसलों का सम्मान करते हैं और एक दोस्त की तरह उसके साथ बने ँरहते हैं। फिल्म में कुमुद मिश्रा के कई ऐसे सीन हैं, जब बुक्का फाड़कर रोने को जी करता है। जेंडर सेंसिटिविटी की बात करें तो हिंदी सिनेमा में फिलहाल मुझे सिर्फ दो पिता याद आ रहे हैं। एक थप्पड़ के सचिन और दूसरे अश्विनी अय्यर तिवारी की फिल्म ‘बरेली की बरफी’ के नरोत्तम मिश्रा (पंकज त्रिपाठी)। सिनेमा में बेहतरीन पिताओं पर अलग से बात की जानी चाहिए। और जब यह बात होगी तो यकीन कीजिए कि ऐसे पिताओं में आपको आधी स्त्री मिलेगी।
इस फिल्म की कहानी की बात करें तो हिंदुस्तानी की तमाम स्त्रियों की तरह एक हाउस वाइफ है अमृता उर्फ अम्मू। खूब पढ़ी-लिखी। धार्मिक। पति की सेवा करने वाली। खूब प्यार करने वाली। मशीन की तरह सुबह निश्चित समय पर उठने, निश्चित समय पर चाय बनाने और किचन के तमाम काम के साथ सास की खुशामद करने वाली। रात में ‘अच्छी पत्नियों’ की तरह पति का साथ देने वाली। कुछ मिलाकर पत्नी को लेकर जो भारतीय समाज में सोच है कि वह सुंदर, सुशील और गृह कार्य में दक्ष हो। तो वैसी ही है अम्मू। अम्मू की सास और मां भी ऐसी ही हैं। उसकी हाउस हेल्पर भी ऐसी ही है। उसके आसपास जो भी स्त्री है, वह ऐसी ही है। यानी जो कंडीशनिंग है, वह यही कि स्त्रियों को तो झेलना ही पड़ता है या थोड़ा-बहुत चलता है, मूव आॅन करना चाहिए। अनुभव सिन्हा की खास बात यह है कि वे अम्मू जैसी स्त्री के मार्फत स्त्रीवाद की वह लड़ाई लड़ते हैं, जिसे हमारी प्रगतिशील सोसायटी में भी सामान्य माना जाता है। अम्मू का कोई ख्वाब नहीं है। बस यही कि पति विक्रम की कंपनी उसे बाॅस बनाकर इंग्लैंड भेज दे तो वह भी इंग्लैंड में रहे। इंग्लैंड जाना निश्चित हो जाता है और विक्रम सहकर्मियों को और अपने इमीडियेट बाॅस को पार्टी देता है। पार्टी के दौरान ही पता चलता है कि इंग्लैंड में विक्रम का बाॅस कोई गोरा होगा। विक्रम को पता लगता है कि उसका इमीडिएट बाॅस जो पार्टी में है, उसी ने उसके बाॅस बनने पर भाँजी मार दी है। इस पर पार्टी में ही वह बाॅस पर नाराज होता है, लड़ता है। दोस्त आकर समझाते हैं। वह किसी की नहीं सुनता। अमृता आकर उसका हाथ पकड़ती है तो वह अमृता को थप्पड़ मार देता है। हमारी फिल्मों में, हमारे साहित्य के बड़े हिस्से में, हमारे समाज में थप्पड़ मारे जाने को बुरा तो माना जाता है, लेकिन इतना बुरा नहीं माना जाता कि कोई स्त्री तलाक ले ले।
दरअसल इस थप्पड़ के बाद अम्मू को बहुत सारी चीजें बहुत साफ-साफ दिखने लग जाती हैं। वह समझ पाती है कि थप्पड़ उसे शायद इसलिए मारा जाता है कि ऐसा करने पर विक्रम का कुछ भी दांव पर नहीं लगा होता। जिस बाॅस से वह लड़ता है, उसे वह नशे में भी, बहुत गुस्से में भी थप्पड़ नहीं मारता, क्योंकि ऐसा करने पर उसकी नौकरी चली जाती। स्त्री को थप्पड़ मारने की कोई कीमत नहीं चुकानी होती, अब तक की एक सोशल समझ तो यही है। इस थप्पड़ के बाद अम्मू सिर्फ सोचती है, कोई बवाल खड़ा नहीं करती। वह सोचती है और सबसे पहले उसके मन से विक्रम के लिए प्रेम खत्म हो जाता है और एक बार वह कह देती है कि अब वह उसे प्रेम नहीं करती। उसे अगर फिर से प्रेम हो गया तो लौट आएगी। यह फिल्म हर मोर्चे पर सवाल उठाती है। स्त्री अधिकारों को लेकर तमाम कानून बने, लेकिन कई अपने बर्ताव में पुरुषवादी जान पड़ते हैं। अम्मू की वकील उससे पूछती है कि वह क्यों तलाक लेना चाहती है। क्या उसके पति का किसी महिला के साथ या अम्मू का किसी पुरुष के साथ अफेयर है। एडल्टरी का कानून 497 खत्म होने के बाद भी तलाक का आधार अब तक आमतौर पर यही है कि स्त्री या पुरुष का किसी के साथ अफेयर है तो तलाक लिया जा सकता है, जबकि यह कानून जेंडर डिस्कोर्स में बहुत माने रखता है। यह किसी भी स्त्री या पुरुष को उसके शरीर और उसकी कामनाओं पर पूरा अधिकार देता है।
मैंने तमाम लड़कियों को, उनको भी जो कविताएं लिखती हैं, यह कहते सुना कि किसी को थप्पड़ नहीं मारा जाना चाहिए, लेकिन यह फिल्म इसलिए समझ नहीं आती कि सिर्फ थप्पड़ मारे जाने पर कोई तलाक कैसे ले सकता है, जबकि पहली बार थप्पड़ मारा गया है। एक तरह से कहा जा सकता है कि हां, अम्मू का साथी आदतन हिंसक पुरुष नहीं है और वह कभी हाथ नहीं उठाता। लेकिन फिल्म एक सवाल छोड़ती है कि आखिर थप्पड़ क्यों मारा गया है। ऐसा हुआ क्यों। और कोई चीज होती है तो उसका पश्चाताप भी होता है। विक्रम अगर एक बार भी अम्मू को साॅरी बोलता, तो शायद वह तलाक न लेती। फिल्म में इस बात को अम्मू के भाई करन और उसकी भाभी स्वाति के जरिए एस्टेब्लिश किया गया है। अम्मू के तलाक लेने केे फैसले का करन जब विरोध करता है, तब कहासुनी के बीच वह स्वाति को थप्पड़ मारने के लिए हाथ उठा लेता है। इस मौके पर करन के पिता सचिन उससे कहते हैं कि या तो माफी मांगिए या घर से निकल जाइए। वह वहां माफी मांग लेता है, लेकिन स्वाति जानती है कि वह माफी नहीं है। आखिर में एक सीन है, जहां स्वाति शहर से बाहर जा रही होती है। करन उसे बाइक से बस स्टाॅप छोड़ने जाता है। वह अपने रिश्ते में उस हादसे के बाद से ही गर्माहट महसूस नहीं करता। करन को गलती का अहसास होता है। उसकी आंखें नम हैं। सुबह के झुटपुटे में एक चैराहे के पास वह गाड़ी रोककर स्वाति से कहता है कि मैं तुम्हारे लायक नहीं हूं। तुम मुझसे बेहतर इंसान डिजर्व करती हो। तुम किसी और को चुन लो। करन का यह कहना सबकुछ बचा लेता है। स्वाति की आंखें छलक पड़ती हैं। वह कहती है कि इस बार मैंने सोच लिया था कि लौटकर नहीं आऊंगी, लेकिन अब मैं तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं जा रही। दर्शक एक चीज में उलझ सकता है कि एक बहुत पारंपरिक लड़की ‘सिर्फ’ एक थप्पड़ की वजह से तलाक ले लेती है। तो इसके पीछे जो वजह है, वह इस फिल्म की ताकत भी है और कमजोरी भी। वजह यह है कि जिस घर में उसकी परवरिश हुई है, उस घर में एक बेहर प्यारा इंसान उसका पिता है, जिसमें जेंडर का भेदभाव छू भी नहीं गया। और यह कमजोरी इसलिए जान पड़ती है कि जेंडर डिस्कोर्स में अंततः पुरुष ही हीरो बनता है।

 

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

शिरीष खरे की किताब ‘नदी सिंदूरी’ की समीक्षा

शिरीष खरे के कहानी संग्रह ‘नदी सिंदूरी’ की कहानियाँ जैसे इस बात की याद दिलाती …

7 comments

  1. Thanks for the sensible critique. Me & my neighbor were just preparing to do a little research on this. We got a grab a book from our area library but I think I learned more from this post. I’m very glad to see such great info being shared freely out there.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *