नीलिमा चौहान की पतनशील सीरिज़ हिंदी के स्त्री विमर्श की जड़ता को तोड़ने वाली किताबें हैं। पतनशील पत्नियों के नोट्स और ऑफ़िशियली पतनशील ने भाषा विमर्श के नए मेयार बनाए। आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर उनकी पुस्तक का यह अंश- मॉडरेटर
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जिनको यकीन है कि दफ्तरों में गर औरतें हुईं तो या तो सेक्स रहेगा या सेक्सुअल हैरास्मेंट । जिनको लगता है कि दफ्तरवालियाँ या तो रंडियाँ होती हैं या बस चंडियाँ । जिनको कामकाज को निकली घरवालियों में कोठेवालियों का धोखा होता है । जिनको आती हुइयों का सीना और जाती हुइयों का पिछवाड़ा नज़र के इंचीटेप से नापे बगैर करार नहीं मिलता है । जिनको ” इस हाथ दो उस हाथ लो मेरी रानी ” के गुप्त आदियुगीन फलसफे पर अन्धा यकीन है । जिनको अपनी जिज्ञासा और इस फलसफे का खुलासा करने को अपनी आँख , हाथ , ज़बान आदि का इस्तेमाल करने की खुरक उठती है । उन- उन को मश्विरा है कि सीने पर दबाव महसूस होने के चलते ऑक्सीज़न मास्क का इस्तेमाल करें । सच का दबाव साँसलेवा हो सकता है ।
हाँ तो मदाम ! गर आप बाहर से तंगपोश और भीतर से तंगहौसला हैं । गर आप काम के हौव्वे को अपने चेहरे- मोहरे पर आने से रोक पाती नहीं । गर आप अपनी डील- डौल से आदर्श कुनबापरस्त होने को छिपाना जानती नहीं । गर आप अगल- बगल की सीटों से आती छींटाकशी पर कान देने से बाज़ आने पाती नहीं । गर आप सुकुमारी , काम की मारी , बेचारी , हारी दिखाई -सुनाई देती हैं । गर आप दफ्तर की नई – नवेली- अलबेली चिड़ी जान पड़ती हैं – तो ज़ाहिर तौर पर आप मर्दाना पेशवराना हुकूमत की आदर्श रिआया हैं ।
गर आप बाहर से दिक्कतपसंद और भीतर से हौसलाबुलंद हैं । गर आप साथी कामकाजी बंदों पर तेज़ तर्रार पेशेवराना जंगई करने से खुद को रोक पाती नहीं । गर आप चपल, चतुर , वाचाल, चंडिकामय तेरवरबाज़ी दिखाने में मिनट लगातीं नहीं । गर आप महकमे में कहकहेबाज़ी , चालबाज़ी , अड़ंगेबाज़ी को मुल्तवी करने पाती नहीं । गर आप घाघ , घुटी और घरैतनी सभ्यता का मज़ाक उड़ाने वाली अदाएँ पेश करने में हिचकती नहीं । तो भी आप यौन सितम ढहाए जाने के लिए थोड़ा कड़ा लेकिन आदर्श पात्र हैं ।
ज़नाना लोग के दफ्तरी यौन शोषण के पीछे औरताना बेवकूफियों और कारगुज़ारियों की फेहरिस्त आपकी ओर से मैं ही जारी किये देती हूँ _
दफ्तरों में ज़्यादातर रईसजादी हुस्नज़ादी या घर से परेशान हरामज़ादी आया करती हैं ।
लाली लिपिस्टिक या तो कम या बहुत तेज़ लगाया करती हैं बीच- बीच की लगाना जो सबको सूट करे और जितने पे मादकता मत भड़के लगानी आती नहीं ।
अपनी नेकी- बदी जानती नहीं । समझाओ तो समझती नहीं उल्टे काटने दौड़ती हैं ।
आप तो रंग- बिरंगी तितलियाँ बनी दफ्तर को चली आती हैं हम भौरें बनें तो गवाराँ करती नहीं ।
सीधे- सीधे कुछ बोलती बताती नहीं बात को आड़ी – तिरछी घुमाती दफ्तरियों को छ्काती हैं ।
अफसर के केबिन में इतराती जाती हैं और तिलिस्मी तरीके से मुस्काती आँख मटकाती बाहर आती हैं ।
चार जनियों से घुट- घुट बहनापा आठ से खिटपिट स्यापा पाले रखती हैं ।
हवाखोरी , नाज़ुकमिज़ाज़ी , तुनकमिज़ाज़ी , कोताही ,मनाही – काम की जगह ये सब किया करती हैं ।
कामकाज को मर्दों की टक्कर में अंजाम देने के बजाय अपने आराम सहूलत ऎश पर ज़्यादा ध्यान दिया करती हैं ।
ऑफिस का ओएसिस बनती फिरती है पर हाथ डाल दो मृग मारीचिका बंकर चंपत हो रहती हैं ।
बात बे बात टसुए बहाकर अगले बंदों को सांसत में, शर्म में , अपराध- बोध में मारे डालने का त्रिरिया करती हैं ।
उम्रदराज़ बॉस को ससुर या पिता होने का । बाली उमर का हो तो देवर होने का । जो ठीक ठाक उम्र का हो तो खसम होने का धोखा दिए रहती हैं ।
अफसर जो ज़नाना हो तो ( किसी भी उम्र की ) तो सास बनाकर सर पर बैठाकर बाकियों की मिट्टी पलीत कराती फिरती हैं ।
, नियम- वियम सख्ती — वख्ती का माहौल बनवा दो तो चूँ चूँ करने पर उतर आती हैं ।
अपने दो गुप्त अंगों के ललचावे में लाकर भुलावे में रखती चलती हैं और आखिरकार टरकावे की हालत में लाकर यू टर्न ले लेती हैं ।
तेज़ाबियत की बात है पर पूछना बनता है कि दफ्तरी सेक्स सितम की रवायत का लाभ उठाने को नर की तरह मादाएँ भी अपना अख़्तियार मानती क्यों नहीं । पर जनाब आजतक बड़ी से बड़ी साइंसी तरक्की बता पाई नहीं कि नर यौन- शोषण का ग्राफ मादा यौन शोषण ग्राफ का रत्ती भर भी मुकाबिला आखिर कर क्यों नहीं सक रहा । जिस्म दोनों के पास । आग दोनों में । पद की हैसियत दोनों पे । पर नारी की तरफ से कामकाजी नर का शोषण ए यौन सुना गया नहीं । मुख़्तसर सी बात है जो साइंस के पेच लड़ाए बिना ही समझ आ सकती । कुव्वत और इरादा जिसका इलाका उसका । आपने गाड़ियों के चक्कों पर मूतते और मुंह उठाकर भूँकते कुक्कड़ो की माफिक । अपने इलाके की धेराबंदी और उसपर हक ओ हुकूमत का डंका पीटते रहने का एक अचूक मर्दाना रामबाण – औरत को मनोरंजन से लेकर यौनरंजन तक का सामान बनाए रखने की अहमियत समझो । उसे यौनिक हमलावरी के हौव्वे में घेरो । उसके दिल ओ दिमाग को अपनी सरपरस्ती में रहने को मजबूर बनाए रखो ।
मैं दम लगाना चाहती हैं आप देह लगवाना चाह्ते हैं । मैं देह से उठकर बुद्धि होना चाहती हैं आप मुझे मेरी देह में कैद कर देने में अपनी आधी ताकत झोंके रखते हैं । मेरी नज़र में आपका यह अव्वल दर्जे की असुरक्षा से घिरे होना है । इस सदी में भी आपकी समझदानी का दो टाँगों के बीच दुबके होना । अपनी बुद्धि और देह का आतंक देखने की लत का शिकार हुये रहना । आप अपनी कमाई से सब खरीदना चाहते हैं – आराम से ल्रेकर शोहरत तक , अदब से लेकर ताकत तक , ग्लैमर से लेकर सेक्स तक । नेकनामी से लेकर बदनामी तक भी । लत से लेकर ऐब तक भी । हिम्मत से लेकर हिमाकत तक । पर जनाब मेरी नज़रों में अपने लिए इज़्ज़त खरीद पाते तो कुछ और बात होती ।
ए मिस्टर ! सुनते जाइऎ कि पेशेवर को पेशेवाली की हैसियत में उतारने के पैंतरे , हौव्वे इस्तेमाल हो होकर इतना घिस चुके हैं कि असर करते हैं नहीं । जिस दिन मेरी नैतिकता ने आपकी नैतिकता की बराबरी कर ली उस दिन हो सकता है दुनिया ही ज़मीदोज़ हो जाए और फिर नई दुनिया की नींव रखी जाए ।
यूँ कि आप पर बस हँसा ही जा सकता है । आपसे खौफज़दा होना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है।
आयँ ये क्या बोल गई मैं ? मैं फायर तो नहीं ?
बेबाक और रोचक लेखन। आभार।