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हिन्दी रंगपरिदृश्य और नाट्यालेखन:हृषीकेश सुलभ

हृषीकेश सुलभ को कथाकार-उपन्यासकार के अलावा हम सब नाटककार और रंगकर्म विशेषज्ञ के रूप में दशकों से जानते रहे हैं। अभी हाल में ही उनका उपन्यास ‘अग्निलीक’ राजकमल से आया है, जिसकी बहुत चर्चा है। फ़िलहाल इस लेख में उन्होंने रंगमंच की दुनिया में नाट्यालेखन को लेकर कुछ गम्भीर बिंदुओं पर चर्चा की है। आप भी पढ़ सकते हैं-

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हिन्दी साहित्य और रंगमंच की दुनिया में नाट्यालेखन गम्भीर विमर्श की बाट जोह रहा है। साहित्य की दुनिया ने इसे रंगमंच के खाते में डालकर मुक्ति पा ली है और रंगमंच की दुनिया आरोपों-प्रत्यारोपों में उलझी हुई है। नाटक हमारी साहित्य-परम्परा की आरम्भिक विधा रही है। नाटक को कविता का एक प्रकार यानी दृश्यकाव्य माना जाता है। पर आज यह दृश्यकाव्य हिन्दी साहित्य के हाशिए पर भी स्थान पाने को तरस रहा है। हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रस्थान बिन्दु पर खड़े भारतेन्दु के नाटकों को उनकी कविताओं के समकक्ष सम्मान मिला। यहाँ तक कि कई बार यह फ़र्क़ करना मुश्‍कि‍ल हो जाता है कि उनका रंगकर्मी-व्यक्तित्व बड़ा है या कवि-व्यक्तित्व। भारतेन्दु काल में कई रचनाकारों ने इस विधा को अपनी मूल विधा के रूप में स्वीकार किया और अपनी रचनाशीलता से नाट्यसाहित्य और रंगमंच को समृद्ध किया। इसके बाद के दौर में प्रसाद की नाट्यप्रतिभा को उनकी काव्यप्रतिभा के विस्फोट का ही एक रूप माना गया। उनके नाटकों को साहित्य में श्रेष्ठ स्थान मिला। हमारा रंगमंच भले ही इन नाटकों को पूरी तरह स्वीकार नहीं कर सका, पर साहित्य ने इन्हें स्थायी महत्त्व दिया। आज भी साहित्य और रंगमंच की दुनिया में इन नाटकों को लेकर समय-समय पर अंतर्द्वन्‍द्व उजागर होते रहते हैं। हालाँकि अब बहुत सारा भ्रम छँट चुका है। कई लोग यह स्वीकार करने लगे हैं कि अपनी रंगपरम्परा से मुँह मोड़कर पश्चिम की नैचुरलिस्टिक प्रदर्शन-परम्परा का पिछलगुआ बनने के कारण ही हिन्दी रंगमंच प्रसाद के नाटकों से दूर भागता रहा। हमारी रंगप्रयोगशाला ही इस योग्य नहीं थी कि हम प्रसाद के नाटकों का परीक्षण कर सकें। अगर हिन्दी रंगमंच भारतेन्दु के ‘समग्र रंगमंच’ की परिकल्पना की राह पर चलता, तो शायद प्रसाद का हम अपने समय के लिए सार्थक पुनराविष्कार कर पाते। आज़ादी के बाद जिन नाटककारों ने नाट्यसाहित्य और हिन्दी रंगमंच को समृद्ध किया उनमें मोहन राकेश को व्यापक प्रसिद्धि और स्वीकृति मिली। हालाँकि, उनके नाट्यालेखन को साहित्य की आलोचना ने पर्याप्त स्थान नहीं दिया। आज भी उनके समकालीनों में कुछ यह कहते हुए पाए जाते है कि ”वह नाटक की ओर भाग गया।‘’ यह ‘भाग जाना’ एक चलताऊ टिप्पणी हैं, जो क्रूर क़िस्म की उपेक्षा को प्रकट करती है। आज़ादी के बाद जिन हिन्दी नाटककारों ने साहित्य और रंगमंच की दुनिया को अपनी विविधवर्णी रचनात्मकता से समृद्ध किया उनमें जगदीश चन्द्र माथुर, लक्ष्मीनारायण लाल, सुरेन्द्र वर्मा, शंकर शेष, भीष्म साहनी, मुद्राराक्षस आदि के नाटक आज भी हिन्दी साहित्य की आलोचना के परिदृश्य पर अनुपस्थित हैं। धीरे-धीरे साहित्य लेखन की दुनिया से नाटककार अदृश्य होते गए। पर क्या साहित्य की आलोचना में इतनी शक्ति होती है कि उसकी उपेक्षा से रचनात्मकता का नैसर्गिक उत्स ही सूख जाए? शायद नहीं। फिर कारण क्या है कि आज नाटकों की कमी का रोना बंद नहीं हो रहा है? हर रंगकर्मी नया नाटक करना चाहता है, फिर भी हिन्दी के लेखक नाटयालेखन के लिए उत्सुक क्यों नहीं होते?

     उपन्यास, कविता या कहानी की तरह लिखे जाने मात्र से नाटक की यात्रा पूरी नहीं होती। नाटक को केवल साहित्यिक मूल्यों की कसौटी पर नहीं परखा जा सकता। उसके रंग मूल्यों का भी उसके महत्त्व और उसकी सफलता में बराबर का योगदान होता है। इन रंग मूल्यों को अर्जित करने के लिए यह आवश्यक नहीं कि नाटककार रंगकर्मी हो। इस विधा की शिल्पगत माँग के प्रति उत्सुकता और सतर्क दृष्टि से सधाव पाया जा सकता है। ठीक इसी तरह केवल रंग मूल्यों के आधार पर नाटक की रचना नहीं हो सकती। जीवन की संवेदनाओं की गहनता और मानवीय प्रवृत्तियों-अंतद्र्वन्द्वों और जगत के लिए नवीन विचारों के बिना नाटक की रचना सम्भव नहीं। इसे नाटक बिना साहित्यिक मूल्यों के अर्जित नहीं कर सकता। केवल रंग-मूल्य नाट्य प्रदर्शन को तात्कालिक रूप से सफल और दर्शकों को कुछ देर के लिए चमत्कृत करनेवाला ही बना सकते हैं। ऐसे नाटक दीर्घजीवी नहीं होते। वे जीवन और समाज के सरोकारों से कटे होते हैं और दर्शकों की स्मृतियों का हिस्सा नहीं बन पाते। ‘’आला अफ़सर’’ मुद्रराक्षस का चर्चित और सफल नाटक है, पर इसके संदर्भ में बेबाकी से प्रकट की गई उनकी टिप्पणी रेखांकित करने योग्य है। मुद्राराक्षस लिखते हैं – ‘’आला अफ़सर सफल नाटक है जिसमें मैंने साहित्यिक रचनात्मकता के दस फीसदी का उपयोग किया है, बाक़ी चालू माल है, ठेठ फिकरेबाजी है या फिर चुटकुलेबाजी। इसमें स्थायी मूल्य का कुछ नहीं है, नाट्य-विधा को आगे ले जानेवाला भी कुछ नहीं है। फिर भी आला अफसर एक सफल नाटक है और यही सबसे बड़ा ख़तरा है।‘’ अपने ही नाटक पर की गई मुद्राराक्षस की यह टिप्पणी कुछ ऐसे तथ्यों की ओर संकेत करती है, जिनकी आज हिन्दी रंगमंच उपेक्षा कर रहा है। यह सच है कि तात्कालिक सफलता के सूत्र किसी भी विधा को ‘गहरे भावबोध और गहन रचनात्मकता’ से विमुख कर देते हैं। मुद्राराक्षस इस नाटक को ‘अपना दुर्भाग्य’ मानते हैं। यह दुर्भाग्य आज हिन्दी रंगमंच की नियति बन चुका है। यही कारण है कि आज हिन्दी रंगमंच बौद्धिक आवेगों, सामाजिक परिवर्तनों की आहट और दर्शकों से कटा हुआ है। आज बड़ी संख्या में ऐसे नाटकों के प्रदर्शन आलेख उपलब्ध हैं, जो आरम्भिक प्रदर्शनों में सफल माने गए, पर जिनके पुनर्प्रदर्शनों को दर्शकों ने नकार दिया या अन्य किसी रंगकर्मी ने मंचन के लिए चुना ही नहीं। देवेन्द्र राज अंकुर इन प्रदर्शन आलेखों के सम्बन्ध में टिप्पणी करते हैं – ‘’………यह सभी आलेख निर्देशक ने अपनी प्रस्तुति को सामने रखकर लिखे थे, इसलिए किसी दूसरे निर्देशक की इनमें कोई दिलचस्पी नहीं रह जाती। एक नाटककार का आलेख किसी निर्देशक के लिए अपने अभिनेताओं के साथ उसे पुनर्व्याख्यायित करने की जो सम्भावनाएँ प्रदान करता है वह इन आलेखों में बिल्कुल भी नहीं मिलती। एक तरह से ये आलेख मात्र प्रस्तुतिपरक और काफ़ी हद तक एकायामी होकर रह जाते हैं।‘’ हालाँकि, इस टिप्पणी से पहले वे निर्देशकों द्वारा प्रदर्शन आलेख तैयार करने को ‘उनकी अपार रचनात्मक क्षमताओं का परिचायक’ मानते हुए उदाहरण के तौर पर रतन थियम के चक्रव्यूह के अलावा मोहन महर्षि के आइंस्टाइन, राजा की रसोई, दीवार में एक खिड़की रहती थी और साँप सीढ़ी;  अरुण मुकर्जी के जगन्नाथ, भानुभारती के चन्द्रमा सिंह उर्फ़ चमकू, एक किसान की कहानी, कथा कही एक जले पेड़ ने आदि नाटकों की चर्चा करते हैं। इनमें से चक्रव्यूह और जगन्नाथ को ही प्रस्तुति के स्तर पर सफलता मिली। एक बड़े दर्शक वर्ग ने इन्हें देखा और आज भी इनके प्रति उत्सुकता बनी हुई है। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि ये दोनों नाटक हिन्दी के नहीं हैं। शेष सभी नाटक प्रदर्शन की दृष्टि से सफल नहीं रहे। इनमें से कुछ को सरलीकृत और कुछ को निर्देशक की बौद्धिक जुगाली मानकर दर्शकों ने नकार दिया। हाँ, चरनदासचोर को ज़रूर इसका अपवाद माना जाएगा।

     कविता, कहानी और उपन्यास आदि में रचे जाने के बाद शब्द अपना स्थान और महत्त्व प्राप्त कर लेते हैं, पर नाटक में ऐसा नहीं होता। रचे जाने के बाद शब्द एक नई यात्रा पर निकलते हैं, रंगयात्रा पर। यह यात्रा उन्हें उस स्थान और महत्त्व तक ले जाती है, जिसके वे अधिकारी होते हैं। नाट्यकर्म एक ऐसा सृजन है जिसे हर प्रदर्शन के साथ जन्म लेना और मरना होता है; अतः नाट्यालेख को हर बार पूर्णता हासिल करने के लिए रंगप्रदर्शन के साथ इस यात्रा पर निकलना पड़ता है। इस लम्बी प्रक्रिया ने कई प्रकार की जटिलताओं को जन्म दिया है और इसी क्रम में हिन्दी रंगसंसार में नाटककार और निर्देशक के सम्बन्ध जटिल होते गए हैं। इसका प्रभाव नाट्यलेखन और रंगकर्म दोनों पर पड़ा है। रंगकर्मी नाट्यालेखों में छिपे उपपाठों को आविष्कृत करने के बदले नाटककारों से अपनी रुचि और दृष्टि के अनुरूप पाठ में बदलाव और संपादन की छूट चाहते रहे हैं। दूसरी ओर नाटककार नाट्यालेख की मूल भाव-सम्पदा को नष्ट करनेवाले बदलाव और सम्पादन की मनमानी का आरोप निर्देशकों पर लगाते रहे हैं। यह विवाद बहुत नया नहीं है, पर यह सच है कि इसके कारण लेखकों में नाट्यलेखन के प्रति उत्साह कम होता गया है। नाटक एक सामूहिक कला है, जिसे अपनी सम्पूर्ण यात्रा में कई पड़ावों से होकर गुज़रना पड़ता है। यहाँ दम्भ का कोई स्थान नहीं। पर हिन्दी रंगमंच पर एक लम्बे समय से यह दम्भ काबिज़ है। यही दम्भ एक ओर निर्देशक को उसकी रचनाशीलता के स्पर्श से नाट्यालेख को अलग रखना चाहता है, तो दूसरी ओर लेखक को दूसरे दर्जे़ की नागरिकता देकर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है। इसका ही प्रतिफल है कि रंगमंच पर दोहरी मार पड़ रही है। कुछ लेखकों ने नाट्यालेखन से तौबा कर ली है और कुछ लेखकों के नाटकों की पाण्डुलिपियाँ मंचन की प्रतीक्षा कर रही हैं या प्रकाशित होकर गोदामों की शोभा बढ़ा रही हैं। कई नाट्यालेख ऐसे हैं जो किसी निर्देशक के रंगानुभव और रचनात्मकता के हल्के स्पर्श से दीर्घ जीवन पा सकते हैं। पर निर्देशक अपने दम्भ में उन्हें छूना नहीं चाहता और लेखक इस भय से किसी निर्देशक को छूने नहीं देता कि कहीं वह नाटक ही न हड़प ले। लेखक अपनी विधा बदलकर अपनी रचनात्मक भूख और तृषा शांत कर सकता है, पर नाट्यनिर्देशक क्या करे? परिणामतः कई निर्देशकों ने रंगमंच पर शब्दों की उपस्थिति को ही नकारना शुरु किया और आंगिक गतियों-मुद्राओं-चेष्टाओं मात्र से रंगभाषा विकसित कर नाट्य रचने का प्रयास किया। पर एक-दो नाटकों के बाद ही ऐसी प्रस्तुतियों की सीमाएँ प्रकट होने लगीं और उनके निर्देशकों की रचनात्मक प्रतिभा की पोल खुलने लगी। कुछ ने साहित्य की अन्य विधाओं का आधार लेकर प्रस्तुति-आलेख तैयार किया और उन्हें मंचित किया। पर विधाएँ जब अपना रूप बदलती हैं, उनकी बाहरी ही नहीं आंतरिक संरचना भी टूटती है; और रचना में निहित भावों और सम्वेदनाओं को नए रूप में उनकी मौलिक त्वरा के साथ जीवंत बनाए रखना सहज-सरल नहीं होता। साथ ही दर्शक भी रचना के पुराने रूप के प्रभाव में बँधा हुआ प्रेक्षागृह तक आता है और प्रस्तुति में वही सब जाने-अनजाने तलाशता है, जो उसने उस कविता-कहानी या उपन्यास में पाया होता है। कई महत्त्वपूर्ण उपन्यासों के नाट्यरूपांतरण दर्शकों द्वारा नकारे जा चुके हैं। निर्देशकों द्वारा विकसित नाट्यालेखों के दम पर जैसे-तैसे घिसटते हुए हिन्दी रंगमंच के साथ एक और सच जुड़ा हुआ है। अधिकांश निर्देशक परियोजना आधारित रंगकर्म कर रहे हैं। उन्हें अपनी स्वीकृत परियोजना के लिए नाट्यालेख की आवश्यकता होती है। अब यह आवश्यक नहीं कि नाटककार अपनी रचनात्मकता की बलि देकर उनकी परियोजना का हिस्सा बने और नाटक रचे। इन परियोजनाओं में धन की प्रभावकारी भूमिका होती है और समय का अभाव होता है। ऐसे में आनन-फ़ानन में कुछ भी मंचित कर धन सहेज लेने की प्रवृत्ति भी कुछ निर्देशकों को नाटककार बनने के लिए विवश करती है।

     यह एक ग़ैररचनात्मक और भयावह स्थिति है। हिन्दी रंगमंच को इससे उबरना होगा। रंगमंच एक जनतांत्रिक कला है। एकाधिकार, शुचितावाद और श्रेष्ठतावाद से उबरना होगा। नाटक और रंगमंच न तो अकेले लेखक का है और न ही  निर्देशक का। यहाँ हर प्रकार के अहं की हवि देनी होती है। नाटककार या रंगनिर्देशक के अहं से रंगमंच के सामाजिक सरोकार बड़े हैं। अगर रंगमंच को अपने सरोकारों का निर्वहन करना है और अपने प्रयोगों-नवाचारों से रंगपरिदृश्य को गतिशील बनाए रखना है, तो इसे अपने सारे बन्द दरवाज़ों और खिड़कियों को खोलना होगा ताकि; नए विचारों, नई रचनात्मक चुनौतियों, नई प्रतिभाओं और सहयोगी कलाओं की दुनिया से नए अनुभवों की आवाजाही बनी रहे।

सम्पर्क: 09973494477

 
      

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