अशोक वाजपेयी हिंदी के सबसे पढ़ाकू लेखक हैं। विश्व साहित्य का उनका संग्रह और ज्ञान अनुकरणीय है। इस उम्र में भी उनकी सक्रियता, उनका अध्ययन प्रेरक है। लॉकडाउन के दौर में जानकी पुल ने उनसे कुछ सवाल किए और उन्होंने जो जवाब दिए उसका पहला प्रभाव मेरे ऊपर यह पड़ा कि उनकी द्वारा गिनवाई गई किताबों को मैं नेट पर खोजने लगा। आधी रात तक दो किताबें मेरे एक मित्र ने ईपब फ़ोर्मेट में भेज दी। व्लादिमीर नोबाकोव की ब्लादिमीर नाबाकोव की गद्य-पुस्तक ‘थिंक, राइट, स्पीक’ और जूलियन बर्न्स का उपन्यास ‘दि ओनली स्टोरी’। ईपब फ़ोर्मेट फ़ोन पर किताब पढ़ने के लिए आइडियल फ़ोर्मेट है। बाक़ी किताबों की तलाश जारी है। बड़े लेखक यही करते हैं, आपको कुछ लिखने कुछ नया पढ़ने की प्रेरणा दे जाते हैं। आप अशोक जी की यह बातचीत पढ़िए- प्रभात रंजन
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1.आप आजकल क्या पढ़ रहे हैं?
अशोक जी– पढ़ने, कुछ पुस्तकों-चित्रों आदि की सफ़ाई करने, धूल झाड़ने और सुबह-शाम अपनी हाउसिंग सोसायटी में 5-6 किलोमीटर की सैर के अलावा कुछ ख़ास नहीं कर रहा हूँ. तीन सप्ताह से घर में हूँ तो हर दिन बड़ी बेचैनी, घबराहट होती है.
बहुत सारी पुस्तकें हैं, अनपढ़ी- अधपढ़ी. सो उन्हें पढ़ने की कोशिश करता रहता हूँ. सूसन सोण्टैग की विशाल जीवनी पढ़ डाली, ईराकी कवियत्री दुन्या मिखाइल, मोरक्कन कवि अब्दललतीफ़ लरबी, पुर्तगाली कवि यूजोनीओ द’ अन्द्रादे, फ़्रेंच कथाकार मार्सेल प्रूस्त की कविताओं के संग्रह आदि उलट-पुलट रहा हूँ. बीसवीं शताब्दी की कविता पर ब्रिटिश कवि जॉन बर्नसाइड की एक आलोचना पुस्तक क़िस्तों में पढ़ रहा हूँ और ऑडेन पर एक आलोचना पुस्तक भी इसी तरह. वामन हरि देशपांडे की पुस्तक ‘घरानेदार गायकी’, सुधीरचंद्र द्वारा लिखित चित्रकार भूपेन खख्खर की जीवनी भी धीरे-धीरे पढ़ रहा हूँ. उदयन वाजपेयी का उपन्यास ‘क़यास.’ पूरा पढ़ लिया, अनामिका का ‘आईनासाज़’ ख़त्म होने को है. जूलियन बर्न्स का उपन्यास ‘दि ओनली स्टोरी’ भी निकालकर पढ़ने रखा है. पीयूष दईया का संग्रह ‘त(लाश)’ पढ़ गया और रहीम पर हरीश त्रिवेदी का रोचक और कुछ नयी समझ देने वाला निबंध भी. ब्लादिमीर नाबाकोव की गद्य-पुस्तक ‘थिंक, राइट, स्पीक’ से कुछ निबंध और इंटरव्यू पढ़ गया हूँ.
2. महामारी और लॉकडाउन के इस दौर में आपको किसी किताब की याद आ रही है?
अशोक जी– पुस्तकें तो बहुत सारी याद आती हैं. उनकी सूची इतनी लम्बी है कि दूसरों के लिए उबाऊ होगी या आत्मप्रदर्शन करने जैसी लगेगी. जैसे रिल्के की ‘दुयोनो एलिजीज़’ के मेरे पास 7-8 अंग्रेज़ी अनुवाद हैं पर वे कहाँ एक साथ पड़े हैं, जिन्हें पर पुस्तकों की क़तार-पीछे-क़तार में खोजने में मुश्किल हो रही है. पुस्तकें भी लेखकों से लुका-छिपी का खेल खेलती हैं!
3.फ़ेसबुक का उपयोग करते हुए आपको कैसा लग रहा है?
अशोक जी– मुझे फ़ेसबुक पर कुछ ख़ास करना सिरे से नहीं आता. मैं नयी टेक्नॉलजी के इस्तेमाल और हुनर में निंदनीय रूप से पिछड़ा और अक्षम हूँ. कभी-कभी संक्षेप में कोई टिप्पणी भर करने के क़ाबिल हूँ: इसलिए फ़ेसबुक पर नहीं के बराबर हूँ.
4. क्या आप ऑनलाइन किताबें भी पढ़ पाते हैं?
अशोक जी– क़तई नहीं. उसकी कभी ज़रूरत भी नहीं लगी. पुस्तकें अधिकतर ख़रीदकर अपने निजी संग्रह से ही पढ़ने की आदत है – मैंने पुस्तकालय में बैठकर पुस्तकें बहुत कम पढ़ी हैं.
5.कविता आच्छादित इस काल में कविता का भविष्य आपको कैसा लगता है?
अशोक जी– भविष्यवक़्ता नहीं हूँ – इतना भर है कि मनुष्यता के ज्ञात इतिहास में कोई भी समय कविताविहीन नहीं रहा है. इस समय सारे संपर्क बहुत क्षीण- शिथिल- विफल होने के कारण शायद कविता का संक्षिप्त कलेवर कुछ अधिक प्रासंगिक लगने लगता है. हो सकता है कि इस कारण स्थितियाँ सामान्य होने पर कुछ लोगों की कविता में इस समय पैदा हुई रुचि कुछ टिकाऊ हो जाये. पर ऐसा नहीं लगता कि कविता की समशीतोष्ण जलवायु में बहुत अंतर आयेगा. वह हमारे समय में अल्पसंख्यक है सो वही रहेगी.
6.ऑनलाइन पाठकों के लिए कोई संदेश?
अशोक जी- जो भी पाठक हैं वे ध्यान-समझ-संवेदना से पढ़ते रहें यही स्वस्तिकामना की जा सकती है: यह भी कि साहित्य इन्हें इस क्रूर- भयावह समय में मनुष्य बने रहने, सारे संपर्क लगभग टूट जाने के बावजूद संपर्क-संवाद, संग-साथ, पुरा-पड़ोस में भरोसा बनाये रखने, अनेक विकृतियों के बावजूद भाषा की सहज मानवीयता और विपुलता की सम्भावना को मिलाये रखने, आदमी के हर हालात में इंसान होने की ज़िद को टिकाये रखने में मदद करता रहेगा.