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मनोज कुमार पांडेय की कहानी “बिना ‘काम’ के जीवन”

मनोज कुमार पांडेय समकालीन कथाकारों में अपने राजनीतिक स्वर के कारण अलग से पहचाने जाते हैं। उनका कहानी संग्रह ‘बदलता हुआ देश’ राजकमल प्रकाशन से इसी साल प्रकाशित हुआ है। उसी संग्रह से एक कहानी पढ़िए- मॉडरेटर

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स्वर्णदेश के लोगों को ‘काम’ के बारे में बात करना बिलकुल भी पसन्द नहीं था। उनके लिए यह बहुत ही गंदी बात थी। स्वर्णदेश के लोगों का चरित्र इतना उज्ज्वल और निर्मल था कि वे गंदी चीजों से दूर ही रहते थे। यह अलग बात है कि गंदी चीजें जैसे उनकी परीक्षा लेने के लिए दिन-रात उनका पीछा करतीं। स्वर्णदेश के लोग कई बार भागते-भागते थक जाते तो गंदी चीजों के साथ चलना शुरू कर देते। इसके बावजूद वे गंदी चीजों से पूरी तरह निर्लिप्त बने रहते।

घूस लेते, झूठ बोलते, कामचोरी करते, दिन-भर तरह-तरह के फरेब रचते, बेवजह दूसरों को नुकसान पहुंचाते। अपने फायदे के लिए लोगों की हत्या तक कर देते। इसके बावजूद अपनी आत्मा पर कोई दाग नहीं लगने देते। ये सारे काम वे प्रभु की इच्छा मानकर, प्रभु का नाम जपते हुए बहुत ही निर्लिप्त भाव से करते। प्रभु से स्वर्णदेश के लोगों का सीधा संवाद था। प्रभु भी सारी चीजों से निर्लिप्त ही रहते, इसलिए प्रभु का मान-सम्मान जस का तस बना रहता बल्कि बढ़ता ही जाता।

पर एक ‘काम’ ऐसा था जिसे करते हुए लोगों से प्रभु का नाम न लिया जाता। इसलिए लोग जल्दी से जल्दी इस काम को निबटाना चाहते। चूंकि यह कुछ इस तरह का काम था कि इसके लिए दो लोगों की जरूरत होती थी। तो कई बार जब दूसरा सहयोग न देता तो वे जबरदस्ती करते। इस तरह से अनेक लोगों को जबरदस्ती की आदत पड़ गई। अब उन्हें काम में सुख ही तब मिलेगा जब वह जबरदस्ती करते। बल्कि सामनेवाला जितना विरोध करता या चीखता-चिल्लाता, उन्हें उतना ही सुख मिलता।

वे यह सब अपने सुख के लिए नहीं करते थे। देखने में भले ऐसा लगता कि सामनेवाले को कोई सबक सिखाना चाहते हों पर वे एकदम निर्लिप्त भाव से प्रभु की इच्छा मानकर अपने कर्तव्य का निर्वाह करते। और प्रभु थे कि अपने भक्तों से भी ज्यादा निर्लिप्त बने रहते। वे पीड़ा भरी चीख और उन्माद-भरी सिसकारी में कोई अन्तर न कर पाते। इसलिए यह भी पता नहीं चल पाता कि वह अपने कुछ भक्तों के दुख से दुखी हैं या दूसरे कुछ भक्तों के सुख से सुखी।

इस सबके बावजूद यह प्रभु की लीला ही थी कि ऐसे लोगों की संख्या आधी से भी कम थी जिन्हें काम में जबरदस्ती करके सुख मिलता था। आधे से ज्यादा लोगों ने तो एकदम उल्टा ही काम किया था। उन लोगों ने वह काम करना ही बन्द कर दिया। न सिर्फ काम करना बन्द कर दिया बल्कि काम के बारे में किसी भी तरह की बात तक करनी बन्द कर दी। इस तरह से स्वर्णदेश के आधे से ज्यादा लोग धीरे-धीरे भूल ही गए कि ऐसा भी कोई काम होता है जो किया जाता है।

 इससे स्वर्णदेश के प्रभु के यहाँ हाहाकार मच गया। प्रभु हालाँकि खुद भी स्वर्णदेश की समस्याओं से निर्लिप्त ही रहते थे पर इस बार तो ऐसी समस्या सामने भी खतरे में पड़ गया था। जब भक्त ही कम होते जाएँगे तो प्रभु भला किनके हृदयों में रहेंगे? प्रभु को पहली बार स्वर्णदेश के लोगों पर क्रोध आया, पर जल्दी ही वह अपने क्रोध को पी गए। यह समय क्रोध करने का नहीं था, यह धैर्य रखने का समय था।

स्वर्णदेश बना रहे, इसके लिए प्रभु ने कई स्तरों पर व्यवस्था की। पहले स्तर पर उन्होंने नींद को निशाना बनाया उन्होंने बहुतेरे लोगों को नींद में ही काम करने के लिए प्रेरित करना शुरू किया। लोग नींद में ही काम कर जाते और उन्हें पता भी न चलता। इस प्रक्रिया में दूसरे साथी की नींद जरूर उड़ जाती। जब काम के बाद एक बगल में खर्राटे ले रहा होता तो दूसरा सूनी आँखों से निर्वात में न जाने क्या खोज रहा होता!

इसमें एक और बड़ी समस्या सामने आई। चूँकि इस काम के माध्यम से प्रकृति अपने को नये-नये रूपों में रहती थी सो जाहिर है कि नींद में किये गए काम के फलस्वरूप भी नये-नये इंसानी प्रतिरूप सामने आए। स्वर्णदेश की धरती पर ले आने का काम दो इनसानों ने मिलकर या होता। पर मुश्किल यह थी कि काम के समय दूसरा नींद में होता इसलिए उसे कुछ याद ही न होता। ऐसी स्थिति में वह अपने साथी पर शक करता और स्थिति भयावह होती जाती। जबकि साथियों के लिए स्थिति पहले ही कुछ कम भयावह न होती।

प्रभु परेशान हो गए। ऐसे तो स्वर्णदेश कलहदेश बन जाएगा। तब उन्होंने काम के सन्दर्भ में दूसरा प्रयोग करने की ठानी। उन्होंने स्वर्णदेश की प्रकृति को मोहक और मादक बनाना शुरू किया। थोड़े ही दिनों में स्वर्णदेश की प्रकृति कुछ इस तरह से हो गई कि हर चीज लोगों को बस काम की ही याद दिलाती हुई प्रतीत होती। लोग जिधर जाते, उधर ही प्रकृति अपना सम्मोहन जाल पसारती नजर आती। लोग इधर-उधर भागते पर आखिर भागकर वे कहाँ जाते! दुनिया में स्वर्णदेश जैसा कोई देश भी तो हो!

लोग काम से हर हाल में बचना चाहते लेकिन वे प्रकृति द्वारा मजबूर कर दिये जाते। ऐसे में जब उनके सामने कोई और चारा न बचता तब उनकी कोशिश होती कि वह जल्दी से जल्दी इस गंदे काम से निवृत्त होकर निकल भागें। यहाँ तक कि काम के समय भी वे इस बात की पूरी कोशिश करते कि साथी की छाया तक उनके ऊपर न पड़े। इसलिए वे हर हाल में ऊपर ही रहना चाहते। ऊपर रहने का एक लाभ यह भी था कि उन्हें काम के तुरन्त बाद बगल में लुढ़क जाने या उठकर भाग जाने में आसानी होती।

इस प्रक्रिया में भी बहुत सारी मुश्किलें सामने आई। प्रभु की समझ मही नहीं आ रहा था कि स्वर्णदेश की व्यवस्था को फिर पटरी पर कैसे ले आएँ। कई तरह के प्रयोग वे करके देख चुके थे पर किसी प्रयोग का नतीजा ऐसा नहीं निकला था कि वह स्वर्ण दिशा की तरफ से निश्चिन्त होकर फिर से पहले की तरह निर्लिप्त हो सके। वे बहुत देर तक इस बारे में सोचते रहे। जब इस समस्या का कोई समाधान नहीं सूझा अचानक उन्हें क्रोध ने घेर लिया।

क्रोध में प्रभु बेकाबू हो उठे। उन्होंने श्राप दिया कि स्वर्णदेशी जो लोग मेरे द्वारा रचे गए काम की अवहेलना कर रहे हैं, वे सदा के लिए काम के सही सुख से वंचित हो जाएँ। वे तीनों लोकों में भटकते फिरें तब भी उन्हें यह सुख कभी नसीब न हो। वे जन्म-जन्मान्तर तक अतृप्ति के भवसागर में भटकें और उन्हें प्रभु के बारंबार नाम जपने का भी कोई फल न प्राप्त हो। उन्हें जीते-जी प्रेत-योनि प्राप्त हो। श्राप देने के बाद प्रभु का क्रोध समाप्त हो गया। तब उन्हें दोबारा स्वर्णदेश की चिन्ता ने घेर लिया। स्वर्णदेश की स्थिति पहले ही बहुत खराब थी। इस श्राप के बाद तो स्वर्णदेश एकदम से ही नरक में बदल जाएगा। प्रभु को अपने श्राप के लिए पछतावा हुआ, पर अब वे इस बारे में कुछ भी नहीं कर सकते थे। जल्दी ही पछतावा दुख में बदल गया। प्रभु की आँखों में स्वर्णदेश के लिए आँसू थे।

प्रभु जब इस दुख से बाहर निकले तब उन्होंने देखा कि उनके आसपास तरह-तरह के रत्नों का ढेर इकट्ठा हो गया था ये प्रभु के आँसू थे जो नीचे गिरते ही रत्नों में बदल गए थे। प्रभु यह भी जानते थे कि स्वर्णदेश के लोग इन रत्नों के पीछे किस तरह से पागल हैं। वे इन्हें चमत्कारी मानते हैं और तरह-तरह से धारण करते हैं। और तब प्रभु को यह भी याद आया कि स्वर्णदेश के लोग अपने प्रभु से भी ज्यादा चमत्कारों में भरोसा करते हैं।

‘अब स्वर्णदेश को चमत्कार ही बचाएंगे, ‘ प्रभु ने मुस्कुराते हुए सोचा। प्रभु को बहुत दिनों बाद इतनी खुशी मिली। उन्हें वह तरीका मिल गया था जो स्वर्णदेश के लोगों पर बिजली की तरह असर करनेवाला था प्रभु मुस्कुराए और मुस्कुराते हुए ही उन्होंने प्रकृति के कानों में एक मंत्र फूंका। प्रकृति प्रभु की तरफ देखकर बदमाशी से मुस्कुराई और स्वर्णदेश की तरफ उड़ चली।

इसके बाद तो स्वर्णदेश में कमाल ही हो गया। नया जीवन नई-नई तरह से और नये-नये रूपों में प्रकट होने लगा। जो काम पहले सभी लोगों को करना होता था अब उसके लिए प्रकृति ने अपने कुछ एजेट नियुक्त कर दिये थे अब यह काम किसी बाबा के आशीर्वाद से या किसी फकीर के दिये मोरपंखी से या किसी साधु की भभूत से भी हो जाता था। मजारों के आसपास बहती हुई हवा भी इस लिहाज से एकदम गारंटीवाला काम करती थी।

ऐसे में वे लोग बहुत खुश हो गए थे जिन्हें स्वर्णदेश को जीवित रखने के लिए इस तरह के काम  मजबूरी पड़ते थे। अब वे इस तरह की चीजा से पूरी तरह से निर्लिप्त रहकर कुछ दूसरे काम कर सकते थे जिनमें उनका मन लगता था। वैसे भी जब यह काम दूसरे तरीकों से बहुत ही आसानी से सम्भव था तो फिर यह सब करके अपनी आत्मा तक में दाग लगा लेने की क्या जरूरत थी?

प्रकृति इतने पर ही नहीं रुक गई थी। प्रभु का दिया हुआ वह बदमाश से कारगर हुआ कि स्वर्णदेश के लोगों की संख्या दिन दूनी रात चौगुनी की गति से बढ़ने लगी। कोई रोता और उसके आँसुओं से उसका प्रतिरूप उसने स्वर्णदेश के कोने-कोने में फूंक दिया था। यह मंत्र कुछ इस तरह प्रकट हो जाता। कोई कान साफ करता और कान से खूँट की जगह पर उसका प्रतिरूप निकलता। कोई रात में काम के बारे में कोई सपना देखता और सुबह अपना कोई प्रतिरूप अपनी बगल में पाता। यह तो कुछ भी नहीं था। कोई लड्डू खा रहा होता और लड्डू का टुकड़ा कहीं जमीन पर गिर जाता। उसे जो कोई भी कीड़ा-मकोड़ा खाता, उसकी बगल में लड्डू खाने वाले का एक नन्ह प्रतिरूप प्रकट हो जाता। लोग फूल सूंघते और फूल सूंघते समय भीतर ले गई हवा जब बाहर निकलती तो उसके साथ फूल सूँघनेवाले क नन्हा सा प्रतिरूप प्रकट हो जाता।

ऐसे ही कोई नदी में नहाना तो नदी की मछलियों के पास उसके प्रतिरूप प्रकट हो जाते। पसीने की बूंद जमीन पर गिरने अदृश्य जीवाणु द्वारा से एक नन्हा-सा प्रतिरूप प्रकट हो जाता। स्वर्ण देश के लोग परम खुश हुए। उन्होंने खुशहाली का उत्सव मनाया। नन्हे प्रतिरूप बिना रुके आते ही जा रहे थे इसलिए यह उत्सव कभी भी नहीं समाप्त हुआ।

चूँकि इनसानी प्रतिरूपों के आने का माध्यम स्वर्णदेश के को तमाम दृश्य-अदृश्य प्राणी बने थे इसलिए जितनी मिश्रित नस्लें देश में विकसित हुईं, उतनी शायद ही दुनिया के किसी कोने में सम्भव हो हों। जैसे ही अवसर आता, वह अपने सही रूप में प्रकट हो जातीं। कोई इनसान दिखता रहता और अचानक से अपने को गधा घोषित करते हुए रेंकने लगता। लोग अचानक से तिलचट्टे, केंचुआ या भेड़िये में बदल जाते। वे जोरों से डंक मारते, पर उनका डंक कहीं दिखाई न देता।

स्वर्णदेश चमत्कारों का देश था इसलिए लोगों ने इसे पूरी तरह से स्वाभाविक तरीके से लिया। वे गर्वीले लोग थे इसलिए इस बात पर गर्व से भी भर गए कि उनके प्रभु ने इनसानी नस्ल को जितनी विविधता स्वर्णदेश में दी है, उतनी दुनिया के किसी भी देश को नहीं नसीब हुई। उन्होंने मिलकर जोरों से प्रभु का जयकारा लगाया। प्रभु अपने भक्तों के इस जयकारे से प्रसन्न हुए और निर्लिप्त भाव से मुस्कुराए।

 
      

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